Ada Jafri: उर्दू शायरी की नफ़ासत,औरत की पहचान और फेमिनिज्म

 उर्दू अदब की तवारीख़ में अगर किसी शख़्सियत को "फ़र्स्ट लेडी ऑफ़ उर्दू पोएट्री" के ख़िताब से नवाज़ा गया है तो वो हैं अदा जाफ़री (1924–2015)। अदा का नाम सुनते ही अदबी हलक़ों में एक नफ़ासत, एक ख़ूबसूरत अहसास और एक ऐसे फ़नकार की तसवीर उभर आती है जिसने न सिर्फ़ औरत को उर्दू शायरी में एक मक़ाम दिलाया बल्कि इस बात को साबित किया कि औरत की आवाज़ भी उतनी ही बुलंद और असरअंदाज़ हो सकती है जितनी किसी मर्द शायर की।

उनकी शायरी में ग़ालिब की नज़ाक़त, इक़बाल का शऊर, और जिगर की नरमी सब कुछ झलकता है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी पहचान ये रही कि उन्होंने उर्दू शायरी को नफ़ासत-ए-ख़ातून से सजाया और औरत की रूहानी व तजुर्बाती दुनिया को अल्फ़ाज़ का लिबास पहनाया।

अदा जाफ़री की शायरी जीवनी और फेमिनिज्म

ADA JAFRY BIOGRAPHY POETRY AND FEMINISM

पैदाइश और बचपन

अदा जाफ़री का असली नाम अज़ीज़ जहाँ था। उनका जन्म 22 अगस्त 1924 को बदायूँ, उत्तर प्रदेश (ब्रिटिश इंडिया) में हुआ। जब वो महज़ तीन बरस की थीं, उनके वालिद मौलवी बदरुल हसन का इंतिक़ाल हो गया। बचपन में ही बाप का साया सर से उठ जाना उनके लिए एक गहरा सदमा था, मगर उनकी वालिदा ने उन्हें हिम्मत दी, सहारा दिया और तालीम व तरबियत का इंतज़ाम किया।

बचपन के वही साल उनके लिए सबक़-ए-हयात साबित हुए। उन्होंने किताबों और तन्हाई को अपना साथी बनाया। इसी तन्हाई ने उनके ज़ेहन में शायरी के फूल खिलाए। वो कहती थीं कि बचपन में अक्सर अपने दिल की बात काग़ज़ पर उतार देतीं और यही सिलसिला धीरे-धीरे शायरी का आग़ाज़ बन गया।


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शायरी का शुरुआती सफ़र

सिर्फ़ बारह साल की उम्र में उन्होंने शायरी शुरू कर दी और "अदा बदायूनी" के नाम से तख़ल्लुस इख़्तियार किया। उस वक़्त औरत का शायरी करना किसी जुर्म से कम न समझा जाता था। माशरा और समाज की नज़रों में ये काम "नामुनासिब" था। मगर अदा ने अपने एहसासात को दबाने के बजाय अल्फ़ाज़ में ढालने का हौसला किया।

उनकी पहली ग़ज़ल मशहूर शायर अख़्तर शीरानी के रिसाले रोमान में 1945 में छपी। यही उनकी अदबी पहचान का पहला क़दम था। अख़्तर शीरानी और असर लखनवी जैसे उस्तादों से उन्होंने इस्लाह ली और अपनी ग़ज़लों को नफ़ासत और मज़बूत बहरों से सजाया।

शादी और नया तख़ल्लुस

29 जनवरी 1947 को उनकी शादी नूरुल हसन जाफ़री से हुई। शादी के बाद उन्होंने "अदा जाफ़री" का तख़ल्लुस अपनाया। नूरुल हसन एक आला दर्जे के अफ़सर होने के साथ-साथ ख़ुद भी अदब से गहरी दिलचस्पी रखते थे। उन्होंने अख़बारात में कॉलम लिखे और अदबी हलक़ों से वाबस्ता रहे।

नूरुल हसन ने अदा को हौसला दिया कि वो लिखती रहें। यही वजह रही कि शादी और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बावजूद अदा की शायरी का सिलसिला रुका नहीं। 1947 की तक़सीम-ए-हिंद के बाद अदा अपने शौहर के साथ कराची चली गईं और वहीं से उनकी शायरी ने एक नया सफ़र शुरू किया।

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Ada Jafri: Urdu Shayari Ki Awwalin Aur Mumtaz Shairah 

FAQ:

Q-1: Ada Jafri kaun theen?

