उबैदुल्लाह अलीम उर्दू अदब के उन गिने-चुने शायरों में से हैं, जो अपनी बेमिसाल फ़नकारी और शायरी के ज़रिए हमेशा के लिए याद रखे जाएंगे। 1939 में भोपाल, ब्रिटिश इंडिया में पैदा हुए अलीम की शायरी इश्क़, वजूदियत और समाजी मुद्दों का संगम है। उनकी ज़िंदगी कई उतार-चढ़ाव से भरी हुई थी, लेकिन उनका शायरी से इश्क़ और लगाव उनकी पहचान बन गया।
उबैदुल्लाह अलीम: उर्दू अदब के अज़ीम शायर
(उर्दू: عبیداللہ علیم)
पैदाइश: 12 जून 1939 | वफ़ात: 18 मई 1998
ज़िंदगी की शुरुआत और तालीम
उबैदुल्लाह अलीम का ताल्लुक भोपाल के एक तहज़ीब-याफ़्ता घराने से था। तक़सीम-ए-हिंद के बाद उनका ख़ानदान पाकिस्तान हिजरत करके कराची में आबाद हुआ। उन्होंने अपनी आला तालीम यूनिवर्सिटी ऑफ़ कराची से हासिल की और उर्दू अदब में एम.ए. की डिग्री ली। उर्दू ज़बान और अदब के साथ उनका गहरा लगाव उनकी तालीम और शायरी में वाज़ेह तौर पर नज़र आता है।
पेशेवर ज़िंदगी
उबैदुल्लाह अलीम ने अपने पेशेवर सफ़र की शुरुआत 1960 के दशक में रेडियो पाकिस्तान के प्रोड्यूसर के तौर पर की। बाद में, उन्होंने पाकिस्तान टेलीविज़न कॉर्पोरेशन (PTV) के कराची स्टेशन पर सीनियर प्रोड्यूसर के तौर पर अपनी खिदमात अंजाम दीं। रेडियो और टेलीविज़न के मैदान में उनका कामयाब तजुर्बा उनके तख़लीकी हुनर का आईना था।
लेकिन 1978 में सियासी दबाव और उनके ख़िलाफ़ जारी किए गए एक हुक्मनामे के बाद उन्हें PTV छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। इस हादसे ने उन्हें मायूस तो किया, लेकिन उनकी शायरी के लिए यह एक नए दौर की शुरुआत साबित हुई।
अदबी ख़िदमात
उबैदुल्लाह अलीम का पहला मजमूआ-ए-कलाम चाँद चेहरा सितारा आँखें (چاند چہرہ ستارہ آنکھیں) 1974 में शाया हुआ। इस किताब ने उन्हें रातों-रात शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया और उन्हें आदमजी अदबी इनाम से नवाज़ा गया, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी एज़ाज़ है।
1986 में उनका दूसरा मजमूआ वीरान सराय का दिया (ویران سرائے کا دیا) मंज़र-ए-आम पर आया, जिसने उनकी शोहरत और अदबी हैसियत को और भी मज़बूत किया। उनकी किताबें इश्क़, जुदाई, उलझनों और इंसानी जज़्बात के बेमिसाल बयान से भरी हुई हैं।
इसके अलावा, उन्होंने 1982 में "खुर्शीद मिसाल शख़्स" नामी एक मज़मून लिखा, जो खलीफ़ा-तु-ल-मसीह III की याद में था। इस मज़मून में उनकी रूहानी और इल्मी गहराई का बेहतरीन इज़हार होता है।
अंदाज़-ए-बयान और मौज़ूआत
उबैदुल्लाह अलीम की शायरी उनके रूमानी लहजे और गहरे इज़्तिराब की वजह से पहचान रखती है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में इश्क़ और इंसानी हालत की नाज़ुक तस्वीरें पेश करती हैं। मेटाफर, तशबीह और गहरी तख़य्युली तस्वीरों का उनका इस्तेमाल उनकी शायरी को अमर बना देता है। उनकी तख़लीक़ात हर दौर में अपने मतालिब के ऐतबार से जिंदा रहेंगी।
ज़ाती ज़िंदगी और चुनौतियाँ
शोहरत और इज़्ज़त के बावजूद, उबैदुल्लाह अलीम की ज़िंदगी मुश्किलों से ख़ाली नहीं थी। पेशेवर ज़िंदगी में सियासी रुकावटें और ज़ाती परेशानियों ने उनकी राह में रोड़े अटकाए, लेकिन उन्होंने उर्दू अदब से अपने लगाव को कभी कमजोर नहीं होने दिया। सादगी और नर्म मिज़ाजी उनकी शख़्सियत की खास पहचान थी।
मार्च 1998 में, पंजाब में सफ़र के दौरान उन्हें दिल का गंभीर दौरा पड़ा और उन्हें चंद दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया। हालांकि वो कराची के अपने घर, **नाज़िमाबाद**, वापस आ गए, लेकिन उनकी सेहत खराब होती रही। आख़िरकार, 18 मई 1998 को एक और दिल के दौरे के बाद उनका इंतिक़ाल हो गया।
