शकील बदायूनी, जिनका अस्ल नाम शकील अहमद बदायूनी था, उर्दू शायरी और हिन्दुस्तानी फ़िल्मी गीतों की दुनिया का वो नाम हैं, जिसने इश्क़, ख़ूबसूरती और इंसानियत के एहसास को अपने अल्फ़ाज़ों में इस तरह ढाला कि हर मिसरा दिल के किसी न किसी कोने में उतर गया। 3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले में जन्मे शकील बदायूनी का नाम आज भी उस दौर की याद दिलाता है जब शायरी, संगीत और एहसास – तीनों एक-दूसरे के हमसफ़र थे।उनके वालिद मोहम्मद जमाल अहमद सोख़्ता क़ादिरी एक पढ़े-लिखे, सलीक़ामंद शख़्स थे, जिन्होंने बेटे की तालीम पर ख़ास ध्यान दिया। घर पर ही उर्दू, अरबी, फ़ारसी और हिंदी की तालीम दिलवाई ताकि शकील का ज़ेहन हर ज़बान की नफ़ासत को समझ सके।
लेकिन ये कहना ग़लत न होगा कि शायरी शकील को विरासत में नहीं मिली — ये हुनर उन्होंने अपने ज़मीर और अपने ज़ौक़ से हासिल किया। बदायूँ की रूहानी फिज़ा और वहाँ के अदबी माहौल ने उनके दिल में तर्जुमा-ए-दिल बनने की चिंगारी भड़का दी।
अलीगढ़ का सफ़र और शायरी की पहचान
1936 में जब शकील ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, तब उन्होंने पहली बार अपने अल्फ़ाज़ों से दिलों पर असर डालना शुरू किया। यूनिवर्सिटी के मुशायरों में जब वो अपने अशआर पढ़ते, तो हर सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता। यही वो दौर था जब शकील ने अपने लिए एक राह चुन ली – मोहब्बत और इंसानियत की राह।
शकील कहते थे:“मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमान,कि मोहब्बतों का हूँ राज़दान,मुझे फ़ख़्र है मेरी शायरी,मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं।”
उनकी ये पंक्तियाँ उनके अदबी फ़लसफ़े का इज़हार हैं — कि उनके लिए शायरी कोई पेशा नहीं थी, बल्कि उनकी ज़िंदगी की आवाज़ थी।
फ़िल्मी दुनिया की ओर क़दम
1944 में शकील बदायूनी बंबई (अब मुंबई) पहुँचे, जहाँ उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता ए.आर. क़र्दार और संगीतकार नौशाद अली से हुई। नौशाद ने उनसे कहा कि अपनी शायरी का निचोड़ एक मिसरे में बताइए। शकील ने बिना सोचे कहा:“हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे,हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे।”
नौशाद इस एक मिसरे से इतने मुतास्सिर हुए कि उन्होंने उन्हें फ़िल्म ‘दर्द’ (1947) के लिए साइन कर लिया। फ़िल्म के गाने, ख़ासकर “अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेकरार का” ने शकील को रातों-रात मक़बूल बना दिया। उनकी शायरी में वह जज़्बा था जो न मोहब्बत से जुदा था, न इंसानियत से।
नौशाद और शकील – एक अटूट रिश्ता
नौशाद और शकील की जोड़ी ने हिंदुस्तानी फ़िल्मों को वो नग़मे दिए जो आज भी ज़ुबान पर हैं। ‘दीदार’ (1951), ‘बैजू बावरा’ (1952), ‘मदर इंडिया’ (1957), ‘मुग़ल-ए-आज़म’ (1960) – ये सब उनकी साझेदारी की बुलंद मिसालें हैं।“मन तरपत हरि दर्शन को आज”, “ओ दुनिया के रखवाले”, “मधुबन में राधिका नाचे रे”, “प्यार किया तो डरना क्या” जैसे गीत शकील की रूहानी और तसव्वुफ़ी सोच का नमूना हैं।
नौशाद कहते थे कि “शकील के अल्फ़ाज़ मेरे सुरों को जान दे देते थे।”जब शकील बीमार पड़े और पंचगनी के सैनेटोरियम में थे, नौशाद ने उनके लिए तीन फ़िल्मों का काम उन्हें वहीं दिया ताकि उनकी आमदनी बनी रहे। ये सिर्फ़ दोस्ती नहीं, बल्कि मोहब्बत और अदबी एहतराम की निशानी थी।
रवि और हेमंत कुमार के साथ
शकील ने संगीतकार रवि शर्मा के साथ भी कई हिट गीत दिए — ‘चौदहवीं का चाँद’, ‘घराना’, ‘घूंघट’, ‘फूल और पत्थर’, ‘दो बदन’ — हर एक में उनकी शायरी का जादू बोलता है।“चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो” के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला, जो उनके हुनर की बड़ी पहचान थी।