A-1: Ada Jafri ek bohot mash'hoor aur mumtaz (prominent) Urdu shairah (kavitri/poetess) theen. Unka asal naam Aziz Jahan tha.

Pedaish (Birth): 22 August, 1924, ko Uttar Pradesh ke Zila Budaun mein hui thi.

Shayari ka Aaghaz (Start of Poetry): Unhone bohot kam umar (taqreeban 12 saal) mein shairi shuru kar di thi.

Hindustan-Pakistan Partition: Taqseem-e-Hind ke waqt (1947), unka khandaan (family) Pakistan ki Rajdhani (Capital) Karachi chala gaya aur wahin mustaqil taur par rehne laga.

Taleem (Education): Unhone apni taaleem Sindh University se mukammal (complete) ki.

Pehchan (Recognition): Ada Jafri ko Urdu Ghazal ki Awwalin Shairat (First Lady of Urdu Poetry) mein se ek mana jaata hai, jinhone riwayati (traditional) parde ke daur mein bhi azaad khayalon ka izhaar kiya.

Q-2: Ada Jafri ki shadi (Marriage)?

A-2: Ada Jafri ki shadi 29 January, 1947, ko Lucknow mein Noorul Hasan Jafri ke saath hui thi.

Shohar (Husband): Noorul Hasan Jafri us waqt Bharat (India) mein ek aala (high-ranking) Civil Servant (Sarkari Afsar) the.

Adabi (Literary) Taal-luq: Unke shohar khud bhi adabi zauq (literary taste) rakhte the aur "Jafri" ke qalam-naam (pen name) se likhte the. Unhone hi Ada Jafri ki adabi sar-garmiyon (literary activities) ki himayat (support) ki.

Q-3: Ada Jafri ki Ghazal/Shayari?

A-3: Jee bilkul! Ada Jafri ki shayari mein khawateen (women) ke jazbaat, mohabbat, aur samaaji masail (social issues) ki hifazat (protection) aur unka izhaar (expression) numaya (prominent) hota hai.

Aapne jin Ghazalon aur Nazmon ka zikr kiya hai, hum unke behtareen ashaar (couplets) aur mash'hoor takhleeqat (famous creations) ko yahan pesh (present) kar rahe hain:

Takhleeq (Creation) Qisam (Type) Mash'hoor Misra (Famous Line)

Main Saaz Dhoondti Rahi Nazm (Poem) "Main Saaz Dhoondti Rahi, Aur Log Geet Gaa Gaye."

Shahr-e-Yaar Ghazal "Yeh Ghazal Bhi Aaj Be-Kaar Hui Jaati Hai, Hum Se Ik Shahr-e-Yar Ki Diwar Hui Jaati Hai."

Awaaz Nazm (Poem) Unki nazmon mein azaadi, khud-mukhtari (self-reliance), aur aurat ki pehchaan par zor diya gaya hai.

Koi Harf-e-Ghum-Gusari Ghazal "Har Ik Saans Meri Ab To Khizan Ki Tarah Guzri, Koi Harf-e-Ghum-Gusari Sunate Kahan Se Laoon."

Q-4: Ada Jafri ki Santaan (Children)?

A-4: Ada Jafri ki teen (3) aulaad (children) hain: Do Bete (Sons) aur Ek Beti (Daughter).

Sabiha Jafri (Beti/Daughter - sabse badi aulaad)

Azmi Jafri (Beta/Son)

Amir Jafri (Beta/Son)

Virasat (Legacy): Unki aulaad ne bhi unke adabi virasat (literary legacy) ko aage badhaya hai.

Aakhri Gher-Mamooli Haqeeqat (Final Extraordinary Fact):

Ada Jafri pehli (First) shairah theen jinko Pakistan Writers' Guild ki taraf se "Adamjee Adabi Award" se nawaza gaya tha, aur unko 2003 mein Hukumat-e-Pakistan ki janib se "Pride of Performance" ka aala (highest) aizaz (honor) bhi mila tha. Unka inteqal (death) 12 March, 2015, ko Karachi mein hua.

