शाद अज़ीमाबादी (8 जनवरी 1846 – 7 जनवरी 1927)
शाद अज़ीमाबादी का नाम उर्दू अदब में एक ख़ास और मक़बूल पहचान रखता है। बिहार के अज़ीमाबाद, जो आज के पटना में आता है, के इस शायर का किरदार उनकी शायरी और मुआशरती ख़िदमत के जरिए आज भी बेपनाह मुहब्बत और इज़्ज़त से देखा जाता है। वो एक ऐसे शख्स थे, जिनकी शायरी ने न सिर्फ़ उर्दू ग़ज़ल को नई ज़िंदगी दी, बल्कि अदब और शायरी की रवायात में एक लम्स-ए-ताजगी का एहसास भी कराया। उनका तअल्लुक़ एक इज़्ज़तदार और दौलतमंद ख़ानदान से था, जिसके सद्र-ए-नशीन के तौर पर उन्होंने अपने इल्मी और समाजी मोक़ामात से अपनी ज़िंदगी को बेहतरीन अंदाज़ में गुज़ारा।
इल्मी पसमंजर और अदबी सफ़र
शाद अज़ीमाबादी ने अपना बचपन और तालीम ननिहाल में गुज़ारी, जहाँ उनकी परवरिश में इल्म और तहजीब का ख़ास ध्यान रखा गया। उन्हें अरबी, फ़ारसी और उर्दू की तालीम दी गई, जो उस दौर के आला तबक़े का शुऊर था। शुरू से ही शायरी में दिलचस्पी रखने वाले शाद ने बेशुमार मशहूर उस्तादों से शायरी का फ़न सीखा, जिनमें शा उलफ़त हुसैन फ़रयाद का नाम खास अहमियत रखता है। शाद अज़ीमाबादी के हुनर की मिसाल उनके पाँच मजमुए हैं, जो शायरी में उनकी महारत, एहसास और लफ्ज़ों की बुनावट को दर्शाते हैं। उनकी शायरी में सादगी और असर का ऐसा संगम मिलता है जो दिलों को गहराई से छू जाता है।
ग़ज़ल में मसीहा का दर्जा
शाद की शायरी का असल कमाल उनकी ग़ज़लों में है। उर्दू के मशहूर आलिम अली जव्वाद ज़ैदी ने उन्हें ग़ज़ल का मसीहा कहा, जो शाद के शायरी में जज़्बात की नफ़ासत और बारीकी को बयान करता है। शाद की ग़ज़ल में ऐसी मिठास और गहराई मिलती है कि वो एक तरफ़ दिल को छूती है और दूसरी तरफ़ समझ में भी आसानी से आ जाती है। उनकी ग़ज़लों में जहाँ रिवायती शायरी की झलक मिलती है, वहीं इसमें वो ताजगी भी शामिल है जो उर्दू शायरी को हर दौर में मुहब्बत करने वालों तक पहुँचाती है।
मुआशरती ओहदे और ज़िम्मेदारियाँ
शाद अज़ीमाबादी की शख्सियत का एक और पहलू उनकी समाजी ज़िम्मेदारियों से जुड़ा हुआ है। एक मुअज़्ज़िज़ शख्स के तौर पर उन्होंने कई अहम प्रशासनिक ओहदे संभाले, जिनमें पटना के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और म्यूनिसिपल कमिश्नर के पद शामिल हैं। उनके इस मुआशरती मोक़ामात ने उन्हें सिर्फ़ शायर ही नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदार शहरी के तौर पर भी मशहूर किया।
उर्दू ज़बान से बेपनाह लगाव
शाद अज़ीमाबादी का उर्दू ज़बान से इश्क़ और उस पर गर्व एक ख़ास अंदाज़ में नज़र आता है। उन्होंने उर्दू को हमेशा एक आला तबके की ज़बान माना और ये ख़याल किया कि ये अशराफ का हक़ है। उनके इस रवैये ने उस वक्त के अख़बार अल पंच के ख़िलाफ़ उनको खड़ा कर दिया, जो आम लोगों को उर्दू में अपने ख्यालात का इज़हार करने का मौका दे रहा था। मगर शाद इस ख़याल के हामी थे कि उर्दू एक ख़ास तबके की मीरास है, और उसे सिर्फ़ मुअज़्ज़िज़ लोग ही इस्तेमाल करें। ये रवैया उनके अंदर की गहरी मुहब्बत को दर्शाता है, जो उन्होंने उर्दू ज़बान और उसकी तहजीब के लिए रखी थी।
उनके शागिर्द और अदबी विरासत
शाद अज़ीमाबादी की शायरी का असर उनके शागिर्दों पर भी खूब पड़ा। उनमें सबसे मशहूर नाम बिस्मिल अज़ीमाबादी का है, जिन्होंने शायरी में अपने उस्ताद के नक्शे-कदम पर चलते हुए नाम कमाया। उनकी अदबी विरासत में उनकी पोती शाहनाज़ फ़ातमी का भी अहम हिस्सा है, जो ख़ुद एक मुम्ताज़ अदीबा हैं और जिन्होंने शाद की रूहानी और अदबी विरासत को अपने क़लम से ज़िंदा रखा है।
