शऊर ए सुख़न
इब्तेदा ए शोक ए शायरी
मुझे बचपन से ही शेरो शायरी का शोक था,जबसे मेरा शऊर बेदार हुआ हज़रत नाज़िश मुरादाबादी की ग़ज़लों को पसंद करता रहा
वो ग़ज़लें मेरे दिल को गुदगुदाया करती थी और कोशिश करता की में भी इसी तरह शेर कहूं,और एक वलवला दिल में पैदा होता,कई बरस तक टूटे फूटे शेर कहता रहा,मुझे शायरी से लगाव था आख़िर कार रफ़्ता रफ़्ता काफिया पैमायी करने लगा,ये कहते हुए फख्र महसूस करता हु के मेरी शायरी की इबतेदा नात ए सरवर ए क़ायनात से हुयी और आज भी वो ज़ौक़ बरक़रार हे,नात ए पाक के साथ ही ग़ज़लियात का सिलसिला भी जारी हे,दौरान ए तालीम भी शेर कहता रहा और अक्सर स्कूल के प्रोग्रामों में शरीक़ होता रहा,में ज़ेड. यू.इण्टर कॉलेज सराय तरीन संभल में ज़ेर ए तालीम था मेरे ज़ौक़ को देख कर मेरे असातज़ा ( शिक्षकों ) ने बच्चों के मुशायरे का इनक़ाद (आयोजन ) किया,अल्लाह पाक का करम ईनाम भी हासिल किया,ये वाक़ेया सन 1982 का हे,उस वक़्त में सातवीं जमात में पढता था
1985 में हाई स्कूल पास करने बाद कॉलेज छोड़ दिया,लेकिन शायरी का खुमार सिरसे नहीं उतरा
ज़रिया ए माश (जीविका) की तलाश
जनाब नाज़िश मुरादाबादी साहब की शागिर्दी
शायरी से दिलचस्पी और बढ़ गयी,उस्ताद की तलाश करता रहा,और फिर हज़रत नाज़िश मुरादाबादी की सरपरस्ती में चला गया,और इस्लाह का सिलसिला शुरू होगया,कुछ ही साल आपकी सरपरस्ती नसीब हुयी,फिर आप इस दार ए फानी से आलम ए बक़ा की तरफ कूच कर गए,आपके इंतेक़ाल (देहान्त ) की खबर सुनकर दिल बहुत मलूल हुआ,अल्लाह ता'ला उन्हें जन्नत उल फिरदौस में आला मुक़ाम अता फरमाये -अमीन
अब मेरा ज़ौक़ कुछ कम होने लगा,इसलिए किसी उस्ताद की सरपरस्ती मेरे ऊपर नहीं थी,वक़्त गुज़रता रहा.
फन ए उरूज़ के माहिर, शहर के उस्ताद शायर जनाब डॉ ताहिर रज़ज़ाक़ी संभली साहब की सरपरस्ती
कुछ लोगो ने जनाब डॉ ताहिर रज़ज़ाकी साहब को उस्ताद बनाने का मशविरा दिया,में डॉ ताहिर रज़ज़ाकी साहब से बहुत ख़ौफ़ खाता था,कभी जनाब से इस ताल्लुक़ से बात नहीं की थी,लेकिन एक दिन में हिम्मत करके जनाब ताहिर रज़ज़ाकी साहब की बारगाह में चला गया,अल्लाह पाक का करम आपने बड़े ख़ुलूस से मेरी बात सुनी,इन्तेहाई मुहब्बत का सबूत देते हुए मेरी ग़ज़ल की इस्लाह फ़रमाई और आपने ये कहा अंजुम आप अपनी ग़ज़लें मुझे दिखा दिया करें,मुझे बहुत ख़ुशी हुयी चलो आज एक और मोतबर शायर की सरपरस्ती हासिल हुयी
बाक़ायदा इस्लाह का सिलसिला शुरू होगया,डॉ साहब ने मुझे अपने शागिर्दो ( शिष्यों ) शामिल कर लिया,आपको पूरा हिंदुस्तान एक अज़ीम शायर के रूप जानता हे नात, मक़बत,क़सीदा,नज़्म,रुबाई,माहिये और ग़ज़ल सारी सनफो में आपने तबा आज़माई की हे मगर आपकी मख़सूस (विशेष ) सनत ग़ज़ल रही,आपके कई मजमुआ ए कलाम (कविता संग्रह ) मंज़र ए आम पर आ चुके हैं
