परिचय
हफ़ीज़ मेरठी — जिनका असल नाम हफ़ीज़-उर-रहमान था — उर्दू अदब के उन बुलंद अदीबों में से एक थे, जिन्होंने अपने फ़न और अल्फ़ाज़ के जादू से शायरी को एक नई रूह बख़्शी। 10 जनवरी 1922 को मेरठ (उत्तर प्रदेश) की सरज़मीन पर पैदाइश पाने वाले हफ़ीज़ मेरठी ने 7 जनवरी 2000 को इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा।
शायर, नुस्ख़ा-निगार और नक़्द-नवीस के तौर पर उन्होंने उर्दू अदब में वो मक़ाम हासिल किया जो बहुत कम लोगों के नसीब में आता है। उनकी मशहूर तख़लीक़ “आबाद रहेंगे वीराने, शादाब रहेंगी ज़ंजीरें” आज भी उर्दू अदब की एक बेमिसाल विरासत मानी जाती है — जो उनके फ़िक्र, जज़्बे और तख़लीक़ी क़ुव्वत की ज़िंदा निशानी है।

इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम
हफ़ीज़ मेरठी की पैदाइश एक ऐसे ख़ानदान में हुई जहाँ अदब और सक़ाफ़त की ख़ुशबू हर साँस में रची-बसी थी। उनके वालिद मोहम्मद इब्राहीम ख़लील और नाना मुन्शी ख़ादिम हुसैन दोनों ही अदब-परस्त और इल्म-दोस्त शख़्सियतें थीं, जिनसे हफ़ीज़ को बचपन ही से तख़लीक़ी इल्हाम और फ़िक्री रहनुमाई मिली।
सन 1939 में उन्होंने फ़ैज़-ए-आम इंटर कॉलेज, मेरठ से हाई स्कूल का इम्तिहान कामयाबी से पास किया, मगर नाना की वफ़ात के बाद तालीम का सिलसिला कुछ वक़्त के लिए टूट गया। यही वाक़िया उनके अंदर के शायर को जाग उठने का सबब बना।
अपने नाना की अदबी ज़ौक़ और इल्मी विरासत से मुतास्सिर होकर हफ़ीज़ ने शायरी की राह इख़्तियार की। सन 1947 में उन्होंने एफ़.ए. (फाइन आर्ट्स) का इम्तिहान एक प्राइवेट तालिब-ए-इल्म की हैसियत से पास किया और अदबी मैदान में अपना सफ़र शुरू किया। उनकी तख़लीक़ात में ज़िंदगी के तल्ख़ तजुर्बात और समाज की हक़ीक़तों का वो रंग झलकता है, जो उन्हें अपने दौर के दूसरे शायरों से जुदा करता है।
अदबी सफ़र और शेअरी का अंदाज़
हफ़ीज़ मेरठी की शेअरी का आग़ाज़ उस दौर में हुआ जब उर्दू अदब पर आसिम बरेलवी जैसे अहल-ज़ौक़ शायरों का असर था। उनकी इब्तिदाई तख़लीक़ात में जिगर मुरादाबादी के फ़िक्र और एहसास का गहरा नक़्श दिखाई देता है — वही नज़ाकत, वही लफ़्ज़ों की मिठास और वही तर्ज़-ए-बयान का सुरीला संगम, जिसने उनकी शायरी को दिलकश बना दिया।
मगर वक़्त के साथ हफ़ीज़ मेरठी ने अपने फ़न को एक जुदा पहचान दी — ऐसी पहचान जो न सिर्फ़ उनके अदबी कमाल का सबूत बनी, बल्कि उनकी गहरी इंसानी हस्सासियत और समाजी शऊर की झलक भी पेश करती है। उनकी शायरी में तख़य्युल की नर्मी, जज़्बात की गहराई और हक़ीक़त की सख़्ती — तीनों इस तरह घुलमिल जाते हैं कि हर शेर एक आईना बन जाता है, जिसमें ज़माने का चेहरा साफ़ नज़र आता है।
हफ़ीज़ मेरठी की तख़लीक़ात का दायरा वसीअ था — जिसमें समाज, सक़ाफ़त और सियासत के गहरे पहलू पूरी रूहानियत के साथ झलकते हैं। जब उन्होंने जमाअत-ए-इस्लामी से अपना राबिता क़ायम किया, तो उनकी शायरी में दीनियात, इंसाफ़ और समाजी बराबरी का तसव्वुर और भी निखर आया।