अदबी सफ़र और किताबें

अदा जाफ़री की पहली मजमुआ-ए-ग़ज़ल "मैं साज़ ढूँढती रही" 1950 में शाया हुई। ये किताब उनके अदबी सफ़र की पहचान बनी। इसके बाद उन्होंने एक से बढ़कर एक किताबें पेश कीं:

  • शहर-ए-दर्द (1967) – जिसने उन्हें आदमजी अदबी अवार्ड दिलवाया।
  • ग़ज़ालान
  • तुम तो वाक़िफ़ हो!
  • हर्फ़-ए-शनाख़्ती
  • सफ़र बाकी
  • मौसम, मौसम

इसके अलावा उन्होंने अपनी आत्मकथा "जो रही सो बेख़बरी रही" लिखी, जो उर्दू अदब में औरत की ज़िंदगी की दस्तावेज़ी गवाही है।

उनकी किताब ग़ज़ल-नुमा (1987) में उन्होंने पुराने शायरों के काम पर तजज़िया लिखा और उर्दू अदब की तहज़ीब को ज़िंदा किया। साथ ही उन्होंने हैकू और आज़ाद नज़्म में भी तजुर्बे किए। उनकी ग़ज़ल "होंठों पे कभी उनके मेरा नाम ही आए" उस्ताद अमानत अली ख़ान की आवाज़ से मशहूर हुई।

शायरी का रंग-ओ-आंदाज़

अदा जाफ़री की शायरी में एक अजीब सी नफ़ासत और तहज़ीब है। उन्होंने औरत की हैसियत को शायरी का मरकज़ बनाया। उनकी ग़ज़लों में मर्दाना तख़ल्लुस नहीं, बल्कि औरत का दिल, उसका दर्द और उसकी उम्मीदें बोलती हैं।

वो फ़ेमिनिस्ट थीं, लेकिन उनका फ़ेमिनिज़्म शोर-ओ-गुल वाला नहीं, बल्कि तहज़ीब और इशारों में ढला हुआ था। उन्होंने कहा था:

"मैंने मर्दों की आयद करदा पाबंदियों को क़बूल नहीं किया, बल्कि उन्हीं पाबंदियों को क़बूल किया जो मेरे ज़ेहन ने मुझ पर आयद कीं।"

उनकी शायरी में औरत का दर्द, उसकी मजबूरी, और उसकी तलाश-ए-शिनाख़्त साफ़ दिखाई देती है।

अदा जाफ़री और नारीवाद

अदा की शायरी में औरत को सिर्फ़ इश्क़ की महबूबा के तौर पर नहीं दिखाया गया। उन्होंने औरत को एक इंसान, एक सोचने-वाली हस्ती और एक जज़्बाती शख़्सियत के तौर पर पेश किया। यही वजह है कि उन्हें उर्दू की पहली औरत शायर कहा गया जिसने औरत की आवाज़ को बुलंदी दी।

उनकी शायरी में जज़्बात की शफ़्फ़ाफ़ियत और तजुर्बे की गर्मी दोनों मिलती हैं। वो इशारों और किनायों की शायर थीं, मगर उनके अल्फ़ाज़ में औरत की तल्ख़ सच्चाइयाँ भी झलकती हैं।

इज़्ज़तें और इनआम

अदा जाफ़री को पाकिस्तान और आलमी अदबी हलक़ों से बेइंतिहा सराहना मिली। उन्हें जिन इज़्ज़तों से नवाज़ा गया उनमें शामिल हैं:

  • आदमजी अदबी अवार्ड (1967)
  • तमगा-ए-इम्तियाज़ (1981)
  • प्राइड ऑफ़ परफ़ॉर्मेंस (2003)
  • कमाल-ए-फ़न अवार्ड (2003) – जिसे पाने वाली वो पहली ख़ातून थीं।
  • क़ाइद-ए-आज़म अदबी अवार्ड (1997)

