"जिस बेटे को उसके इन्तेहाई आदर्शवादी बाप ने ज़िन्दगी जीने का कोई अमली तरीक़ा नहीं सिखाया, सिर्फ़ इतना बताया कि इल्म सबसे बड़ी फ़ज़ीलत है और किताबें सबसे बड़ी दौलत।"
उनके भाई रईस अमरोही (मशहूर सहाफ़ी और नफ़सियातदान) और सैयद मुहम्मद तकी (फ़लसफ़ी और सहाफी) भी अदब के चमकते सितारे थे। सादिक़ीन जैसे नामवर नक़्क़ाश और कमाल अमरोही जैसे फ़िल्मसाज़ उनके रिश्तेदार थे।
बचपन और शुरुआती ज़िंदगी
जॉन का बचपन अजीबो-ग़रीब और शदीद तसव्वुरात से भरा हुआ था। कहते हैं,
"आठ साल की उम्र में मैंने पहली मोहब्बत की और पहली नज़्म लिखी।"
उनकी तालीम अमरोहा के मदरसों में हुई, जहाँ उन्होंने उर्दू, अरबी और फ़ारसी सीखी। मगर निसाबी किताबों से उनकी कोई दिलचस्पी न थी; अक्सर इम्तिहानों में नाकाम हो जाया करते थे। उम्र के साथ उनके दिल में फ़लसफ़ा, अदब और तसव्वुफ़ का शौक़ गहराता गया।
![]() |
JAUN ELIA CHILDHOOD PICTURE |
वह उर्दू, फ़ारसी और फ़लसफ़े में एम.ए. की डिग्रियाँ रखते थे और अंग्रेज़ी, पहलवी, इब्रानी, संस्कृत और फ़्रेंच ज़बानों पर भी दख़्ल रखते थे। जवानी में वह कम्युनिज़्म की तरफ़ मुतास्सिर हुए और आज़ाद ख़याली उनकी शख़्सियत का अहम हिस्सा बन गई।
हिजरत का दुख और अदबी सफ़र
1947 के बंटवारे के बाद उनके भाई पाकिस्तान चले गए। वालिदैन के इंतेक़ाल के बाद 1956 में जॉन को भी मजबूरी में पाकिस्तान हिजरत करनी पड़ी। इस जुदाई ने उनकी रूह को ज़ख़्मी कर दिया।
"मैं पाकिस्तान आकर हिंदुस्तानी बन गया,"
उन्होंने दर्द से कहा।
कराची पहुँचकर रईस अमरोही ने उन्हें अदबी रिसाले "इंशा" से जोड़ा, जिसमें जॉन ने तहरीरात लिखीं। फिर 'वर्ल्ड डाइजेस्ट' की तहरीरनवीसी का हिस्सा बने। इसी दौर में उन्होंने इस्लाम से क़बल अरब की सियासी तारीख़ और तसव्वुफ़ व फ़लसफ़े पर कई किताबों का तरजुमा भी किया। उन्होंने कुल 35 से ज़्यादा किताबें तर्तीब दीं। उर्दू साइंस बोर्ड और उर्दू डिक्शनरी बोर्ड के बड़े प्रोजेक्ट्स में भी उनका एहम किरदार रहा।
मोहब्बत, तनहाई और बग़ावत
जॉन बचपन से ही तसव्वुराती मोहब्बतों में गुम रहा करते थे। आठ बरस की उम्र में सोफ़िया नाम की एक तसव्वुराती महबूबा को ख़त लिखे। जवानी में वह फ़राह नामी लड़की से इश्क़ कर बैठे, मगर उसे कभी बयान न कर सके।
"हसन से बेरुख़ी हसन को ज़कात देना है।"
— उनकी शायरी में मोहब्बत का यह अंदाज़ एक बग़ावती ऐलान बन गया।
![]() |
JAUN ELIA AND WIFE ZAHIDA HINA |
"इंशा" के ज़रिये उनकी मुलाक़ात साहाफ़ी और अफ़सानानिगार ज़ाहिदा हिना से हुई और 1970 में दोनों ने निकाह किया। शादी के बाद कुछ अर्सा सुकून रहा, मगर फिर मिज़ाजों का इख़्तिलाफ़ सामने आया और तीन औलादों के बाद तलाक़ हो गया।
एक बेमिसाल शख़्सियत
उनके दोस्त क़मर रज़ा ने जॉन की शख़्सियत को यूँ बयान किया:
"तेज़ मिज़ाज मगर दिल से दोस्त, ख़ालिस उस्ताद, अपनी तन्हाई में डूबा हुआ फ़लसफ़ी, बहस का फ़नकार, सरकश आशिक़, सिगरेट और शराब में ग़र्क़ एक मुंतज़िर रूह, जो खुद से नाराज़ और दुनिया से बाग़ी थी।"
मशायरों में उनकी शिरकत महफ़िल की कामयाबी की ज़मानत मानी जाती थी। उनका स्टाइल — गर्मियों में कम्बल ओढ़ना, रात में चश्मा लगाकर घूमना, लंबी बूट पहनना — हर चीज़ उनकी अलहदा शख़्सियत का हिस्सा थी।
आख़िरी दिन और अदबी विरासत
ज़ाहिदा हिना से जुदाई और शराबनोशी ने उनकी सेहत को बुरी तरह मुतास्सिर किया। आख़िरकार, 8 नवंबर 2002 को, जॉन एलिया इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत कर गए।
अपनी ज़िंदगी में वह शायरी के इशाअत से ग़ाफ़िल रहे। 1990 में, तक़रीबन साठ साल की उम्र में, उन्होंने अपनी पहली किताब "शायद" शाया की। उनके इंतेक़ाल के बाद "या नी" (2003), "गुमान", "लेकिन", "गोया", और दीगर मज़ामीन दोस्तों ने तर्तीब देकर शाया कराए।
जॉन एलिया उर्दू शायरी के वो अनमोल शायर हैं, जिनके यहाँ इनसानी जज़्बात और नफ़सियाती कैफ़ियात का ऐसा बेतकल्लुफ़, शिद्दत भरा इज़हार मिलता है, जो मीर तकी मीर के बाद किसी और के हिस्से में नहीं आया।
