हबीब जालिब: अवाम की आवाज़ और इंक़लाब का शायर

 

हबीब जालिब (24 मार्च 1928 - 13 मार्च 1993) पाकिस्तान के मशहूर इंक़लाबी शायर और बाएं बाज़ू के सियासी कारकुन थे। उनकी शायरी में ज़ुल्म, आमिरियत, और समाजी नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ अवाम की आवाज़ थी। हबीब जालिब का शुमार पाकिस्तान के उन गिने-चुने शायरों में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इंसाफ़ और अवाम के हक़ की जद्दोजहद में बसर की। उन्होंने उर्दू और पंजाबी दोनों ज़बानों में शायरी की और उनके हम-असर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने उन्हें "अवाम का शायर" कह कर पुकारा।


इब्तेदाई ज़िंदगी और तालीम

हबीब जालिब का असली नाम हबीब अहमद था, और उनका जन्म 24 मार्च 1928 को पंजाब, ब्रिटिश हिंदुस्तान के ज़िला होशियारपुर के एक गाँव में हुआ। उन्होंने तक़सीम-ए-हिंद के बाद पाकिस्तान हिजरत की और कराची में बस गए। कराची में उन्होंने अख़बार "डेली इमरोज़" में प्रूफ़ रीडर के तौर पर काम किया। इस दौर में हबीब जालिब की शायरी में तेजी से तरक्कीपसंद ख़्यालात पनपने लगे, और उनकी तहरीक अवाम की अवाज़ बनने लगी।

शायरी और सियासी कारनामा

हबीब जालिब की शायरी सीधी, सादी और अवाम के मसाइल को बयान करती थी। लेकिन उनके अल्फ़ाज़ में जो जज़्बा, आवाज़ में जो मौसिक़ियत, और बयान में जो सियासी और समाजी हालात की हक़ीक़त थी, वो अवाम के दिलों को छू जाती थी। उन्होंने मुल्क की सियासी हालात पर बेजोड़ नज़्में लिखीं और हमेशा आमिरों और ज़ुल्म के खिलाफ़ खड़े रहे। उनका यह शेर उनके जज़्बात का बेहतरीन इज़हार है:

"कहीं गैस का धुआँ है
कहीं गोलियों की बारिश
शब अहद-ए-कम निगाही
तुझे किस तरह सराहें"

यह नज़्म उन सियासी हालात पर तन्क़ीद करती है जो अयूब खान के दौर-ए-हुकूमत में पाकिस्तान में कायम थे। जब 1962 में अयूब खान ने अपना बनवाया हुआ दस्तूर नाफ़िज़ किया, तो हबीब जालिब ने अपनी मशहूर नज़्म "दस्तूर" लिखी जिसमें उन्होंने कहा:

"दीप जिस का महलात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को, सुबह बे नूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता"

इस नज़्म ने पाकिस्तान में एक इंक़लाब को जनम दिया और हबीब जालिब अवामी तहरीक का चेहरा बन गए।

पाकिस्तान की फ़िल्मों में हबीब जालिब की शायरी

हबीब जालिब की शायरी सिर्फ़ मुशायरों तक महदूद नहीं रही, बल्कि पाकिस्तानी फ़िल्मों में भी शुमार की गई। एक मशहूर वाक़े में, गवर्नर ऑफ़ मग़रिबी पाकिस्तान नवाब ऑफ़ कालाबाग़ ने मशहूर अदाकारा नीलो को ईरान के शाह के सामने रक़्स करने के लिए मजबूर किया। जब नीलो ने इनकार किया, तो उन्हें पुलिस के ज़रिए दबाव डाला गया, जिस पर उन्होंने ख़ुदकुशी की कोशिश की। इस वाक़े ने हबीब जालिब को नज़्म लिखने की तहरीक दी, जो बाद में "ज़र्क़ा" (1969) फ़िल्म में "रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है" के उनवान से पेश की गई।

"तू के नावाकिफ़-ए-अदब-ए-ग़ुलामी है अभी
रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है"

इस नज़्म ने अवाम के दिलों में जज़्बात का सैलाब पैदा किया और ये एक क्लासिक शायराना मुख़ालिफ़त की मिसाल बन गई।

सियासी तहरीकें और कैद-ओ-बंद की मुश्किलें

हबीब जालिब की ज़िंदगी मुख़ालिफ़त और जद्दोजहद की तवील दास्तान है। उन्होंने अयूब खान की आमिरियत से लेकर ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो और ज़िया-उल-हक़ तक की हुकूमतों का बेबाकी से सामना किया। जनरल ज़िया-उल-हक़ के दौर-ए-आमिरियत में उन्होंने मशहूर नज़्म लिखी:

"ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना"

