उर्दू साहित्य के महान शायर फैज़ अहमद फैज़,जीवनी व शायरी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 20वीं सदी के उन चुनिंदा शायरों में से थे, जिनकी शायरी न सिर्फ़ उर्दू अदब का बेमिसाल हिस्सा मानी जाती है, बल्कि उनकी शायरी ने सामाजिक और राजनीतिक हालात को भी नयी रोशनी में पेश किया। उनका जन्म 13 फरवरी 1911 को सियालकोट, ब्रिटिश भारत (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में हुआ था। फ़ैज़ की शायरी, उनके दर्द-ओ-ग़म और इंसानियत के प्रति उनकी मोहब्बत से लबरेज़ है, जो उन्हें उर्दू शायरी के आला मुकाम पर पहुंचाती है।

फैज़ का बचपन और तालीम

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का ताल्लुक़ एक पढ़े-लिखे और इज़्ज़तदार खानदान से था। उनके वालिद, सुल्तान मुहम्मद खान, पेशे से बैरिस्टर थे और अदब से भी गहरी वाबस्तगी रखते थे। फ़ैज़ ने अपनी शुरुआती तालीम सियालकोट में पाई, जहाँ से उन्होंने 1927 में स्कॉट मिशन हाई स्कूल से मैट्रिक फर्स्ट डिविज़न से पास किया। इसके बाद 1929 में मरे कॉलेज से इंटरमीडिएट और फिर 1931 में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से बी.ए. (अरबी) और 1933 में एम.ए. (अंग्रेज़ी) किया। उनका तालीमी सफर यहीं नहीं थमा, उन्होंने 1934 में ओरिएन्टल कॉलेज लाहौर से एम.ए. (अरबी) भी किया।

फ़ैज़ का क़ारोबार-ए-हयात

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने 1935 में अमृतसर के मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज में बतौर शिक्षक अपनी नौकरी की शुरुआत की। बाद में 1940 में उन्होंने लाहौर के हेली कॉलेज में इंग्लिश लेक्चरर के तौर पर ज्वाइन किया। 1942 में उन्होंने फौज में कैप्टन के पद पर नौकरी शुरू की और कुछ ही सालों में मेजर से कर्नल के ओहदे तक पहुंचे।

फैज़ की शायरी और इल्मी सफर

फ़ैज़ की शायरी का आग़ाज़ उनके इल्मी और ज़ेहनी सफर का ही हिस्सा था। वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन का अहम हिस्सा थे, जिसने उनकी शायरी में इंसानियत, सामाजिक इंसाफ़ और आज़ादी के लिए गहरी सोच पैदा की। उनके तख़ल्लुस 'फ़ैज़' के तले उनकी शायरी में इंकलाबी जोश और मोहब्बत का मेल मिलता है। उनकी शुरुआती किताबें जैसे "नक़्श-ए-फ़र्यादी", "दस्त-ए-सबा", और "ज़िंदाँ नामा" न सिर्फ़ उनकी फिक्र और तहकीक़ का नमूना हैं, बल्कि इंसानी हालात और जज़्बात को बेहतरीन अंदाज़ में पेश करती हैं।

शादी और निजी ज़िंदगी

1939 के विश्व युद्ध के दौरान फैज़ साहब की मुलाकात एक अंग्रेज़ ख़ातून, मिस एलिस जॉर्ज से हुई। मोहम्मडन तासीर साहब के घर पर इस मुलाकात ने मोहब्बत का रंग पकड़ा, और अक्टूबर 1941 में श्रीनगर में दोनों का निकाह हुआ। फैज़ की बीवी एलिस ने बाद में इस्लाम कुबूल किया और उन्हें कुलसुम नाम दिया गया। इस शादी से उन्हें दो बेटियां, सलीमा हाश्मी और मोनीज़ा हाश्मी, हुईं।

