रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी जीवनी

 

इब्तिदाई ज़िंदगी: एक रोशन बुनियाद

फ़िराक़ गोरखपुरी — जिनका असल नाम रघुपति सहाय था — का पैदाइश 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर ज़िले के एक पुरसुकून गाँव बनवारपार में हुआ। उनका तअल्लुक़ एक तालीमयाफ़्ता, सलीक़ामंद और तहज़ीबओ-तमद्दुन से भरपूर कायस्थ ख़ानदान से था। घर का माहौल इल्मी और अदबी था, जहां इल्म को इज़्ज़त दी जाती थी और किताबों से मुहब्बत सिखाई जाती थी।

उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी में महारत हासिल की और बाद-अज़ां इन ही ज़बानों में एम.ए. की डिग्री भी हासिल की। मगर उनकी तालीम महज़ इम्तिहानों और डिग्रियों तक महदूद नहीं रही — वो ज़बान को महसूस करते थे, उसमें डूबते थे और उसे अपनी रूह में उतार लेते थे।



अदब की तरफ़ पहला क़दम

फ़िराक़ ने कमसिनी ही में शायरी शुरू कर दी थी। उनके इबतिदाई अशआर में ही एक गहरी फ़हम, अदबी रिफ़अत और एक ख़ास अंदाज़-ए-बयान दिखाई देता था। वो ऐसे दौर में उभर रहे थे जहां अल्लामा इक़बाल, जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी, और बाद में फ़ैज़, कैफ़ी, साहिर जैसे नाम उर्दू शायरी को नई बुलंदियों तक पहुँचा रहे थे। लेकिन फ़िराक़ ने भीड़ में भी अपनी एक अलहदा राह बनाई — जहाँ ग़ज़ल में इश्क़ के साथ-साथ इंसानी समाज, सियासत, और रुह की तड़प भी बोलती थी।


ज़िंदगी की जद्दोजहद और नज़रिया

फ़िराक़ की ज़िंदगी महज़ क़लम और काग़ज़ तक महदूद नहीं थी। उन्हें पहले प्रांतीय सिविल सर्विस (PCS) और बाद में भारतीय सिविल सेवा (ICS) में चुना गया। लेकिन उन्होंने इस गुलामी को ठुकरा दिया और महात्मा गांधी के असहयोग तहरीक में शामिल हो गए। नतीजा ये हुआ कि उन्हें १८ महीने की क़ैद हुई।

इस क़ैद ने उनकी शख़्सियत को नया रुख़ दिया — जिस्म हवालात में था, लेकिन सोच और रूह आज़ाद। बाद में उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी अदब के प्रोफ़ेसर की हैसियत से तदरीस की, लेकिन दिल सिर्फ़ उर्दू अदब में ही धड़कता रहा।


अदबी शख़्सियत: बेबाक, नफ़ीस और अलहदा

फ़िराक़ सिर्फ़ शायर नहीं थे — वो एक मिज़ाज, एक तर्ज़-ए-ज़िंदगी थे।
मुशायरों में उनका लहजा — सिगरेट का कश, चुटकी से राख झाड़ना, और फिर शेर सुनाते वक़्त ख़ामोशी छा जाना — उनका अंदाज़ ही उनकी तहरीर की तरह जादूई था। उनकी अदबी बहसें महज़ इल्म नहीं, एक फ़लसफ़ा हुआ करती थीं।

एक बार लाहौर के मुशायरे में उन्होंने फ़ैज़ से नाराज़ होकर सीधे अख़बार के दफ़्तर जाकर कहा:
"पहले फ़ैज़ को बुलाओ!"
जब फ़ैज़ आए, फ़िराक़ ने पूछा:
"मेरे मज़मून में क्या ख़ता थी?"
फ़ैज़ ने फ़ौरन माफ़ी माँगी। बाद में फ़ैज़ ने कहा:
"ये शख़्स अदब की बला है... इसने उर्दू, फ़ारसी, हिंदी और अंग्रेज़ी को यूँ घोलकर पी लिया है कि इससे बहस में जीतना नामुमकिन है।"


सियासत से किनारा, अदब से वफ़ादारी

जब इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा की नुमाइंदगी की पेशकश की, उन्होंने बड़ी नर्मी से कहा:
"आपका जो स्नेह मुझे मिला है, वो मेरे लिए सौ राज्यसभा सीटों से बढ़कर है।"

