Zehra Nigah Poetess: उर्दू शायरी में औरत का ताक़तवर किरदार,साहित्य की दुनिया में एक आलमी हस्ती

ज़ेहरा निगाह पाकिस्तानी उर्दू अदब की वो रौशन हस्ती हैं जिन्हें मोहब्बत और अज़्म के साथ “ज़ेहरा आपा” कहकर पुकारा जाता है। उर्दू शायरी में ख़वातीन के फ़नकाराना योगदान की जो पाकीज़ा मिसालें पेश की जाती हैं, ज़ेहरा निगाह उनका चमकता हुआ सितारा हैं। उन्होंने अपने फ़िक्रो-फ़न, नफ़ासत-ए-तख़य्युल और पुरअसरार एहसासात के ज़रिये न सिर्फ़ शायरी को नई जानबख़्शी, बल्कि अदबी दुनिया में मौजूद मर्दाना ग़ालिबा रिवायतों को भी हिम्मत और ख़ूबसूरती से चुनौती दी।

ज़ेहरा निगाह का तख़य्युली सफ़र सिर्फ़ उनके अश्आर की रौशन दुनिया तक महदूद नहीं, बल्कि उनका अदबी नज़रिया, उनका नफ़ीस फन और उनका मुतवाज़िन वजूद—इन सब ने मिलकर उर्दू शायरी को एक नया रुख़, एक नई रौशनी और एक नई तहज़ीब बख़्श दी।


ज़ाती ज़िंदगी और इब्तिदाई अहद

ज़ेहरा निगाह का पैदाइशी सफ़र 1940 के दशक के औसती दौर में ब्रितानवी हिन्द के पुर-तहज़ीब और फ़न-नवाज़ शहर हैदराबाद में शुरू हुआ। 1947 की तक़सीम का हंगामा जब सरज़मीन-ए-हिन्द को दो मालूमात-ज़दा हिस्सों में बांट रहा था, उस वक़्त उनका ख़ानदान पाकिस्तान की जानिब मुहाजिरत करके आया। उस दौर में ज़ेहरा महज़ दस बरस की नाज़ुक उम्र में थीं, लेकिन इस अज़ीम तारीखी इनकिलाब ने उनके एहसासात, उनकी शऊर-साज़ फ़िक्र और उनके तख़य्युल के गहराईयों पर बेहद गहरा असर छोड़ा।

ज़ेहरा के वालिद एक सिविल सर्वेंट थे और अदबी शऊर, फ़न-परस्ती और इल्मी ज़ौक़ उनके मिज़ाज में रचा-बसा था। घर का माहौल अदबी नफ़ासत, फ़िक्र-ओ-फ़न और सीख़त के हवाले से ऐसा था जहाँ शायरी, तख़य्युल और फ़न्नीयत को बे-इंतिहा क़द्र क़ीमत हासिल थी। इसी माहौल ने बचपन ही से ज़ेहरा निगाह के दिल में अदब का एक पुर-नूर चिराग़ रोशन कर दिया।

उनकी बड़ी बहन फ़ातिमा सुरैया बाज़ी मक़बूल और मारूफ़ अफ़्साना-निगार थीं। उनके भाई अनवर मक़सूद पाकिस्तान के नामवर मुज़ाहिया अदबी असातज़ा में शुमार किए जाते हैं और एक बुलंद-पाया टेलीविज़न होस्ट भी हैं। उनके दूसरे भाई अहमद मक़सूद हुकूमत-ए-सिंध में अहम ओहदों पर फ़ाइज़ रहे। घर का ये सारे पहलुओं से भरपूर अदबी और इल्मी माहौल ज़ेहरा निगाह के फ़िक्रो-फ़न को वो बलंदियाँ और गहराईयाँ बख़्शता रहा जिसने उनकी शायरी, उनके लहजे और उनके अदबी अंदाज़ को बेहद नफ़ासत और नयापन अता  किया।

1960 के दशक में ज़ेहरा निगाह ने माजिद अली से रिश्ता-ए-शौहर-ओ-ज़न क़ायम किया। माजिद अली भी सिविल सर्वेंट होने के साथ शायरी का सलीम ज़ौक़ रखते थे। ये रिश्ता उनकी ज़िंदगी और उनके फ़न दोनों के लिए एक पुर-असर, मुबारक और दिलनशीं इज़ाफ़ा साबित हुआ।

