जिगर मुरादाबादी: अनसुनी कहानी और मयारी शायरी का खजाना एक व्यापक जीवनी


जिगर मुरादबादी। जिनका जन्म अली सिकंदर के रूप में हुआ, भारत के एक प्रमुख 

उर्दू शायर थे। उनका जन्म 6 अप्रैल, सन-1890 को भारत के उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में

 हुआ था। जिगर मुरादबादी को 20वीं सदी के सबसे महान उर्दू शायरों में से एक माना जाता है।


जिगर मुरादाबादी का असली नाम अली सिकंदर था, लेकिन उन्होंने तखल्लुस (उप नाम) 

"जिगर" अपनाया, जिसका उर्दू में अर्थ "दिल" होता है, क्योंकि यह उनकी शायरी की गहराई

 को दर्शाता है। वह मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर तकी मीर और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे प्रसिद्ध उर्दू 

कवियों के कार्यों से बहुत प्रभावित थे।


जिगर मुरादाबादी ने कम उम्र में कविता लिखना शुरू कर दिया और अपनी ग़ज़लों, नज़्मों

 और उर्दू शायरी के अन्य रूपों के लिए पहचान हासिल की। उनकी कविता में उनकी गहरी 

भावनाएँ, प्रेम और मानव स्वभाव की गहरी समझ झलकती थी। उन्होंने अक्सर प्यार, अलगाव,

 दर्द और जीवन की जटिलताओं जैसे विषयों के बारे में लिखा।


उनका पहला कविता संग्रह, जिसका शीर्षक "नगमा-ए-हयात" (द मेलोडी ऑफ लाइफ) था,

 1932 में प्रकाशित हुआ और इसे आलोचनात्मक प्रशंसा मिली। जिगर मुरादाबादी की शायरी

 जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को पसंद आई और वह अपनी रूह कंपा देने वाली कविताओं

 के लिए बेहद लोकप्रिय हो गए।


जिगर मुरादाबादी की काव्य शैली की विशेषता उनके रूपकों के उत्कृष्ट उपयोग, जटिल 

कल्पना और सरल लेकिन प्रभावशाली शब्दों में गहरी भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता 

थी। उनकी कविता में एक अद्वितीय गीतात्मक गुण था जो उनके पाठकों और श्रोताओं के 

दिलों को छू जाता था।


अपनी  साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा, जिगर मुरादाबादी सामाजिक और राजनीतिक

 कार्यों में भी सक्रिय रूप से शामिल थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया 

और स्वतंत्रता संग्राम के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करने के लिए अपनी कविता को एक 

माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया।


अपने पूरे जीवन में, जिगर मुरादाबादी को उर्दू शायरी में उनके योगदान के लिए कई प्रशंसाएं 

और पुरस्कार मिले। उन्हें 1968 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मानों में से एक, साहित्य 

अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।


9 सितंबर, 1960 को उर्दू शायरी की एक समृद्ध विरासत छोड़कर जिगर मुरादाबादी का 

निधन हो गया। उनके कार्यों को काव्य प्रेमियों और उर्दू साहित्य के प्रेमियों द्वारा मनाया और 

संजोया जाना जारी है। उनकी कविता कवियों की पीढ़ियों को प्रेरित करती रहती है और उर्दू

 साहित्यिक कैनन का एक अभिन्न अंग बनी हुई है।येभीपढ़ें


जीवन परिचय 

नाम-अली सिकंदर

उप नाम-जिगर मुरादबादी

जन्म - 6 अप्रैल सन 1890 

जन्म स्थान- जिला मोरादाबाद,उत्तर प्रदेश 

पिता का नाम- अली नज़र ( शायर )

माता का नाम- ज़ोहरा बेगम 

उस्ताद (गुरू ) शुरू में हयात बक्श को कलाम दिखाया,बाद में दाग़ देल्हवी से इस्लाह ली , मौलवी अली नज़र ख्वाजा "वज़ीर"

शिक्षा- उर्दू ,अरबी, फ़ारसी की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुयी 

शिष्य ( शागिर्द ) मजरूह सुल्तानपुरी ,जां निसार अख्तर,मजाज़ लखनवी, आदि 

व्यवसाय- चश्मों का कारोबार 

मृत्यु (वफ़ात) -जिगर साहब अपने आखिरी वक्त गोंडा चले गए थे वहीं उनकी आखिरी रिहाइश थी, 

9 सितंबर सन 1960 को गोंडा में उनका निधन (वफ़ात ) हो गया।

जिगर मुरादाबादी की प्रकाशित पुस्तके 

1-शोला-ए-तूर, सन 1937 
2-आतिश-ए-गुल,सन 1959,
3--आतिश-ए-गुल,सन 1967
4-आतिश-ए-गुल,सन 1972
5-इंतेखाब ए दीवान-ए-जिगर 
6-दीवान-ए-जिगर 
7-इंतेखाब ए कलाम -ए-जिगर 
8-इंतेखाब ए कलाम -ए-जिगर2
9-कुल्लियात- ए - जिगर 
10-वारदात- ए - जिगर 


अवार्ड्स व सम्मान 

1-जिगर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास में मानद डी.लिट्. से सम्मानित होने वाले 
केवल दूसरे शायर थे।पहले  अल्लामा इक़बाल थे 
2-आतिश ए गुल के लिए,साहित्य अकादमी पुरुस्कार ,5000 का नकद पुरुस्कार व 200 महीना पेंशन 
3-पद्मश्री अवार्डयेभीपढ़ें




