अहमद फ़राज़ शायरी व जीवनी, जज़्बात का शायर

 अहमद फ़राज़ - एक अद्वितीय शायर जिन्होंने शायरी की दुनिया में अपनी छाप छोड़ी।
अहमद फ़राज़ जी का जन्म 12 जनवरी, 1936 को जिला होशियारपुर , पंजाब में हुआ।
 उनकाअस्तित्व उर्दू एवं हिंदी साहित्य को नए आयाम देने वाले रहे हैं। उन्होंने अपने
 जीवन के सभी मोड़ोंपर जबरदस्त कविताएँ रचीं, जो अपनी अनूठी शैली और गहराई 
के लिए जानी जाती हैं।




अहमद फ़राज़ जी का जन्म 12 जनवरी, 1936 को जिला होशियारपुर , पंजाब में हुआ।
 उनकाअस्तित्व उर्दू एवं हिंदी साहित्य को नए आयाम देने वाले रहे हैं। उन्होंने अपने
 जीवन के सभी मोड़ोंपर जबरदस्त कविताएँ रचीं, जो अपनी अनूठी शैली और गहराई 
के लिए जानी जाती हैं।

 अहमद फ़राज़ शायरी व जीवनी,

 जज़्बात का शायर 

उनकी कविताएँ दिल और रूह की गहराइयों को छूने के साथ-साथ, समाज की विभिन्न 
मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करती हैं। उन्होंने प्रेम, इंसानियत, वतनपरस्ती और जीवन की
 विभिन्न पहलुओं को अपनी शायरी बाखूबी बयान किया हे 




जीवन परिचय 

नाम- सैयद अहमद शाह 
उपनाम- 'तखल्लुस' फ़राज़ 
पिता का नाम - सैयद मुहम्मद शाह बर्क
संतान- पुत्र -सादी, शिबली एवं सरमाद फ़राज़
जन्म- 14 जनवरी सन 1931
जन्म स्थान- कोहाट, उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रांत, पाकिस्तान
शिक्षा - एडवर्ड कालेज पेशावर,M.A. उर्दू ,M.A. फ़ारसी 
व्यवसाय – अध्यापक, उर्दू कवि,
मृत्यु (वफ़ात ) 25 अगस्त, सन 2008 को इस्लामाबाद में हुई
प्रकाशित पुस्तकें - खानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी,दर्द आशोब,ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में


पुरुस्कार व सम्मान 

1- पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ पुरस्कार से अलंकृत किया, 
जो की फ़राज़ साहब ने पाकिस्तान सर्कार की नीतियों के वरोध में लौटा दिया  
2-सितारा  -ए -इम्तियाज़
3-हिलाले -ए -पाकिस्तान,मरणोपरान्त
4-एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने




रोमांटिक शायर अहमद फराज साहब की मकबूलियत का कोई सानी नहीं है।
एक इंटरव्यू में एक किस्सा याद करते फ़राज़ साहब ने बताया कि एक बार अमेरिका
 में उनका मुशायरा था, जिसके बाद एक लड़की उनके पास आटोग्राफ लेने आयी। 
नाम पूछने पर लड़की ने कहा फराज़ा
फराज़ ने चौंककर कहा यह क्या नाम हुआ!? तो बच्ची ने कहा ,मेरे मम्मी पापा के 
आप पसंदीदा शायर हैं। उन्होंने सोचा था कि बेटा होने पर उसका नाम फराज़ रखेंगे।
 लेकिन बेटी पैदा हो गयी तो उन्होंने फराज़ा नाम रख दिया-ये भी पढ़ें 


अहमद फ़राज़ साहब की कुछ ग़ज़लें और नज़्मे 

1-ग़ज़ल 

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से 

सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की 

सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ 

सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 

ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 

सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 

सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें 

सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की 

सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है 

सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं 

सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की 

जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में 

मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 

पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं 

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है 

कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं 

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 

कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 

सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त 

मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं 

चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे 

कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं 

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही 

अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ 

'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 

2-ग़ज़ल 


आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो 

बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो 

जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा 

पर किताब-ए-इश्क़ का हर बाब मत देखा करो 

इस तमाशे में उलट जाती हैं अक्सर कश्तियाँ 

डूबने वालों को ज़ेर-ए-आब मत देखा करो 

मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब 

बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो 

हम से दरवेशों के घर आओ तो यारों की तरह 

हर जगह ख़स-ख़ाना ओ बर्फ़ाब मत देखा करो 

माँगे-ताँगे की क़बाएँ देर तक रहती नहीं 

यार लोगों के लक़ब-अलक़ाब मत देखा करो 

तिश्नगी में लब भिगो लेना भी काफ़ी है 'फ़राज़' 