इस तख़्लीक़ी तब्दीली ने उनके कलाम को एक नया रुख़ दिया — अब वो सिर्फ़ जज़्बात के शायर नहीं रहे, बल्कि समाज की नाइंसाफ़ियों पर अपनी कलम से तीखा वार करने वाले एक फ़िक्रमंद शायर बन गए। उनके अशआर में अब दर्द भी था और दावतनामा-ए-इंसाफ़ भी; उनकी आवाज़ अब एक शायर की नहीं, बल्कि ज़मीर की पुकार बन चुकी थी।
सियासी जद्दोजहद और इमरजेंसी का दौर
सन 1975 का दौर हिंदुस्तान की तारीख़ में एक सख़्त और सियासी इम्तिहान का वक़्त था — इमरजेंसी का एलान हुआ, ज़बानों पर ताले लगे, और जमाअत-ए-इस्लामी जैसी तहरीकों पर पाबंदी आयद कर दी गई। इसी तूफ़ानी माहौल में हफ़ीज़ मेरठी ने अपनी शेअरी को मज़लूमों की आवाज़ बना दिया। उनकी नज़्मों और अशआर में हुकूमती ज़ुल्म के ख़िलाफ़ वो बेबाक लहजा सुनाई दिया जिसने ख़ामोशी के सन्नाटे को चकनाचूर कर दिया।
हफ़ीज़ की कलम तलवार बन गई — उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से इस्तिबदाद (तानाशाही) के ख़िलाफ़ एक बुलंद पैग़ाम दिया। यही जुरअत-ए-बयान उन्हें जेल की सलाख़ों तक ले गई, मगर वो सलाख़ें उनके ख़यालात की उड़ान को रोक न सकीं।
क़ैद के दिनों में भी हफ़ीज़ मेरठी की रूह आज़ाद रही; उनका कलाम लोगों के दिलों में हक़ और इंसाफ़ की लौ जलाता रहा। उनकी शायरी उस वक़्त की एक ऐसी क्रांतिकारी सदा बन गई जिसने ख़ौफ़ज़दा समाज को बोलने का हौसला दिया। आज भी उनके अल्फ़ाज़ सियासी ज़ुल्म और असहमति के ख़िलाफ़ हिम्मत, सच्चाई और इंक़िलाब की मिसाल माने जाते हैं।
अदबी ख़िदमात और फ़न का असर
हफ़ीज़ मेरठी का अदबी सफ़र उर्दू शायरी की दुनिया में एक
नायाब और बे-मिसाल विरासत के तौर पर याद किया जाता है। उन्होंने न सिर्फ़ हिंदुस्तान के मुशायरों में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा, बल्कि सरहदों को पार करते हुए
उर्दू शायरी को आलमी पहचान दिलाई। उनके कलाम को मुल्क और बे-मुल्क, दोनों जगहों पर बे-इंतिहा सराहा गया, और उनके अल्फ़ाज़ ने उर्दू अदब को नई ज़राफ़त, नई बुलंदी और नई रूह बख़्शी।
हफ़ीज़ मेरठी की शायरी सिर्फ़ जज़्बात का इज़हार नहीं, बल्कि समाजी हक़ीक़तों, तहज़ीबी तअल्लुक़ात और इंसानी एहसासात का आइना थी। उन्होंने अपने अशआर के ज़रिए अदब को ज़माने के दर्द से जोड़ा और तहज़ीब को तख़्लीक़ की ज़बान दी।
उनके कलाम की ख़ूबसूरती उसकी सादगी और गहराई में है — ऐसे अल्फ़ाज़ जो सीधे दिल में उतर जाते हैं और देर तक वहीं गूंजते रहते हैं। यही वजह है कि हफ़ीज़ मेरठी आज भी उर्दू अदब के दीवानों के दिलों में ज़िंदा हैं; उनकी तख़लीक़ात एक रूहानी सुर की तरह आज भी एहसासात को झंकृत करती हैं और समाज की सच्चाइयों का आईना बनकर चमकती हैं।
इंतिक़ाल और अदबी विरासत
7 जनवरी 2000 को हफ़ीज़ मेरठी इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हो गए, मगर उनकी शायरी आज भी ज़िंदा है — एक ऐसी आवाज़ के रूप में जो वक़्त की हदों को पार कर गई। उनका कलाम उर्दू अदब की वो ना-मिटने वाली विरासत है, जो आने वाली नस्लों को फ़िक्र, हिम्मत और सच्चाई की राह दिखाती रहेगी।
