Faiz Ahmad Faiz : वो शायर जिसने कलम से हुकूमतों को ललकारा,इंक़लाबी सफ़र

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, वो नाम है जो उर्दू शायरी की तारीख़ में रौशनी, एहसास और बग़ावत का इस्तिआरा बन चुका है। उनकी शायरी में इश्क़ की लताफ़त, दर्द की गहराई और इन्क़लाब की शिद्दत एक साथ झलकती है। बीसवीं सदी के उस दौर में जब दुनिया ज़ुल्म, इस्तेहसाल और जंगों की मार झेल रही थी, फ़ैज़ ने अपने नरम और असरअंदाज़ लहजे में इंसानियत की बात की, अम्न की बात की, और ख़्वाब-ए-आज़ादी को नए मानी दिए।


इब्तिदाई ज़िन्दगी और ख़ानदानी पस-ए-मनज़रफ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 13 फ़रवरी 1911 को सियालकोट (ब्रिटिश हिन्दुस्तान, मौजूदा पाकिस्तान) में एक इल्मी और बा-वक़ार ख़ानदान में पैदा हुए। उनके वालिद मौलवी सुल्तान मुहम्मद ख़ान एक कामयाब वकील और अदबी ज़ौक़ रखने वाले साहिब-ए-इल्म थे। उनके घर में अहल-ए-इल्म की महफ़िलें सजी रहती थीं, जिनसे नौख़ेज़ फ़ैज़ के ज़ेहन में फ़िक्र और अदब की रूह पैवस्त हो गई।


फ़ैज़ ने इब्तिदाई तालीम
सियालकोट के स्कॉट मिशन हाई स्कूल से हासिल की, फिर मरे कॉलेज से इंटरमीडिएट किया, और 1931 में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से बी.ए. (अरबी) की डिग्री हासिल की। बाद में 1933 में एम.ए. (इंग्लिश) और 1934 में ओरिएंटल कॉलेज लाहौर से एम.ए. (अरबी) मुकम्मल किया।

तद्रीसी और इल्मी सफ़र

1935 में फ़ैज़ ने मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज, अमृतसर में बतौर उस्ताद अपने पेशेवर सफ़र की शुरुआत की। वो अपने तालिब-ए-इल्मों में सिर्फ़ उस्ताद नहीं बल्कि रहनुमा के तौर पर जाने जाते थे।
1940 में उन्होंने हेली कॉलेज, लाहौर में इंग्लिश के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया, जहाँ उनकी मुलाक़ात तरक़्क़ीपसंद अदीबों और दानिश्वरों से हुई — जिनकी सोहबत ने उनकी शायरी को फ़िक्री गहराई बख़्शी।

फ़ौजी ख़िदमात और तग़य्युर का मोड़

दूसरी जंग-ए-आज़ीम के दौरान 1942 में फ़ैज़ ने ब्रिटिश फ़ौज में शमूलियत इख़्तियार की और मेजर से कर्नल के ओहदे तक पहुँचे। मगर उनका दिल हमेशा कलम और इंसानियत की ख़िदमत की तरफ़ माइल रहा।
1947 में जब तक़सीम-ए-हिन्द हुई, उन्होंने फ़ौज को अलविदा कहा और कलम को अपना असली हथियार बना लिया।

मोहब्बत, उर्फ़ान और इंसानियत का रिश्ता

फ़ैज़ की ज़िन्दगी का एक हसीन बाब उनकी बीवी एलिस जॉर्ज (कुलसुम  फ़ैज़) से जुड़ा है। दोनों की मुलाक़ात जंग के दिनों में मुहम्मद तासीर के घर पर हुई। इश्क़ ने इस रिश्ते को रूहानी रंग दिया और 1941 में उन्होंने शादी कर ली। एलिस ने बाद में इस्लाम क़ुबूल किया और नाम कल्सूम फ़ैज़ रखा गया।

Faiz Ahmad Faiz, Wife Alice and Daughters 

उनका घर अदब, फ़न और इंसानियत का मरकज़ बन गया। उनकी बेटियाँ सलीमा हाशमी (फ़नकारा, तालीमी शख्सियत) और मनीज़ा हाशमी (टीवी प्रोड्यूसर, अदबी हस्ती) इसी माहौल में पली-बढ़ीं।

