निदा फ़ाज़ली (अस्ल नाम: मुक़्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली) उर्दू और हिन्दी अदब की दुनिया का वो नाम हैं जिनके अशआर आज भी इंसानियत, मोहब्बत और ज़िंदगी की सच्चाइयों का आइना हैं। 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में पैदाइश और 8 फरवरी 2016 को मुंबई में इंतिक़ाल पाने वाले इस अज़ीम शायर ने अपने अल्फ़ाज़ से ज़माने के दिलों पर नक़्श छोड़ दिए।
इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम
निदा फ़ाज़ली का ताल्लुक़ एक कश्मीरी मुसलमान ख़ानदान से था। बचपन ग्वालियर की सरज़मीं पर गुज़रा, जहाँ से उन्होंने तालीम हासिल की और आगे चलकर अंग्रेज़ी अदब का मुताला भी किया। उनके वालिद भी एक मशहूर उर्दू शायर थे, और उनके भाई तस्लीम फ़ाज़ली और सबा फ़ाज़ली ने भी अदब और फ़िल्मी दुनिया में अपना मुक़ाम बनाया।
सन 1965 में, जब उनके घरवाले पाकिस्तान हिजरत कर गए, तो निदा फ़ाज़ली ने हिंदुस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया। यह जुदाई उनकी ज़िंदगी की सबसे गहरी चोट साबित हुई, जिसकी कसक उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में बार-बार झलकती रही।
शख़्सियत और अज़दवाजी ज़िंदगी
निदा साहब ने दो निकाह किए। उनकी दूसरी बीवी मालती जोशी थीं, जिनसे उनकी एक बेटी तहरीर हुई। उनकी ज़िंदगी का हर रिश्ता और तजुर्बा उनके कलाम का हिस्सा बनता गया — कभी दर्द में, कभी फ़लसफ़े में और कभी मोहब्बत की मिठास में।
अदबी सफ़र और फ़नकाराना सफ़रनामा
निदा फ़ाज़ली का अदबी सफ़र उस वक़्त शुरू हुआ जब एक रोज़ उन्होंने एक मंदिर में सूरदास का भजन सुना — “राधा अपने दुख का बयान सखियों से कर रही थी।” उस लम्हे ने उनके दिल को झकझोर दिया और उन्होंने महसूस किया कि इंसानी जज़्बात की कोई मज़हबी हद नहीं होती।
उन्होंने मीर, ग़ालिब, मीरां और कबीर से सीखकर एक नई ज़ुबान में शायरी का रंग भरा — जिसमें ज़िंदगी की सादगी और इंसानियत की गरमाहट थी। वो T.S. Eliot, Gogol और Chekhov जैसे अदबियों से भी मुतास्सिर हुए और अपनी सोच को एक वैश्विक ज़ाविये से देखा।
फ़िल्मी दुनिया में कदम
सन 1964 में वो मुंबई आए, जहाँ उन्होंने “धर्मयुग” और “ब्लिट्ज़” जैसी पत्रिकाओं में लिखा। जल्द ही उनका कलमी जादू फ़िल्मी दुनिया तक पहुँच गया।
उन्होंने वो नग़में लिखे जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं —
“तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है...”
“होशवालों को ख़बर क्या, बेख़ुदी क्या चीज़ है...”
“आ भी जा, आ भी जा...”