हेमंत कुमार के साथ ‘बीस साल बाद’ और ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ जैसी फ़िल्मों ने उर्दू अल्फ़ाज़ की ख़ूबसूरती को जन-जन तक पहुँचा दिया। “कहीं दीप जले कहीं दिल” के लिए उन्हें एक और फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला, जो आज भी सुनने वाले को उदासी और चाहत के दरमियान झुला देता है।
अंदाज़-ए-शायरी और फ़लसफ़ा
शकील बदायूनी की शायरी में रूमानी तासीर थी, लेकिन वह सतही नहीं थी। उनके अल्फ़ाज़ों में दर्द, तसव्वुफ़ और इंसानियत की महक थी। वो इश्क़ को सिर्फ़ माशूक़ की आँखों में नहीं, बल्कि हर रूह की पवित्रता में देखते थे।उनकी शायरी कहती है —“प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो,ये लज़्ज़त भी मोहब्बत को बदनाम न दो।”
उनकी शायरी में फ़लसफ़ा भी था, रूहानियत भी, और ज़िंदगी की सच्चाई भी। वो ज़बान के नहीं, एहसास के शायर थे।
निजी ज़िंदगी और आख़िरी दिन
1940 में उन्होंने अपनी रिश्तेदार सलमा से निकाह किया। उनकी ज़िंदगी सादगी और तहज़ीब का नमूना थी। उन्हें बैडमिंटन खेलना, पतंग उड़ाना और दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाना बहुत पसंद था। उनके क़रीबी दोस्तों में नौशाद, मोहम्मद रफ़ी, दिलीप कुमार, जॉनी वॉकर और ख़ुमार बाराबंकवी शामिल थे।
20 अप्रैल 1970 को बंबई हॉस्पिटल में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ़ 53 साल थी। उनके जाने के बाद दोस्तों ने ‘याद-ए-शकील ट्रस्ट’ बनाया, ताकि उनके परिवार की मदद की जा सके और उनकी अदबी विरासत ज़िंदा रह सके।
इंतिहाई मक़बूल नग़में
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“मन तरपत हरि दर्शन को आज” (बैजू बावरा)
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“प्यार किया तो डरना क्या” (मुग़ल-ए-आज़म)
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“चौदहवीं का चाँद हो” (चौदहवीं का चाँद)
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“कहीं दीप जले कहीं दिल” (बीस साल बाद)
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“ओ दुनिया के रखवाले” (बैजू बावरा)
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“न जाओ सैयाँ” (साहिब बीबी और ग़ुलाम)
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“मधुबन में राधिका नाचे रे” (कोहिनूर)
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“मुझे इश्क़ है तुमसे” (घराना)
हर गीत उनकी शायरी का आईना है — लफ़्ज़ों में जज़्बात की नमी, एहसास की रवानगी और अल्फ़ाज़ की मिठास।
एहतराम और इज़्ज़त
भारत सरकार ने 3 मई 2013 को शकील बदायूनी के नाम पर एक डाक टिकट जारी किया। ये उस शख़्स की याद में था जिसने उर्दू ज़बान को हर दिल में उतार दिया।
उन्होंने तीन बार फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड जीते —
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1961: “चौदहवीं का चाँद हो” (चौदहवीं का चाँद)
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1962: “हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं” (घराना)
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1963: “कहीं दीप जले कहीं दिल” (बीस साल बाद)
अख़्तितामी तास्सुरात
शकील बदायूनी वो शायर थे जिन्होंने लफ़्ज़ों से सिर्फ़ गाने नहीं, बल्कि एहसास बनाए। उन्होंने उर्दू को फ़िल्मी ज़ुबान का हिस्सा बनाया और मोहब्बत को एक नयी तर्ज़ में बयान किया। उनकी शायरी आज भी हर इश्क़ करने वाले दिल की ज़बान है।
वो भले ही 1970 में इस दुनिया से रुख़्सत हो गए, मगर उनके अल्फ़ाज़ अब भी हर महफ़िल में गूँजते हैं