शायरी और अदब में ज़ेहरा निगाह की शिनाख़्त

ज़ेहरा निगाह की शायरी में जदीद एहसासात और क्लासिकी फ़नकारी का ऐसा नादिर और पुर्सुकून इन्इज़ाज मिलता है जो उर्दू अदब की दुनिया में एक ख़ास रुतबा रखता है। उनके कलाम में ख़ातून-ए-फ़िक्र की पुर-नफ़ासत आहंग-ए-इंसानियत, मोहब्बत की गहरी तासीर और फ़लसफ़ियाना तख़य्युल उस अद्भुत हम-आहंगी के साथ समाहित है जो किसी बड़े फ़नकार का ही नसीब होती है। ज़ेहरा निगाह की शायरी सिर्फ़ दिल को नरम करने वाली नज़्मियात नहीं, बल्कि समाज के पुरपेच मसाइल पर गहरी, मुतमइन्न और बेबाक आवाज़ भी है। उन्होंने उर्दू शायरी में औरत की फ़िक्र को नया हौसला, नई रूह और नया रुतबा अता किया — और इस बात का एहसास दिलाया कि औरत का लहजा अदब की रूह में कितना अहम, कितना असरअंदाज़ और कितना ज़रूरी है।

उनकी मारूफ़ तसानीफ़ “शाम का पहला तारा”, “वर्क़”, “फ़िराक़”, और “गुल-चाँदनी” उनकी फ़नकाराना बारिक़-बीनि, तख़य्युल की वुसअत और अल्फ़ाज़ पर उनकी बे-मिसाल पकड़ की झलकियाँ हैं। इन तख़्लीक़ात में ज़ेहरा निगाह ने अपनी रूह के एहसास, दिल की धड़कनों और तजुर्बात-ए-ज़िंदगी को इस तरह बयान किया है कि उर्दू शायरी की नज़ाकतें एक नए नूर, नई ताजगी और नई तल्ख़-ओ-शीरिनी के साथ उभर कर सामने आती हैं।

ज़ेहरा निगाह के कलाम में एक ख़ास क़िस्म का रूहानी दर्द, मोहब्बत की गहराई और एहसास की नर्मी शामिल है — जो हर पाठक को चुपके से अपने दायरे में खींच लेती है और देर तक उसके दिल-ओ-ज़ेहन में अपनी महक छोड़ देती है।

इनामात और इकरामात (पुरस्कार और सम्मान)

ज़ेहरा निगाह को उर्दू शायरी और अदब के मैदान में उनकी बेमिसाल ख़िदमात, उनके फ़िक्री उरूज और उनकी फ़नकाराना नफ़ासत के एतिराफ़ में कई अहम, बुलंद और वक़ार-आफ़रीन एज़ाज़ात से नवाज़ा गया। 2006 में हुकूमत-ए-पाकिस्तान की जानिब से उन्हें “प्राइड ऑफ़ परफ़ॉर्मेंस” जैसा आला और नामवर अदबी एज़ाज़ पेश किया गया, जो पाकिस्तान का सबसे मुक़द्दस और मोअतबर सिविल अवार्ड तस्लीम किया जाता है।

उसके बाद 2013 में उन्हें “एलएलएफ लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सरफ़राज़ किया गया, जो उनके फ़न की पाकीज़गी और अदबी असरअंदाज़ी का रौशन इज़हार था। 2018 में ज़ेहरा निगाह को “अल्लामा इक़बाल अवार्ड” से नवाज़ा गया — ये वह एज़ाज़ है जो सिर्फ़ उन फ़नकारों को मिलता है जिनके कलाम में मिल्लत, तख़य्युल और शऊर की बुलंदियाँ पाई जाती हैं।

2019 में उन्हें “यूबीएल लिटरेरी लाइफ़टाइम अवार्ड” मिला, जिसने उनके तख़्लीक़ी सफ़र और अदबी विरसे को एक नई रोशनी में उभारा। 2021 में उन्हें “आर्ट्स काउंसिल लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड” भी पेश किया गया — जो इस बात की पुरज़ोर तसदीक़ है कि ज़ेहरा निगाह का फ़न, उनका असर और उनकी अदबी महक आज भी उसी शान, उसी जलवे और उसी रौशन दायरे में क़ायम है।

आलमी पहचान और एतराफ़

ज़ेहरा निगाह का अदबी सफ़र सिर्फ़ पाकिस्तान की सरहदों तक महदूद नहीं रहा, बल्कि हिन्दुस्तान समेत दुनिया के कई मुल्कों में उनके फ़न को बेपनाह पसन्दीदगी और इज़्ज़त बख़्शी गई। उनके कलाम ने उर्दू-शायरी के शैदाइयों के दिलों में ही नहीं, बल्कि मुख़्तलिफ़ ज़बानों और तहज़ीबों के अदबी हलक़ों में भी अपनी ख़ास दास्तान-ए-तासीर छोड़ दी। उनकी नज़्मों और अशआर का तरजुमा मुख़्तलिफ़ भाषाओं में हुआ, जिससे उनका फ़िक्रो-फ़न आलमी सतह पर और भी नुमाया हो उठा।