इसके अलावा उन्हें यूरोप और अमरीका की अदबी सोसाइटियों से भी अवार्ड्स मिले।

ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हात

नूरुल हसन के इंतिक़ाल (1995) के बाद अदा जाफ़री ने कराची और टोरंटो के दरमियान ज़िंदगी गुज़ारी। उन्होंने उर्दू की तरवेज़-ओ-तरक़्की के लिए बहुत काम किया।

12 मार्च 2015 को कराची के एक अस्पताल में उन्होंने 90 बरस की उम्र में दम तोड़ दिया। उनकी नमाज़-ए-जनाज़ा अल-हिलाल मस्जिद में अदा की गई और उन्हें PECHS क़ब्रिस्तान, कराची में दफ़न किया गया। उनकी मौत पर वज़ीर-ए-आज़म, गवर्नर और अदबी इदारों ने गहरा अफ़सोस जताया।

अदा जाफ़री की विरासत

अदा जाफ़री ने साबित किया कि औरत भी शायरी के मैदान में वही मक़ाम हासिल कर सकती है जो किसी बड़े मर्द शायर का होता है। उनकी शायरी आज भी अदब की दुनिया में एक रोशन चराग़ की तरह है।

वो एक आवाज़ थीं, जो कहती रही:
"औरत भी इन्सान है, उसका दर्द भी इन्सानी है, और उसकी ख़ुश्बू भी अदब को मोअत्तर कर सकती है।"

अदा जाफ़री की शायरी में जज़्बात की सच्चाई, अल्फ़ाज़ की नफ़ासत, और औरत की पहचान का संगम है। वो आज भी उर्दू अदब की पहली औरत शायर और एक पूरी तहरीक की तरह याद की जाती हैं।