पत्रकारिता में योगदान

1946 में फ़ैज़ ने फौज की नौकरी छोड़कर "पाकिस्तान टाइम्स" के मुख्य संपादक का ओहदा संभाला। वह एक बेबाक और निडर पत्रकार थे, जिन्होंने बंटवारे के वक्त हुए खून-खराबे और दंगों पर लिखा। फ़ैज़ की यह लेखनी आज भी पत्रकारिता के मानकों के तौर पर देखी जाती है। उनकी नज़्म ‘सुबह-ए-आज़ादी’ इस दर्दनाक दौर का बेहतरीन इज़हार है, जिसमें उन्होंने लिखा था: वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं।

शायरी में इंसानी और राजनीतिक जज़्बात

फ़ैज़ की शायरी इश्क़ और जज़्बात के साथ-साथ समाजी और सियासी हालातों की तरजुमानी करती है। उनकी सबसे मशहूर ग़ज़ल "सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं" मोहब्बत के नर्म और खूबसूरत जज़्बातों की तर्जुमानी करती है। दूसरी तरफ उनकी नज़्म "हम देखेंगे" इंक़लाबी सोच और समाजी बदलाव के हक़ में आवाज़ उठाती है। इस नज़्म ने जन आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों के दौरान खासा मक़बूलियत हासिल की।

फैज़ की लिखी किताबें और पुरुस्कार

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कई किताबें लिखीं, जिनमें शामिल हैं:

नक़्श-ए-फ़र्यादी
दस्त-ए-सबा
ज़िंदाँ नामा
दस्त-ए-तह-ए-संग
सलीबें मरे दरीचे में
मता-ए-लौह-ओ-क़लम
उनकी शायरी और इंसानियत के प्रति काम को सराहा गया और उन्हें 1963 में सोवियत रूस से लेनिन शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें 1990 में पाकिस्तान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान "निशान-ए-इम्तियाज़" से भी नवाज़ा गया।



फैज़ अहमद फैज़ साहब की बेगम और बेटियां 

बगावत और जेल

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को 1951 में पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के इल्ज़ाम में जेल भेज दिया गया। चार साल जेल में रहने के दौरान उन्होंने जो नज़्में और शेर लिखे, वे बाद में "दस्त-ए-सबा" और "ज़िंदाँ नामा" के तौर पर छपे। जेल में बिताए गए दिन उनके लिए सख्त थे, लेकिन उनकी शायरी में उस दौर का असर साफ झलकता है।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का असर और अदब में अहमियत

फ़ैज़ की शायरी का असर सिर्फ उर्दू अदब तक सीमित नहीं रहा। उनकी शायरी ने हिंदी और अंग्रेज़ी अदब में भी अपनी जगह बनाई। उनकी शायरी में प्रेम, मानवता और सामाजिक न्याय के विचारों ने उन्हें भारत और पाकिस्तान के अदबी हलकों में मक़बूलियत दिलाई। फ़ैज़ की शायरी का सबसे खास पहलू उनकी आसान भाषा है, जिसने उन्हें आम लोगों तक पहुँचने में मदद की। उनकी ग़ज़ल और नज़्में आज भी हर दौर में उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके ज़माने में थीं।



इंतेक़ाल और आख़िरी अल्फ़ाज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का इंतेक़ाल 20 नवंबर 1984 को लाहौर में हुआ। उनके आख़िरी शेर ने उनकी शायरी और जिंदगी के गहरे तल्ख़ जज़्बात का इज़हार किया:

