Rahi Masoom Raza Poet: का अदबी सफ़र, जब कलम ने मज़हब से ऊपर उठकर लिखा ‘महाभारत’ टीवी सीरियल

इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम

राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के ज़िला ग़ाज़ीपुर के गाँव “गंगौली” में एक तालीमी और सलीक़ामंद मुस्लिम ख़ानदान में हुआ। उनके वालिद एक इज़्ज़तदार शख़्स थे और घर का माहौल इल्म और तहज़ीब से भरपूर था। उनके भाई डॉ. मूनिस रज़ा एक मशहूर तालीमी शख़्सियत और मेहदी रज़ा एक आलिम-ओ-फ़ाज़िल इंसान थे।

इब्तिदाई तालीम ग़ाज़ीपुर में हासिल करने के बाद राही ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, जहाँ उन्होंने मुसलमान थियोलॉजी (इस्लामीyat) में तालीम हासिल की। उन्होंने हिंदुस्तानी अदब पर पीएच.डी. मुकम्मल की और बाद में वहीं उर्दू के लेक्चरर की हैसियत से तअलीमी सफ़र शुरू किया।

इसी दौरान उन्होंने नय्यर जहां से शादी की — जो पहले से शादीशुदा थीं। इस निकाह ने अलीगढ़ के अदबी और तालीमी हल्कों में बहस छेड़ दी, मगर राही ने समाजी दबाव के आगे झुकने से इंकार किया। उन्होंने यूनिवर्सिटी की नौकरी छोड़ दी और 1967 में बंबई का रुख़ किया — जहाँ से उनकी ज़िंदगी का नया और यादगार सफ़र शुरू हुआ।


अदबी सफ़र और “शाहिद अख्तर” का दौर

राही मासूम रज़ा ने बंबई जाने से पहले अदब की दुनिया में “शाहिद अख्तर” के नाम से लिखना शुरू किया। उनके अफ़साने और नावेल “रूमानी दुनिया” (इलाहाबाद) जैसे मशहूर रिसालों में छपते रहे।
उनकी तहरीरों में मोहब्बत, ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ, मज़हबी सच्चाइयाँ और इंसानी एहसासात का गहरा रंग मौजूद था। वक्त के साथ उनकी ज़बान में वो रवानी और गहराई आई जिसने आगे चलकर उनके फ़िल्मी मक़ालमे (डायलॉग्स) को एक नई पहचान दी।

बॉलीवुड में क़दम 

राही मासूम रज़ा ने अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत 1975 में हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म “मिली” से की। ये वही दौर था जब फ़िल्मों में डायलॉग को बस एक तकनीकी हिस्सा समझा जाता था, मगर राही ने उसे अदब का दर्जा दे दिया। उनके लिखे अल्फ़ाज़ किरदारों की रूह बन गए।

1978 में राज खोसला की फ़िल्म “मैं तुलसी तेरे आंगन की” ने उन्हें वो मुक़ाम दिलाया जिसका वो हक़दार थे। इस फ़िल्म के जज़बाती डायलॉग्स ने लोगों के दिलों को छू लिया और उन्हें पहला फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला।

उसके बाद गोल माल (1979), कर्ज़ (1980), जुदाई (1980) और डिस्को डांसर (1982) जैसी कई कामयाब फ़िल्मों में उनके लिखे डायलॉग्स ने सिनेमाई दुनिया में एक नया मानक कायम किया।

1985 में बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म “तवायफ़” ने उनके करियर को एक नया उरूज दिया। इस फ़िल्म के ज़रिए उन्होंने इंसानियत और जज़्बात को जिस तरह बयां किया, उसने इस कहानी को गहराई बख़्शी और राही को दूसरा फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला।

टीवी पर नक़्श छोड़ देने वाला काम — “महाभारत”

1980 के दशक के आख़िर में जब हिंदुस्तानी टेलीविज़न पर गहराई और मफ़हूम वाली कहानियाँ आने लगीं, राही मासूम रज़ा ने “महाभारत” के डायलॉग्स और स्क्रिप्ट लिखकर अदबी इतिहास में अमर हो गए।
उन्होंने इस प्राचीन महाकाव्य को ऐसे लहजे में बयान किया जिसमें दर्शन, इंसानियत और फ़लसफ़ा — तीनों का मेल था। “महाभारत” ने 86% की टीआरपी के साथ भारतीय टेलीविज़न का एक रिकॉर्ड बनाया और राही को घर-घर तक पहुंचा दिया।