इस नज़्म में हबीब जालिब ने ज़ुल्म और अंधेरे की हक़ीक़त को बेनकाब किया और अवाम को जगाने की कोशिश की।

बेनज़ीर भुट्टो का दौर

जनरल ज़िया-उल-हक़ की मौत के बाद, बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की वज़ीरे-आज़म बनीं। हालांकि जालिब को जेल से रिहाई मिली, लेकिन उन्हें नए निज़ाम से भी मायूसी ही हुई। उन्होंने कहा:

"हाल अब तक वही हैं फ़क़ीरों के
दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के
हर बिलावल है देश का मक़रूज़
पाँव नंगे हैं बेनज़ीरों के"

इस शेर में हबीब जालिब ने उस मायूसी को बयान किया, जो उन्हें नए निज़ाम से हुई। उन्होंने जम्हूरियत के नाम पर अवाम से किए गए झूठे वादों और फ़रेब की हक़ीक़त को अवाम के सामने रखा।

वफ़ात और विरासत

हबीब जालिब का इंतेक़ाल 13 मार्च 1993 को हुआ और उन्हें शाह फ़रीद क़ब्रिस्तान, सब्ज़ाज़ार, लाहौर में दफ़्न किया गया। उनकी शायरी आज भी पाकिस्तान के हर कोने में गूँजती है, और उनकी आवाज़ आज भी उन लोगों के लिए मशाल है जो हक़ और इंसाफ़ के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

हबीब जालिब का नाम हमेशा उन शायरों में लिया जाएगा जिन्होंने अपने मुल्क और अवाम के लिए अपनी ज़िंदगी कुर्बान की। उनकी शायरी अवामी इंक़लाब की अलामत है और उनकी तहरीक आने वाली नस्लों को हमेशा इंसाफ़ और बराबरी के लिए जद्दोजहद करने की तालीम देती रहेगी।

हबीब जालिब की शायरी,ग़ज़लें,नज़्मे 

1-ग़ज़ल 

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था

कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था

आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था

अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था

छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था

2-ग़ज़ल 


भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे
नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे

तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा
कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे

न तेरी याद न दुनिया का ग़म न अपना ख़याल
अजीब सूरत-ए-हालात हो गई प्यारे

उदास उदास हैं शमएँ बुझे बुझे साग़र
ये कैसी शाम-ए-ख़राबात हो गई प्यारे

वफ़ा का नाम न लेगा कोई ज़माने में
हम अहल-ए-दिल को अगर मात हो गई प्यारे

तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब'
अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे


3-ग़ज़ल 


दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है

ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब
और हम ने तो बात भी की है

मुतमइन है ज़मीर तो अपना
बात सारी ज़मीर ही की है

अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाए हैं शाएरी की है

अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हम को कली कली की है

पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है

जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब'
हम ने अश्कों से रौशनी की है


4-ग़ज़ल 


अब तेरी ज़रूरत भी बहुत कम है मिरी जाँ
अब शौक़ का कुछ और ही आलम है मिरी जाँ

अब तज़्किरा-ए-ख़ंदा-ए-गुल बार है जी पर
जाँ वक़्फ़-ए-ग़म-ए-गिर्या-ए-शबनम है मिरी जाँ

रुख़ पर तिरे बिखरी हुई ये ज़ुल्फ़-ए-सियह-ताब
तस्वीर-ए-परेशानी-ए-आलम है मिरी जाँ

ये क्या कि तुझे भी है ज़माने से शिकायत
ये क्या कि तिरी आँख भी पुर-नम है मिरी जाँ

हम सादा-दिलों पर ये शब-ए-ग़म का तसल्लुत
मायूस न हो और कोई दम है मिरी जाँ

ये तेरी तवज्जोह का है एजाज़ कि मुझ से
हर शख़्स तिरे शहर का बरहम है मिरी जाँ

ऐ नुज़हत-ए-महताब तिरा ग़म है मिरी ज़ीस्त
ऐ नाज़िश-ए-ख़ुर्शीद तिरा ग़म है मिरी जाँ