हफ़ीज़ मेरठी ने अपनी तख़लीक़ात के ज़रिए समाज को सिर्फ़ आईना नहीं दिखाया, बल्कि उसे बेहतर बनने की दिशा भी दी। उनके अशआर में इंसानियत, अदल, और ज़माने के हालात पर गहरी नज़र झलकती है — जो उनके वसीअ फ़िक्रो-नज़र और समाजी शऊर की गवाही देती है।
हफ़ीज़ मेरठी हमेशा एक ऐसे शायर के तौर पर याद रखे जाएंगे जिन्होंने अपनी कलम के ज़रिए हक़ और हुकूमत, अवाम और इख़्तियार के दरमियान की दूरी को पाटने की कोशिश की। उनकी शायरी उर्दू अदब के रोशन और अमर अब्वाब (अध्याय) में हमेशा चमकती रहेगी — जैसे किसी ख़ामोश रात में एक चिराग़ की लौ, जो रौशनी भी देती है और राह भी दिखाती है।
हफ़ीज़ मेरठी की शायरी,ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
बे सहारों का इंतिज़ाम करो
यानी इक और क़त्ल ए आम करो
ख़ैर ख़्वाहों का मशवरा ये है
ठोकरें खाओ और सलाम करो
दब के रहना हमें नहीं मंज़ूर
ज़ालिमो जाओ अपना काम करो
ख़्वाहिशें जाने किस तरफ़ ले जाएँ
ख़्वाहिशों को न बे लगाम करो
मेज़बानों में हो जहाँ अन बन
ऐसी बस्ती में मत क़याम करो
आप छट जाएँगे हवस वाले
तुम ज़रा बे रुख़ी को आम करो
ढूँडते हो गिरों पड़ों को क्यूँ
उड़ने वालों को ज़ेर ए दाम करो
देने वाला बड़ाई भी देगा
तुम समाई का एहतिमाम करो
बद दुआ दे के चल दिया वो फ़क़ीर
कह दिया था कि कोई काम करो
ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
कितना झुक कर किसे सलाम करो
सर फिरों में अभी हरारत है
इन जियालों का एहतिराम करो
साँप आपस में कह रहे हैं 'हफ़ीज़'
आस्तीनों का इंतिज़ाम करो
2-ग़ज़ल
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
जब तक दीवाने ज़िंदा हैं फूलेंगी फलेंगी ज़ंजीरें
आज़ादी का दरवाज़ा भी ख़ुद ही खोलेंगी ज़ंजीरें
टुकड़े टुकड़े हो जाएँगी जब हद से बढ़ेंगी ज़ंजीरें
जब सब के लब सिल जाएँगे हाथों से क़लम छिन जाएँगे
बातिल से लोहा लेने का एलान करेंगी ज़ंजीरें
अंधों बहरों की नगरी में यूँ कौन तवज्जोह करता है
माहौल सुनेगा देखेगा जिस वक़्त बजेंगी ज़ंजीरें
जो ज़ंजीरों से बाहर हैं आज़ाद उन्हें भी मत समझो
जब हाथ कटेंगे ज़ालिम के उस वक़्त कटेंगी ज़ंजीरें
3-ग़ज़ल
बज़्म ए तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया
तासीर के लिए जहाँ तहरीफ़ की गई
इक झोल बस वहीं पे फ़साने में रह गया
सब मुझ पे मोहर ए जुर्म लगाते चले गए
मैं सब को अपने ज़ख़्म दिखाने में रह गया
ख़ुद हादसा भी मौत पे उस की था दम ब ख़ुद
वो दूसरों की जान बचाने में रह गया
अब अहल ए कारवाँ पे लगाता है तोहमतें
वो हम सफ़र जो हीले बहाने में रह गया
मैदान ए कार ज़ार में आए वो क़ौम क्या
जिस का जवान आईना ख़ाने में रह गया
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
मैं दोस्तों से हाथ मिलाने में रह गया