शायरी — एहसासात का इन्क़लाब

फ़ैज़ की शायरी में ज़िन्दगी के तमाम रंग हैं — इश्क़, दर्द, मज़ाहमत और उम्मीद।
उनका पहला मजमुआ “नक़्श-ए-फ़रियादी” (1941) उनकी पहचान बना। बाद में “दस्त-ए-सबा”, “ज़िन्दाननामा”, “दस्त-ए-तह-ए-संग” और “मताअ-ए-लौह-o-क़लम” जैसी किताबों ने उन्हें आलमी शौहरत दी।

उनके मशहूर अशआर आज भी ज़ुबानों पर ज़िन्दा हैं:

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग,
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात।

इन अशआर में महज़ मोहब्बत नहीं, बल्कि इंसानी जज़्बात और समाजी सच की झलक है।

फैज़ की लिखी किताबें और और इनामात 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कई किताबें लिखीं, जिनमें शामिल हैं:

नक़्श-ए-फ़र्यादी
दस्त-ए-सबा
ज़िंदाँ नामा
दस्त-ए-तह-ए-संग
सलीबें मरे दरीचे में
मता-ए-लौह-ओ-क़लम
उनकी शायरी और इंसानियत के प्रति काम को सराहा गया और उन्हें 1963 में सोवियत रूस से लेनिन शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें 1990 में पाकिस्तान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान "निशान-ए-इम्तियाज़" से भी नवाज़ा गया।

बग़ावत और कैद का दौर

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर 1951 में हुकूमत-ए-पाकिस्तान के ख़िलाफ़ साज़िश रचने का इल्ज़ाम लगाया गया और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। तक़रीबन चार साल वो कैद-ए-बे-गुनाही में रहे। इसी दौर में उन्होंने जो नज़्में और अशआर कहे, वो बाद में “दस्त-ए-सबा” और “ज़िन्दाननामा” के नाम से शाया हुए।जेल की दीवारों के पीछे गुज़रे वो दिन सख़्त और दर्दनाक थे, मगर उनका कलम कभी ख़ामोश न हुआ। उनकी शायरी में उस दौर की तन्हाई, मज़ाहमत और उम्मीद की झलक साफ़ महसूस की जा सकती है।उनकी नज़्मों में ज़ंजीरों की झंकार भी है और आज़ादी का नग़्मा भी।


फ़ैज़ का असर और अदब में अहमियत

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का असर सिर्फ़ उर्दू अदब तक महदूद नहीं रहा, बल्कि उनकी शायरी ने हिन्दी, अंग्रेज़ी, और फ़ारसी अदब में भी अपनी जगह बनाई।
उनकी नज़्मों में इश्क़, इंसानियत, और सामाजी इंसाफ़ के ऐसे ख़यालात हैं जिन्होंने उन्हें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में बेपनाह मक़बूलियत बख़्शी।


फ़ैज़ की शायरी का सबसे ख़ास पहलू उसकी सादगी और असरअंदाज़ ज़बान है — जो सीधे दिल में उतर जाती है।
उनकी ग़ज़लें और नज़्में आज भी उसी शिद्दत और मायने के साथ पढ़ी जाती हैं जैसे उनके दौर में — हर वक़्त, हर ज़माने के लिए मौज़ूँ।

इंतेक़ाल और आख़िरी अल्फ़ाज़

20 नवम्बर 1984 को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ लाहौर में वफ़ात पा गए।
उनका जाना उर्दू अदब के लिए एक ऐसा नुक़सान था जिसकी तिलाफ़ी मुमकिन नहीं। मगर उनकी शायरी आज भी जिंदा है, साँस लेती है, और इंसानियत को रोशनी बख़्शती है।
उनके आख़िरी अल्फ़ाज़ उनकी फ़िक्र और एहसासात का निचोड़ हैं —

“अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना,
न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है।”

इन अशआर में मौत की आहट भी है, तस्लीम का सुकून भी — और एक शायर का वो पुरअसरार मुस्कुराता हुआ अलविदा जो अपने लफ़्ज़ों के ज़रिए हमेशा ज़िन्दा रहेगा।