उनके लिए सबसे बड़ा ओहदा वही था — जो क़लम और अदब ने उन्हें दिया।


अदबी सरमाया: लफ़्ज़ों में रूह की आवाज़

फ़िराक़ की शायरी में ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, क़ता, हर रूप का जलवा है।
लेकिन उनका असल कारनामा यह है कि उन्होंने उर्दू शायरी को एक जज़्बा, एक रवानी, और एक तहज़ीबी लहजा बख़्शा।

उनकी तहरीर में एक तरफ़ हिंदुस्तानी तहज़ीब की नज़ाकत है, और दूसरी तरफ़ मआसिर सोच की तेज़ धार।
उनकी ग़ज़लों में मोहब्बत, फ़िराक़, तन्हाई, वक़्त की गर्दिश, और इंसानी रूह की बेकली — सब कुछ बयान होता है, मगर बड़े सलीक़े और फ़नकारी से।


चंद नमूना-ए-कलाम (प्रमुख रचनाएँ):

  • गुल-ए-नग़्मा (ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी सम्मानित)

  • गुल-ए-र'ना

  • मशअल

  • रूह-ए-कायनात

  • शबनमिस्तान

  • बज़्म-ए-ज़िंदगी रंग-ए-शायरी

  • शोअला व साज़

  • धरती की करवट

  • रम्ज़ व कायनात

  • हज़ार दास्तान

  • आधीरात

  • तराना-ए-इश्क़

  • उपन्यास: साधु और कुटिया

(इसके अलावा कई कहानियाँ, तंकीदी मज़ामीन, और मआशरती मक़ाले भी मंज़रे-आम पर आए।)


इनआमात व एतराफ़ (पुरस्कार और मान्यताएँ):

  • 1960 — साहित्य अकादमी अवॉर्ड

  • 1968 — पद्म भूषण

  • 1968 — सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड

  • 1969 — ज्ञानपीठ पुरस्कार (उर्दू के लिए पहला)

  • 1970 — साहित्य अकादमी फैलोशिप

  • 1981 — ग़ालिब अकादमी अवॉर्ड


फ़लसफ़ा-ए-फ़िराक़: उर्दू किसी एक क़ौम की ज़ुबान नहीं

फ़िराक़ ने हमेशा इस नज़रिए की मुख़ालिफ़त की कि उर्दू सिर्फ़ मुसलमानों की ज़बान है।
वो कहते थे:
"ज़बान किसी एक क़ौम की मिल्कियत नहीं होती। जो इसे समझे, महसूस करे और बरते — वही इसका असल वारिस है।"

उनके लिए उर्दू, हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मुकम्मल आईनादार थी।


आख़िरी मरहला और अमर विरासत

फ़िराक़ गोरखपुरी का इंतिक़ाल 3 मार्च 1982 को हुआ।
मगर वो सिर्फ़ जिस्मानी तौर पर हमसे रुख़्सत हुए — उनकी रूह आज भी अदब की फ़िज़ाओं में महक रही है।

उनका मशहूर शेर उनकी याद को हमेशा ज़िंदा रखता है:

“आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हमअसरों,
जब उनको मालूम होगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है।”

फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लें शायरी 

1-ग़ज़ल 

चश्म ए अंजुम में भी तो पानी है 

बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म ए दिल 

मेहरबानी है मेहरबानी है 

वो भला मेरी बात क्या माने 

उस ने अपनी भी बात मानी है 

शोला ए दिल है ये कि शोला-साज़ 

या तिरा शोला ए जवानी है 

वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू 

गाह गुल गाह रात-रानी है 

बन के मासूम सब को ताड़ गई 

आँख उस की बड़ी सियानी है 

आप बीती कहो कि जग-बीती 

हर कहानी मिरी कहानी है 

दोनों आलम हैं जिस के ज़ेर-ए-नगीं 

दिल उसी ग़म की राजधानी है 

हम तो ख़ुश हैं तिरी जफ़ा पर भी 

बे सबब तेरी सरगिरानी है 

सर ब सर ये फ़राज़ ए मह्र ओ क़मर 

तेरी उठती हुई जवानी है 

आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा ए इश्क़ 

गो कहानी बहुत पुरानी है 

ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा 

और अगर रोइए तो पानी है 

है ठिकाना ये दर ही उस का भी 

दिल भी तेरा ही आस्तानी है 

उन से ऐसे में जो न हो जाए 

नौ-जवानी है नौ जवानी है 

दिल मिरा और ये ग़म ए दुनिया 

क्या तिरे ग़म की पासबानी है 

गर्दिश ए चश्म ए साक़ी ए दौराँ 

दौर ए अफ़लाक की भी पानी है 

ऐ लब-ए-नाज़ क्या हैं वो असरार 

ख़ामुशी जिन की तर्जुमानी है 

मय कदों के भी होश उड़ने लगे 

क्या तिरी आँख की जवानी है 

ख़ुद कुशी पर है आज आमादा 

अरे दुनिया बड़ी दिवानी है 

कोई इज़हार-ए-ना ख़ुशी भी नहीं 

बद-गुमानी सी बद गुमानी है 

मुझ से कहता था कल फ़रिश्ता ए इश्क़ 

ज़िंदगी हिज्र की कहानी है 

बहर ए हस्ती भी जिस में खो जाए 

बूँद में भी वो बे करानी है 

मिल गए ख़ाक में तिरे उश्शाक़ 

ये भी इक अम्र ए आसमानी है 

ज़िंदगी इंतिज़ार है तेरा 

हम ने इक बात आज जानी है 

क्यूँ न हो ग़म से ही क़िमाश उस का 

हुस्न तसवीर ए शादमानी है 

सूनी दुनिया में अब तो मैं हूँ और 

मातम ए इश्क़ ए आँ जहानी है 

कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद ए शबाब 

रात है नींद है कहानी है 


2-ग़ज़ल 

'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है 

ब क़ौल उस आँख के दुनिया बदल तो सकती है 

तिरे ख़याल को कुछ चुप सी लग गई वर्ना 

कहानियों से शब ए ग़म बहल तो सकती है 

उरूस ए हर चले खा के ठोकरें लेकिन 

क़दम क़दम पे जवानी उबल तो सकती है 

पलट पड़े न कहीं उस निगाह का जादू 

कि डूब कर ये छुरी कुछ उछल तो सकती है 

बुझे हुए नहीं इतने बुझे हुए दिल भी 

फ़सुर्दगी में तबीअ'त मचल तो सकती है 

अगर तू चाहे तो ग़म वाले शादमाँ हो जाएँ 

निगाह ए यार ये हसरत निकल तो सकती है 

अब इतनी बंद नहीं ग़म कदों की भी राहें 

हवा ए कूच ए महबूब चल तो सकती है 

कड़े हैं कोस बहुत मंज़िल ए मोहब्बत के 

मिले न छाँव मगर धूप ढल तो सकती है 

हयात लौ तह ए दामान ए मर्ग दे उट्ठी 

हवा की राह में ये शम्अ जल तो सकती है 

कुछ और मस्लहत ए जज़्ब ए इश्क़ है वर्ना 

किसी से छुट के तबीअ'त सँभल तो सकती है 

अज़ल से सोई है तक़दीर ए इश्क़ मौत की नींद 

अगर जगाइए करवट बदल तो सकती है 

ग़म ए ज़माना ओ सोज़ ए निहाँ की आँच तो दे 

अगर न टूटे ये ज़ंजीर गल तो सकती है 

शरीक ए शर्म ओ हया कुछ है बद गुमानी ए हुस्न 

नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है 

कभी वो मिल न सकेगी मैं ये नहीं कहता 

वो आँख आँख में पड़ कर बदल तो सकती है 

बदलता जाए ग़म ए रोज़गार का मरकज़ 

ये चाल गर्दिश ए अय्याम चल तो सकती है 

वो बे नियाज़ सही दिल मता ए हेच सही 

मगर किसी की जवानी मचल तो सकती है 

तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और 

कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है 

ये ज़ोर ओ शोर सलामत तिरी जवानी भी 

ब क़ौल इश्क़ के साँचे में ढल तो सकती है 

सुना है बर्फ़ के टुकड़े हैं दिल हसीनों के 

