Wasim Barelvi Poet: उर्दू अदब के बड़े उस्ताद शायर की ज़िंदगी का सफरनामा

वसीम बरेलवी — एक ऐसा नाम जो अदब की दुनिया में एहसास, जज़्बात और इंसानियत का पैग़ाम लेकर आया। उनका असल नाम ज़ाहिद हुसैन है, लेकिन अदब की दुनिया उन्हें उनके तख़ल्लुस ‘वसीम बरेलवी’ से पहचानती है।

उनका जन्म 8 फ़रवरी 1940 को बरेली (उत्तर प्रदेश) में हुआ — वही शहर जो अपनी तहज़ीब, सूफ़ियाना माहौल और उर्दू अदब की रूहानी खुशबू के लिए मशहूर है। बचपन से ही इल्म और तालीम का माहौल उन्हें हासिल रहा। उनके वालिद ने उन्हें न सिर्फ़ इल्म की तरफ़ रुझान दिया बल्कि इंसानियत और अदब का सबक़ भी सिखाया।


तालीम और तजुर्बे का सफ़र

वसीम साहब ने बरेली कॉलेज से उर्दू अदब में एम.ए. किया। मगर उनकी असली तालीम किताबों से ज़्यादा ज़िंदगी से मिली।
उन्होंने शब्दों को सिर्फ़ पढ़ा नहीं, महसूस किया — और वही एहसास बाद में उनके अशआर का सरमाया बना।

बरेली कॉलेज में उन्होंने बतौर प्रोफ़ेसर और बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सालों तक तालीम दी।
उनकी कक्षा में शायरी महज़ एक सब्जेक्ट नहीं थी — बल्कि एक ज़िंदा तजुर्बा था, जहाँ हर मिसरा एक सबक़ था और हर शेर एक आईना।

उर्दू अदब की ख़िदमत

वसीम बरेलवी ने उस दौर में उर्दू की मशाल थामी जब ये ज़बान तख़्ती से मिटाई जा रही थी।
उन्होंने न सिर्फ़ इस ज़बान को ज़िंदा रखा बल्कि इसे नई नस्ल तक पहुंचाया।
उनकी शायरी एक पुल है — जो पुरानी तहज़ीब और नई सोच को जोड़ती है।

उनकी किताबें जैसे —

  • “मोहब्बत मर नहीं सकती”

  • “इक बार फिर से कहना”

  • “तेरे ख़त मेरे जवाब”

  • “तुम्हारे लिए”

उर्दू अदब की रूह हैं, जो हर दौर में ताज़ा महसूस होती हैं।

इनमें वसीम साहब ने नफ़रत के अंधेरे में मोहब्बत की मशाल जलाई और साबित किया कि “अल्फ़ाज़ भी इबादत बन सकते हैं।”

इनामात और इज़्ज़तें

वसीम बरेलवी साहब की अदबी और तालीमी ख़िदमत को केवल आम लोगों ने नहीं सराहा, बल्कि मुल्क और उर्दू अदब के बड़े इदारों ने भी उन्हें एहतिराम और फ़ख़्र की नज़र से देखा। उनकी शायरी जहाँ दिलों में गूंजती है और जज़्बातों को झंकृत करती है, वहीं उनकी शख़्सियत उर्दू फ़लक़ पर एक रोशन सितारा की तरह दमकती है।

भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय परिषद برائے فروغِ زبانِ اردو (NCPUL) का वाइस चेयरमैन (Vice Chairman) नियुक्त किया, ताकि वे उर्दू की रूह, तहज़ीब और फ़न को नई दिशा दे सकें। यह नियुक्ति उनके अल्फ़ाज़ों और जज़्बातों की उस रूहानी चमक का ऐतराफ़ थी, जिसे उन्होंने दशकों तक अदब की महफ़िलों और शायरी के ज़रिए बिखेरा।

साल 2016 में, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अख़िलेश यादव ने उन्हें उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए नामांकित किया — एक ऐहतिराम जो उनके अदबी क़द्र, फ़न और समाज में उनकी साख़ का जीवंत सबूत है।

उनकी ख़िदमत और शायरी को देखते हुए उन्हें फ़िराक़ इंटरनेशनल अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया — यह वह उल्लेखनीय सम्मान है जो उनकी शायरी की रूहानी गहराई, अल्फ़ाज़ की नाज़ुकियत और तहज़ीब की मिठास के लिए दिया गया।

आज वसीम बरेलवी साहब Vice Chairman, NCPUL के तौर पर उर्दू भाषा की रूह, तहज़ीब और तालीम को नई नस्ल तक पहुँचाने का काम अंजाम दे रहे हैं। उनका मक़सद सिर्फ़ शायरी नहीं, बल्कि एक पूरी ज़बान, उसकी तन्हा रूह और फ़न की ताज़गी को ज़िंदा रखना है।
उनके अल्फ़ाज़ महज़ शब्द नहीं, बल्कि महफ़िलों, दिलों और रूहानी जज़्बातों तक पहुँचते हैं, और हर सुनने वाले के अंदर इंसानियत और मोहब्बत का उजाला भर देते हैं।


वसीम बरेलवी साहब के कलाम 

1 -ग़ज़ल 

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा 

उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा 

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं 

मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा 

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र 

रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा 

सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा 

इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा 

2 -ग़ज़ल

क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता 

आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता 

तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या 

हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता 

प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात 

किस के लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता 

घर ढूँड रहे हैं मिरा रातों के पुजारी 

मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता 

वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए 

ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता 

3 -ग़ज़ल

कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है 

समुंदर है अदाकारी करे है 

कोई माने न माने उस की मर्ज़ी 

मगर वो हुक्म तो जारी करे है 

नहीं लम्हा भी जिस की दस्तरस में 

वही सदियों की तय्यारी करे है 

बड़े आदर्श हैं बातों में लेकिन 

वो सारे काम बाज़ारी करे है 

हमारी बात भी आए तो जानें 

वो बातें तो बहुत सारी करे है 

यही अख़बार की सुर्ख़ी बनेगा 

ज़रा सा काम चिंगारी करे है 

बुलावा आएगा चल देंगे हम भी 

सफ़र की कौन तय्यारी करे है 

कुछ बहुत मशहूर अशआर 

वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से

मैं ए'तिबार करता तो और क्या करता

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वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए

ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता

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ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं

तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी

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मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़ामोश

ऐसे भी मेरी हार हुई है कभी कभी


तब्सरा:-

नायाब-ओ-क़ाबिल-ए-एहतिराम, यह शख़्सियत डॉ. वसीम बरेलवी साहब की है—एक ऐसा नाम जो उर्दू शायरी के फ़लक-ए-फ़न पर महज़ सितारा नहीं, बल्कि आफ़ताब-ए-ताबाँ (चमकता सूरज) है। वो अदीब नहीं, बल्कि अदब की ज़िंदा रूह हैं; वो शायर नहीं, बल्कि शायरी का अल्लामा हैं। उनकी शख़्सियत और उनके फ़न-ए-शायरी पर यह तफ़सीली जायज़ा उर्दू अदब के सफ़्हों पर एक इल्मी और रूहानी इबारत है।

शख़्सियत: नफ़ासत-ए-तहज़ीब और वक़ार-ए-सादगी

वसीम बरेलवी साहब की शख़्सियत पुर-वक़ार ख़ामोशी और पुर-असरारा गुफ़्तगू का एक दिलकश संगम है। उनकी मौजूदगी महफ़िल में एक संगीनी (Gravity) और नफ़ासत (Refinement) पैदा करती है। यह वो अदबी ज़ात है जिसने शोहरत को अपने सर पर सवार नहीं होने दिया, बल्कि अपनी शायरी को ही अपनी पहचान बना लिया। उनका अंदाज़-ए-बयाँ, लब-ओ-लहजा, और उनके अल्फाज़ का चुनाव एक ऐसे शख़्स की तस्वीर पेश करता है जो तहज़ीब-ए-लखनऊ और नज़ाकत-ए-दिल्ली का मुकम्मल वारिस है। वह सिर्फ़ शेर नहीं पढ़ते, बल्कि अपने वजूद से ग़ज़ल की रूह को मुजस्सम (Embody) कर देते हैं।

वसीम साहब की शायरी का असल जादू उनकी 'सहुलत-ए-इम्तेना' (apparent ease with deep meaning) में छुपा है। उनकी ज़बान इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ और आम फ़हम (easily understandable) है कि लफ़्ज़ पढ़ते ही दिल में उतर जाते हैं, लेकिन उनका मानी (meaning) इस क़दर गहरा, फलसफियाना और जज़्बाती होता है कि सोचने पर मजबूर कर देता है।

1. ग़ज़ल में रूहानी मीठास:

उनकी ग़ज़लों में इश्क़-ए-मिजाज़ी (worldly love) और इश्क़-ए-हक़ीक़ी (spiritual love) का एक ऐसा नूरानी इम्तेज़ाज (radiant fusion) है कि हर शेर इंसानी जज़्बात की पाकीज़गी का आईना बन जाता है।

  • उनके यहाँ दर्द में भी एक मिठास है, तन्हाई में भी एक रूहानी महफ़िल है। वह जानते हैं कि ख़्वाबों, एहसासों और तन्हाइयों को लफ़्ज़ों का जामा कैसे पहनाया जाता है। उनकी ग़ज़ल एक 'मुकम्मल अहसास' होती है, जो सिर्फ़ सुनी नहीं जाती, बल्कि महसूस की जाती है।

2. अल्फ़ाज़ की ताक़त और नज़ाकत:

बरेल्वी साहब ने आम और रोज़मर्रा के इस्तेमाल होने वाले लफ़्ज़ों को 'शायराना वक़ार' बख़्शा। उन्होंने ज़बान को तकल्लुफ़ात (formalities) से दूर रखकर ऐसी रवानी अता की कि आज उनकी शायरी हर ज़बान बोलने वालों के लिए एक पुल (Bridge) का काम करती है। उनके अशआर ज़ुबान पर आते ही एक 'चाशनी' घोल देते हैं, जो उर्दू ज़बान की अस्ल तहज़ीबी दौलत है।

3. अदीब और रहनुमा:

उनका अदबी सफ़र सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं। राष्ट्रीय परिषद برائے فروغِ زبانِ اردو (NCPUL) में उनका मुक़ाम उनके इल्मी वक़ार का आइनादार है। यह साबित करता है कि वह महज़ शायर नहीं, बल्कि उर्दू अदब के निगहबान हैं, जिसने इस अज़ीम विरासत को नई नस्लों तक पहुँचाने का फ़र्ज़-ए-अज़ीम (great duty) निभाया है।


ख़ुलासा-ए-कलाम: 'अमर पैग़ाम' की शायरी

"वसीम बरेलवी की क़लम वो 'मशाल' है जो अंधेरे में रास्ता दिखाती है, और वो 'आईना' है जो इंसानी रूह के जज़्बात को बे-नक़ाब करती है। वो उर्दू शायरी के 'अहमद फ़राज़' और 'परवीन शाकिर' की रिवायत के सच्चे जानशीन हैं।"

उनका फ़न एक उस्तादी की मिसाल है, जिसने शायरी को शौक़ से निकालकर इबादत बना दिया। यह इबादत ही उन्हें उर्दू अदब के सबसे बुलंद मुक़ाम पर फ़ाइज़ करती है।ये भी पढ़ें 

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