शाद अज़ीमाबादी की शायरी/ग़ज़लें/नज़्मे
1-ग़ज़ल
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
इधर से मुद्दतों आया गया हूँ
नहीं उठते क़दम क्यूँ जानिब-ए-दैर
किसी मस्जिद में बहकाया गया हूँ
दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
मैं ख़ुद आया नहीं लाया गया हूँ
सवेरा है बहुत ऐ शोर-ए-महशर
अभी बेकार उठवाया गया हूँ
सताया आ के पहरों आरज़ू ने
जो दम भर आप में पाया गया हूँ
न था मैं मो'तक़िद एजाज़-ए-मय का
बड़ी मुश्किल से मनवाया गया हूँ
लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपा कर
भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ
कुजा मैं और कुजा ऐ 'शाद' दुनिया
कहाँ से किस जगह लाया गया हूँ
2-ग़ज़ल
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
दरिया-ए-मोहब्बत कहता है आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम
हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम
ऐ शौक़ बुरा इस वहम का हो मक्तूब तमाम अपना न हुआ
वाँ चेहरे पे उन के ख़त निकला याँ भूले हुए अलक़ाब हैं हम
किस तरह तड़पते जी भर कर याँ ज़ोफ़ ने मुश्कीं कस दीं हैं
हो बंद और आतिश पर हो चढ़ा सीमाब भी वो सीमाब हैं हम
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ या आप दिल-ए-बेताब हैं हम
लाखों ही मुसाफ़िर चलते हैं मंज़िल पे पहुँचते हैं दो एक
ऐ अहल-ए-ज़माना क़द्र करो नायाब न हों कम-याब हैं हम
मुर्ग़ान-ए-क़फ़स को फूलों ने ऐ 'शाद' ये कहला भेजा है
आ जाओ जो तुम को आना हो ऐसे में अभी शादाब हैं हम
3-ग़ज़ल
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
ज़िंदगी छोड़ दे पीछा मिरा मैं बाज़ आया
मुज़्दा ऐ रूह तुझे इश्क़ सा दम-साज़ आया
नकबत-ए-फ़क़्र गई शाह-ए-सर-अफ़राज़ आया
पास अपने जो नया कोई फ़ुसूँ-साज़ आया
हो रहे उस के हमें याद तिरा नाज़ आया
पीते पीते तिरी इक उम्र कटी उस पर भी
पीने वाले तुझे पीने का न अंदाज़ आया
दिल हो या रूह ओ जिगर कान खड़े सब के हुए
इश्क़ आया कि कोई मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया
ले रहा है दर-ए-मय-ख़ाना पे सुन-गुन वाइ'ज़
रिंदो हुश्यार कि इक मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया
दिल-ए-मजबूर पे इस तरह से पहुँची वो निगाह
जैसे उस्फ़ूर पे पर तोल के शहबाज़ आया
क्यूँ है ख़ामोश दिला किस से ये सरगोशी है
मौत आई कि तिरे वास्ते हमराज़ आया
देख लो अश्क-ए-तवातुर को न पूछो मिरा हाल
चुप रहो चुप रहो इस बज़्म में ग़म्माज़ आया
इस ख़राबे में तो हम दोनों हैं यकसाँ साक़ी
हम को पीने तुझे देने का न अंदाज़ आया
नाला आता नहीं कन-रस है फ़क़त ऐ बुलबुल
मर्द-ए-सय्याह हूँ सुन कर तिरी आवाज़ आया
दिल जो घबराए क़फ़स में तो ज़रा पर खोलूँ
ज़ोर इतना भी न ऐ हसरत-ए-परवाज़ आया
देखिए नाला-ए-दिल जा के लगाए किस से
जिस का खटका था वही मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया
मुद्दई बस्ता-ज़बाँ क्यूँ न हो सुन कर मिरे शेर
क्या चले सेहर की जब साहिब-ए-एजाज़ आया
रिंद फैलाए हैं चुल्लू को तकल्लुफ़ कैसा
साक़िया ढाल भी दे जाम ख़ुदा-साज़ आया
न गया पर न गया शम्अ का रोना किसी हाल
गो कि परवाना-ए-मरहूम सा दम-साज़ आया
एक चुपकी में गुलू तुम ने निकाले सब काम
ग़म्ज़ा आया न करिश्मा न तुम्हें नाज़ आया
ध्यान रह रह के उधर का मुझे दिलवाता है
