Dr Kumar Vishwas Poet: हिंदी ,उर्दू अदब की दुनिया का बेबाक और बेमिसाल शायर

कुमार विश्वास, एक ऐसा नाम जिसने हिंदी शायरी को नई साँस, नई रवानी और नया शऊर अता किया। वो सिर्फ़ एक शायर नहीं, बल्कि एक ऐसे मुफक्किर, एक आशिक़-ए-वतन और एक फ़नकार हैं जिन्होंने लफ़्ज़ों में मोहब्बत की ख़ुशबू और क़ौमियत की हरारत घोल दी। उनकी शायरी में दिल की तपिश भी है और अक़्ल की रौशनी भी; कभी वो इश्क़ का तराना गाते हैं, कभी सच्चाई का परचम बुलंद करते हैं।

पैदाइश और इब्तिदाई ज़िंदगी

कुमार विश्वास का असल नाम विश्वास कुमार शर्मा है। उनका जन्म 10 फरवरी 1970 को हिंदुस्तान की रियासत उत्तर प्रदेश के ख़ूबसूरत मगर सादा क़स्बे पिलखुवा में हुआ। उनका ताल्लुक़ एक मुतवस्सित मगर इल्मी खानदान से था। वालिद प्रोफेसर चंद्रपाल शर्मा एक मुअज्ज़ज़ लेक्चरर थे जो इल्म व अदब के क़दरदान समझे जाते थे, जबकि वालिदा रमा शर्मा एक निहायत सलीक़ामंद, मेहरबान और मुतअक्क़ी ख़ातून थीं।

बचपन से ही विश्वास में इल्म, तख़य्युल और ज़बान की लतीफ़ी का शौक़ मौजूद था। वो अपने घर के इल्मी माहौल से गहराई से मुतास्सिर थे। उनके वालिद चाहते थे कि वो इंजीनियर बनें, लिहाज़ा उन्हें मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िल करवाया गया। मगर दिल के किसी कोने में लफ़्ज़ों की दुनिया आबाद थी।

इंजीनियरिंग के हिसाबी फ़ार्मूलों में वो लुत्फ़ न था जो उन्हें शायरी के क़ाफ़िया व रदीफ़ में महसूस होता था। लिहाज़ा एक दिन उन्होंने वो रास्ता छोड़ दिया जो दूसरों ने उनके लिए चुना था, और वो राह इख़्तियार की जो उनके दिल ने दिखाई — अदब, तख़लीक़ और शायरी की राह।

इसी सफ़र के दौरान उन्होंने हिंदी अदब में PhD मुकम्मल की, और अपनी शायराना पहचान के लिए नाम बदलकर विश्वास कुमार शर्मा से कुमार विश्वास रख लिया। ये वो लम्हा था जब उनके क़लम ने एक नई तारीख़ लिखी।

अदबी और तालीमी सफ़र

सन 1994 में कुमार विश्वास ने अपनी तद्रीसी ज़िंदगी का आग़ाज़ किया। सबसे पहले वो इंदिरा गांधी PG कॉलेज, पिलिबंगा (राजस्थान) में बतौर लेक्चरर मुक़र्रर हुए, फिर लाला लाजपत राय कॉलेज में तदरीस का फ़रीज़ा अंजाम दिया।

असातज़ा की दुनिया से ताल्लुक़ रखने के बावजूद उनके दिल में शायर का दिल धड़कता रहा। वो क्लास में अदब पढ़ाते थे, मगर उनकी रूह ग़ज़लें सुनाती थी। इसी दौर में उन्होंने शायरी की दुनिया में क़दम रखा, और जल्द ही उनकी नग़्मगी, ज़बान की सादगी, और जज़्बों की सच्चाई ने लोगों के दिलों पर राज करना शुरू कर दिया।

कुमार विश्वास ने अपनी अदबी ज़िन्दगी में कई यादगार तसानीफ़ पेश की हैं — वो किताबें जो शायरी, एहसास और फ़िक्र की ख़ुशबू से महकती हैं।


उनकी लिखी हुई किताबें ये हैं:

  • "कोई दीवाना कहता है" — (हिन्दी शायरी का एक उम्दा मजमूआ)"रागिनी" 

  • "कविता कोश" 