विरासत और असरात
उबैदुल्लाह अलीम का अदबी कारनामा उर्दू अदब के लिए एक बेमिसाल तोहफ़ा है। उनकी शायरी आज भी उर्दू अदब के दीवानों के लिए रूहानी सुकून और इश्क़ का पैग़ाम है। उनके कलाम की गहराई और लफ्ज़ों की मालूमात आज भी नई नस्ल के शायरों को मुतास्सिर करती है।
उनकी मौत के बाद भी, उनकी किताबें और शायरी उर्दू अदब के दीवानों के दिलों में ज़िंदा हैं। उर्दू अदब के निसाब में भी उनका कलाम पढ़ाया जाता है, जो इस बात का सबूत है कि उबैदुल्लाह अलीम हमेशा उर्दू शायरी के दायरे में याद किए जाएंगे।
मुख़्तसर तख़लीक़ात
1.चाँद चेहरा सितारा आँखें" (1974)
2. वीरान सराय का दिया" (1986)
3.खुर्शीद मिसाल शख़्स (1982, मज़मून)
उबैदुल्लाह अलीम की शायरी आज भी उनके चाहने वालों के दिलों में एक सुकून और ताजगी की तरह महसूस होती है। उनके लफ्ज़ों की गहराई और उनके ख्यालों की बुलंदी उन्हें हमेशा के लिए उर्दू अदब का अज़ीम हिस्सा बनाए रखेगी।
उबैदुल्लाह अलीम की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए
मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए
मैं वो चराग़ सर-ए-रहगुज़ार-ए-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाए
हर एक लहज़ा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाए
2-ग़ज़ल
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
काश तुझ को भी इक झलक देखूँ
चाँदनी का समाँ था और हम तुम
अब सितारे पलक पलक देखूँ
जाने तू किस का हम-सफ़र होगा
मैं तुझे अपनी जाँ तलक देखूँ
बंद क्यूँ ज़ात में रहूँ अपनी
मौज बन जाऊँ और छलक देखूँ
सुब्ह में देर है तो फिर इक बार
शब के रुख़्सार से ढलक देखूँ
उन के क़दमों तले फ़लक और मैं
सिर्फ़ पहनाई-ए-फ़लक देखूँ
3-ग़ज़ल
वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था
वो जिस ने ये चराग़ जलाया अजीब था
वो रौशनी कि आँख उठाई नहीं गई
कल मुझ से मेरा चाँद बहुत ही क़रीब था
देखा मुझे तो तब्अ रवाँ हो गई मिरी
वो मुस्कुरा दिया तो मैं शायर अदीब था
रखता न क्यूँ मैं रूह ओ बदन उस के सामने
वो यूँ भी था तबीब वो यूँ भी तबीब था
हर सिलसिला था उस का ख़ुदा से मिला हुआ
चुप हो कि लब-कुशा हो बला का ख़तीब था
मौज-ए-नशात ओ सैल-ए-ग़म-ए-जाँ थे एक साथ
गुलशन में नग़्मा-संज अजब अंदलीब था
मैं भी रहा हूँ ख़ल्वत-ए-जानाँ में एक शाम
ये ख़्वाब है या वाक़ई मैं ख़ुश-नसीब था
हर्फ़-ए-दुआ ओ दस्त-ए-सख़ावत के बाब में
ख़ुद मेरा तजरबा है वो बे-हद नजीब था
देखा है उस को ख़ल्वत ओ जल्वत में बार-हा
वो आदमी बहुत ही अजीब-ओ-ग़रीब था
लिक्खो तमाम उम्र मगर फिर भी तुम 'अलीम'
उस को दिखा न पाओ वो ऐसा हबीब था
4-ग़ज़ल
अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
बार-ए-इलाह कितने पहर रह गई है रात
हर तीरगी में तू ने उतारी है रौशनी
अब ख़ुद उतर के आ कि सियह-तर है काएनात
कुछ आईने से रक्खे हुए हैं सर-ए-वजूद
और इन में अपना जश्न मनाती है मेरी ज़ात
बोले नहीं वो हर्फ़ जो ईमान में न थे
लिक्खी नहीं वो बात जो अपनी नहीं थी बात
5-ग़ज़ल
गदा-ए-कू-ए-सुख़न और तुझ से क्या माँगे
यही कि मम्लिकत-ए-शेर की ख़ुदाई दे
निगाह-ए-दहर में अहल-ए-कमाल हम भी हों
जो लिख रहे हैं वो दुनिया अगर दिखाई दे
छलक न जाऊँ कहीं मैं वजूद से अपने
हुनर दिया है तो फिर ज़र्फ़-ए-किबरियाई दे
मुझे कमाल-ए-सुख़न से नवाज़ने वाले
समाअतों को भी अब ज़ौक़-ए-आश्नाई दे
नुमू-पज़ीर है ये शोला-ए-नवा तो इसे
हर आने वाले ज़माने की पेशवाई दे
कोई करे तो कहाँ तक करे मसीहाई