ज़ेहरा निगाह को दुनिया भर में होने वाले अदबी इज्तिमाअत, नुशून-ए-अदब और मज़ामीनी जल्सों में अहम मेहमाना-ए-ख़ुसूसी और ख़िताबी शख़्सियत के तौर पर दावत दी जाती रही है। 2014 के इस्लामाबाद लिटरेचर फ़ेस्टिवल में उनकी पुर-असर मौजूदगी ने समाअतों को ताज़गी बख़्शी, जबकि 2015 के कराची लिटरेचर फ़ेस्टिवल में उनके ख़ुत्बे और अदबी तख़ातुब को बे-पनाह सराहना मिली। इसके अलावा भी उन्होंने आलमी अदबी मंचों, मुशायरों और महफ़िलों में अपनी फ़िक्र, अपने लहजे और अपने फ़न से एक ऐसी रोशनी फैलायी जिसने उन्हें एक आलमी अदबी हस्ती का दर्जा अता किया।

ज़ेहरा निगाह का मौजूदा कैफ़ियत और रुतबा

आज के दौर में ज़ेहरा निगाह उर्दू अदब की एक नुमायाँ, मोअतबर और बेहद असरअंदाज़ शख़्सियत के तौर पर तस्लीम की जाती हैं। उनके कलाम की अस्ल ख़ूबी उसकी गहराई, एहसास की नर्मी, तअम्मुल की रफ़्तार और ख़ासतौर पर औरत की पहचान, उसके तजुर्बात और उसके एहसासात के बारे में उनकी पुर-ख़ुलूस और बेबाक नज़र में है।

वो सिर्फ़ एक बुलंद-पाया शायरा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी अदबी सर्व-शख़्सियत हैं जिन्होंने उर्दू साहित्य की तारीख़ पर अपनी मौजूदगी की ऐसी नक़्श-अंदाज़ छाप छोड़ी है जो वक़्त की गर्द भी मिटा नहीं सकती।

उनका काव्य आज भी मुशायरों, अदबी महफ़िलों और फ़िक्र-ओ-नज़्म की बैठकों में उसी शौक़ और तवज्जोह के साथ पढ़ा जाता है। उनकी आवाज़ — जो एहसास, फ़िक्र और नफ़ासत का संगम है — हमेशा उर्दू अदब की दुनिया में गूँजती रहेगी और आने वाली नस्लों के लिए रहनुमा बनी रहेगी।