जाम में सहबा है या ज़हराब मत देखा करो 

3-ग़ज़ल 

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा 

मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा 

दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें 

उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा 

हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद 

आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा 

बाग़बाँ गुलचीं को चाहे जो कहे हम को तो फूल 

शाख़ से बढ़ कर कफ़-ए-दिलदार पर अच्छा लगा 

कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे 

तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा 

हम भी क़ाइल हैं वफ़ा में उस्तुवारी के मगर 

कोई पूछे कौन किस को उम्र भर अच्छा लगा 

अपनी अपनी चाहतें हैं लोग अब जो भी कहें 

इक परी-पैकर को इक आशुफ़्ता-सर अच्छा लगा 

'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़' 

था तो वो दीवाना सा शा'इर मगर अच्छा लगा 

1 -नज़्म 

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा 

मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा 

दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें 

उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा 

हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद 

आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा 

बाग़बाँ गुलचीं को चाहे जो कहे हम को तो फूल 

शाख़ से बढ़ कर कफ़-ए-दिलदार पर अच्छा लगा 

कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे 

तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा 

हम भी क़ाइल हैं वफ़ा में उस्तुवारी के मगर 

कोई पूछे कौन किस को उम्र भर अच्छा लगा 

अपनी अपनी चाहतें हैं लोग अब जो भी कहें 

इक परी-पैकर को इक आशुफ़्ता-सर अच्छा लगा 

'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़' 

था तो वो दीवाना सा शा'इर मगर अच्छा लगा 

2 -नज़्म 

ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में

तमाम तेरी हिकायतें हैं

ये तज़्किरे तेरे लुत्फ़ के हैं

ये शे'र तेरी शिकायतें हैं

मैं सब तिरी नज़्र कर रहा हूँ

ये उन ज़मानों की साअ'तें हैं

जो ज़िंदगी के नए सफ़र में

तुझे किसी वक़्त याद आएँ

तो एक इक हर्फ़ जी उठेगा

पहन के अन्फ़ास की क़बाएँ

उदास तन्हाइयों के लम्हों

में नाच उट्ठेंगी ये अप्सराएँ

मुझे तिरे दर्द के अलावा भी

और दुख थे ये मानता हूँ

हज़ार ग़म थे जो ज़िंदगी की

तलाश में थे ये जानता हूँ

मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल में

दर्द की रेत छानता हूँ

मगर हर इक बार तुझ को छू कर

ये रेत रंग-ए-हिना बनी है

ये ज़ख़्म गुलज़ार बन गए हैं

ये आह-ए-सोज़ाँ घटा बनी है

ये दर्द मौज-ए-सबा हुआ है

ये आग दिल की सदा बनी है

और अब ये सारी मता-ए-हस्ती

ये फूल ये ज़ख़्म सब तिरे हैं

ये दुख के नौहे ये सुख के नग़्मे

जो कल मिरे थे वो अब तिरे हैं

जो तेरी क़ुर्बत तिरी जुदाई

में कट गए रोज़-ओ-शब तिरे हैं

वो तेरा शाइ'र तिरा मुग़न्नी

वो जिस की बातें अजीब सी थीं

वो जिस के अंदाज़ ख़ुसरवाना थे

और अदाएँ ग़रीब सी थीं

वो जिस के जीने की ख़्वाहिशें भी

ख़ुद उस के अपने नसीब सी थीं

पूछ इस का कि वो दिवाना

बहुत दिनों का उजड़ चुका है

वो कोहकन तो नहीं था लेकिन

कड़ी चटानों से लड़ चुका है

वो थक चुका था और उस का तेशा

उसी के सीने में गड़ चुका है


Conclusion :-

अहमद फ़राज़, एक आदर्शवादी और रोमांटिक कवि थे जिन्होंने अपनी कविताओं
 के माध्यम से सच्ची प्रेम की प्रशंसा की। उनकी कविताएं आंतरिक जीवन की भावनाओं
 को छूने वाली होती थीं और वे सर्वसाधारण मानवीय अनुभूतियों को सुंदरता से प्रकट करने 
का काम करते थे।

उनकी कविताओं में प्रेम का एक सुंदर आलेख होता है। प्रेम उनके लिए एक
 अनुभव है जो मन, आत्मा और जीवन की गहराइयों में उभरता है। वे प्रेम को
 संगीत और सुंदरता का रूप मानते हैं जो सभी जीवनी ऊर्जा को एकत्र करता है।
 प्रेम का तात्पर्य उनके शब्दों में अनंत शक्ति और संतुष्टि का प्रतीक है।

अहमद फ़राज़ के अनुसार, प्रेम एक मित्रता और समर्पण का रिश्ता है जो हमें खुशी
 और आनंद की ओर ले जाता है। वह आत्मा की गहराइयों में सत्यता और समर्पण की
खोज करने का प्रोत्साहन देता है। प्रेम के माध्यम से हम अपनी प्राकृतिक स्वभाव को
 शुद्ध करते हैं और दूसरों के साथ एक साझा जीवन का आनंद-ये भी पढ़ें 

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