5-ग़ज़ल 


शेर से शाइरी से डरते हैं
कम-नज़र रौशनी से डरते हैं

लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं

दहर में आह-ए-बे-कसाँ के सिवा
और हम कब किसी से डरते हैं

हम को ग़ैरों से डर नहीं लगता
अपने अहबाब ही से डरते हैं

दावर-ए-हश्र बख़्श दे शायद
हाँ मगर मौलवी से डरते हैं

रूठता है तो रूठ जाए जहाँ
उन की हम बे-रुख़ी से डरते हैं

हर क़दम पर है मोहतसिब 'जालिब'
अब तो हम चाँदनी से डरते हैं

1-नज़्म 


गाइका लता जी के नाम 


तेरे मधुर गीतों के सहारे 

बीते हैं दिन रेन हमारे 

तेरी अगर आवाज़ न होती 

बुझ जाती जीवन की जोती 

तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे 

जैसे सूरज चाँद सितारे 

तेरे मधुर गीतों के सहारे 

बीते हैं दिन रेन हमारे 

क्या क्या तू ने गीत हैं गाए 

सुर जब लागे मन झुक जाए 

तुझ को सुन कर जी उठते हैं 

हम जैसे दुख-दर्द के मारे 

तेरे मधुर गीतों के सहारे 

बीते हैं दिन रेन हमारे 

'मीरा' तुझ में आन बसी है 

अंग वही है रंग वही है 

जग में तेरे दास हैं इतने 

जितने हैं आकाश पे तारे 

तेरे मधुर गीतों के सहारे 

बीते हैं दिन रेन हमारे 


2-नज़्म 

कॉफ़ी हाउस 


दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद 

बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार 

सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ चलने फिरने से लाचार 

चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार 

उर्दू-अदब में ढाई हैं शायर 'मीर' ओ 'ग़ालिब' आधा 'जोश' 

या इक-आध किसी का मिस्रा या 'इक़बाल' के चंद अशआर 

या फिर नज़्म है इक चूहे पर हामिद-'मदनी' का शहकार 

कोई नहीं है अच्छा शायर कोई नहीं अफ़्साना-निगार 

'मंटो' 'कृष्ण' 'नदीम' और 'बेदी' इन में जान तो है लेकिन 

ऐब ये है इन के हाथों में कुंद ज़बाँ की है तलवार 

'आली' अफ़सर 'इंशा' बाबू 'नासिर' 'मीर' के बर-ख़ुरदार 

'फ़ैज़' ने जो अब तक लिक्खा है क्या लिक्खा है सब बे-कार 

उन को अदब की सेह्हत का ग़म मुझ को उन की सेह्हत का 

ये बेचारे दुख के मारे जीने से हैं क्यूँ बे-ज़ार 

हुस्न से वहशत इश्क़ से नफ़रत अपनी ही सूरत से प्यार 

ख़ंदा-ए-गुल पर एक तबस्सुम गिर्या-ए-शबनम से इंकार 

तब्सरा 

यह लेख हबीब जालिब की ज़िंदगी, उनकी शायरी और उनके सियासी संघर्ष की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करता है। हबीब जालिब, जो पाकिस्तान के मशहूर इंक़लाबी शायर और बाएं बाज़ू के सियासी कारकुन थे, ने अवाम के हक़ और इंसाफ़ के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी कुर्बान कर दी। इस लेख में उनके शायरी के उस अनोखे अंदाज़ को बख़ूबी बयान किया गया है जो आम लोगों के दर्द और संघर्ष को शब्दों में पिरोता है।
लेख उनकी इब्तेदाई ज़िंदगी से लेकर उनकी सियासी मुख़ालिफ़त और कैद-ओ-बंद की मुश्किलात तक की पूरी दास्तान को क़लमबंद करता है। यह दिखाता है कि कैसे जालिब ने अयूब खान, ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो, और ज़िया-उल-हक़ के ज़ुल्मी निज़ामों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की और किस तरह उन्होंने अपनी मशहूर नज़्मों के ज़रिए अवाम में इंक़लाब की भावना भरी।
हबीब जालिब का शुमार उन चंद शायरों में होता है जिन्होंने अवाम के मसाइल को अपनी शायरी के ज़रिए न सिर्फ़ बयान किया बल्कि उनके हक़ के लिए मैदान-ए-जंग में भी डटे रहे। उनकी शायरी ने न सिर्फ़ मुशायरों बल्कि पाकिस्तानी फ़िल्मों में भी जगह बनाई, जिससे उनकी अवामी मक़बूलियत और बढ़ी।
लेख यह भी बयान करता है कि कैसे उन्होंने हर दौर की हुकूमत के ख़िलाफ़ जद्दोजहद की और हर बार अपने उसूलों पर क़ायम रहे। यह तब्सिरा हबीब जालिब की उस जद्दोजहद और बेबाकी का इज़हार है जो उन्होंने ताज-ओ-तख़्त के ख़िलाफ़ और अवाम के हक़ में की।
यह लेख हबीब जालिब की शायरी को समझने और उनके संघर्ष की गहराई में उतरने का बेहतरीन वसीला है। जो लोग इंक़लाबी शायरी और इंसाफ़ की तहरीक में दिलचस्पी रखते हैं, उनके लिए यह लेख एक ज़रूरी दस्तावेज़ है।ये भी पढ़ें 











































































































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