जोन एलिया की शायरी,ग़ज़लें
1 -ग़ज़ल
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
2 -ग़ज़ल
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ
कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
1 -नज़्म
वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा
वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा
किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार
किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार
गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए
और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए
रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं
कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं
वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी
जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी
मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं
दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं
वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं
ZZZ
2 -नज़्म
तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से बे-सरोकार
तुम्हारी याद के मौसम गुज़रते जाते हैं
बस एक मन्ज़र-ए-बे-हिज्र-ओ-विसाल है जिस में
हम अपने आप ही कुछ रंग भरते जाते हैं
न वो नशात-ए-तसव्वुर कि लो तुम आ ही गए
न ज़ख़्म-ए-दिल की है सोज़िश कोई जो सहनी हो
न कोई वा'दा-ओ-पैमाँ की शाम है न सहर
न शौक़ की है कोई दास्ताँ जो कहनी हो
नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह
तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं
नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम
तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं
उतार दे जो किनारे पे हम को कश्ती-ए-वहम
तो गिर्द-ओ-पेश को गिर्दाब ही समझते हैं
तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी
तो ख़्वाब में भी उन्हें ख़्वाब ही समझते हैं
न कोई ज़ख़्म न मरहम कि ज़िंदगी अपनी
गुज़र रही है हर एहसास को गँवाने में
मगर ये ज़ख़्म ये मरहम भी कम नहीं शायद
कि हम हैं एक ज़मीं पर और इक ज़माने में
कुछ चुनिंदा शेर
मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ
कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से
हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है
ये कहानी नहीं सुनानी है
तब्सरा:-
जॉन एलिया की ज़िंदगी और उनकी शायरी का मुताला (अध्ययन) हमें बताता है कि किस तरह दर्द, बेचैनी और रूमानी अहसासात (भावनाएँ) एक फ़नकार (कलाकार) के वजूद में घुलकर उसे तारीख़ (इतिहास) का एक अनूठा हवाला बना देते हैं। जॉन एलिया महज़ एक शायर नहीं थे, बल्कि एक दौर की आवाज़ थे, एक ऐसी सदा जो टूटे दिलों के ज़ख्मों पर दस्तक देती है। उनकी शायरी में एक ऐसी सच्चाई है जो लफ़्ज़ों के परदे में नहीं छुपती, बल्कि क़ारी (पाठक) के दिल में उतरकर उसे अपने वजूद से रूबरू कराती है।
जॉन एलिया की शख्सियत इज़्तेराब (व्याकुलता) और इल्म (ज्ञान), इश्क़ और बग़ावत का अजीब-ओ-गरीब मरकज़ (मिलन बिंदु) थी। वह अपने दौर से नाराज़ भी थे और उसी के आशिक़ भी। हिज्र (वियोग), हिजरत (प्रवास), तन्हाई और नाकामी के जो नग़मे जॉन ने छेड़े, वो उर्दू अदब में अपनी मिसाल आप हैं। उनके अशआर महज़ पढ़ने के लिए नहीं हैं, बल्कि महसूस करने के लिए हैं — ऐसी शिद्दत (तीव्रता) के साथ जो रूह तक को कंपा देती है।
जॉन का कमाल ये है कि वो अपने कारी को अपनी वीरानियों का हमसफ़र बना लेते हैं। उनकी शायरी हमें अपने खोए हुए ख़्वाबों और बिखरी हुई ख्वाहिशों से रूबरू कराती है। हक़ीक़त ये है कि जॉन एलिया ने उर्दू शायरी के कैनवस पर ऐसा रंग बिखेरा है जिसे वक़्त के हाथ कभी मिटा नहीं पाएँगे।
जॉन एलिया — एक अधूरा ख्वाब, एक मुकम्मल तख़लीक़।
Read More Articles :-