जब भी में आपके पास क़लाम लेकर जाता,आप बड़े ख़ुलूस से इस्लाह फर्मा देते थे,किसी शेर में अगर नुक्स होता तो,फ़ौरन शेर काट दिया करते थे और कहते बेटे अंजुम ये मिश्रा दोबारा कह कर लाइये,अगर में खामोश रहा तो आप फ़रमाते मिसरा तो में अभी बदल दूंगा,मगर में चाहता हूँ के आप अपने पेरो पर चलें,बैसाखियों का सहारा न लेना पड़े
बहुत कम दिन क़िब्ला की सरपरस्ती नसीब हुयी,आपकी तबियत खराब रहने लगी थी,आप इलाज के लिए दिल्ली जाने की तैयारियां करने लगे,जाते वक़्त,आपने फ़रमाया देखो अंजुम में छेः सात महीनो के लिए जा रहा हु आप कोई और उस्ताद तलाश करलें,मेने कहा हज़रत और कोई उस्ताद क्यों तलाश करूँ आप तो वापिस आ ही जायेंगे
तो क़िब्ला ने फ़रमाया जैसा में कहता हूँ वैसा ही करो-मेने कहा जी हुज़ूर जैसा आपका हुक्म
तो बोले की आप संभल मुनव्वर ताबिश के पास चले जाना और मेरा नाम ले देना,और कुछ बातें समझा कर दिल्ली के लिए रवाना होगये
क़िब्ला डॉ ताहिर रज़ज़ाक़ी साहब की ताज़ियत में 4 मिसरे पेश करता हु
मौजूदा उस्ताद जनाब मुनव्वर ताबिश संभली साहब की शागिर्दी
राज़ अंजुम साहब की शायरी,ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
जैसे खिलते गुलाब का आलम
वो हे तेरे शबाब का आलम
होश में आये कैसे दीवाना
शोख़ आँखे हिजाब का आलम
मय क़दे झूमते हैं आँखों में
अल्ला अल्लाह शराब का आलम
रुख पे भड़के हैं नूर के शोले
शोला रूह हे जनाब का आलम
नज़रे हटती नहीं रूखे जॉ से
हे मुकम्म्ल शबाब का आलम
कौन दरिया में धो गया ज़ुल्फ़ें
अरके गुल हे जो आब का आलम
अब तो बरपा क़यामतें होंगी
दोश पर हे जनाब का आलम
जंग पानी पिलाने पे होती
जो बता दे सवाब का आलम
झूंटी कस्मे जो लोग खाते हैं
सख़्त होगा अज़ाब का आलम
आग पानी में लग न जाएगी
केफ ओ मस्ती शिताब का आलम
चाँद तारे कशा कशा झूमे
देख कर बे नक़ाब का आलम
वो तो हमदर्द हैं नबी मेरे
कैसे होता हिसाब का आलम
सारी दुनिया में बेमिसाली
राज़ के इन्तेख़ाब का आलम
2-ग़ज़ल
कभी कभार जो आती हे वो ख़ुशी क्या हे
ग़मो के बीच जो गुज़रे वो ज़िंदगी क्या हे
न हो जो चश्मे हक़ीक़त तो रौशनी क्या हे
मिले जो चश्मे बसीरत तो तीरागी क्या हे
जो दोस्तों के हर एक हाल में शरीक रहे
वही समझता हे ए दोस्त,दोस्ती क्या हे
उसी की को मान लिया क़ाफ़िले ने रेहनुमा
जिसे खबर ही नहीं हे की रहबरी क्या हे
तुम्हारी आँखों से पीता हु जाम भर भर के
में जानता ही नहीं हूँ की मयकशी क्या हे
अभी तो और बिगड़ना हे इस ज़माने को
अभी से जान रहे हो बुरा,अभी क्या हे