आख़िरी सफ़र और “लम्हे” की बुलंदी

1991 में यश चोपड़ा की फ़िल्म “लम्हे” राही मासूम रज़ा की ज़िंदगी की आख़िरी और सबसे यादगार फ़िल्म साबित हुई। उन्होंने हनी ईरानी के साथ मिलकर इसका स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखा।
ये फ़िल्म मोहब्बत के उस ग़ैर-रवायती तसव्वुर पर आधारित थी जिसमें जज़्बात की नज़ाकत और एहसास की गहराई को बख़ूबी दिखाया गया। राही के लिखे डायलॉग्स ने इस फ़िल्म को अदबी ऊँचाई बख़्शी।
इस फ़िल्म को पाँच फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स मिले, जिनमें बेस्ट डायलॉग का अवॉर्ड राही को मिला — जो उनका तीसरा फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड था।




राही मासूम रज़ा साहब की तख़्लीक़ात की फ़ेहरिस्त

राही मासूम रज़ा उर्दू अदब की उस रोशन तख़्लीक़ी दुनिया का नाम हैं, जिनकी कलम ने ज़ुबान को जज़्बात की गहराई और तख़य्युल की ऊँचाई बख़्शी। उनकी तहरीरें सिर्फ़ अफ़साने नहीं बल्कि वक़्त की रगों में दौड़ती हुई इंसानियत की सच्ची आवाज़ हैं। राही की किताबें इंसान, समाज और ज़माने के दरमियान उस नाज़ुक रिश्ते को बयान करती हैं, जो हर दौर में जिंदा रहता है।
नीचे उनकी मारूफ़ और लाज़वाब तख़्लीक़ात की फ़ेहरिस्त उर्दू लफ़्ज़ों की ख़ुशबू में पेश है —

  1. आधा गाँव

  2. दिल एक सादा काग़ज़

  3. नीम का पेड़

  4. क़यामत

  5. टोपी शुक्ला

  6. कटराबी आरज़ू

  7. ओस की बूँद

  8. कारोबार-ए-तमन्ना

  9. असंतोष के दिन

  10. ग़रीब-ए-शहर

  11. नया साल

  12. अजनबी शहर अजनबी रास्ते

  13. यास यागना चंगेज़ी

  14. अट्ठारह सौ सत्तावन

  15. मौजे-गुल

  16. मौजे-सबा

  17. रक़्स-ए-मय

राही मासूम रज़ा की ये तख़्लीक़ात सिर्फ़ अदब का हिस्सा नहीं, बल्कि एक फ़लसफ़ियाना सफ़र हैं — जहाँ हर लफ़्ज़ में इंसान की तन्हाई, मुहब्बत, बग़ावत और उम्मीद की झलक दिखाई देती है।
उनकी किताबें आज भी उसी ताज़गी और असर के साथ पढ़ी जाती हैं, जैसे वो पहली बार छपी थीं — क्यूँकि राही का कलाम वक़्त से नहीं, ज़मीर से बात करता है।



वफ़ात और मीरास (Legacy)

15 मार्च 1992 को राही मासूम रज़ा सिर्फ़ 62 साल की उम्र में इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। मगर उनके अल्फ़ाज़ आज भी ज़िंदा हैं।
उनकी वफ़ात के बाद भी उनके लिखे डायलॉग्स यश चोपड़ा की फ़िल्मों “परंपरा” (1992) और “आईना” (1993) में इस्तेमाल हुए।

इंडियन सिनेमा हेरिटेज फ़ाउंडेशन ने उन्हें इस जुमले में याद किया —

“राही मासूम रज़ा किसी क़ौमी ख़ज़ाने से कम नहीं थे — एक ऐसा आलिम जो इत्तेफ़ाक़ से बॉलीवुड में चला आया। उनकी शायरी, अदब और फ़िल्मों में दी हुई सेवाएँ बे-मिसाल हैं।”


राही मासूम रज़ा साहब के मशहूर गज़ले 

 1-ग़ज़ल 

हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद 

अपनी रात की छत पर कितना तन्हा होगा चाँद 

जिन आँखों में काजल बन कर तैरी काली रात 

उन आँखों में आँसू का इक क़तरा होगा चाँद 

रात ने ऐसा पेँच लगाया टूटी हाथ से डोर 

आँगन वाले नीम में जा कर अटका होगा चाँद 

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते 

मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद 

 2-ग़ज़ल 

इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई 

हम न सोए रात थक कर सो गई 

दामन-ए-मौज-ए-सबा ख़ाली हुआ 

बू-ए-गुल दश्त-ए-वफ़ा में खो गई 

हाए इस परछाइयों के शहर में 

दिल सी इक ज़िंदा हक़ीक़त खो गई 

हम ने जब हँस कर कहा मम्नून हैं 

ज़िंदगी जैसे पशेमाँ हो गई 

3-ग़ज़ल 

हम क्या जानें क़िस्सा क्या है हम ठहरे दीवाने लोग 

उस बस्ती के बाज़ारों में रोज़ कहें अफ़्साने लोग 

यादों से बचना मुश्किल है उन को कैसे समझाएँ 

हिज्र के इस सहरा तक हम को आते हैं समझाने लोग 

कौन ये जाने दीवाने पर कैसी सख़्त गुज़रती है 

आपस में कुछ कह कर हँसते हैं जाने पहचाने लोग 

फिर सहरा से डर लगता है फिर शहरों की याद आई 

फिर शायद आने वाले हैं ज़ंजीरें पहनाने लोग 

हम तो दिल की वीरानी भी दिखलाते शरमाते हैं 

हम को दिखलाने आते हैं ज़ेहनों के वीराने लोग 

उस महफ़िल में प्यास की इज़्ज़त करने वाला होगा कौन 

जिस महफ़िल में तोड़ रहे हों आँखों से पैमाने लोग 

नज़्म-1 

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहू से चुल्लु भर कर
महादेव के मुँह पर फैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढ़ा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।

