बिस्मिल अज़ीमाबादी (1901 – 20 जून 1978) का असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन था। उनका जन्म 1901 में अज़ीमाबाद (जो वर्तमान में पटना, बिहार है) में हुआ था। वे एक ज़मींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके परिवार की जड़ें नवादा में थीं, लेकिन बाद में उन्होंने पटना में बसने का फैसला किया।
बिस्मिल अज़ीमाबादी का जीवन परिचय
(Bismil Azimabadi Biography in Hindi)
बिस्मिल अज़ीमाबादी, जिनका असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन था, का जन्म 1901 में अज़ीमाबाद (आज का पटना, बिहार) में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित ज़मींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके पिता सैयद शाह आले हसन पेशे से बैरिस्टर थे। उनका परिवार साहित्य और काव्य में समृद्ध था; उनके दादा मुबारक अज़ीमाबादी और नाना शाह मुबारक ककवी अज़ीमाबादी, दोनों ही उर्दू के जाने-माने कवि थे।
शायरी और साहित्यिक योगदान
बिस्मिल अज़ीमाबादी उर्दू शायरी के प्रमुख कवियों में से एक थे। उन्होंने अपने तखल्लुस (छद्म नाम) के रूप में "बिस्मिल" चुना, जिसका अर्थ है "घायल"। वे ख़ान बहादुर शाद अज़ीमाबादी के शागिर्द थे। उनकी शायरी में राष्ट्रप्रेम और विद्रोह की भावना गहराई से झलकती है। उनकी सबसे प्रसिद्ध ग़ज़ल "सरफ़रोशी की तमन्ना" भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन गई है। उनके निधन के बाद, 1980 में उनकी रचनाओं को "हिकायत-ए-हस्ती" के नाम से प्रकाशित किया गया।
"सरफ़रोशी की तमन्ना" का महत्व
"सरफ़रोशी की तमन्ना" एक लंबी उर्दू ग़ज़ल का पहला शेर है, जिसे बिस्मिल अज़ीमाबादी ने 1920 में लिखा था। यह ग़ज़ल 1921 में दिल्ली के उर्दू दैनिक "सबा" में प्रकाशित हुई, जिसे काजी अब्दुल गफ्फार ने संपादित किया था। हालांकि, इस ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने का श्रेय पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को जाता है, जिन्होंने इसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन-जन तक पहुँचाया।
राम प्रसाद बिस्मिल और "सरफ़रोशी की तमन्ना"
राम प्रसाद बिस्मिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे, जिनका नाम मैनपुरी षड्यंत्र और काकोरी षड्यंत्र से जुड़ा हुआ है। बिस्मिल ने "सरफ़रोशी की तमन्ना" को अपने अभियानों में इतनी प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया कि यह कविता स्वतंत्रता संग्राम का युद्धघोष बन गई। इस ग़ज़ल के प्रति उनकी भावनाओं के कारण इसे राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से भी जाना जाने लगा।
भ्रम की स्थिति
कई लोग मानते हैं कि "सरफ़रोशी की तमन्ना" राम प्रसाद बिस्मिल की रचना है, इसके तीन मुख्य कारण हैं:
छद्म नाम (पैन नेम ) "बिस्मिल": राम प्रसाद बिस्मिल और बिस्मिल अज़ीमाबादी दोनों ही "बिस्मिल" नाम का उपयोग करते थे, जिससे यह भ्रम उत्पन्न हुआ।
राम प्रसाद बिस्मिल की लोकप्रियता: उन्होंने इस कविता को इतनी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया कि लोग इसे उनकी ही रचना समझने लगे।
कवि का आत्मसुरक्षा: बिस्मिल अज़ीमाबादी ने अपनी रचना को सार्वजनिक रूप से नहीं स्वीकारा, जिससे उनके नाम का प्रचार कम हुआ।
कविता के मूल संस्करण का 1921 का चित्र, जिसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी के गुरु द्वारा हस्तलिखित सुधार शामिल हैं।
यह कविता 1920 में लिखी थी जो 1921 में काजी अब्दुल गफ्फार द्वारा संपादित दिल्ली के एक उर्दू दैनिक “सबा” में प्रकाशित हुई थी।
पुरस्कार और सम्मान
बिस्मिल अज़ीमाबादी का साहित्यिक योगदान आज भी उर्दू साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बिहार उर्दू अकादमी ने उनके नाम पर "बिस्मिल अज़ीमाबादी अवार्ड" की स्थापना की है, जो उनके साहित्यिक और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को सम्मानित करता है।ये भी पढ़ें
बिस्मिल अज़ीमाबादी की शायरी,ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए क़ातिल में है
ऐ शहीद ए मुल्क ओ मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वाए क़िस्मत पाँव की ऐ ज़ोफ़ कुछ चलती नहीं
कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है
रहरव ए राह ए मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त ए सहरा नवर्दी दूरी ए मंज़िल में है
शौक़ से राह ए मोहब्बत की मुसीबत झेल ले
इक ख़ुशी का राज़ पिन्हाँ जादा ए मंज़िल में है