तुम्हारा हुस्न मुकम्मल,मगर मेरे नज़दीक
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या हे
नहीं हे लायक ए तहसीन शेर मेरे मगर
ये सब खुदा की नवाज़िश हे शायरी क्या हे
वो आदमी हे के जिसमे ख़ुलूस हो ए राज़
ख़ुलूस जिसमें नहीं हे वो आदमी क्या हे
3-ग़ज़ल
बड़ी मगरूरियत में आ रहा हे
ये जो दरिया उछालें खा रहा हे
तुम्हे रहज़न पे ग़ुस्सा आ रहा हे
हमें तो रेहनुमा लुटवा रहा हे
उसी का ग़म मुझे तड़पा रहा हे
समंदर से जो प्यासा जा रहा हे
हटा दो जाम ओ मीना सामने से
हमारा सब्र टुटा जा रहा हे
हमारी प्यास का आलम तो देखो
नज़र क़तरा समंदर आ रहा हे
में हूँ गर्दाब में समझे न दुनिया
मुझे तूफां कनारे ला रहा हे
खुदाया राज़ की भी लाज रखना
के इसका फन टटोला जा रहा हे
4-ग़ज़ल
5-ग़ज़ल
तबसरा
राज़ अंजुम साहब का शायरी का सफर हमें यह अहसास दिलाता है कि शायरी सिर्फ अल्फ़ाज़ की जादूगरी नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों से निकला हुआ एक अनमोल फन है, जो जुनून, मेहनत और उस्तादों की रहनुमाई से मुकम्मल होता है। बचपन से शेरो-शायरी का शौक पालने वाले अंजुम साहब ने शायरी के रास्ते पर चलते हुए न सिर्फ अपनी ज़िन्दगी के तजुर्बात को अल्फ़ाज़ में ढाला, बल्कि इस सफर में उन्होंने कई उस्तादों से इल्म और इस्लाह भी हासिल की।
हज़रत नाज़िश मुरादाबादी की ग़ज़लों से मुतास्सिर होकर शायरी की शुरुआत करने वाले अंजुम साहब ने अपने सफर में नाज़िश मुरादाबादी और डॉ. ताहिर रज़्ज़ाक़ी जैसे महान उस्तादों की सरपरस्ती में फन-ए-शायरी में महारत हासिल की। उनकी रहनुमाई ने अंजुम साहब को न सिर्फ शेर कहने की कला सिखाई, बल्कि एक गहरे अहसास और फिक्र की रौशनी भी बख्शी।
शायरी का यह सफर सिर्फ लफ्ज़ों का नहीं, बल्कि एक रूहानी और जज़्बाती ताल्लुक का भी है। राज़ अंजुम ने मुश्किल हालात और रोज़गार की तलाश के बावजूद शायरी को कभी खुद से जुदा नहीं होने दिया। उस्तादों की रहनुमाई में उनकी शायरी निखरती चली गई और आज वह मुनव्वर ताबिश साहब की शागिर्दी में शायरी के नए आयाम छू रहे हैं, साथ ही बड़े मुशायरों में शिरकत कर अपने शहर का नाम रोशन कर रहे हैं।
अंजुम साहब का यह सफर हम सबके लिए एक मिसाल है कि अगर इंसान के दिल में सच्चा जुनून और लगन हो, तो कोई भी रास्ता मुश्किल नहीं होता। शायरी एक ऐसा फन है, जो सिर्फ तालीम या हुनर से नहीं, बल्कि जज़्बात, एहसास, और उस्तादों की रहनुमाई से मुकम्मल होता है। राज़ अंजुम साहब की यह ज़िन्दगी हमें सिखाती है कि मेहनत, सब्र और लगन से कोई भी मंज़िल हासिल की जा सकती है।ये भी पढ़ें
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