ज़ेहरा निगाह पाकिस्तान की एक जानी-मानी उर्दू शायर और लेखक हैं, जिन्हें "ज़ेहरा आपा" के नाम से भी जाना जाता है। वे उर्दू शायरी में महिलाओं के योगदान की एक महान मिसाल हैं, और अपने समय की उन शेरों में से एक हैं जिन्होंने साहित्य की दुनिया में पुरुषों के प्रभुत्व को चुनौती दी। ज़ेहरा निगाह का काव्य सफर न केवल उनकी शायरी से भरा हुआ है, बल्कि उनका साहित्यिक दृष्टिकोण और उनके व्यक्तित्व ने भी उर्दू शायरी की दुनिया में एक नया मोड़ लाया।
व्यक्तिगत जीवन और प्रारंभिक वर्ष
ज़ेहरा निगाह का जन्म 1940 के दशक के मध्य में ब्रिटिश भारत के हैदराबाद शहर में हुआ था। जब भारत में 1947 में विभाजन हुआ, तो उनका परिवार पाकिस्तान चला आया। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 10 साल थी, लेकिन इस बड़े परिवर्तन ने उनकी मानसिकता और लेखन को गहरे रूप से प्रभावित किया। ज़ेहरा के पिता एक सिविल सर्वेंट थे और साहित्य के प्रति उनकी गहरी रुचि थी। उनके परिवार में एक साहित्यिक वातावरण था, जहां शायरी और कला को बेहद महत्व दिया जाता था। यही कारण था कि बचपन से ही ज़ेहरा को साहित्य से गहरा लगाव था।
उनकी बड़ी बहन, फातिमा सुरैया बाजी , एक प्रसिद्ध लेखक थीं और उनके भाई, अनवर मक़सूद, पाकिस्तान के प्रसिद्ध हास्य लेखक और टेलीविज़न होस्ट हैं। उनके दूसरे भाई, अहमद मक़सूद, पाकिस्तान के सिंध सरकार में सचिव थे। यह साहित्यिक परिवेश ज़ेहरा को एक ऐसी दिशा में ले गया जिसने उनकी सोच और लेखन को और भी समृद्ध किया। ज़ेहरा ने 1960 के दशक में माजिद अली से विवाह किया, जो एक सिविल सर्वेंट थे और शायरी में रुचि रखते थे।
शायरी की शुरुआत और लेखन का सफर
ज़ेहरा निगाह की शायरी का सफर उनके बचपन से ही शुरू हो गया था। जब वह मात्र 14 साल की थीं, तो उन्होंने उर्दू के कई प्रसिद्ध शायरों के अशआर याद कर लिए थे। उनके काव्य सफर का आरंभ उर्दू शायरी के काव्यिक रूप और पुराने क्लासिक शायरों से हुआ था। ज़ेहरा कहती हैं, "अगर हम इकबाल की 'जवाब-ए-शिकवा' या हाली के 'मसदस' को याद कर लेते, तो हमें पांच रुपये का इनाम मिलता था," और यह इनाम की लालच ने उनके शायरी के प्रति समर्पण को और भी मजबूत किया।
उनके घर में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की भरमार थी। यहाँ तक कि उर्दू के मशहूर शायर जैसे इकबाल, फीराक, मख़दूम, फैज़ अहमद फैज़, और मजाज़ जैसी हस्तियों से मिलने का मौका मिला। इस अद्भुत वातावरण ने उन्हें न केवल शायरी की बारीकियों से परिचित कराया, बल्कि जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी प्रभावित किया।
शायरी और साहित्य में ज़ेहरा निगाह की पहचान
ज़ेहरा निगाह की शायरी में आधुनिकता और क्लासिक शायरी का एक अद्भुत संतुलन देखा जा सकता है। उनके काव्य में नारीवाद, इंसानियत, प्रेम और दार्शनिक विचारों का समावेश है। उनकी शायरी सिर्फ दिल को छूने वाली नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी गहरे विचारों को उजागर करती है। ज़ेहरा निगाह ने उर्दू शायरी की दुनिया में महिलाओं के लिए एक विशेष स्थान सुनिश्चित किया। वे उर्दू साहित्य की दुनिया में महिलाओं की आवाज़ बन कर उभरीं और अपने काव्य के माध्यम से समाज में महिलाओं की अहमियत को दर्शाया।
उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ "शाम का पहला तारा", "वर्क़", "फिराक", और "गुल चाँदनी" हैं। इन रचनाओं में उन्होंने अपने दिल की बात कही और उर्दू शायरी की सुंदरता को एक नए रूप में प्रस्तुत किया। ज़ेहरा निगाह की शायरी में एक अनूठा दर्द और मोहब्बत की एक गहरी अनुभूति है, जो हर पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती है।
पुरस्कार और सम्मान
ज़ेहरा निगाह ने शायरी और साहित्य के क्षेत्र में अपनी अमूल्य सेवाओं के लिए कई महत्वपूर्ण पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए हैं। 2006 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति से उन्हें "प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस" पुरस्कार मिला, जो पाकिस्तान का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है। इसके बाद, 2013 में उन्हें "एलएलएफ लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड", 2018 में "अल्लामा इकबाल अवार्ड", और 2019 में "यूबीएल लिटरेरी लाइफटाइम अवार्ड" जैसे अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले। 2021 में उन्हें "आर्ट्स काउंसिल लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड" भी प्राप्त हुआ, जो उनके अद्वितीय योगदान को मान्यता देता है।
वैश्विक पहचान और सम्मान
ज़ेहरा निगाह का साहित्य न केवल पाकिस्तान में बल्कि भारत और अन्य देशों में भी अत्यधिक सराहा गया है। उनके काव्य ने न केवल उर्दू शायरी के प्रेमियों को प्रभावित किया है, बल्कि उनकी शायरी को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित किया गया है। वे अक्सर साहित्यिक सम्मेलनों और संगठनों में मुख्य वक्ता के रूप में शामिल होती रही हैं। विशेष रूप से उन्होंने 2014 में "इस्लामाबाद लिटरेचर फेस्टिवल", 2015 में "कराची लिटरेचर फेस्टिवल", और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक आयोजनों में प्रमुख भूमिका निभाई।
ज़ेहरा निगाह की वर्तमान स्थिति
आज के समय में ज़ेहरा निगाह उर्दू साहित्य की एक सम्मानित और प्रभावशाली शख्सियत बन चुकी हैं। उनकी शायरी की विशेषता उनके लेखन की गहराई, उसकी संवेदनशीलता, और महिलाओं के प्रति उनकी दृष्टि में स्पष्टता है। वे न केवल एक शायर के तौर पर, बल्कि एक साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में भी उर्दू साहित्य के इतिहास में अमिट छाप छोड़ चुकी हैं। उनका काव्य आज भी शायरी की महफिलों में पढ़ा जाता है और उनकी आवाज़ हमेशा उर्दू साहित्य की दुनिया में गूंजेगी।
ज़ेहरा निगाह की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है
जाने वालों का जाना याद आ जाता है
बात-चीत में जिस की रवानी मसल हुई
एक नाम लेते में कुछ रुक सा जाता है
हँसती-बस्ती राहों का ख़ुश-बाश मुसाफ़िर
रोज़ी की भट्टी का ईंधन बन जाता है
दफ़्तर मंसब दोनों ज़ेहन को खा लेते हैं
घर वालों की क़िस्मत में तन रह जाता है
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है
2-ग़ज़ल
ये उदासी ये फैलते साए
हम तुझे याद कर के पछताए
मिल गया था सकूँ निगाहों को
की तमन्ना तो अश्क भर आए
गुल ही उकता गए हैं गुलशन से
बाग़बाँ से कहो न घबराए
हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी
तुम जो आए तो मंज़िलें लाए
जो ज़माने का साथ दे न सके
वो तिरे आस्ताँ से लौट आए
बस वही थे मता-ए-दीदा-ओ-दिल
जितने आँसू मिज़ा तलक आए
3-ग़ज़ल
कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
कुछ किया जाए चराग़ों को बुझाया जाए
भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
वो सितमगर जो न भूले से भुलाया जाए
जिस के बाइस हैं ये चेहरे की लकीरें मग़्मूम
ग़ैर-मुमकिन है कि मंज़र वो दिखाया जाए
शाम ख़ामोश है और चाँद निकल आया है
क्यूँ न इक नक़्श ही पानी पे बनाया जाए
ज़ख़्म हँसते हैं तो ये फ़स्ल-ए-बहार आती है
हाँ इसी बात पे फिर ज़ख़्म लगाया जाए
4-ग़ज़ल
अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा
कितने दिन के ब'अद मुझ को आईना अच्छा लगा
सारा आराइश का सामाँ मेज़ पर सोता रहा
और चेहरा जगमगाता जागता हँसता लगा
मल्गजे कपड़ों पे उस दिन किस ग़ज़ब की आब थी
सारे दिन का काम उस दिन किस क़दर हल्का लगा
चाल पर फिर से नुमायाँ था दिल-आवेज़ी का ज़ोम
जिस को वापस आते आते किस क़दर अर्सा लगा
मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी
वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा
5-ग़ज़ल
ख़ूब है साहब-ए-महफ़िल की अदा
कोई बोला तो बुरा मान गए
कोई धड़कन है न आँसू न ख़याल
वक़्त के साथ ये तूफ़ान गए
तेरी एक एक अदा पहचानी
अपनी एक एक ख़ता मान गए
उस को समझे कि न समझे लेकिन
गर्दिश-ए-दहर तुझे जान गए
1 -नज़्म
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है
हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है
सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में
बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं
कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो
किसी लकड़ी के तख़्ते पर
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है
ख़ुदावंदा! जलील ओ मो'तबर! दाना ओ बीना! मुंसिफ़ ओ अकबर!
मिरे इस शहर में अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िज़ कर
निष्कर्ष
ज़ेहरा निगाह की शायरी में औरत के किरदार को एक नई पहचान मिली है। उनके अशआर (शेर) औरत के दर्द, संघर्ष और सशक्तता को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करते हैं। वह औरत को सिर्फ़ एक इमोशनल और मज़लूम किरदार के रूप में नहीं दिखातीं, बल्कि उसे एक जुझारू, आत्मनिर्भर और ताक़तवर शख्सियत के तौर पर पेश करती हैं। ज़ेहरा निगाह की शायरी में औरत का रूप बदल जाता है, जहाँ वह अपने हक़ के लिए लड़ती है और अपने अस्तित्व को साबित करती है।
उनकी शायरी में महिलाओं की स्थिति को चुनौती देने का साहस दिखाई देता है, जो समाज की रूढ़िवादी सोच के खिलाफ खड़ी होती है। ज़ेहरा निगाह ने औरत की आवाज़ को मजबूती दी है और उसे अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दी है। उनका साहित्य औरत को न केवल उसकी पीड़ा और दर्द का हिस्सा बनाता है, बल्कि उसे अपनी पहचान और आत्मसम्मान के लिए खड़ा होने की ताक़त भी देता है।
ज़ेहरा निगाह की शायरी एक मिसाल है कि कैसे उर्दू साहित्य में औरत को उसकी पूरी ताक़त और सम्मान के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। उनकी शायरी में औरत का हर पहलू—उसकी संघर्ष, उसकी ताक़त और उसकी आत्मनिर्भरता—दिखाई देती है। यह उर्दू शायरी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जो महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने की प्रेरणा देती है।ये भी पढ़ें
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