ज़ेहरा निगाह की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 


1-ग़ज़ल 


बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है

जाने वालों का जाना याद आ जाता है


बात-चीत में जिस की रवानी मसल हुई

एक नाम लेते में कुछ रुक सा जाता है


हँसती-बस्ती राहों का ख़ुश-बाश मुसाफ़िर

रोज़ी की भट्टी का ईंधन बन जाता है


दफ़्तर मंसब दोनों ज़ेहन को खा लेते हैं

घर वालों की क़िस्मत में तन रह जाता है


अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है

कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है

2-ग़ज़ल 

ये उदासी ये फैलते साए

हम तुझे याद कर के पछताए


मिल गया था सकूँ निगाहों को

की तमन्ना तो अश्क भर आए


गुल ही उकता गए हैं गुलशन से

बाग़बाँ से कहो न घबराए


हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी

तुम जो आए तो मंज़िलें लाए


जो ज़माने का साथ दे न सके

वो तिरे आस्ताँ से लौट आए


बस वही थे मता-ए-दीदा-ओ-दिल

जितने आँसू मिज़ा तलक आए


3-ग़ज़ल 

कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए

कुछ किया जाए चराग़ों को बुझाया जाए


भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ

वो सितमगर जो न भूले से भुलाया जाए


जिस के बाइस हैं ये चेहरे की लकीरें मग़्मूम

ग़ैर-मुमकिन है कि मंज़र वो दिखाया जाए


शाम ख़ामोश है और चाँद निकल आया है

क्यूँ न इक नक़्श ही पानी पे बनाया जाए


ज़ख़्म हँसते हैं तो ये फ़स्ल-ए-बहार आती है

हाँ इसी बात पे फिर ज़ख़्म लगाया जाए

4-ग़ज़ल 

अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा

कितने दिन के ब'अद मुझ को आईना अच्छा लगा


सारा आराइश का सामाँ मेज़ पर सोता रहा

और चेहरा जगमगाता जागता हँसता लगा


मल्गजे कपड़ों पे उस दिन किस ग़ज़ब की आब थी

सारे दिन का काम उस दिन किस क़दर हल्का लगा


चाल पर फिर से नुमायाँ था दिल-आवेज़ी का ज़ोम

जिस को वापस आते आते किस क़दर अर्सा लगा


मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी

वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा


5-ग़ज़ल 

ख़ूब है साहब-ए-महफ़िल की अदा

कोई बोला तो बुरा मान गए


कोई धड़कन है न आँसू न ख़याल

वक़्त के साथ ये तूफ़ान गए


तेरी एक एक अदा पहचानी

अपनी एक एक ख़ता मान गए


उस को समझे कि न समझे लेकिन

गर्दिश-ए-दहर तुझे जान गए

1 -नज़्म 

सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता


दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है

हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं


तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर

कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है


सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है

सुना है जब किसी नद्दी के पानी में


बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है

तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं


कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो

किसी लकड़ी के तख़्ते पर


गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं

सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है


ख़ुदावंदा! जलील ओ मो'तबर! दाना ओ बीना! मुंसिफ़ ओ अकबर!

मिरे इस शहर में अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िज़ कर

तब्सरा:-

ज़ेहरा निगाह का तख़्लीक़ी सफ़र उर्दू अदब की उस रौशन रवायत का हिस्सा है जिसमें एहसास की नर्मी, फ़िक्र की बुलंदी और अल्फ़ाज़ की नफ़ासत एक ही साज़ पर एक साथ गूंजती हैं। उनका फ़न दरअस्ल एक ऐसे तजुर्बे का नाम है जो सिर्फ़ पढ़ा नहीं जाता, बल्कि पाठक के सीने में एक ख़ामोश, मगर गहरी लहर की तरह उतरता चला जाता है। ज़ेहरा निगाह की शायरी, उनका फ़लसफ़ा, उनकी तख़लीक़ी सरगोशियाँ—इन सब में एक ऐसा पुरअसर तवाज़ुन नुमायाँ है जिसने उन्हें न सिर्फ़ उर्दू अदब की एक नुमायाँ शख़्सियत बनाया, बल्कि एक ऐसी आवाज़ भी बना दिया जो अपनी नफ़ासत और सलीक़े में बाक़ियों से बिल्कुल अलग और मुक़्तलिफ़ दिखाई देती है।

उनके कलाम में औरत की ज़िंदगी, उसके तजुर्बात, उसके दबे एहसास और उसके रौशन हक़ीक़तों को जिस अंदाज़ में पेश किया गया है, वह सिर्फ़ हमदर्दी का बयान नहीं बल्कि एक पूरी क़ौम की रूह और उसके ज़मीर की पुकार है। ज़ेहरा निगाह ने उर्दू शायरी को उस नज़र से देखा है जहाँ अल्फ़ाज़ ज़ंजीरें नहीं, बल्कि परवाज़ बन जाते हैं; जहाँ शायरा अपनी नज़्म के ज़रिए सिर्फ़ बयान नहीं करती, बल्कि एक तर्जुमानी करती है—ज़माने की, समाज की और ख़ासतौर पर औरत की।

उनकी तसानीफ़ इस बात का सुबूत हैं कि एक सच्चा फ़नकार सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का तिजारती इस्तेमाल नहीं करता, बल्कि उन्हें एहसास, समझ और दानाई की आग में गलाकर नया रूप देता है। “शाम का पहला तारा”, “वَرक़”, “फ़िराक़”, और “गुल-चाँदनी” जैसी किताबें उनके तख़्युल और उनकी अदबी हैसियत की आयतें हैं, जिनमें दर्द भी है, मोहब्बत भी है, और एक ऐसे ख़्वाब की झलक भी है जो ताबीर माँगता है।

दुनिया भर में उन्हें मिलने वाले एज़ाज़—प्राइड ऑफ़ परफ़ॉर्मेंस से लेकर आलमी अदबी फ़ेस्टिवल्स तक—यक़ीनी तौर पर उनके फ़न की बुलंदी का इकरार हैं, मगर ज़ेहरा निगाह का असल एज़ाज़ वो महक है जो उनके अल्फ़ाज़ से निकलकर अपने पाठकों के दिलों में उतर जाती है। उनकी शख़्सियत का असल जादू उनके कलाम का वो सादा, मगर पुर-तहज़ीब लहजा है जो न तो मुश्किल तश्कील का मोहताज है और न ही बनी-बनाई रवायतों का क़ैदी।

आज, जब उर्दू अदब नई मंज़िलों की तलाश में है, ज़ेहरा निगाह एक ऐसे रौशन चराग़ की तरह खड़ी हैं जो न सिर्फ़ राह दिखाती हैं, बल्कि रास्ते को महकाती भी हैं। उनकी आवाज़, उनका फ़िक्र, और उनका सफ़र उर्दू अदब की उस विरासत का नाम है जिस पर फ़ख़्र किया जा सकता है—और जो आने वाली नस्लों के लिए हमेशा एक रहनुमा बनकर क़ायम रहेगीये भी पढ़ें 

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