Krishn Bihari Noor Poet: एक ब कमाल शायर, फ़ज़ल नक़वी के शागिर्द से उर्दू अदब के उस्ताद तक का सफ़र

 कृष्ण बिहारी ‘नूर’ — ये नाम सुनते ही दिल में नर्म रोशनी की एक लहर सी दौड़ जाती है। वो एक ऐसा शायर थे जिन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़िंदगी के हुस्न, इंसानियत की नर्मी और इश्क़ की पाकीज़गी को इस अंदाज़ में बयान किया कि उनकी हर ग़ज़ल दिलों की गहराइयों में उतर जाती है। नूर साहब का फ़न, उनका तर्ज़-ए-इज़हार और उनका सूफ़ियाना मिज़ाज उन्हें उन शायरों की क़तार में शामिल करता है जिनकी शायरी सिर्फ़ पढ़ी नहीं जाती — महसूस की जाती है।


इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का जन्म 8 नवंबर 1926 को गौस नगर, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उनके वालिद बाबू कुंज बिहारी एक मुतअल्लिम और तहज़ीब-आफ़्ता शख़्सियत थे। घर का माहौल इल्म, अदब और रोशन खयालात से भरपूर था, और उसी माहौल ने नूर के अंदर एक फ़नकार की रूह को जागृत किया।
उन्होंने अपनी तालीम का आग़ाज़ घर पर ही किया, जहाँ उनकी रुचि इल्म और ज़बान दोनों में दिखने लगी। बाद में उन्होंने अमीनाबाद हाई स्कूल से स्कूल की तालीम मुकम्मल की और लखनऊ यूनिवर्सिटी से स्नातक (ग्रेजुएशन) की डिग्री हासिल की। तालीम के दिनों में ही उन्होंने शे’र-ओ-शायरी की दुनिया में क़दम रखा — और यही क़दम आगे चलकर उर्दू अदब में एक ख़ूबसूरत सफ़र की बुनियाद बना।


मुलाज़मत और ज़िंदगी का सफ़र

तालीम पूरी करने के बाद नूर साहब ने भारतीय रेलवे के RLO विभाग (लखनऊ) में नौकरी शुरू की। अपने ख़ुलूस, मेहनत और दीانتदारी से उन्होंने एक लम्बा अरसा इस इदारे में गुज़ारा और आख़िरकार 30 नवंबर 1984 को सहायक प्रबंधक (Assistant Manager) के ओहदे से रिटायर हुए।
हालाँकि उनकी ज़िंदगी का एक हिस्सा सरकारी मुलाज़मत में गुज़रा, लेकिन उनका दिल हमेशा शायरी की दुनिया में सरगर्म रहा। नौकरी के सख़्त दिनों में भी वो काग़ज़ पर अपने जज़्बात उतारना नहीं भूले। यही वो जुनून था जिसने एक अफ़सर के अंदर छिपे शायर को अमर बना दिया।


अदबी ज़िंदगी और सूफ़ियाना मिज़ाज

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का नाम उर्दू शायरी की उस परंपरा से जुड़ा है जहाँ रूहानी एहसास, हिंदुस्तानी फ़लसफ़ा, और सूफ़ियाना तास्सुरात एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं।
वे फ़ज़ल नक़वी के शागिर्द थे, और उर्दू व देवनागरी दोनों लिपियों पर उनका कमाल हासिल था।
उनकी ग़ज़लों में तसब्बुर की गहराई, मोहब्बत की नर्मी और इंसानियत की मिठास झलकती है। वो महज़ एक शायर नहीं, बल्कि एक दरवेश थे — जिनकी शायरी में इश्क़ इलाही और दर्द-ए-दिल दोनों का संगम नज़र आता है।

उनका कलाम ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों को भी इतनी नरमी से बयान करता है कि दर्द भी एक दुआ सा लगता है। उन्होंने लिखा था —
"हर एक अश्क में एक क़िस्सा छिपा होता है,
नूर का लफ़्ज़ भी दिल का पता होता है।"


मुशायरों की रौनक

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का नाम जब किसी मुशायरे की फ़ेहरिस्त में होता, तो श्रोताओं के दिलों में एक नई उम्मीद जग उठती। उनके लफ़्ज़ों की मिठास और आवाज़ की गहराई महफ़िल को जादू की तरह अपने असर में ले लेती थी।
उनका अंदाज़-ए-बयान इतना असरअंगेज़ था कि हर मिसरा सुनने वाले को सोचने पर मजबूर कर देता था। वे सिर्फ़ शेर नहीं कहते थे, बल्कि हर शेर के साथ एक अहसास, एक पैग़ाम पेश करते थे।
नूर साहब की शख़्सियत में वो सादगी थी जो बड़े लोगों की पहचान होती है — और वो लहजा जो दिलों तक पहुँच जाता है।