1 -ग़ज़ल 

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से 

सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की 

सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ 

सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 

ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 

सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 

सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें 

सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की 

सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है 

सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं 

सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की 

जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में 

मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 

पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं 

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है 

कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं 

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 

कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 

सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त 

मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं 

चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे 

कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं 

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही 

अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ 

'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 


2 -ग़ज़ल 

चाँद निकले किसी जानिब तिरी ज़ेबाई का 

रंग बदले किसी सूरत शब-ए-तन्हाई का 

दौलत-ए-लब से फिर ऐ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ 

आज अर्ज़ां हो कोई हर्फ़ शनासाई का 

गर्मी-ए-रश्क से हर अंजुमन-ए-गुल-बदनाँ 

तज़्किरा छेड़े तिरी पैरहन-आराई का 

सेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-क़दाँ 

फिर नज़र आए सलीक़ा तिरी रानाई का 

एक बार और मसीहा-ए-दिल-ए-दिल-ज़दगाँ 

कोई वा'दा कोई इक़रार मसीहाई का 

दीदा ओ दिल को सँभालो कि सर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ 

साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का 



3 -ग़ज़ल 

क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम 

सब कुछ निसार-ए-राह-ए-वफ़ा कर चुके हैं हम 

कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम 

कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम 

अब एहतियात की कोई सूरत नहीं रही 

क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम 

देखें है कौन कौन ज़रूरत नहीं रही 

कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम 

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें 

रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम 

उन की नज़र में क्या करें फीका है अब भी रंग 

जितना लहू था सर्फ़-ए-क़बा कर चुके हैं हम 

कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए 

सौ बार उन की ख़ू का गिला कर चुके हैं हम 

1-नज़्म 

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 

देख कि आहन-गर की दुकाँ में 

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन 

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने 

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन 

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है 

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले 

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक 

बोल जो कुछ कहना है कह ले 

2-नज़्म 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए

यूँ था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म

रेशम अतलस कमख़ाब में बुनवाए हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब माँग

3-नज़्म 

हम देखेंगें

लाज़िम है कि हम भी देखेंगें

जो लोह-ए-अज़ल पे लिखा है

वो दिन कि जिसका वादा है

हम देखेंगें

 
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां

रूई की तरह उड़ जायेंगें

हम मह्कूमों के पांव तले

ये धरती धड़ धड़ धड़केगी

और एहले हुकुम के सर ऊपर

जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी

हम देखेंगें

 
जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से

सब बुत उठवाये जायेंगें

हम एहले सफ़ा मरदूद-ए- हरम

मसनद पे बिठाये जायेंगें

सब ताज उछाले जायेंगे

सब तख्त गिराये जायेंगें


 बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो गायब भी है हाज़िर भी

जो नाज़िर भी है मंज़र भी

उठेगा अनालहक का नारा'

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

और राज़ करेगी खल्क-ए-खुदा

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

 हम देखेंगें

लाज़िम है कि हम भी देखेंगें

हम देखेंगें 

तब्सरा 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर यह लेख मेरे दिल के बहुत क़रीब है क्योंकि इसे लिखते वक़्त मैंने फ़ैज़ साहब की शायरी और उनकी शख़्सियत के हर पहलू को बेहद गहराई से महसूस किया। फ़ैज़ की ज़िंदगी, उनके साहित्य और उनके समाजी-राजनीतिक संघर्षों को बयान करते हुए, मुझे उनके काम और उनके योगदान की असल अहमियत का एहसास हुआ।

फ़ैज़ की शायरी में इश्क़ और इंसाफ़ का अनूठा संगम है, जो सिर्फ़ दिलों को छूता नहीं बल्कि समाजी बेदारी पैदा करता है। इस लेख में मैंने उनके ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मराहिल—तालीम से लेकर सहाफ़त और फिर जेल की तन्हाई में लिखी गई उनकी बेमिसाल नज़्मों तक—हर पहलू को बयान करने की कोशिश की है। फ़ैज़ साहब के शेरों और नज़्मों का हवाला देते हुए मैंने कोशिश की है कि उनके लिखे अल्फ़ाज़ की ताक़त और उनकी सोच की गहराई को क़ारिन के सामने लाया जा सके।

फ़ैज़ की शायरी, चाहे वो "हम देखेंगे" हो या "मुझसे पहली सी मोहब्बत," सिर्फ़ एक शायरी नहीं, बल्कि उनके वक़्त के हालात का आईना है। इस लेख को लिखते हुए मेरा मक़सद सिर्फ़ फ़ैज़ की तारीफ़ करना नहीं, बल्कि उनके लिखे पैग़ाम को लोगों तक पहुँचाना था। मुझे उम्मीद है कि यह लेख फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की अदबी विरासत को समझने और सराहने में मददगार साबित होगा।ये भी पढ़ें 

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