अदा जाफरी की शायरी-ग़ज़लें-नज़्मे 

1-ग़ज़ल 

एक आईना रू-ब-रू है अभी 

उस की ख़ुश्बू से गुफ़्तुगू है अभी 

वही ख़ाना-ब-दोश उम्मीदें 

वही बे-सब्र दिल की ख़ू है अभी 

दिल के गुंजान रास्तों पे कहीं 

तेरी आवाज़ और तू है अभी 

ज़िंदगी की तरह ख़िराज-तलब 

कोई दरमाँदा आरज़ू है अभी 

बोलते हैं दिलों के सन्नाटे 

शोर सा ये जो चार-सू है अभी 

ज़र्द पत्तों को ले गई है हवा 

शाख़ में शिद्दत-ए-नुमू है अभी 

वर्ना इंसान मर गया होता 

कोई बे-नाम जुस्तुजू है अभी 

हम-सफ़र भी हैं रहगुज़र भी है 

ये मुसाफ़िर ही कू-ब-कू है अभी 


2-ग़ज़ल 

वैसे ही ख़याल आ गया है 

या दिल में मलाल आ गया है 

आँसू जो रुका वो किश्त-ए-जाँ में 

बारिश की मिसाल आ गया है 

ग़म को न ज़ियाँ कहो कि दिल में 

इक साहिब-ए-हाल आ गया है 

जुगनू ही सही फ़सील-ए-शब में 

आईना-ख़िसाल आ गया है 

आ देख कि मेरे आँसुओं में 

ये किस का जमाल आ गया है 

मुद्दत हुई कुछ न देखने का 

आँखों को कमाल आ गया है 

मैं कितने हिसार तोड़ आई 

जीना था मुहाल आ गया है 


1 -नज़्म 

मुद्दतों बा'द आई हो तुम 

और तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कहाँ 

अन-कहे हर्फ़ भी सुन सको 

आरज़ू की वो तहरीर भी पढ़ सको 

जो अभी तक लिखी ही नहीं जा सकी 

इतनी मोहलत कहाँ 

मेरे बाग़ों में जो खिल न पाए अभी 

उन शगूफ़ों की बातें करो 

दर्द ही बाँट लो 

मेरे किन माहताबों से तुम मिल सकीं 

कितनी आँखों के ख़्वाबों से तुम मिल सकीं 

हाँ तुम्हारी निगाह-ए-सताइश ने 

घर की सब आराइशें देख लीं 

तन की आसाइशें देख लीं 

मेरे दिल में जो पैकाँ तराज़ू हुए 

तुम को भी 

लाला-ओ-गुल के बे-साख़्ता इस्तिआ'रे लगे 


2 -नज़्म 

एक मौहूम इज़्तिराब सा है 

इक तलातुम सा पेच-ओ-ताब सा है 

उमडे आते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद आँसू 

दिल पे क़ाबू न आँख पर क़ाबू 

दिल में इक दर्द मीठा मीठा सा 

रंग चेहरे का फीका फीका सा 

ज़ुल्फ़ बिखरी हुई परेशाँ-हाल 

आप ही आप जी हुआ है निढाल 

सीने में इक चुभन सी होती है 

आँखों में क्यूँ जलन सी होती है 

सर में पिन्हाँ तसव्वुर-ए-मौहूम 

हाए ये आरज़ू-ए-ना-मालूम 

एक नाला सा है बग़ैर आवाज़ 

एक हलचल सी है न सोज़ न साज़ 

क्यूँ ये हालत है बे-क़रारी की 

साँस भी खुल के आ नहीं सकती 

रूह में इंतिशार सा क्या है 

दिल को ये इंतिज़ार सा क्या है 

तब्सरा:-

अदा जाफ़री – वो नाम, जो उर्दू अदब की पेशानी पर एक चमकते सितारे की तरह दर्ज है। उन्हें "फ़र्स्ट लेडी ऑफ़ उर्दू पोएट्री" कहना दरअस्ल उर्दू शायरी के उस तर्जुमान पहलू को सलाम करना है, जहाँ एक औरत की आवाज़ नर्म भी है और बुलंद भी, महीन भी है और असरअंदाज़ भी।

अदा की शायरी को पढ़ते वक़्त यूँ महसूस होता है जैसे ग़ालिब की नफ़ासत, इक़बाल की दानाई और जिगर की नरमी सब मिलकर किसी ख़ूबसूरत पैमाने में ढल गई हो। मगर उनकी असल पहचान ये रही कि उन्होंने शायरी में औरत की रूह, उसके जज़्बात, उसकी मजबूरियाँ और उसकी तलाश-ए-शिनाख़्त को अल्फ़ाज़ की जिल्द में सजा कर हमें पेश किया।

उनका फ़न सिर्फ़ ग़ज़ल की रवायती ख़ूबसूरती नहीं, बल्कि एक तहज़ीबी शिनाख़्त भी है। वो औरत की तर्जुमान थीं, लेकिन उनके फ़ेमिनिज़्म में कोई तल्ख़ नारा नहीं, बल्कि एक तहज़ीबयाफ़्ता आहट थी, एक ख़ामोश चीख़ थी जो दिल तक उतर जाती है।

अदा जाफ़री ने उर्दू अदब में साबित किया कि शायरी सिर्फ़ मर्दाना ज़बान का हक़ नहीं, बल्कि औरत की आवाज़ भी उतनी ही पाकीज़ा और असरअंगेज़ हो सकती है। उन्होंने "मैं साज़ ढूँढती रही" से लेकर "शहर-ए-दर्द" और "सफ़र बाकी" तक जिस तरह तजुर्बे किए, उससे उर्दू शायरी का कैनवस और भी वसीअ हुआ।

उनकी शायरी में नफ़ासत है, शफ़्फ़ाफ़ियत है और सबसे बढ़कर इंसानियत की ख़ुशबू है। अदा को पढ़ना मतलब औरत की उन सदीयों से दबी आवाज़ों को सुनना है जो माशरे ने दबाने की कोशिश की थी। उन्होंने उन आवाज़ों को लफ़्ज़ों का जामा पहनाया और अदब की तारीख़ में एक नया باب खोल दिया।

आज जब हम अदा जाफ़री को याद करते हैं तो वो सिर्फ़ एक शायरा के तौर पर नहीं, बल्कि एक तहरीक, एक सोच और एक नज़रिया बनकर सामने आती हैं। उनकी शायरी अदब की दुनिया में रोशन चराग़ की तरह हमेशा जलती रहेगी और आने वाली नस्लों को बताती रहेगी कि –

"औरत भी इंसान है, उसकी तहरीर भी तहरीक है और उसकी शायरी भी शिनाख़्त है।"

यही अदा जाफ़री का सच है, यही उनकी विरासत है।
















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