कुछ आँच पा के ये चाँदी पिघल तो सकती है 

हँसी हँसी में लहू थूकते हैं दिल वाले 

ये सर ज़मीन मगर ला'ल उगल तो सकती है 

जो तू ने तर्क ए मोहब्बत को अहल ए दिल से कहा 

हज़ार नर्म हो ये बात खल तो सकती है 

अरे वो मौत हो या ज़िंदगी मोहब्बत पर 

न कुछ सही कफ़ ए अफ़सोस मल तो सकती है 

हैं जिस के बल पे खड़े सरकशों को वो धरती 

अगर कुचल नहीं सकती निगल तो सकती है 

हुई है गर्म लहु पी के इश्क़ की तलवार 

यूँ ही जिलाए जा ये शाख़ फल तो सकती है 

गुज़र रही है दबे पाँव इश्क़ की देवी 

सुबुक रवी से जहाँ को मसल तो सकती है 

हयात से निगह एन वापसीं है कुछ मानूस 

मिरे ख़याल से आँखों में पल तो सकती है 

न भूलना ये है ताख़ीर हुस्न की ताख़ीर 

'फ़िराक़' आई हुई मौत टल तो सकती है 


3-ग़ज़ल 

निगाह ए नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या 

हिजाब अहल ए मोहब्बत को आए हैं क्या क्या 

जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की 

चराग़ ए दैर ओ हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या 

दो चार बर्क़ ए तजल्ली से रहने वालों ने 

फ़रेब नर्म निगाही के खाए हैं क्या क्या 

दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट 

तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या 

निसार नर्गिस ए मय गूँ कि आज पैमाने 

लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या 

वो इक ज़रा सी झलक बर्क़ ए कम निगाही की 

जिगर के ज़ख़्म ए निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या 

चराग़ ए तूर जले आइना दर आईना 

हिजाब बर्क़ ए अदा ने उठाए हैं क्या क्या 

ब क़द्र ए ज़ौक़ ए नज़र दीद ए हुस्न क्या हो मगर 

निगाह ए शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या 

कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल ए बर्बाद 

ख़िराम ए नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या 

तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल ए रअना का 

फ़ुसून ए ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या 

हज़ार फ़ित्ना ए बेदार ख़्वाब ए रंगीं में 

चमन में ग़ुंचा ए गुल रंग लाए हैं क्या क्या 

तिरे ख़ुलूस ए निहाँ का तो आह क्या कहना 

सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या 

नज़र बचा के तिरे ईशवा हा ए पिन्हाँ ने 

दिलों में दर्द ए मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या 

पयाम ए हुस्न पयाम ए जुनूँ पयाम ए फ़ना 

तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या 

तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी 

भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या 

'फ़िराक़' राह ए वफ़ा में सुबुक रवी तेरी 

बड़े बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या 

नज़्म 

दयार-ए-हिन्द था गहवारा याद है हमदम
बहुत ज़माना हुआ किस के किस के बचपन का
इसी ज़मीन पे खेला है 'राम' का बचपन
इसी ज़मीन पे उन नन्हे नन्हे हाथों ने
किसी समय में धनुष-बान को सँभाला था

इसी दयार ने देखी है 'कृष्ण' की लीला
यहीं घरोंदों में सीता सुलोचना राधा
किसी ज़माने में गुड़ियों से खेलती होंगी

यही ज़मीं यही दरिया पहाड़ जंगल बाग़
यही हवाएँ यही सुब्ह-ओ-शाम सूरज चाँद
यही घटाएँ यही बर्क़-ओ-र'अद ओ क़ौस-ए-क़ुज़ह

यहीं के गीत रिवायात मौसमों के जुलूस
हुआ ज़माना कि 'सिद्धार्थ' के थे गहवारे
इन्ही नज़ारों में बचपन कटा था 'विक्रम' का

सुना है 'भर्तृहरि' भी इन्हीं से खेला था
'भरत' 'अगस्त्य' 'कपिल' 'व्यास' 'पाशी' 'कौटिल्य'
'जनक' 'वशिष्ठ' 'मनु' 'वाल्मीकि' 'विश्वामित्र'
'कणाद' 'गौतम' ओ 'रामानुज' 'कुमारिल-भट्ट'

मोहनजोदड़ो हड़प्पा के और अजंता के
बनाने वाले यहीं बल्लमों से खेले थे
इसी हिंडोले में 'भवभूति' ओ 'कालीदास' कभी
हुमक हुमक के जो तुतला के गुनगुनाए थे