शकील बदायुनी की शायरी,फ़िल्मी गीत,नज़्मे
ग़ज़ल-1
आँख से आँख मिलाता है कोई
दिल को खींचे लिए जाता है कोई
वाए हैरत कि भरी महफ़िल में
मुझ को तन्हा नज़र आता है कोई
सुब्ह को ख़ुनुक फ़ज़ाओं की क़सम
रोज़ आ आ के जगाता है कोई
मंज़र-ए-हुस्न-ए-दो-आलम के निसार
मुझ को आईना दिखाता है कोई
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
हौसला किस का बढ़ाता है कोई
सब करिश्मात-ए-तसव्वुर हैं 'शकील'
वर्ना आता है न जाता है कोई
अलीगढ़ का सफ़र और शायरी की पहचान
1936 में जब शकील ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, तब उन्होंने पहली बार अपने अल्फ़ाज़ों से दिलों पर असर डालना शुरू किया। यूनिवर्सिटी के मुशायरों में जब वो अपने अशआर पढ़ते, तो हर सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता। यही वो दौर था जब शकील ने अपने लिए एक राह चुन ली – मोहब्बत और इंसानियत की राह।
उनकी ये पंक्तियाँ उनके अदबी फ़लसफ़े का इज़हार हैं — कि उनके लिए शायरी कोई पेशा नहीं थी, बल्कि उनकी ज़िंदगी की आवाज़ थी।
फ़िल्मी दुनिया की ओर क़दम
नौशाद इस एक मिसरे से इतने मुतास्सिर हुए कि उन्होंने उन्हें फ़िल्म ‘दर्द’ (1947) के लिए साइन कर लिया। फ़िल्म के गाने, ख़ासकर “अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेकरार का” ने शकील को रातों-रात मक़बूल बना दिया। उनकी शायरी में वह जज़्बा था जो न मोहब्बत से जुदा था, न इंसानियत से।
नौशाद और शकील – एक अटूट रिश्ता
रवि और हेमंत कुमार के साथ
हेमंत कुमार के साथ ‘बीस साल बाद’ और ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ जैसी फ़िल्मों ने उर्दू अल्फ़ाज़ की ख़ूबसूरती को जन-जन तक पहुँचा दिया। “कहीं दीप जले कहीं दिल” के लिए उन्हें एक और फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला, जो आज भी सुनने वाले को उदासी और चाहत के दरमियान झुला देता है।
अंदाज़-ए-शायरी और फ़लसफ़ा
उनकी शायरी में फ़लसफ़ा भी था, रूहानियत भी, और ज़िंदगी की सच्चाई भी। वो ज़बान के नहीं, एहसास के शायर थे।
निजी ज़िंदगी और आख़िरी दिन
20 अप्रैल 1970 को बंबई हॉस्पिटल में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ़ 53 साल थी। उनके जाने के बाद दोस्तों ने ‘याद-ए-शकील ट्रस्ट’ बनाया, ताकि उनके परिवार की मदद की जा सके और उनकी अदबी विरासत ज़िंदा रह सके।
इंतिहाई मक़बूल नग़में
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“मन तरपत हरि दर्शन को आज” (बैजू बावरा)
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“प्यार किया तो डरना क्या” (मुग़ल-ए-आज़म)
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“चौदहवीं का चाँद हो” (चौदहवीं का चाँद)
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“कहीं दीप जले कहीं दिल” (बीस साल बाद)
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“ओ दुनिया के रखवाले” (बैजू बावरा)
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“न जाओ सैयाँ” (साहिब बीबी और ग़ुलाम)
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“मधुबन में राधिका नाचे रे” (कोहिनूर)
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“मुझे इश्क़ है तुमसे” (घराना)
हर गीत उनकी शायरी का आईना है — लफ़्ज़ों में जज़्बात की नमी, एहसास की रवानगी और अल्फ़ाज़ की मिठास।
एहतराम और इज़्ज़त
उन्होंने तीन बार फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड जीते —
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1961: “चौदहवीं का चाँद हो” (चौदहवीं का चाँद)
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1962: “हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं” (घराना)