उन्होंने टीवी धारावाहिकों जैसे नीम का पेड़, सैलाब, जाने क्या बात हुई के टाइटल सॉन्ग भी लिखे, जो उनके अदबी और फ़नकारी मिज़ाज की गहराई बयान करते हैं।
उनकी किताब ‘मुलाक़ातें’ ने उस दौर के कई शायरों जैसे साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और सरदार जाफ़री पर आलोचनात्मक रौशनी डाली, जिसके कारण कुछ मुशायरों में उनका बहिष्कार भी किया गया। मगर जैसे उनके अपने शेर कहते हैं —
“दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।”
अदबी मीरास और तख़लीक़ात
निदा फ़ाज़ली ने 24 किताबें लिखीं — उर्दू, हिन्दी और गुजराती में। उनकी रचनाएँ महाराष्ट्र और NCERT के स्कूल सिलेबस में शामिल हैं।
उनकी कुछ अहम किताबें हैं:
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लफ़्ज़ों का पुल
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खोया हुआ सा कुछ
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मुलाक़ातें
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दीवारों के बीच (ख़ुदनामा भाग 1)
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दीवारों के पार (ख़ुदनामा भाग 2)
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शहर मेरे साथ चल
उनकी ग़ज़लों में बचपन की मासूमियत, ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयाँ, रिश्तों के उतार-चढ़ाव और समाज के दोहरे मापदंडों की झलक मिलती है।
“हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।”
इंसानियत और अम्न की आवाज़
निदा फ़ाज़ली ने हमेशा मज़हबी तफ़रक़े और सियासी तंगनज़री के खिलाफ़ कलम उठाई। उन्होंने 1992 के दंगों में भी अपनी जान बचाने के लिए दोस्तों के घर पनाह ली, मगर कलम नहीं रोकी।
उन्हें National Harmony Award से नवाज़ा गया — उनकी शायरी वाक़ई इंसानियत और मोहब्बत की तर्जुमान थी।
अंदाज़-ए-बयान और फ़लसफ़ा
उनकी शायरी में ज़बान की सादगी, बयान की गहराई और एहसास की तासीर मिलती है। वो तामझाम भरे उर्दू लफ़्ज़ों से दूर रहते थे, ताकि आम आदमी उनकी नज़्मों को महसूस कर सके, सिर्फ़ पढ़ न सके।
उनके कलाम में सादगी में शायरी का शबाब था —
“घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।”
इनआमात और इज़्ज़तें
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1998 – साहित्य अकादमी अवॉर्ड (खोया हुआ सा कुछ के लिए)
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2003 – स्टार स्क्रीन अवॉर्ड और बॉलीवुड मूवी अवॉर्ड (फिल्म “सुर” के गीत “आ भी जा” के लिए)
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2013 – पद्मश्री अवॉर्ड (भारत सरकार द्वारा)
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मीर तकी मीर अवॉर्ड (मध्य प्रदेश सरकार)
इंतिक़ाल और विरासत
8 फरवरी 2016 को, मुंबई में दिल के दौरे से उनका इंतिक़ाल हुआ।
क़ुदरत का करिश्मा देखिए — उसी दिन उनके अज़ीज़ दोस्त जगजीत सिंह की सालगिरह थी, जिनके साथ उन्होंने “Insight” ऐल्बम बनाई थी।
उनकी शायरी, नग़्मे और इंसानियत की आवाज़ आज भी ज़िंदा है —
उनके अशआर हवाओं में तैरते हैं,
दिलों में उतरते हैं, और वक़्त को मात देते हैं।
निदा फ़ाज़ली की शायरी,ग़ज़लें नज़्मे
ग़ज़ल -1
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा
किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आइना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
ग़ज़ल -2
ग़ज़ल -3
ग़ज़ल -4
ग़ज़ल -5
नज़्म-1
वालिद की वफ़ात पर
नज़्म-2
वो लड़की
तब्सरा:-