कि एक ज़ख़्म भरे दूसरा दुहाई दे
मैं एक से किसी मौसम में रह नहीं सकता
कभी विसाल कभी हिज्र से रिहाई दे
जो एक ख़्वाब का नश्शा हो कम तो आँखों को
हज़ार ख़्वाब दे और जुरअत-ए-रसाई दे
1-नज़्म
मिरे ख़ुदाया मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ
ये मेरा चेहरा ये मेरी आँखें
बुझे हुए से चराग़ जैसे
जो फिर से चलने के मुंतज़िर हों
वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
जिन्हों ने पैमाँ किए थे मुझ से
रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
कहा था मुझ से कि ऐ मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा के
जहाँ भी जाएगा हम भी आएँगे साथ तेरे
बनेंगे रातों में चाँदनी हम तो दिन में साए बिखेर देंगे
वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
वो अपने पैमाँ रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
शिकस्त कर के
न जाने अब किस की रहगुज़र का मनारा-ए-रौशनी हुए हैं
मगर मुसाफ़िर को क्या ख़बर है
वो चाँद-चेहरा तो बुझ गया है
सितारा-आँखें तो सो गई हैं
वो ज़ुल्फ़ें बे-साया हो गई हैं
वो रौशनी और वो साए मिरी अता थे
सो मेरी राहों में आज भी हैं
कि मैं मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा का
वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
हज़ारों चेहरों हज़ारों आँखों
हज़ारों ज़ुल्फ़ों का एक सैलाब-ए-तुंद ले कर
मिरे तआक़ुब में आ रहे हैं
हर एक चेहरा है चाँद-चेहरा
हैं सारी आँखें सितारा-आँखें
तमाम हैं
मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
2-नज़्म
याद
कभी कभी कोई याद
कोई बहुत पुरानी याद
दिल के दरवाज़े पर
ऐसे दस्तक देती है
शाम को जैसे तारा निकले
सुब्ह को जैसे फूल
जैसे धीरे धीरे ज़मीं पर
रौशनियों का नुज़ूल
जैसे रूह की प्यास बुझाने
उतरे कोई रसूल
जैसे रोते रोते अचानक
हँस दे कोई मलूल
कभी कभी कोई याद कोई बहुत पुरानी याद
दिल के दरवाज़े पर ऐसे दस्तक देती है
तब्सरा
उबैदुल्लाह अलीम की शायरी उर्दू अदब की रूहानी तहों को छूने वाली तख़लीक़ है, जो उनकी गहरी सोच, इश्क़ और इंसानी जज़्बात की बेपनाह तर्जुमानी करती है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में जो मोहब्बत का दर्द और ज़िंदगी की हकीक़तें बयान की गई हैं, वे आज भी हर शायरी-प्रेमी के दिल को झकझोरती हैं। उनके अशआर में लफ़्ज़ों की ऐसी मिठास और गहराई है, जो उनके फन को अमर बना देती है।
उबैदुल्लाह अलीम का कलाम सिर्फ इश्क़ और जज़्बात तक महदूद नहीं रहा, बल्कि इसमें समाजी उलझनों और इंसानी वजूद के मसाइल का भी एहसास मिलता है। उनकी तख़लीक़ "चाँद चेहरा सितारा आँखें" हो या "वीरान सराय का दिया," ये सिर्फ किताबें नहीं, बल्कि उर्दू अदब के रौशन चराग़ हैं, जो नस्ल दर नस्ल अपने नूर से मोहब्बतों और अदब की रहनुमाई करेंगे।
उनकी शायरी में जो सादगी और रूमानी एहसास है, वह उन्हें अपने दौर का बेहतरीन शायर बनाता है। उनके तसव्वुरात की बुलंदी और लहजे की नर्मी उनके हर शेर में झलकती है। उनका लफ़्ज़ों से इश्क़ और अपनी पहचान को शायरी में ढालने का हुनर उन्हें उर्दू अदब का एक अहम हिस्सा बना गया।
उबैदुल्लाह अलीम आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनके अशआर का जादू आज भी सर चढ़कर बोलता है। वह हर दिल की धड़कन में, हर चाहने वाले के लहज़े में और हर उर्दू-शायरी के शौक़ीन के अल्फ़ाज़ में ज़िंदा हैं। उनका कामयाब तख़लीकी सफर और उनकी गहरी तख़य्युली दुनिया आने वाली नस्लों के लिए एक रौशन मिसाल है।ये भी पढ़ें
Read More Articles :-
-