नसीर तुराबी: उर्दू शायरी का नायाब हीरा

 नसीर तुराबी, पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध उर्दू शायर, ने उर्दू कविता की दुनिया में अपनी अनूठी छाप छोड़ी। 15 जून 1945 को हैदराबाद, दक्कन (अब भारत में) में जन्मे, तुराबी का परिवार धार्मिक और विद्वत्तापूर्ण परंपराओं से भरपूर था।


नसीर तुराबी: उर्दू शायरी का नायाब हीरा 

नसीर तुराबी, पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध उर्दू शायर, ने उर्दू कविता की दुनिया में अपनी अनूठी छाप छोड़ी। 15 जून 1945 को हैदराबाद, दक्कन (अब भारत में) में जन्मे, तुराबी का परिवार धार्मिक और विद्वत्तापूर्ण परंपराओं से भरपूर था। उनके पिता, अल्लामा रशीद तुराबी, एक मशहूर धार्मिक विद्वान और वक्ता थे, जिनका प्रभाव पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला हुआ था। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, तुराबी परिवार 1947 में कराची, पाकिस्तान में बस गया, जहाँ नसीर तुराबी ने अपना शेष जीवन बिताया।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

नसीर तुराबी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कराची में प्राप्त की और 1962 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उन्होंने कराची विश्वविद्यालय से मास कम्यूनिकेशन में एमए की डिग्री प्राप्त की, जिसे उन्होंने 1968 में पूरा किया। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत इसी समय से हुई और उन्होंने उर्दू शायरी में अपने लिए एक अनूठा स्थान स्थापित किया।

साहित्यिक यात्रा और उपलब्धियां

नसीर तुराबी ने 1962 में शायरी की शुरुआत की और उनकी पहली काव्य-रचना "अक्स-ए-फरियादी" 2000 में प्रकाशित हुई। इस संग्रह में शामिल "वो हमसफ़र था" ग़ज़ल ने उन्हें खासा प्रसिद्धि दिलाई, जो ढाका के पतन के संदर्भ में लिखी गई थी। यह ग़ज़ल बाद में 2011 में टीवी ड्रामा सीरीज "हमसफर" के थीम सॉन्ग के रूप में इस्तेमाल की गई, जिससे तुराबी को व्यापक लोकप्रियता मिली।


उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में "लाराइब" और "शायरीयत" शामिल हैं, जो उर्दू साहित्य में उनकी स्थिति को और भी मजबूत करती हैं। तुराबी के गाने, जैसे "दिल का जो मोल चुकाते होंगे," जो "मोल" और "ज़िंदगी गुलज़ार है" जैसे लोकप्रिय टीवी ड्रामा के थीम सॉन्ग थे, उन्हें उर्दू साहित्य और संगीत की दुनिया में एक अमिट स्थान दिलाते हैं।


सेवाएँ और पुरस्कार

नसीर तुराबी ने उर्दू साहित्य में अपनी सेवाओं के लिए विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए साहित्य की उन्नति में योगदान दिया:

पाकिस्तान राइटर्स गिल्ड, सिंध के कार्यकारी सदस्य (1978-83)

कराची विश्वविद्यालय के सिंडिकेट के सदस्य (गवर्नर के नामित सदस्य) (1994-97)

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों और साहित्यिक सेमिनारों में भागीदारी (1979 से)

राष्ट्रीय रेडियो और टेलीविजन पर साहित्यिक कार्यक्रमों की मेज़बानी (45 साल)

"शायरीयत" में उर्दू की भाषाई आवश्यकताओं पर शोध-संग्रह

अंतिम वर्ष और धरोहर

नसीर तुराबी का 10 जनवरी 2021 को निधन हो गया, लेकिन उन्होंने उर्दू साहित्य को एक अमूल्य धरोहर दी। उनकी ग़ज़लें, खासकर "वो हमसफ़र था," आज भी पाठकों के दिलों में जीवित हैं और उनकी कविता की शक्ति को प्रमाणित करती हैं। उनकी रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेंगी और उर्दू शायरी के प्रेमियों के बीच उनकी पहचान हमेशा के लिए स्थापित रहेगी।ये भी पढ़ें 



नसीर तुराबी की शायरी,ग़ज़लें

1-ग़ज़ल 


वो हम सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी 

कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी 

न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल 

शब ए फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी 

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था 

शिकस्ता दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता पाई न थी 

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत 

बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी 

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल 

ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी 

किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन 

सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी 

कभी ये हाल कि दोनों में यक दिली थी बहुत 

कभी ये मरहला जैसे कि आशनाई न थी 

अजीब होती है राह ए सुख़न भी देख 'नसीर' 

वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी 

2-ग़ज़ल 


मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता 

दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता 

ये राह ए तमन्ना है यहाँ देख के चलना 

इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता 

हमरंगी ए मौसम के तलबगार न होते 

साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता 

कहने को ग़म ए हिज्र बड़ा दुश्मन ए जाँ है 

पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता 

कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए 

लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता 

3-ग़ज़ल 


देख लेते हैं अब उस बाम को आते जाते 

ये भी आज़ार चला जाएगा जाते जाते 

दिल के सब नक़्श थे हाथों की लकीरों जैसे 

नक़्श ए पा होते तो मुमकिन था मिटाते जाते 

थी कभी राह जो हम राह गुज़रने वाली 

अब हज़र होता है उस राह से आते जाते 

शहर ए बे मेहर! कभी हम को भी मोहलत देता 

इक दिया हम भी किसी रुख़ से जलाते जाते 

पारा ए अब्र ए गुरेज़ाँ थे कि मौसम अपने 

दूर भी रहते मगर पास भी आते जाते 

हर घड़ी एक जुदा ग़म है जुदाई उस की 

ग़म की मीआद भी वो ले गया जाते जाते 

उस के कूचे में भी हो, राह से बे राह 'नसीर' 

इतने आए थे तो आवाज़ लगाते जाते 

4-ग़ज़ल 


कोई आवाज़ न आहट न ख़याल ऐसे में 

रात महकी है मगर जी है निढाल ऐसे में 

मेरे अतराफ़ तो गिरती हुई दीवारें हैं 

साया ए उम्र ए रवाँ मुझ को सँभाल ऐसे में 

जब भी चढ़ते हुए दरिया में सफ़ीना उतरा 

याद आया तिरे लहजे का कमाल ऐसे में 

आँख खुलती है तो सब ख़्वाब बिखर जाते हैं 

सोचता हूँ कि बिछा दूँ कोई जाल ऐसे में 

मुद्दतों बा'द अगर सामने आए हम तुम 

धुँदले धुँदले से मिलेंगे ख़द ओ ख़ाल ऐसे में 

हिज्र के फूल में है दर्द की बासी ख़ुश्बू 

मौसम ए वस्ल कोई ताज़ा मलाल ऐसे में 

5-ग़ज़ल 

रचे बसे हुए लम्हों से जब हिसाब हुआ 

गए दिनों की रुतों का ज़ियाँ सवाब हुआ 

गुज़र गया तो पस ए मौज बे-कनारी थी 

ठहर गया तो वो दरिया मुझे सराब हुआ 

सुपुर्दगी के तक़ाज़े कहाँ कहाँ से पढ़ूँ 

हुनर के बाब में पैकर तिरा किताब हुआ 

हर आरज़ू मिरी आँखों की रौशनी ठहरी 

चराग़ सोच में गुम हैं ये क्या अज़ाब हुआ 

कुछ अजनबी से लगे आशना दरीचे भी 

किरन किरन जो उजालों का एहतिसाब हुआ 

वो यख़ मिज़ाज रहा फ़ासलों के रिश्तों से 

मगर गले से लगाया तो आब आब हुआ 

वो पेड़ जिस के तले रूह गुनगुनाती थी 

उसी की छाँव से अब मुझ को इज्तिनाब हुआ 

इन आँधियों में किसे मोहलत ए क़याम यहाँ 

कि एक ख़ेमा ए जाँ था सो बे तनाब हुआ 

सलीब ए संग हो या पैरहन के रंग 'नसीर' 

हमारे नाम से क्या क्या न इंतिसाब हुआ 

Conclusion:-


नसीर तुराबी उर्दू के एक नायाब शायर थे,उनकी शायरी में जज़्बातो को बयां करने की गहरी समझ दिखायी पड़ती हे,उर्दू का जदीद लहजा और 
नए ज़माने में अपनी बात हो दिलो तक पहुँचाने का शानदार हुनर नसीर साहब को शायरी के मैदान में अपने ज़माने के दूसरे तमाम शायरों से अलग खड़ा कर देता हे,शेर कहने के लिए ख्याल अच्छा होना ही काफी नहीं होता हे ,शेर कहने के लिए ख़्याल के साथ लहजा भी चाहिए जो की ग़ज़ल का हुस्न हे,और इसी के माहिर थे नसीर तुराबी साहब


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