डॉ मोहम्मद ताहिर रज़ज़ाक़ी संभली
जनाब डॉ मोहम्मद ताहिर रज़ज़ाक़ी M.A. ,P.hd, शहर संभल उत्तर प्रदेश के एक मशहूर और मारूफ़ शायर थे,आप ने सात (7 ) मजमुआ ए क़लाम (कविता संग्रह ) लिखे,जिसमे "बहारों के चराग़"और "रुतें" तमाम अदीबों (साहित्यकारों) और दानिश्वरों ( बुद्धिजीवियों ) के दिलों दिमाग़ पर छाने और आसमान ए अदब पर अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे,जल्द डॉ मोहम्मद ताहिर रज़ज़ाक़ी साहब की मुकम्मिल समान ए हयात पेश करेंगे,
पेश हे रज़ज़ाक़ी साहब की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
वो न शनासास भी हे और न आशना भी हे
हे इत्तेहाक़ भी मुझसे उसे गिला भी हे
ये और बात उसे क़ुर्बतें पसंद नहीं
वो चिलमनों से मगर मुझको झांकता भी हे
उतर के आता हे आँगन में कहकशाँ कोई
सुकुते शब् में कोई मुझसे बोलता भी हे
वो क्या करेंगे जो तुझको भुलाये बैठे हैं
हमारे पास तो,यादो का सिलसिला भी हे
किसी ने अपना बनाया कोई किसी का हुआ
तुम्ही कहो के यहाँ,तुमसे कुछ हुआ भी हे
ग़ज़ब तो ये हे, कभी खुद को देखता ही नहीं
ज़बां पे तंज़ हे ,हाथो में आईना भी हे
न सिर्फ अपनी नज़र में हसीन मंज़र हैं
हमारे ज़ेहन में अब तक कोई सदा भी हे
चलो के याद दिला कर भी देखलें उसको
सुना हे हमने, की अक्सर वो बोलता भी हे
क़रीब इतना, के रहता हे वो रगे जां में
नज़र से देखना चाहो, तो फासला भी हे
क़दम तो रख दिया हे,राहे तलब में ए "ताहिर"
कहाँ हे मंज़िले मक़सूद,कुछ पता भी हे
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