सुनता नहीं है मुफ़्त जहाँ बात भी कोई
मैं ख़ाली हाथ ऐसे ज़माने में रह गया
बाज़ार ए ज़िंदगी से क़ज़ा ले गई मुझे
ये दौर मेरे दाम लगाने में रह गया
ये भी है एक कार ए नुमायाँ 'हफ़ीज़' का
क्या सादा लौह कैसे ज़माने में रह गया
4-ग़ज़ल
बड़े अदब से ग़ुरूर ए सितम गराँ बोला
जब इंक़लाब के लहजे में बे ज़बाँ बोला
तकोगे यूँही हवाओं का मुँह भला कब तक
ये ना ख़ुदाओं से इक रोज़ बादबाँ बोला
चमन में सब की ज़बाँ पर थी मेरी मज़लूमी
मिरे ख़िलाफ़ जो बोला तो बाग़बाँ बोला
यही बहुत है कि ज़िंदा तो हो मियाँ साहब
ज़माना सुन के मिरे ग़म की दास्ताँ बोला
हिसार ए जब्र में ज़िंदा बदन जलाए गए
किसी ने दम नहीं मारा मगर धुआँ बोला
असर हुआ तो ये तक़रीर का कमाल नहीं
मिरा ख़ुलूस मुख़ातब था मैं कहाँ बोला
कहा न था कि नवाज़ेंगे हम 'हफ़ीज़' तुझे
उड़ा के वो मिरे दामन की धज्जियाँ बोला
तब्सरा:-
उर्दू अदब की रूहानी दुनिया में जब भी उन शायरों का ज़िक्र होगा जिन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़माने की ज़मीर को झकझोरा, तो हफ़ीज़ मेरठी का नाम रोशन हरफ़ों में लिखा जाएगा। उन्होंने अपने फ़िक्र, अपने एहसास, और अपनी बेबाकी से उर्दू शायरी को वो वसीअ आयाम बख़्शा, जो सिर्फ़ एक शायर नहीं बल्कि एक मुफक्किर (चिंतक) की पहचान बन गया।
मेरठ की ज़मीन से उठकर उन्होंने जिस तख़लीक़ी सफ़र की शुरुआत की, वो महज़ शायरी नहीं थी, बल्कि ज़िंदगी और समाज की दास्तान थी — जिसमें दर्द भी था, हक़ की तलाश भी, और इंसाफ़ की पुकार भी। उनकी शायरी में जज़्बात की नर्मी और सच की सख़्ती, दोनों एक साथ दिखाई देती हैं। यही दो रंग — हुस्न और हक़ीक़त — मिलकर उनके फ़न को मुकम्मल बनाते हैं।
जमाअत-ए-इस्लामी से वाबस्तगी ने उनकी शायरी को एक रूहानी रुख़ दिया — जहाँ इमान की गरमी और समाजी इंसाफ़ का जज़्बा एक साथ धड़कता है। और जब मुल्क में इमरजेंसी का सख़्त दौर आया, तो हफ़ीज़ मेरठी की आवाज़ ख़ामोशियों के दरमियान एक बुलंद सदा बन गई। उन्होंने जेल की दीवारों में भी अपनी कलम को बंद न होने दिया; उनके अल्फ़ाज़ सलाख़ों के पार उड़ते रहे — आज़ादी, इंक़िलाब और इंसाफ़ की तरह।
उनकी शायरी में वो सादगी है जो दिल को छू जाती है, और वो गहराई जो सोच को जगाती है। वो हर शेर में ज़िंदगी की एक परत खोल देते हैं — कभी समाज का आईना बनकर, कभी इश्क़ की तर्जुमानी करते हुए, और कभी ज़माने के ज़ुल्म पर सवाल उठाते हुए।
7 जनवरी 2000 को उनका जिस्म ज़रूर मिट्टी में जा सका, मगर उनका फ़न, उनका फ़िक्र और उनका पैग़ाम आज भी हवाओं में ज़िंदा है। हफ़ीज़ मेरठी सिर्फ़ एक शायर नहीं थे — वो एक रूहानी आवाज़, एक सियासी ज़मीर, और एक अदबी मशाल थे, जो आने वाली नस्लों के लिए रोशनी छोड़ गए।
वो कहते नहीं थे — “आबाद रहेंगे वीराने, शादाब रहेंगी ज़ंजीरें” — बल्कि अपनी शायरी से साबित कर गए कि जब तक कलम ज़िंदा है, ज़ुल्म का कोई भी सन्नाटा आबाद नहीं रह सकता।ये भी पढ़ें