हसीब सोज़: शाइरी और ज़िन्दगी का सफर
हसीब सोज़, उर्दू शाइरी की मौजूदा आवाज़ों में एक अहम नाम, 5 मार्च 1952 को अलापुर, बदायूं, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए। उनका अदबी सफर एक ऐसे घर से शुरू हुआ जो अदबी नहीं था, क्योंकि उनके वालिद एक कामयाब मिठाई कारोबारी थे। मगर हसीब सोज़ कभी भी ख़ानदानी कारोबार की तरफ़ नहीं खिंचे, बल्कि शाइरी का फ़ितरी शौक़ रखते थे। उन्होंने अपनी तालीम में बेपनाह मेहनत की, और 1984 में आगरा यूनिवर्सिटी से उर्दू अदब में मास्टर की डिग्री हासिल की, जो उनके आने वाले अदबी सफर का मज़बूत बुनियाद साबित हुई।
शुरुआती असरात और शाइरी का जज़्बा
स्कूल और कॉलेज के दिनों में हसीब सोज़ फ़िल्मी गीतों के बहुत शौक़ीन थे, उस दौर के गीतों में जो अदबी सतह थी, वो आज के गीतों में कम देखने को मिलती है। उन्हें कैफ़ी आज़मी, जाँनिसार अख़्तर, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, नीरज, और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे मशहूर गीतकारों ने बहुत मुतास्सिर किया। वे अक्सर इनके गीतों और ग़ज़लों को अपनी डायरी में उतार लेते थे, जिससे उनके अंदर शाइरी का जज़्बा और तेज़ हो गया। शुरुआत में उन्होंने अपने अशआर दोस्तों और हमउम्रों के साथ शेयर किए, मगर एक मकामी ह्यूमरस शाइर, क़ाज़ी जलालुद्दीन, ने हसीब सोज़ की सलाहियत को पहचाना और उन्हें मश्वरा दिया कि वे अपनी शाइरी को और निखारें।
हसीब सोज़ ने इस मश्वरे को क़बूल किया और क़ाज़ी जलालुद्दीन की रहनुमाई में अपने अशआर को तराशने लगे। जल्द ही उनके अशआर में गहराई और समझ आ गई। उनका एक शुरुआती शे'र जो बहुत मकबूल हुआ, वो था:
"मैं तो ग़ुबार था जो हवाओं में बँट गया,
तू तो मगर पहाड़ था, तू कैसे हट गया।"
ये उनके शाइरी के तवील और कामयाब सफर की इब्तिदा थी।
शाइरी का उरूज
हालांकि हसीब सोज़ ने 1972 से शाइरी शुरू की थी, मगर 1992 में, यानी बीस साल बाद, उन्होंने पहली बार किसी मुशायरे में शिरकत की। उनका पहला मुशायरा इटावा में हुआ, जहाँ उनके अशआर ने सामईन के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी। उनका मशहूर शे'र था:
"ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रखा है,
क्या हमें रेत की दीवार समझ रखा है।"
इस शे'र ने हसीब सोज़ की सलाहियत और समाजी और वजूदीय मसाइल पर उनकी पकड़ को बखूबी बयान किया।
हालांकि उन्हें मुशायरों में काफ़ी शोहरत मिली, लेकिन उन्होंने कभी शोहरत या मालो-दौलत की ख़ातिर शाइरी नहीं की। उन्होंने कभी भी मुशायरे की तालियों के लिए अपने कलाम की क़ुर्बानी नहीं दी। हसीब सोज़ के लिए शाइरी हक़ीक़त से राब्ता रखने वाली चीज़ थी, न कि शोहरत हासिल करने का ज़रिया। उन्होंने आम आदमी के दुख-दर्द और मुश्किलात को अपने अशआर में जगह दी और उनकी बात को पुरजोश अंदाज़ में पेश किया।
हक़ीक़त पर मबनी शाइरी
हसीब सोज़ की शाइरी को उनके हमअस्रों से जो चीज़ मुमताज़ करती है, वो ये है कि उन्होंने कभी महबूबाना ग़ज़ल या रिवायती रुमानियत की तरफ़ रुख़ नहीं किया। उनकी शाइरी हक़ीक़त और ज़िन्दगी की तल्ख़ियों पर मबनी है। वे आदर्श मोहब्बत या मिस्टिकल तजुर्बों के बजाय आम लोगों की मुश्किलात, ग़ुरबत और समाजी नाइंसाफ़ियों पर बात करते हैं। उनका एक मशहूर शे'र है:
"कोई तो बात है बाक़ी ग़रीबख़ानों में,
वगरना ज़िल्ले इलाही और इन मकानों में।"
उनका ये हक़ीक़त पर मबनी अंदाज़ उनके काम को अवाम में मक़बूल बनाता है, क्योंकि लोगों को उनकी शाइरी में अपनी ज़िन्दगी की अक्स मिलता है।
हसीब सोज़:
अदबी खिदमात और एज़ाज़ात
1982 में, हसीब सोज़ ने "लम्हे-लम्हे" नामी उर्दू रिसाला क़ायम किया, जो अब तक उर्दू अदब के लिए एक अहम ख़िदमत साबित हो रहा है। इस रिसाले ने ना सिर्फ़ नामवर शाइरों बल्कि नए शाइरों को भी अपनी आवाज़ पेश करने का मौक़ा दिया है। हसीब सोज़ ने इसे अपनी दानिशमंदी और ख़ुलूस के साथ मुरत्तब किया है।