  • "फिर मेरी याद" 

  • "खुदकलामी" 

  • "विश्वासघा" 

  • "तर्पण" 

ये चारों मजमूए गोया चार मौसम हैं — कभी बहार की ख़ुशबू, कभी बरसात की नमी, कभी ख़िज़ाँ का दर्द, और कभी सरमा की ख़ामोशी।

मशक़-ए-सुख़न और मुशायरों की दुनिया

कुमार विश्वास का असल तआर्रुफ़ उनका लब व लहजा और आवाज़ की रवानी है। वो जब शे’र पढ़ते हैं तो सामे’न न सिर्फ़ सुनते हैं बल्कि उस में खुद को महसूस करते हैं। उनके कलाम में हिंदी, उर्दू और संस्कृत का हसीन इम्तिजाज है — एक ऐसी हम-आहंगी जो सरहदों से ऊपर है।

उनके मुशायरों की मक़बूलियत हिंदुस्तान की सरज़मीन से निकलकर पूरी दुनिया में फैल चुकी है। वो अमरीका, ब्रिटेन, दुबई, ओमान, सिंगापुर और जापान तक अपनी आवाज़ का जादू बिखेर चुके हैं।

उनकी शायरी में सिर्फ़ मोहब्बत नहीं, बल्कि इंसानियत, वतनपरस्ती और सच्चाई की रूह बस्ती है।
उनका मशहूर शे’र:

कोई दीवाना कहता हे कोई पागल समझता हे 

मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता हे ?”

ये शे’र उनकी ज़िंदगी का आईना है — दीवानगी, एहसास और शिद्दत का संगम।


सियासत का सफ़र और आज़माइशें

कुमार विश्वास ने जब आवाम के मसाइल की तरफ़ देखा तो ख़ामोश न रह सके। वो सिर्फ़ शायर नहीं रहना चाहते थे, वो तब्दीली की आवाज़ बनना चाहते थे। सन 2012 में उन्होंने आम आदमी पार्टी के साथ अपना सियासी सफ़र शुरू किया और पार्टी के बानी अर्कान में शामिल हुए।

सन 2014 में वो अमेठी से लोकसभा के उम्मीदवार बने, जहाँ उनका मुक़ाबला राहुल गांधी से हुआ। शिकस्त ज़रूर हुई, मगर उनके लफ़्ज़ों ने लोगों के दिल जीत लिए।

सियासत के मैदान में उन पर कई इल्ज़ामात लगे, स्टिंग ऑपरेशन, वीडियोज़ और विवादात ने उनका पीछा किया, मगर वो अपने वक़ार और यक़ीन के साथ डटे रहे।
उन्होंने कहा:

“मैं सियासत में आया हूँ किसी तख़्त के लिए नहीं,

 मैं आया हूँ ताकि आम आदमी की आवाज़ बन सकूँ।” 

मीडिया, शोहरत और फ़न की दुनिया

कुमार विश्वास ने टेलीविज़न पर भी अपनी शायस्तगी और शोख़ी के रंग बिखेरे। उनका प्रोग्राम “KV सम्मेलन” (Aaj Tak पर) एक अदबी इनक़िलाब से कम नहीं था, जिसमें वो हंसी, शायरी और फ़िक्र के इम्तिजाज से अवाम को महज़ मुसर्रत ही नहीं बल्कि तालीमी ज़ेहनियत देते रहे।

वो Indian Idol, Sa Re Ga Ma Pa Lil Champs और The Kapil Sharma Show जैसे शो में बतौर मेहमान नज़र आए।
उनके क़लम ने फिल्मी दुनिया में भी अपनी महक छोड़ी —
फिल्म “Parmanu: The Story of Pokhran” का नग़्मा “दे दे जगह” और “वीर भगत सिंह” उन्हीं की तख़लीक़ हैं।

उनका पेश किया गया प्रोग्राम “Tarpan” भी उनके फ़न का शाहकार है, जिसमें वो पुराने उर्दू-हिंदी शायरों का कलाम संगीत की धुनों में पिरोकर पेश करते हैं।


https://www.anthought.com/


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1-कविता 

कोई दीवाना कहता हे कोई पागल समझता हे 
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता 