निदा फ़ाज़ली वो नाम हैं जिनके अशआर ज़िंदगी के आईने में सादगी और सच्चाई की तस्वीर बनकर झिलमिलाते हैं। उनके कलाम में वह नर्मी और वह गहराई है जो दिल को छू जाए और सोच को नई राह दिखा दे। वो शायर जिन्होंने दर्द को भी मोहब्बत का लिबास पहनाया और ज़िंदगी को एक फ़लसफ़ा बना दिया। उनकी शायरी में ना कोई दिखावा था, ना बनावट — बस एक सादा लफ़्ज़ जो दिल से निकले और सीधा दिल में उतर जाए।
उनका पूरा वजूद इंसानियत की ख़ुशबू में डूबा हुआ था। उन्होंने कभी मज़हब या ज़ुबान की सरहद नहीं मानी, उनके लिए हर एहसास एक दुआ था और हर इंसान एक कहानी। वो कहते थे, “शायरी दिल की ज़बान है, ज़बान की नहीं।” शायद इसी वजह से उनके कलाम हर ज़ुबान बोलने वालों को अपनी लगती है।
उनकी ज़िंदगी में दर्द भी था और सफ़र भी। जब उनका ख़ानदान पाकिस्तान चला गया और वो हिन्दुस्तान में रह गए, तो इस जुदाई ने उनके दिल में एक ऐसी ख़ामोश टीस छोड़ दी जो उनकी नज़्मों की रूह बन गई। मगर उन्होंने इस दर्द को शिकायत नहीं, एहसास बना दिया। वो मुल्क की मिट्टी से मोहब्बत करते रहे, और इंसानियत को अपना मज़हब समझते रहे।
उनके अल्फ़ाज़ों में वह नूर था जो अंधेरे दिलों में रौशनी कर दे। वो जब कहते हैं —
“घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।”
तो लगता है जैसे शायरी नहीं, खुदा की आवाज़ दिल से बोल रही हो।
निदा फ़ाज़ली ने जब फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा तो भी अपने फ़न की शुद्धता को बरक़रार रखा। उनके नग़्मे महज़ गीत नहीं, एहसास की सरगम हैं — “तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है…” या “होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है…” — हर एक मिसरा जैसे मोहब्बत की ख़ुशबू में डूबा हुआ है।
उनकी ज़िंदगी में रिश्ते भी शायरी का हिस्सा बन गए। हर दर्द, हर मोहब्बत, हर तजुर्बा उनके अल्फ़ाज़ों में ढल गया। उनकी नज़्मों में ज़िंदगी का हर पहलू झलकता है — बचपन की यादें, तन्हाई का सन्नाटा, और समाज के दोहरे मिज़ाज। उन्होंने लिखा —
“हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।”
और यह शेर मानो इंसान की सदीयों पुरानी सच्चाई को एक पल में बयां कर देता है।
निदा फ़ाज़ली का फ़िक्र हमेशा अमन और मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आया। उन्होंने तफ़रक़े और तंगनज़री के दौर में भी इंसानियत की बात की। 1992 के दंगों में जब हालात बदतर थे, उन्होंने अपने दोस्तों के घर में पनाह ली मगर कलम नहीं रोकी। उनकी कलम हमेशा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ और इंसान के हक़ में चलती रही।
उनकी किताबें — मुलाक़ातें, खोया हुआ सा कुछ, दीवारों के पार, शहर मेरे साथ चल — सिर्फ़ अदबी नहीं, फ़लसफ़ाना दस्तावेज़ हैं। उन्होंने अपने दौर के शायरों को आईना दिखाया और खुद को भी सलीके से परखा। उनकी शायरी में वह सादगी है जो एक बच्चे की मासूमियत जैसी लगती है और वह समझदारी जो एक सूफ़ी की तरह गहरी है।
उन्हें पद्मश्री और साहित्य अकादमी जैसे बड़े एवार्ड्स से नवाज़ा गया, मगर असली इनाम तो वो मोहब्बत थी जो उनके चाहने वालों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रही।
8 फरवरी 2016 को जब वो इस दुनिया से रुख़्सत हुए, तो जैसे उर्दू अदब की एक रौशनी कम हो गई। लेकिन उनका नूर अब भी हर दिल में जलता है — उनकी शायरी हवाओं में तैरती है, गीतों में गूंजती है और वक़्त को मात देती है। वो चले गए, मगर उनके लफ़्ज़ रह गए — जो हमें अब भी ये याद दिलाते हैं कि मोहब्बत सबसे बड़ी इबादत है।
उनका हर शेर एक साँस की तरह ज़िंदा है, और हर साँस में उनकी महक बाक़ी है।
उनकी शायरी दरअसल एक नर्म सी दस्तक है — जो दिल पर पड़ती है और रूह को सुकून देती है।ये भी पढ़े
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