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएँ वो शौक़ ए शहादत जिन के जिन के दिल में है
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़ ए क़ातिल में है
माने ए इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
मयकदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यों बताएँ क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल ए 'बिस्मिल' में है
2-ग़ज़ल
रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे
हम अँधेरे में किधर जाएँगे
अपने शाने पे न ज़ुल्फ़ें छोड़ो
दिल के शीराज़े बिखर जाएँगे
यार आया न अगर वा'दे पर
हम तो बे मौत के मर जाएँगे
अपने हाथों से पिला दे साक़ी
रिंद इक घूँट में तर जाएँगे
क़ाफ़िले वक़्त के रफ़्ता रफ़्ता
किसी मंज़िल पे ठहर जाएँगे
मुस्कुराने की ज़रूरत क्या है
मरने वाले यूँही मर जाएँगे
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे
3-ग़ज़ल
तंग आ गए हैं क्या करें इस ज़िंदगी से हम
घबरा के पूछते हैं अकेले में जी से हम
मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम
लाए गए हैं, आए नहीं हैं ख़ुशी से हम
कम बख़्त दिल की मान गए, बैठना पड़ा
यूँ तो हज़ार बार उठे उस गली से हम
यारब बुरा भी हो दिल ए ख़ाना ख़राब का
शर्मा रहे हैं इस की बदौलत किसी से हम
दिन ही पहाड़ है शब ए ग़म क्या हो क्या न हो
घबरा रहे हैं आज सर ए शाम ही से हम
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
गुज़रे हज़ार बार तुम्हारी गली से हम
मतलब यही नहीं दिल ए ख़ाना ख़राब का
कहने में उस के आएँ गुज़र जाएँ जी से हम
छेड़ा अदू ने रूठ गए सारी बज़्म से
बोले कि अब न बात करेंगे किसी से हम
तुम सुन के क्या करोगे कहानी ग़रीब की
जो सब की सुन रहा है कहेंगे उसी से हम
महफ़िल में उस ने ग़ैर को पहलू में दी जगह
गुज़री जो दिल पे क्या कहें 'बिस्मिल' किसी से हम
4-ग़ज़ल
अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से
फ़ातिहा पढ़ के चले आए हैं मय ख़ाने से
क्या करें जाम ओ सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
जी तो कहता है कि उठ जाइए मय ख़ाने से
फूँक कर हम ने हर इक गम पे रक्खा है क़दम
आसमाँ फिर भी न बाज़ आया सितम ढाने से
हम को जब आप बुलाते हैं चले आते हैं
आप भी तो कभी आ जाइए बुलवाने से
अरे ओ वादा फ़रामोश पहाड़ ऐसी रात
क्या कहूँ कैसे कटी तेरे नहीं आने से
याद रख वक़्त के अंदाज़ नहीं बदलेंगे
अरे अल्लाह के बंदे तिरे घबराने से
सर चढ़ाएँ कभी आँखों से लगाएँ साक़ी
तेरे हाथों की छलक जाए जो पैमाने से
ख़ाली रक्खी हुई बोतल ये पता देती है
कि अभी उठ के गया है कोई मय ख़ाने से
आएगी हश्र की नासेह की समझ में क्या ख़ाक
जब समझदार समझते नहीं समझाने से
बर्क़ के डर से कलेजे से लगाए हुए है
चार तिनके जो उठा लाई है वीराने से
दिल ज़रा भी न पसीजा बुत ए काफ़िर तेरा
काबा अल्लाह का घर बन गया बुत ख़ाने से
शमा बेचारी जो इक मूनिस ए तन्हाई थी
बुझ गई वो भी सर ए शाम हवा आने से
ग़ैर काहे को सुनेंगे तिरा दुखड़ा 'बिस्मिल'
उन को फ़ुर्सत कहाँ है अपनी ग़ज़ल गाने से
निष्कर्ष
बिस्मिल अज़ीमाबादी (1901-1978) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और उर्दू साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उन्होंने अपनी शायरी के माध्यम से क्रांति की ज्वाला को प्रज्वलित किया और स्वतंत्रता के संघर्ष को एक नई दिशा दी। उनकी ग़ज़ल "सरफ़रोशी की तमन्ना" न केवल स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी, बल्कि यह भारतीय इतिहास में एक अमर गीत के रूप में स्थापित हो गई।
बिस्मिल अज़ीमाबादी की कविताएँ केवल साहित्यिक रचनाएँ नहीं थीं, बल्कि उनमें एक सामाजिक संदेश और देशभक्ति की भावना थी जो आज भी हमें प्रेरित करती है। उनकी शायरी ने उन मूल्यों और आदर्शों को उकेरा, जिन पर एक स्वतंत्र और सशक्त राष्ट्र की नींव रखी गई। उनकी रचनाओं में विद्रोह, स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय की आवाज़ गूंजती है, जो उन्हें एक अद्वितीय साहित्यिक व्यक्तित्व बनाती है।
आज, बिस्मिल अज़ीमाबादी का साहित्यिक और राष्ट्रीय योगदान नई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका जीवन और कार्य इस बात का प्रमाण है कि शायरी केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन लाने का एक सशक्त माध्यम भी हो सकती है। उनका नाम और उनकी रचनाएँ आने वाले समय में भी हमें हमारे मूल्यों और स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करती रहेंगी।ये भी पढ़ें
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