में तुझसे दूर केसा तू मुझसे दूर कैसी हे 
ये तेरा दिल समझता हे या मेरा दिल समझता हे 

के मोहब्बत एक एहसासो  की पवन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है

यहां सब लोग कहते हैं मेरी आंखों में आसूं हैं
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है

मत पूछ की क्या हाल है मेरा तेरे आगे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे

समंदर पीर का अंदर है लेकिन रो नहीं सकता
ये आसु प्यार का मोती है इसको खो नहीं सकता

समंदर पीर का अंदर है लेकिन रो नहीं सकता
ये आसु प्यार का मोती है इसको खो नहीं सकता

मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता

भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा

अभी तक डूबकर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

2-ग़ज़ल 

फिर मिरी याद रही होगी

फिर वो दीपक बुझा रही होगी

फिर मिरे फेसबुक पे कर वो

ख़ुद को बैनर बना रही होगी

अपने बेटे का चूम कर माथा

मुझ को टीका लगा रही होगी

फिर उसी ने उसे छुआ होगा

फिर उसी से निभा रही होगी

जिस्म चादर सा बिछ गया होगा

रूह सिलवट हटा रही होगी

फिर से इक रात कट गई होगी

फिर से इक रात रही होगी

3-ग़ज़ल 

रंग दुनिया ने दिखाया है निराला देखूँ

है अँधेरे में उजाला तो उजाला देखूँ

आइना रख दे मिरे सामने आख़िर मैं भी

कैसा लगता है तिरा चाहने वाला देखूँ

कल तलक वो जो मिरे सर की क़सम खाता था

आज सर उस ने मिरा कैसे उछाला देखूँ

मुझ से माज़ी मिरा कल रात सिमट कर बोला

किस तरह मैं ने यहाँ ख़ुद को सँभाला देखूँ

जिस के आँगन से खुले थे मिरे सारे रस्ते

उस हवेली पे भला कैसे मैं ताला देखूँ

4-गीत 

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अगर नहीं आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को याद संग खेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तब्सरा:-

कुमार विश्वास सिर्फ़ एक शायर या कवि नहीं हैं, बल्कि वो एक ऐसे फ़नकार हैं जिन्होंने अल्फ़ाज़ को इंक़लाब की आवाज़ बना दिया। उनकी शायरी में सिर्फ़ मोहब्बत नहीं, बल्कि ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़तें और समाज की नब्ज़ भी धड़कती है। वो अपने लफ़्ज़ों से दिलों को छूने का हुनर जानते हैं — कभी मुस्कान बनकर, कभी आंसू बनकर।

उनकी शख़्सियत में एक साथ कई रंग हैं — एक शायर का जज़्बा, एक फ़लसफ़ी का तफ़क्कुर, एक मौलिम की सादगी और एक फ़नकार की शोखी। मंच पर जब वो शेर पढ़ते हैं तो लफ़्ज़ों में रूह उतर आती है और महफ़िल साँसें रोक लेती है।

कुमार विश्वास की शायरी में जोश भी है, जज़्बात भी और जुनून भी। उन्होंने हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों के दरम्यान एक पुल बनाया — जहाँ मीर की सादगी है, ग़ालिब की फ़िक्र है और फ़ैज़ का असर भी। उनकी शायरी “दिल से दिल तक” का सफ़र तय करती है — बेझिझक, बेबाक और बेइंतिहा ख़ूबसूरती के साथ।

उनका फ़न तालीम से ज़्यादा एहसास सिखाता है। उन्होंने शायरी को सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं रखा, बल्कि उसे हर दिल की ज़बान बना दिया। वो अपने दौर के उन चंद शायरों में से हैं जिन्होंने मंचीय कविता को एक नया मर्तबा दिया।

कुमार विश्वास की शख़्सियत एक आईना है — जिसमें अदब, मोहब्बत, मुल्क़परस्ती और इंसानियत की तस्वीर झलकती है। वो वो शायर हैं जिनके लफ़्ज़ों में आज भी वो ताक़त है जो दिलों को हिला दे और ज़मीर को जगा दे।

वो यक़ीनन इस बात का सुबूत हैं कि “असली शायरी वही होती है जो दिल से निकले और दिल तक पहुँचे।”ये भी पढ़ें 

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