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1963: “कहीं दीप जले कहीं दिल” (बीस साल बाद)
अख़्तितामी तास्सुरात
शकील बदायूनी वो शायर थे जिन्होंने लफ़्ज़ों से सिर्फ़ गाने नहीं, बल्कि एहसास बनाए। उन्होंने उर्दू को फ़िल्मी ज़ुबान का हिस्सा बनाया और मोहब्बत को एक नयी तर्ज़ में बयान किया। उनकी शायरी आज भी हर इश्क़ करने वाले दिल की ज़बान है।
शकील बदायुनी की शायरी,फ़िल्मी गीत,नज़्मे
ग़ज़ल-1
ग़ज़ल-2
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी
इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील'
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
ग़ज़ल-3
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी
इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील'
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
ग़ज़ल-4
इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
अपनों को देखते हैं पराई नज़र से हम
ग़ुंचों से प्यार कर के ये इज़्ज़त हमें मिली
चूमे क़दम बहार ने गुज़रे जिधर से हम
वल्लाह तुझ से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के बा'द भी
अक्सर गुज़र गए हैं तिरी रह-गुज़र से हम
सिदक़-ओ-सफ़ा-ए-क़ल्ब से महरूम है हयात
करते हैं बंदगी भी जहन्नम के डर से हम
उक़्बा में भी मिलेगी यही ज़िंदगी 'शकील'
मर कर न छूट पाएँगे इस दर्द-ए-सर से हम
नज़्म -1
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महलसारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगेख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महलताज वो शम्अ है उल्फ़त के सनम-ख़ाने की
जिस के परवानों में मुफ़्लिस भी हैं ज़रदार भी हैंसंग-ए-मरमर में समाए हुए ख़्वाबों की क़सम
मरहले प्यार के आसाँ भी हैं दुश्वार भी हैंदिल को इक जोश इरादों को जवानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महलताज इक ज़िंदा तसव्वुर है किसी शाएर का
उस का अफ़्साना हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहींइस के आग़ोश में आ कर ये गुमाँ होता है
ज़िंदगी जैसे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहींताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महलये हसीं रात ये महकी हुई पुर-नूर फ़ज़ा
हो इजाज़त तो ये दिल इश्क़ का इज़हार करेइश्क़ इंसान को इंसान बना देता है
किस की हिम्मत है मोहब्बत से जो इंकार करेआज तक़दीर ने ये रात सुहानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज महलसारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल.....
तब्सरा:-
शकील बदायूनी की शख़्सियत, उर्दू अदब के उन रोशन चेहरों में से है जिन्होंने मोहब्बत को महज़ एक जज़्बा नहीं, बल्कि एक फ़लसफ़ा बना दिया। वो उन शायरों में से थे जिनकी शायरी में दिल की सच्चाई, रूह की पाकीज़गी और ज़ुबान की मिठास एक साथ मिलती है। शकील का फ़न, सिर्फ़ अशआर की साजिश नहीं था — वो एक एहसास का तर्जुमान था, जो हर इंसान के अंदर की नर्मी को छू लेता है।
उनकी शायरी में ना कोई बनावट थी, ना दिखावा। जैसे किसी सादा रूह से निकले लफ़्ज़ ख़ुद ब-ख़ुद नज़्म बन जाएँ। वो लिखते नहीं थे, महसूस करते थे। यही वजह है कि “मन तरपत हरि दर्शन को आज” जैसे गीत सिर्फ़ भक्ति नहीं, बल्कि इंसान और ख़ुदा के बीच की रूहानी तलब को बयान करते हैं। और जब वो कहते हैं, “प्यार किया तो डरना क्या,” तो वो मोहब्बत को इंसान के हक़ की तरह पेश करते हैं — बेख़ौफ़, बे-झिझक और बे-इंतिहा।
शकील की शायरी में इश्क़ सिर्फ़ रुमानियत नहीं, बल्कि तसव्वुफ़ का इल्म है। वो माशूक़ को देख कर ख़ुदा को याद करते हैं, और ख़ुदा का ज़िक्र करते हुए माशूक़ की आँखों में उतर जाते हैं। यही वजह है कि उनके अल्फ़ाज़ वक्त की सीमाओं से परे जाकर आज भी उतने ही ताज़ा लगते हैं जितने सत्तर बरस पहले थे।