जिगर मुरादाबादी की ग़ज़लें,नज़्मे और नातें 

1-ग़ज़ल 

मोहब्बत में ये क्या मक़ाम रहे हैं

कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं

वो अब चल चुके हैं वो अब रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं

ख़ुदा जाने क्या क्या ख़याल रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उन के पूछो

वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है

वफ़ा कर के भी हम तो शर्मा रहे हैं

वो आलम है अब यारो अग़्यार कैसे

हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं


मिज़ाज-ए-गिरामी की हो ख़ैर या-रब

कई दिन से अक्सर वो याद रहे हैं

2-ग़ज़ल 

क्या कशिश हुस्न-ए-बे-पनाह में है 

 जो क़दम है उसी की राह में है

 मय-कदे में न ख़ानक़ाह में है 

 जो तजल्ली दिल-ए-तबाह में है 

 हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक 

 तेरे दिल में मिरी निगाह में है 

 इश्क़ में कैसी मंज़िल-ए-मक़्सूद 

 वो भी इक गर्द है जो राह में है

 मैं जहाँ हूँ तिरे ख़याल में हूँ 

 तू जहाँ है मिरी निगाह में है

 हुस्न को भी कहाँ नसीब 'जिगर'

 वो जो इक शय मिरी निगाह में है

1-नज़्म 

आई जब उन की याद तो आती चली गई 

हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई 


हर मंज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई 

जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई 


हर वाक़िआ क़रीब-तर आता चला गया 

हर शय हसीन-तर नज़र आती चली गई 


वीराना-ए-हयात के एक एक गोशे में 

जोगन कोई सितार बजाती चली गई 


दिल फुंक रहा था आतिश-ए-ज़ब्त-ए-फ़िराक़ से 

दीपक को मय-गुसार बनाती चली गई 


बे-हर्फ़ ओ बे-हिकायत ओ बे-साज़ ओ बे-सदा 

रग रग में नग़्मा बन के समाती चली गई 


जितना ही कुछ सुकून सा आता चला गया 

उतना ही बे-क़रार बनाती चली गई 


कैफ़िय्यतों को होश सा आता चला गया 

बे-कैफ़ियों को नींद सी आती चली गई 


क्या क्या न हुस्न-ए-यार से शिकवे थे इश्क़ को 

क्या क्या न शर्मसार बनाती चली गई 


तफ़रीक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का झगड़ा नहीं

 रहा तमईज़-ए-क़ुर्ब-ओ-बोद मिटाती चली गई 


मैं तिश्ना-काम-ए-शौक़ था पीता चला गया 

वो मस्त अँखड़ियों से पिलाती चली गई 


इक हुस्न-ए-बे-जिहत की फ़ज़ा-ए-बसीत में 

उड़ती गई मुझे भी उड़ाती चली गई 


फिर मैं हूँ और इश्क़ की बेताबियाँ 'जिगर' 

अच्छा हुआ वो नींद की माती चली गई 

2-नज़्म 

साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया 

लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया 


बे-कैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया 

तौबा को तोड़-ताड़ के थर्रा के पी गया 


ज़ाहिद! ये तेरी शोख़ी-ए-रिन्दाना देखना 

रहमत को बातों बातों में बहला के पी गया 


सर-मस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई 

दुनिया-ए-ए'तिबार को ठुकरा के पी गया 


आज़ुर्दगी-ए-ख़ातिर-ए-साक़ी को देख कर 

मुझ को ये शर्म आई कि शर्मा के पी गया 


ऐ रहमत-ए-तमाम मिरी हर ख़ता मुआफ़ 

मैं इंतिहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया 


पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मिरी मजाल 

दर-पर्दा चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया 


उस जान-ए-मय-कदा की क़सम बारहा 'जिगर' 

कुल आलम-ए-बसीत पे मैं छा के पी गया 

1नाअत 

इक रिंद है और मिदहत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


हाँ कोई नज़र रहमत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


तू सुब्ह-ए-अज़ल आइना-ए-हुस्न-ए-अज़ल भी 


ऐ सल्ले-अला सूरत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


ऐ ख़ाक-ए-मदीना तिरी गलियों के तसद्दुक़ 


तू ख़ुल्द है तू जन्नत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


ज़ाहिर में ग़रीब-उल-ग़ुरबा फिर भी ये आलम 


शाहों से सिवा सतवत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


इस तरह कि हर साँस हो मसरूफ़-ए-इबादत 


देखूँ मैं दर-ए-दौलत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


कौनैन का ग़म याद-ए-ख़ुदा दर्द-ए-शफ़ाअत 


दौलत है यही दौलत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


इस उम्मत-ए-आसी से न मुँह फेर ख़ुदाया 


नाज़ुक है बहुत ग़ैरत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


ऐ जान ब-लब आमदा हुशियार ख़बर-दार 


वो सामने हैं हज़रत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


कुछ और नहीं काम 'जिगर' मुझ को किसी से 


काफ़ी है बस इक निस्बत-ए-सुल्तान-ए-मदीना 


CONCLUSION:-


यक़ीनन जिगर मुरादाबादी उर्दू शायरी के आसमान पर वो आफताब थे जिनकी चमक का
 कोई सानी नहीं 
हे उर्दू साहित्य में अदबी खिदमात को देखते हुए ही अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी उन्हें
 D.Litt की ऐजाज़ी डिग्री 
से नवाज़ा गया था जो की AMU की तारीख में अभी तक सिर्फ 2 ही लोगो को ये डिग्री दी गयी 
1-अल्लामा इक़बाल 
दूसरे जिगर मुरादाबादी साहब,यक़ीनन जिगर साहब उर्दू अदब का नायाब  हीरा  थे,
जिसकी चमक हमेशा कायम रहेगीयेभीपढ़ें
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