सरस्वती ने ज़बानों को उन की चूमा था
यहीं के चाँद व सूरज खिलौने थे उन के
इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन पला था 'ख़ुसरव' का
इसी ज़मीं से उठे 'तानसेन' और 'अकबर'
'रहीम' 'नानक' ओ 'चैतन्य' और 'चिश्ती' ने
इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन के दिन गुज़ारे थे

इसी ज़मीन पे कभी शाहज़ादा-ए-'ख़ुर्रम'
ज़रा सी दिल-शिकनी पर जो रो दिया होगा
भर आया था दिल-ए-नाज़ुक तो क्या अजब इस में
इन आँसुओं में झलक ताज की भी देखी हो

'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' ओ 'रज़िया' ने
यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले
इसी फ़ज़ा में बढ़ाई थी पेंग बचपन की
इन्ही नज़ारों में सावन के गीत गाए थे

इसी ज़मीन पे घुटनों के बल चले होंगे
'मलिक-मोहम्मद' ओ 'रसखान' और 'तुलसी-दास'
इन्हीं फ़ज़ाओं में गूँजी थी तोतली बोली
'कबीर-दास' 'टुकाराम' 'सूर' ओ 'मीरा' की
इसी हिंडोले में 'विद्यापति' का कंठ खुला

इसी ज़मीन के थे लाल 'मीर' ओ 'ग़ालिब' भी
ठुमक ठुमक के चले थे घरों के आँगन में
'अनीस' ओ 'हाली' ओ 'इक़बाल' और 'वारिस-शाह'
यहीं की ख़ाक से उभरे थे 'प्रेमचंद' ओ 'टैगोर'
यहीं से उठ्ठे थे तहज़ीब-ए-हिन्द के मेमार

इसी ज़मीन ने देखा था बाल-पन इन का
यहीं दिखाई थीं इन सब ने बाल-लीलाएँ
यहीं हर एक के बचपन ने तर्बियत पाई
यहीं हर एक के जीवन का बालकांड खुला

यहीं से उठते बगूलों के साथ दौड़े हैं
यहीं की मस्त घटाओं के साथ झूमे हैं
यहीं की मध-भरी बरसात में नहाए हैं
लिपट के कीचड़ ओ पानी से बचपने उन के

इसी ज़मीन से उठ्ठे वो देश के सावंत
उड़ा दिया था जिन्हें कंपनी ने तोपों से
इसी ज़मीन से उठी हैं अन-गिनत नस्लें
पले हैं हिन्द हिंडोले में अन-गिनत बच्चे
मुझ ऐसे कितने ही गुमनाम बच्चे खेले हैं
इसी ज़मीं से इसी में सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए

ज़मीन-ए-हिन्द अब आराम-गाह है उन की
इस अर्ज़-ए-पाक से उट्ठीं बहुत सी तहज़ीबें
यहीं तुलू हुईं और यहीं ग़ुरूब हुईं
इसी ज़मीन से उभरे कई उलूम-ओ-फ़ुनून
फ़राज़-ए-कोह-ए-हिमाला ये दौर-ए-गंग-ओ-जमन
और इन की गोद में पर्वर्दा कारवानों ने
यहीं रुमूज़-ए-ख़िराम-ए-सुकूँ-नुमा सीखे
नसीम-ए-सुब्ह-ए-तमद्दुन ने भैरवीं छेड़ी

यहीं वतन के तरानों की वो पवें फूटें
वो बे-क़रार सुकूँ-ज़ा तरन्नुम-ए-सहरी
वो कपकपाते हुए सोज़-ओ-साज़ के शोले
इन्ही फ़ज़ाओं में अंगड़ाइयाँ जो ले के उठे
लवों से जिन के चराग़ाँ हुई थी बज़्म-ए-हयात
जिन्हों ने हिन्द की तहज़ीब को ज़माना हुआ
बहुत से ज़ावियों से आईना दिखाया था

इसी ज़मीं पे ढली है मिरी हयात की शाम
इसी ज़मीन पे वो सुब्ह मुस्कुराई है
तमाम शोला ओ शबनम मिरी हयात की सुब्ह
सुनाऊँ आज कहानी मैं अपने बचपन की