एक सच्चे शायर की तरह शकील ने कभी अपने दर्द को छुपाया नहीं — उन्होंने उसे अल्फ़ाज़ों में बदल कर ख़ूबसूरती बना दिया। “कहीं दीप जले कहीं दिल” जैसा गीत उस रूहानी उदासी का आईना है जो हर शायर के सीने में धड़कती रहती है।
उनकी शख़्सियत में एक अजीब सी तहज़ीब थी — सादगी और शान का संगम। वो शोहरत के बावजूद हमेशा अपने अदबी असूलों पर क़ायम रहे। नौशाद, रफ़ी, दिलीप कुमार जैसे लोगों के बीच रहते हुए भी उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ों की ख़ालिसी को कभी कमज़ोर नहीं होने दिया।
शकील बदायूनी का फ़न हमें ये सिखाता है कि असल शायरी वो नहीं जो कानों को सुहाए, बल्कि वो है जो दिल के भीतर कोई दरवाज़ा खोल दे। उन्होंने उर्दू ज़बान को फ़िल्मी परदे की ज़ुबान बनाया, और फ़िल्मी गीतों को शायरी की शान।
उनकी शख़्सियत में एक ऐसा नूर था जो इल्म से नहीं, इश्क़ से निकलता है — और यही नूर आज भी उनकी हर नज़्म, हर गीत, हर मिसरे में झिलमिलाता है।
शकील बदायूनी की शायरी महज़ तहरीर नहीं — वो हमारी अदबी तहज़ीब की धड़कन है। उन्होंने इश्क़ को बयान नहीं किया, बल्कि उसे जिया… और यही उनकी अमरता की वजह है।ये भी पढ़े
तब्सरा:-
शकील बदायूनी की शख़्सियत, उर्दू अदब के उन रोशन चेहरों में से है जिन्होंने मोहब्बत को महज़ एक जज़्बा नहीं, बल्कि एक फ़लसफ़ा बना दिया। वो उन शायरों में से थे जिनकी शायरी में दिल की सच्चाई, रूह की पाकीज़गी और ज़ुबान की मिठास एक साथ मिलती है। शकील का फ़न, सिर्फ़ अशआर की साजिश नहीं था — वो एक एहसास का तर्जुमान था, जो हर इंसान के अंदर की नर्मी को छू लेता है।
उनकी शायरी में ना कोई बनावट थी, ना दिखावा। जैसे किसी सादा रूह से निकले लफ़्ज़ ख़ुद ब-ख़ुद नज़्म बन जाएँ। वो लिखते नहीं थे, महसूस करते थे। यही वजह है कि “मन तरपत हरि दर्शन को आज” जैसे गीत सिर्फ़ भक्ति नहीं, बल्कि इंसान और ख़ुदा के बीच की रूहानी तलब को बयान करते हैं। और जब वो कहते हैं, “प्यार किया तो डरना क्या,” तो वो मोहब्बत को इंसान के हक़ की तरह पेश करते हैं — बेख़ौफ़, बे-झिझक और बे-इंतिहा।
शकील की शायरी में इश्क़ सिर्फ़ रुमानियत नहीं, बल्कि तसव्वुफ़ का इल्म है। वो माशूक़ को देख कर ख़ुदा को याद करते हैं, और ख़ुदा का ज़िक्र करते हुए माशूक़ की आँखों में उतर जाते हैं। यही वजह है कि उनके अल्फ़ाज़ वक्त की सीमाओं से परे जाकर आज भी उतने ही ताज़ा लगते हैं जितने सत्तर बरस पहले थे।
एक सच्चे शायर की तरह शकील ने कभी अपने दर्द को छुपाया नहीं — उन्होंने उसे अल्फ़ाज़ों में बदल कर ख़ूबसूरती बना दिया। “कहीं दीप जले कहीं दिल” जैसा गीत उस रूहानी उदासी का आईना है जो हर शायर के सीने में धड़कती रहती है।
उनकी शख़्सियत में एक अजीब सी तहज़ीब थी — सादगी और शान का संगम। वो शोहरत के बावजूद हमेशा अपने अदबी असूलों पर क़ायम रहे। नौशाद, रफ़ी, दिलीप कुमार जैसे लोगों के बीच रहते हुए भी उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ों की ख़ालिसी को कभी कमज़ोर नहीं होने दिया।
शकील बदायूनी का फ़न हमें ये सिखाता है कि असल शायरी वो नहीं जो कानों को सुहाए, बल्कि वो है जो दिल के भीतर कोई दरवाज़ा खोल दे। उन्होंने उर्दू ज़बान को फ़िल्मी परदे की ज़ुबान बनाया, और फ़िल्मी गीतों को शायरी की शान।
उनकी शख़्सियत में एक ऐसा नूर था जो इल्म से नहीं, इश्क़ से निकलता है — और यही नूर आज भी उनकी हर नज़्म, हर गीत, हर मिसरे में झिलमिलाता है।
शकील बदायूनी की शायरी महज़ तहरीर नहीं — वो हमारी अदबी तहज़ीब की धड़कन है। उन्होंने इश्क़ को बयान नहीं किया, बल्कि उसे जिया… और यही उनकी अमरता की वजह है।ये भी पढ़े