हसीब सोज़ को उनके अदबी कारनामों के लिए कई इनामात और एज़ाज़ात से नवाज़ा गया है। उनमें से कुछ अहम हैं: 2003 में उन्हें बदायूं क्लब की जानिब से "शकील और फ़ानी अवार्ड" दिया गया, 2006 में गुजरात में "वली दक्खनी अवार्ड", और 2011 में एटा की एक अदबी तंज़ीम से "अमीर खुसरो अवार्ड"।
मज़मूआ-ए-कलाम और अदबी विरसा
हसीब सोज़ के मज़मूआ-ए-कलाम "बरसों के बाद" और "नीम के पत्ते" ने अदबी हलक़ों में ख़ास मक़बूलियत हासिल की। इन मज़मूआत में उन्होंने अपने तजुर्बात, समाजी हक़ीक़तों, और शख़्सी एहसासात को पेश किया। उनके चाहने वाले अब उनके तीसरे मज़मूआ "कच्चे रंग" का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।
अवाम का शाइर
हसीब सोज़ की शाइरी आम आदमी की दिलों की बात करती है। वे ग़ुरबत, भूख, और अमीर-ग़रीब के दरमियान बढ़ते फासलों की बातें करते हैं। उनका ये शे'र इस बात की मिसाल है:
"ग़रीबी में तो दो दिन भी बड़ी मुश्किल से कटते हैं,
अमीरी चाहती है उम्र दो सौ साल हो जाए।"
उनकी शाइरी में सादगी और गहराई का ऐसा इत्तेहाद है, जो उसे हर शख्स के दिल तक पहुंचाता है।
इख़लास का विरसा
हसीब सोज़ का अदबी विरसा उनका इख़लास और उनकी हक़ीक़त पसंदी है। उन्होंने कभी भी अपने क़लाम को मक़बूलियत या मालो-दौलत के लिए नहीं बदला। उनकी शाइरी हमेशा ज़मीन से जुड़ी रही और उन्होंने फ़लसफ़ियाना परवाज़ों को नहीं अपनाया। जैसा कि वे ख़ुद कहते हैं, उन्होंने हमेशा "वो ज़िन्दगी जिया है, जिसके बारे में वे लिखते हैं," और यही चीज़ उनकी शाइरी को असल क़ुव्वत अता करती है।
हसीब सोज़ की शायरी ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
2-ग़ज़ल
तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब देना पड़ा
चराग़ ले के मुझे आफ़्ताब देना पड़ा
हर एक हाथ में दो दो सिफ़ारशी ख़त थे
हर एक शख़्स को कोई ख़िताब देना पड़ा
ताल्लुक़ात में कुछ तो दरार पड़नी थी
कई सवाल थे जिन का जवाब देना पड़ा
अब इस सज़ा से बड़ी और क्या सज़ा होगी
नए सिरे से पुराना हिसाब देना पड़ा
इस इंतिज़ाम से क्या कोई मुतमइन होता
किसी का हिस्सा किसी को जनाब देना पड़ा
3-ग़ज़ल
वो एक रात की गर्दिश में इतना हार गया
लिबास पहने रहा और बदन उतार गया
हसब नसब भी किराए पे लोग लाने लगे
हमारे हाथ से अब ये भी कारोबार गया
उसे क़रीब से देखा तो कुछ शिफ़ा पाई
कई बरस में मिरे जिस्म से बुख़ार गया
तुम्हारी जीत का मतलब है जंग फिर होगी
हमारी हार का मतलब है इंतिशार गया
तू एक साल में इक साँस भी न जी पाया
मैं एक सज्दे में सदियाँ कई गुज़ार गया
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4-ग़ज़ल
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
न इतना शोर कर ज़ालिम हमारे टूट जाने पर
कि गर्दिश में फ़लक से भी सितारा टूट जाता है
तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं
मगर वो क्या करे जिस का भरोसा टूट जाता है
किसी से इश्क़ करते हो तो फिर ख़ामोश रहिएगा
ज़रा सी ठेस से वर्ना ये शीशा टूट जाता है
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
न इतना शोर कर ज़ालिम हमारे टूट जाने पर
कि गर्दिश में फ़लक से भी सितारा टूट जाता है
तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं
मगर वो क्या करे जिस का भरोसा टूट जाता है
किसी से इश्क़ करते हो तो फिर ख़ामोश रहिएगा
ज़रा सी ठेस से वर्ना ये शीशा टूट जाता है
5-ग़ज़ल
खुला ये राज़ कि ये ज़िंदगी भी होती है
बिछड़ के तुझ से हमें अब ख़ुशी भी होती है
वो फ़ोन कर के मिरा हाल पूछ लेता है
नमक-हरामों की कैटेगरी भी होती है
मिज़ाज पूछने वाले मज़ा भी लेते हैं
कभी जो दर्द में थोड़ी कमी भी होती है
यही तो खोलती है दुश्मनी का दरवाज़ा
ख़राब चीज़ मियाँ दोस्ती भी होती है
तुम अपने क़दमों की रफ़्तार पर बहुत ख़ुश हो
ये रेल गाड़ी कहीं पर खड़ी भी होती है
नतीजा
हसीब सोज़ का सफ़र एक छोटे से गाँव बदायूं से शुरू होकर उर्दू अदब में एक अहम नाम बनने तक का है। ये सफ़र उनकी मेहनत, सलाहियत और उसूलों की पुख़्तगी का गवाह है। उनकी शाइरी आने वाले शाइरों के लिए मिसाल रहेगी, ना सिर्फ़ उर्दू की फनकारी में बल्कि ज़िन्दगी के हक़ीक़तों से राब्ता रखने के लिए भी।ये भी पढ़ें