संगीत और नूर की शायरी

उनकी ग़ज़लों को आवाज़ देने वाले फ़नकारों की फ़ेहरिस्त भी उतनी ही शानदार है।
ग़ुलाम अली, असलम ख़ान, पीनाज़ मसानी, भूपेंद्र सिंह, और रवींद्र जैन जैसे मशहूर गायकों ने उनके कलाम को अपने सुरों में ढालकर उसे अमर बना दिया।
उनकी ग़ज़लों में वो लय और सादगी थी जो हर दिल को छू जाए — और यही वजह है कि उनकी शायरी सिर्फ़ अदब की नहीं, बल्कि संगीत की दुनिया में भी अपनी जगह रखती है।


अहम तस्नीफ़ात (रचनाएँ)

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की तहरीरें और मज़मूए उनके ज़हन की गहराई और दिल की पाकीज़गी का आइना हैं। उनकी कुछ यादगार किताबें हैं —

  • “दुख-सुख” (उर्दू)

  • “तपस्या” (उर्दू)

  • “समंदर मेरी तलाश में” (हिंदी)

  • “हुसैनियत की छाँव में”

  • “तजल्ली-ए-नूर”

इन तस्नीफ़ात में नूर साहब ने ज़िंदगी, इश्क़, इंसानियत, और रूहानी तजुर्बों को इस ख़ूबसूरती से पिरोया है कि हर सतर एक नई दुनिया की तरफ़ ले जाती है।

वफ़ात और विरासत

30 मई 2003 को ग़ाज़ियाबाद के एक अस्पताल में ऑपरेशन के दौरान कृष्ण बिहारी ‘नूर’ इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गए।
उनकी मौत अदबी दुनिया के लिए एक गहरा सदमा थी। लेकिन हक़ीक़त ये है कि नूर जैसे शायर मरते नहीं — उनके लफ़्ज़ हमेशा ज़िंदा रहते हैं।
आज भी उनकी शायरी किताबों, मुशायरों और महफ़िलों में उसी जोश और मोहब्बत से सुनी जाती है। उनके अल्फ़ाज़ अब भी दिलों को छूते हैं, और हर बार एक नया असर छोड़ जाते हैं।


नूर की विरासत – एक रौशन सफ़र

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की शख़्सियत और उनका फ़न आज भी उर्दू अदब की रूह में ज़िंदा हैं। उन्होंने उर्दू शायरी को एक ऐसा रुख़ दिया जिसमें हिंदुस्तानी तहज़ीब, सूफ़ियाना तर्ज़, और इंसानियत का पैग़ाम एक साथ साँस लेते हैं।
उनकी शायरी एक पुल की तरह है — जो हिंदुस्तान की दो लिपियों, दो ज़बानों और दो तहज़ीबों को जोड़ती है।

कृष्ण बिहारी नूर की शायरी,ग़ज़लें,नज़्मे 


ग़ज़ल-1

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत


रात हो दिन हो कि ग़फ़लत हो कि बेदारी हो

उस को देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत


तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी

कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत


मिरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह

मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत


कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है

घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत

ग़ज़ल-2

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं


इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं


ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है

दूसरा कोई रास्ता ही नहीं


सच घटे या बढ़े तो सच न रहे

झूट की कोई इंतिहा ही नहीं


ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ

ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं


जिस के कारन फ़साद होते हैं

उस का कोई अता-पता ही नहीं


कैसे अवतार कैसे पैग़मबर

ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं


चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो

आईना झूट बोलता ही नहीं


अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है

'नूर' संसार से गया ही नहीं

ग़ज़ल-4


यारो घर आई शाम चलो मय-कदे चलें

याद आ रहे हैं जाम चलो मय-कदे चलें


दैर-ओ-हरम पे खुल के जहाँ बात हो सके

है एक ही मक़ाम चलो मय-कदे चलें


अच्छा नहीं पिएँगे जो पीना हराम है

जीना न हो हराम चलो मय-कदे चलें


यारो जो होगा देखेंगे ग़म से तो हो नजात

ले कर ख़ुदा का नाम चलो मय-कदे चलें


साक़ी भी है शराब भी आज़ादियाँ भी हैं

सब कुछ है इंतिज़ाम चलो मय-कदे चलें


ऐसी फ़ज़ा में लुत्फ़-ए-इबादत न आएगा

लेना है उस का नाम चलो मय-कदे चलें


फ़ुर्सत ग़मों से पाना अगर है तो आओ 'नूर'

सब को करें सलाम चलो मय-कदे चलें



बिछड़ के तुझ से न जीते हैं और न मरते हैं

अजीब तरह के बस हादसे गुज़रते हैं


ज़मीन छोड़ न पाऊँगा इंतिज़ार ये है

वो आसमान से धरती पे कब उतरते हैं


ये किस ने खींच दी साँसों की लक्ष्मण-रेखा

कि जिस्म जलता है बाहर जो पाँव धरते हैं


ये चाँद तारे ज़मीं और आफ़्ताब तमाम

तवाफ़ करते हैं किस का तवाफ़ करते हैं?