राही मासूम रज़ा — तख़्लीक़ का सिफ़र और इंसानियत का फ़लसफ़ा

(एक अदबी तब्सिरा)

राही मासूम रज़ा उर्दू-हिन्दी अदब का वो नाम हैं, जिनकी तहरीरों में इंसानियत की सदा, ज़मीन की ख़ुशबू और वक़्त की सच्चाई एक साथ बोलती है। वो सिर्फ़ अफ़साना-निगार या शायर नहीं थे — वो एक फ़लसफ़ी, मुतफ़क्किर और इंसानियत के तरजुमान थे। उनकी तख़्लीक़ात में जो सच्चाई और बेबाकी है, वो उस दौर की साम्प्रदायिक, सियासी और सामाजिक हक़ीक़तों का आइना है।

राही मासूम रज़ा की ज़िंदगी खुद एक तख़्लीक़ी सफ़र थी — एक ऐसे फ़नकार का सफ़र जिसने गाँव की गलियों से लेकर फ़िल्मी दुनिया तक अपनी कलम से तहलका मचा दिया। ‘आधा गाँव’ उनके अदबी फ़लसफ़े की बुनियाद है — ये सिर्फ़ एक नावेल नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की रूह की तर्जुमानी है। इसमें वो जज़्बात हैं जो हिन्दू-मुस्लिम की सरहदों से परे, मिट्टी और इंसान के रिश्ते को बयान करते हैं।

उनकी ज़बान की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि वो अदबी और अवामी लहजे के दरमियान पुल बनाते हैं। वो फ़ारसी या अरबी के भारी लफ़्ज़ों में नहीं, बल्कि मिट्टी की ज़बान में बात करते हैं। उनकी तहरीरों में गंगा-जमुनी तहज़ीब की वो मिठास है जो बनारस की गलियों से उठती है और पूरे मुल्क में गूंजती है।

फ़िल्मी दुनिया में राही मासूम रज़ा का सफ़र भी कम दिलचस्प नहीं — उन्होंने ‘नीम का पेड़’, ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ और ‘महाभारत’ जैसे कलात्मक शाहकारों को अपने लफ़्ज़ों से नई रूह दी। ‘महाभारत’ का संवाद लेखन उनके तख़्लीक़ी कमाल का सबूत है — जहाँ धर्म और दर्शन एक अदबी बयान में ढल जाते हैं।

उनकी तहरीरों में तन्हाई भी है, तर्ज़ भी है और तर्जुमानी भी। वो दर्द को सजाते नहीं, जीते हैं — इसलिए उनके किरदार कभी मुरझाते नहीं, बल्कि हर दौर में ज़िंदा रहते हैं।

राही की नज़्में और अफ़साने उस दौर के हिंदुस्तान की तासीर को बयान करते हैं — जहाँ मज़हब की दीवारें ऊँची थीं, लेकिन इंसानियत की आवाज़ उससे भी ऊँची। उन्होंने समाज की तहरीर को इस तरह पढ़ा कि उनकी हर पंक्ति एक सवाल बन जाती है — और हर जवाब में एक नई सोच जन्म लेती है।

राही मासूम रज़ा का अदब हमें ये सिखाता है कि —

“कलम सिर्फ़ लफ़्ज़ों की तिजारत नहीं करती,
बल्कि इंसानियत की ज़मीन पर इंक़लाब उगाती है।”

वो अपने वक़्त से आगे लिखने वाले अदीब थे, जिन्होंने यह साबित किया कि अदब सिर्फ़ तफ़रीह नहीं, तहरीक भी होता है। उनकी किताबें ‘आधा गाँव’ से लेकर ‘टोपी शुक्ला’ तक इस बात की गवाही देती हैं कि अगर कलम ईमानदार हो, तो वो हक़ीक़त की तर्जुमान बन जाती है।

आज जब हम राही मासूम रज़ा को पढ़ते हैं, तो लगता है जैसे वो ज़िंदा हैं — हर सफ़े पर, हर जुमले में, हर सवाल में।

उनका अदब हमें सोचने पर मजबूर करता है कि मज़हब, ज़ुबान और तबक़ा — सब इंसानियत के सामने छोटे हैं।ये भी पढ़ें 

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