बेकल उत्साही, जिनका असली नाम मुहम्मद शफी अली खान था, का जन्म 1 जून 1928 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद जाफर खान लोधी था
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
बेकल उत्साही, जिनका असली नाम मुहम्मद शफी अली खान था, का जन्म 1 जून 1928 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद जाफर खान लोधी था, जो एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते थे। बचपन से ही बेकल उत्साही का झुकाव साहित्य और काव्य की ओर था। धार्मिक और सांस्कृतिक माहौल में पले-बढ़े बेकल ने बचपन में ही उर्दू और फारसी भाषा की शिक्षा प्राप्त की, जिसने उनके साहित्यिक जीवन को एक नई दिशा दी।
'बेकल उत्साही' नाम की कहानी
1945 में, जब बेकल उत्साही देवा शरीफ में वॉरिस अली शाह की मजार पर गए, तो वहाँ के पीर शाह हाफिज प्यारे मियां ने उन्हें देखकर कहा, "बेदम गया, बेकल आया।" इस घटना ने उन्हें 'बेकल वारसी' नाम अपनाने के लिए प्रेरित किया। लेकिन उनकी पहचान 'उत्साही' के रूप में तब स्थापित हुई जब उन्होंने 1952 में जवाहरलाल नेहरू के एक चुनावी कार्यक्रम में अपनी कविता 'किसान भारत का' सुनाई। नेहरू जी ने उनकी कविता से प्रभावित होकर उन्हें 'उत्साही शायर' कहकर पुकारा। तब से मुहम्मद शफी अली खान साहित्य जगत में 'बेकल उत्साही' के नाम से मशहूर हो गए।
राजनीतिक जीवन
बेकल उत्साही न केवल एक प्रतिष्ठित शायर थे, बल्कि वे भारतीय राजनीति में भी सक्रिय थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े थे और इंदिरा गांधी के करीबी सहयोगी थे। 1982 में, राजीव गांधी ने उनकी राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के प्रति योगदान को देखते हुए उन्हें राज्यसभा का सदस्य नामित किया। इसके साथ ही वे राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य भी रहे, जहाँ उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता के लिए अहम भूमिका निभाई। उनकी राजनीतिक सक्रियता ने उन्हें एक ऐसा नेता बनाया जिसने साहित्य और राजनीति के संगम से समाज में बदलाव लाने की कोशिश की।
साहित्यिक योगदान
बेकल उत्साही की कविताएँ सरल लेकिन गहन भावनाओं से परिपूर्ण होती थीं। उनकी रचनाओं में देशभक्ति, सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता के संदेश प्रमुखता से उभरते थे। उन्होंने उर्दू साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया और उनकी कविताएँ आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं। उनके काव्य में गाँव, किसान, और आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष को बड़ी संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया गया है। 'किसान भारत का' जैसी कविताएँ उनके जनप्रिय काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
पुरस्कार और सम्मान
बेकल उत्साही को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए कई सम्मान प्राप्त हुए। 1976 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यश भारती पुरस्कार भी दिया गया। 2013 में, उन्हें उर्दू साहित्य में उनके अद्वितीय योगदान के लिए माटी रत्न सम्मान से नवाज़ा गया। उनके इन सम्मानों ने उनकी साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं को एक व्यापक पहचान दिलाई।
अंतिम दिन और विरासत
3 दिसंबर 2016 को बेकल उत्साही का निधन हो गया। उनके निधन के साथ ही उर्दू साहित्य का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया, लेकिन उनकी कविताएँ और साहित्यिक योगदान आज भी जीवित हैं। बेकल उत्साही ने अपने जीवन में जो साहित्यिक और सामाजिक धरोहर छोड़ी, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी। उनके शब्दों में वह शक्ति थी जो समाज को बदलने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की क्षमता रखती थी।ये भी पढ़ें
बेकल उत्साही की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
हर एक फूल के लब पर मिरा लहू रख दे
ज़बान ए गुल से चटानें तराशने वाले
निगार ओ नक़्श में आसाइश ए नुमू रख दे
सुना है अहल ए ख़िरद फिर चमन सजाएँगे
जुनूँ भी जेब ओ गरेबाँ प ए रफ़ू रख दे
शफ़क़ है फूल है दीपक है चाँद भी है मगर
उन्हीं के साथ कहीं साग़र ओ सुबू रख दे
चला है जानिब ए मय ख़ाना आज फिर वाइज़
कहीं न जाम पे लब अपने बे वज़ू रख दे
तमाम शहर को अपनी तरफ़ झुका लूँगा
ग़म ए हबीब मिरे सर पे हाथ तू रख दे
गिराँ लगे है जो एहसान दस्त ए क़ातिल का
उठ और तेग़ के लब पर रग ए गुलू रख दे
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
मिरा ही सर मिरे क़ातिल के रू ब रू रख दे
समुंदरों ने बुलाया है तुझ को ऐ 'बेकल'
तू अपनी प्यास की सहरा में आबरू रख दे
2-ग़ज़ल
ये शहर के बासी क्या जानें क्या रूप है गाँव के पनघट का
क्या इश्क़ है लाज की अल्हड़ का क्या हुस्न है मोह के नट-खट का
वा'दों की हवा अमराई में यादों की फ़ज़ा अँगनाई में
मिलने की दुआ तन्हाई में सन्नाटे में धोका आहट का
आँचल में छुपी ममता की मया कथरी में दबी भगवन की दया
लाता है कोई संदेश नया पल पल में बदलना करवट का
चूल्हे का तवा मुस्काता हुआ जुगनू भी उड़े शरमाता हुआ
परदेसी की याद दिलाता हुआ ख़ामोश दिया इक चौखट का
गलियारों में मध टपकाता हुआ कुटियों की सुधा नहलाता हुआ
आँगन में नयन मटकाता हुआ है चाँद औरोनी पर लटका
थक हार के जो भी आता है जी भर के प्यास बुझाता है
ऐ धर्म पे मरने वाले बता क्या धर्म है नदिया के तट का
'बेकल' तिरा पग पग नाम यहाँ उत्साही तिरे सब काम यहाँ
तिरी भोर यहाँ तिरी शाम यहाँ फिर काहे फिरे भटका भटका
3-ग़ज़ल
4-ग़ज़ल
5-नज़्म
निष्कर्ष
बेकल उत्साही का जीवन साहित्य, समाज सेवा और राजनीति का अनूठा संगम था। एक शायर, लेखक, और राजनीतिज्ञ के रूप में, उन्होंने समाज में गहरी छाप छोड़ी। उनकी कविताएँ और उनका जीवन हमें यह सिखाते हैं कि शब्दों में समाज को बदलने और एकता को बढ़ावा देने की अपार शक्ति होती है। बेकल उत्साही की विरासत सदैव हमारे दिलों में जीवित रहेगी और उर्दू साहित्य में उनकी अमिट छाप हमेशा बनी रहेगी।ये भी पढ़ें
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