हयात देती हैं साँसें बस इक मक़ाम तलक

फिर इस के बा'द तो बस साँस साँस मरते हैं

ग़ज़ल-5


लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फँसूँ
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के

पिछले जन्म की गाढ़ी कमाई है ज़िंदगी
सौदा जो करना करना बहुत देख-भाल के

मौसम हैं दो ही इश्क़ के सूरत कोई भी हो
हैं उस के पास आइने हिज्र-ओ-विसाल के

अब क्या है अर्थ-हीन सी पुस्तक है ज़िंदगी
जीवन से ले गया वो कई दिन निकाल के

यूँ ज़िंदगी से कटता रहा जुड़ता भी रहा
बच्चा खेलाए जैसे कोई माँ उछाल के

ये ताज ये अजंता एलोरा के शाहकार
अफ़्साने से लिखे हैं उरूज-ओ-ज़वाल के

तब्सरा :-

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ — एक ऐसा नाम जो उर्दू अदब के दामन में चाँदनी की तरह चमकता है। उनकी शख़्सियत में सादगी का वो रंग था जो किसी दरवेश के लिबास में झलकता है, और उनके फ़न में वो गहराई थी जो रूह की तहों को छू जाए। नूर का कलाम महज़ अल्फ़ाज़ का इज़हार नहीं, बल्कि दिल की ज़ुबान है; एक ऐसी ज़ुबान जो मोहब्बत, इंसानियत और तफ़क्कुर से बुनी गई है।

उनकी शायरी में सूफ़ियाना तर्ज़ की वो नरमी है जो दर्द को भी दुआ बना देती है। हर मिसरा, हर शे’र जैसे किसी रूहानी तजुर्बे से गुज़रा हो। नूर अपने अशआर में दुनिया की तल्ख़ सच्चाइयों को बयान करते हैं, मगर इतनी शफ़क़त और ख़ुलूस के साथ कि हर दर्द एक सबक़ बन जाता है और हर आह एक नज़्म।

उनकी शख़्सियत में हिंदुस्तानी तहज़ीब का वो नूर झलकता है, जिसमें उर्दू की नज़ाकत और देवनागरी की सादगी का संगम है। उन्होंने दिखाया कि ज़ुबान महज़ लफ़्ज़ों का नाम नहीं, बल्कि एहसास का वसीला है — और वही एहसास उन्हें अपने दौर का अनोखा शायर बनाता है।

नूर का कलाम सूफ़ियाना रूह की ख़ुशबू लिए हुए है। उनकी शायरी में इश्क़-ए-मजाज़ी से इश्क़-ए-हक़ीकी तक का सफ़र बयान होता है। वे उस तबक़े के शायर हैं जिनकी ग़ज़लों में हिंदुस्तानी फ़लसफ़ा, सूफ़ियाना नज़रिया और ज़मीन की सादगी एक साथ नज़र आती है।
उनके शेर नाज़ुक भी हैं और असरअंगेज़ भी 
कभी दर्द में भी मुस्कुराने की वज़ाहत करते हैं,
कभी ख़ामोशी को भी बयान में बदल देते हैं।

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का अंदाज़ किसी एक तर्ज़ तक महदूद नहीं था। वो फ़िक्र के शायर भी हैं, एहसास के भी; वो तसल्ली का पैग़ाम देने वाले भी हैं और सवाल उठाने वाले भी। उनकी शायरी में इंसानियत का वो रंग है जो किसी मज़हब, किसी सरहद से परे है।

उनका हर शेर इस बात का गवाह है कि नूर ने कलम सिर्फ़ लिखने के लिए नहीं उठाई — बल्कि रोशनी बाँटने के लिए उठाई थी। यही वजह है कि उनकी शायरी आज भी उसी ताजगी से साँस लेती है, जैसे किसी सुबह की पहली हवा।

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की शख़्सियत हमें ये याद दिलाती है कि शायर वो नहीं जो दुनिया से दूर हो, बल्कि वो है जो दुनिया के दिल की धड़कन को अल्फ़ाज़ में बदल दे। और नूर साहब ने ये कमाल पूरी शिद्दत, पूरे सलीके और पूरे अदब के साथ अंजाम दिया।

उनकी शायरी में वो “नूर” है जो अंधेरों में भी उम्मीद की लौ जलाता है —
वो नूर जो हर दिल में उजाला करता है,
और हर ज़ुबान पर मोहब्बत की बात छोड़ जाता है।

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ — एक शायर नहीं, बल्कि एहसास की वो आवाज़ हैं जो आज भी उर्दू अदब के सीने में महफ़ूज़ है। ये भी पढ़े 

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