अजल के हाथ कोई, आ रहा है परवाना,
ना जाने आज की फेहरिस्त में रकम क्या है।



1 -ग़ज़ल 

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से 

सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की 

सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ 

सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 

ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 

सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 

सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें 

सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की 

सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं 

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है 

सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं 

सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की 

जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में 

मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 

पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं 

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है 

कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं 

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 

कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 

सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त 

मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं 

चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे 

कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं 

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही 

अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ 

'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 


2 -ग़ज़ल 

चाँद निकले किसी जानिब तिरी ज़ेबाई का 

रंग बदले किसी सूरत शब-ए-तन्हाई का 

दौलत-ए-लब से फिर ऐ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ 

आज अर्ज़ां हो कोई हर्फ़ शनासाई का 

गर्मी-ए-रश्क से हर अंजुमन-ए-गुल-बदनाँ 

तज़्किरा छेड़े तिरी पैरहन-आराई का 

सेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-क़दाँ 

फिर नज़र आए सलीक़ा तिरी रानाई का 

एक बार और मसीहा-ए-दिल-ए-दिल-ज़दगाँ 

कोई वा'दा कोई इक़रार मसीहाई का 

दीदा ओ दिल को सँभालो कि सर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ 

साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का 



3 -ग़ज़ल 

क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम 

सब कुछ निसार-ए-राह-ए-वफ़ा कर चुके हैं हम 

कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम 

कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम 

अब एहतियात की कोई सूरत नहीं रही 

क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम 

देखें है कौन कौन ज़रूरत नहीं रही 

कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम 

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें 

रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम 

उन की नज़र में क्या करें फीका है अब भी रंग 

जितना लहू था सर्फ़-ए-क़बा कर चुके हैं हम 

कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए 

सौ बार उन की ख़ू का गिला कर चुके हैं हम 

1-नज़्म 

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 

देख कि आहन-गर की दुकाँ में 

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन 

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने 

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन 

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है 

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले 

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक 

बोल जो कुछ कहना है कह ले 

2-नज़्म 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए

यूँ था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म

रेशम अतलस कमख़ाब में बुनवाए हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब माँग

3-नज़्म 

हम देखेंगें

लाज़िम है कि हम भी देखेंगें

जो लोह-ए-अज़ल पे लिखा है

वो दिन कि जिसका वादा है

हम देखेंगें

 
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां

रूई की तरह उड़ जायेंगें

हम मह्कूमों के पांव तले

ये धरती धड़ धड़ धड़केगी

और एहले हुकुम के सर ऊपर

जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी

हम देखेंगें

 
जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से

सब बुत उठवाये जायेंगें

हम एहले सफ़ा मरदूद-ए- हरम

मसनद पे बिठाये जायेंगें

सब ताज उछाले जायेंगे

सब तख्त गिराये जायेंगें


 बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो गायब भी है हाज़िर भी

जो नाज़िर भी है मंज़र भी

उठेगा अनालहक का नारा'

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

और राज़ करेगी खल्क-ए-खुदा

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

 हम देखेंगें

लाज़िम है कि हम भी देखेंगें

हम देखेंगें 

तब्सरा 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर यह लेख मेरे दिल के बहुत क़रीब है क्योंकि इसे लिखते वक़्त मैंने फ़ैज़ साहब की शायरी और उनकी शख़्सियत के हर पहलू को बेहद गहराई से महसूस किया। फ़ैज़ की ज़िंदगी, उनके साहित्य और उनके समाजी-राजनीतिक संघर्षों को बयान करते हुए, मुझे उनके काम और उनके योगदान की असल अहमियत का एहसास हुआ।

फ़ैज़ की शायरी में इश्क़ और इंसाफ़ का अनूठा संगम है, जो सिर्फ़ दिलों को छूता नहीं बल्कि समाजी बेदारी पैदा करता है। इस लेख में मैंने उनके ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मराहिल—तालीम से लेकर सहाफ़त और फिर जेल की तन्हाई में लिखी गई उनकी बेमिसाल नज़्मों तक—हर पहलू को बयान करने की कोशिश की है। फ़ैज़ साहब के शेरों और नज़्मों का हवाला देते हुए मैंने कोशिश की है कि उनके लिखे अल्फ़ाज़ की ताक़त और उनकी सोच की गहराई को क़ारिन के सामने लाया जा सके।

फ़ैज़ की शायरी, चाहे वो "हम देखेंगे" हो या "मुझसे पहली सी मोहब्बत," सिर्फ़ एक शायरी नहीं, बल्कि उनके वक़्त के हालात का आईना है। इस लेख को लिखते हुए मेरा मक़सद सिर्फ़ फ़ैज़ की तारीफ़ करना नहीं, बल्कि उनके लिखे पैग़ाम को लोगों तक पहुँचाना था। मुझे उम्मीद है कि यह लेख फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की अदबी विरासत को समझने और सराहने में मददगार साबित होगा।ये भी पढ़ें 

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