दिल-ओ-दिमाग़ की कलियाँ अभी न चटकी थीं
हमेशा खेलता रहता था भाई बहनों में
हमारे साथ मोहल्ले की लड़कियाँ लड़के
मचाए रखते थे बालक उधम हर एक घड़ी
लहू तरंग उछल-फाँद का ये आलम था
मोहल्ला सर पे उठाए फिरे जिधर गुज़रे
हमारे चहचहे और शोर गूँजते रहते
चहार-सम्त मोहल्ले के गोशे गोशे में
फ़ज़ा में आज भी ला-रैब गूँजते होंगे
अगरचे दूसरे बच्चों की तरह था मैं भी

ब-ज़ाहिर औरों के बचपन सा था मिरा बचपन
ये सब सही मिरे बचपन की शख़्सियत भी थी एक
वो शख़्सियत कि बहुत शोख़ जिस के थे ख़द-ओ-ख़ाल
अदा अदा में कोई शान-ए-इन्फ़िरादी थी
ग़रज़ कुछ और ही लक्षण थे मेरे बचपन के
मुझे था छोटे बड़ों से बहुत शदीद लगाव
हर एक पर मैं छिड़कता था अपनी नन्ही सी जाँ
दिल उमडा आता था ऐसा कि जी ये चाहता था
उठा के रख लूँ कलेजे में अपनी दुनिया को

मुझे है याद अभी तक कि खेल-कूद में भी
कुछ ऐसे वक़्फ़े पुर-असरार आ ही जाते थे
कि जिन में सोचने लगता था कुछ मिरा बचपन
कई मआनी-ए-बे-लफ़्ज़ छूने लगते थे
बुतून-ए-ग़ैब से मेरे शुऊर-ए-असग़र को

हर एक मंज़र-ए-मानूस घर का हर गोशा
किसी तरह की हो घर में सजी हुई हर चीज़
मिरे मोहल्ले की गलियाँ मकाँ दर-ओ-दीवार
चबूतरे कुएँ कुछ पेड़ झाड़ियाँ बेलें
वो फेरी वाले कई उन के भाँत भाँत के बोल
वो जाने बूझे मनाज़िर वो आसमाँ ओ ज़मीं
बदलते वक़्त का आईना गर्मी-ओ-ख़ुनकी
ग़ुरूब-ए-महर में रंगों का जागता जादू
शफ़क़ के शीश-महल में गुदाज़-ए-पिन्हाँ से
जवाहरों की चटानें सी कुछ पिघलती हुईं
शजर हजर की वो कुछ सोचती हुई दुनिया
सुहानी रात की मानूस रमज़ियत का फ़ुसूँ
अलस्सबाह उफ़ुक़ की वो थरथराती भवें

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तब्सरा 

फिराक़ गोरखपुरी महज़ एक शायर नहीं थे, वो फ़िक्र और फ़न की वो बुलंद मीनार थे जिनकी छाया में उर्दू अदब ने अपने कुछ सबसे नायाब लम्हात जिए। उनका कलाम सिर्फ़ इश्क़ का बयान नहीं, इंसान की रूह की तहरीर था। उनकी ग़ज़लों में ना सिर्फ़ जज़्बात की गहराई है, बल्कि सोच की ऊँचाई और लफ़्ज़ों की नज़ाकत भी शामिल है। उन्होंने उर्दू शायरी को महलों की महफ़िलों से निकालकर अवाम की ज़बान बना दिया।

उनकी शायरी में जज़्बा है, दर्द है, मोहब्बत है, लेकिन इन सबसे बढ़कर एक तहज़ीबी शऊर है—जो माज़ी को भी पहचानता है और मुस्तक़बिल को भी रोशन करता है। फिराक़ की नज़्में और ग़ज़लें आज भी अदबी महफ़िलों में उसी एहतराम से पढ़ी जाती हैं, जैसे किसी पीर-ओ-मुर्शिद की बात।

अगर ग़ालिब शायरी के बौद्धिक फ़लसफ़े हैं, तो फिराक़ उस शायरी के दिल की धड़कन हैं। उन्होंने जो लिखा, वो वक़्त से आगे लिखा—और यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है।

यूँ लगता है जैसे उर्दू अदब का एक रंगीन मौसम, एक सूफ़ियाना समां, एक जज़्बाती दरिया—फ़िराक़ के नाम से अब भी बहता है, जिसमें डूब कर हर आशिक़, हर अदबी ज़ेहन, खुद को पा लेता है।ये भी पढ़ें

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