दम न आया मिरे तन में कोई दम-साज़ आया
किस तरह मौत को समझूँ न हयात-ए-अबदी
आप आए कि कोई साहिब-ए-एजाज़ आया
बे-'अनीस' अब चमन-ए-नज़्म है वीराँ ऐ 'शाद'
हाए ऐसा न कोई ज़मज़मा-पर्दाज़ आया
4-ग़ज़ल
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
तो मैं मरने से दर-गुज़रा मिरे किस काम आएगा
उसे भी ठान रख साक़ी यक़ीं होगा न रिंदों को
अगर ज़ाहिद पहन कर जामा-ए-एहराम आएगा
शब-ए-फ़ुर्क़त में दर्द-ए-दिल से मैं उस वास्ते ख़ुश हूँ
ज़बाँ पर रात भर रह रह के तेरा नाम आएगा
लगी हो कुछ तो क़ासिद आख़िर इस कम-बख़्त दिल में भी
वहाँ तेरी तरह जो जाएगा नाकाम आएगा
इसी उम्मीद में बाँधे हुए हैं टकटकी मय-कश
कफ़-ए-नाज़ुक पे साक़ी रख के इक दिन जाम आएगा
यहाँ अपनी पड़ी है तुझ से ऐ ग़म-ख़्वार क्या उलझूँ
ये कौन आराम है मर जाऊँ तब आराम आएगा
ज़हे इज़्ज़त जो हो इस बज़्म में मज़कूर ऐ वाइज़
बला से गर गुनहगारों में अपना नाम आएगा
हज़ार इंकार या क़त-ए-तअल्लुक़ उस से कर नासेह
मगर हिर-फिर के होंटों पर उसी का नाम आएगा
अता की जब कि ख़ुद पीर-ए-मुग़ाँ ने पी भी ले ज़ाहिद
ये कैसा सोचना है तुझ पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा
पड़ा है सिलसिला तक़दीर का सय्याद के बस में
चमन में ऐ सबा क्यूँकर असीर-ए-दाम आएगा
कोई बदमस्त को देता है साक़ी भर के पैमाना
तिरा क्या जाएगा मुझ पर अबस इल्ज़ाम आएगा
उन्हें देखेगी तू ऐ चश्म-ए-हसरत वस्ल में या मैं
तिरे काम आएगा रोना कि मेरे काम आएगा
हमेशा क्या पियूँगा मैं इसी कोहना-सिफ़ाली मैं
मिरे आगे कभी तो साग़र-ए-ज़रफ़ाम आएगा
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
ख़ुम आएगा सुराही आएगी तब जाम आएगा
छुरी थी कुंद तेरी या तिरे क़ातिल की ओ बिस्मिल
तड़प भी तू तिरी गर्दन पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा
यही कह कर अजल को क़र्ज़-ख़्वाहों की तरह टाला
कि ले कर आज क़ासिद यार का पैग़ाम आएगा
हमेशा क्या यूँ ही क़िस्मत में है गिनती गिना देना
कोई नाला न लब पर लाइक़-ए-अंजाम आएगा
गली में यार की ऐ 'शाद' सब मुश्ताक़ बैठे हैं
ख़ुदा जाने वहाँ से हुक्म किस के नाम आएगा
5-ग़ज़ल
जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
चश्म-ए-तर तू ने तो मुझ को खो दिया
दाग़ हो या सोज़ हो या दर्द-ओ-ग़म
ले लिया ख़ुश हो के जिस ने जो दिया
अश्क-रेज़ी के धड़ल्ले ने ग़ुबार
जब ज़रा भी दिल पे देखा धो दिया
दिल की पर्वा तक नहीं ऐ बे-ख़ुदी
क्या किया फेंका कहाँ किस को दिया
कुछ न कुछ इस अंजुमन में हस्ब-ए-हाल
तू ने क़स्साम-ए-अज़ल सब को दिया
किश्त-ए-दुनिया क्या ख़बर क्या फल मिले
तुख़्म-ए-ग़म हम ने तो आ कर बो दिया
ये भी नशा मय-कशो कुछ कम नहीं
दे न दे साक़ी प तुम समझो दिया
'शाद' के आगे भला क्या ज़िक्र-ए-यार
नाम इधर आया कि उस ने रो दिया
ज़ुमरा-ए-अहल-ए-क़लम में लिख के नाम
ख़ुद को नाहक़ 'शाद' तू ने खो दिया
1-नज़्म
गहरी नींद से सोने वालो
वक़्त को अपने खोने वालो
रात कटी कुछ तुम को ख़बर है
चौंको चौंको वक़्त-ए-सहर है
चाँद की रंगत हो गई मैली
देखो चमक सूरज की फैली
चलते हैं झोंके सर्द हवा के
झूम रहे हैं फूल इतरा के
कोयलें कूकें कू कू कू कू
याहू बोले याहू याहू
नींद से चौंकें पँख पखेरू
बोल रहे हैं शाख़ों पे हर सू
भूले हुए हैं इस दम सब धुन
लाल पुकारे सुम्मुन बुकमुन
खिल गईं कलियाँ बाग़ की सारी
चार तरफ़ हैं नहरें जारी
गो कि अभी तक कुछ है अंधेरा
चिड़ियाँ लेने आईं बसेरा
गाएँ दूब को चरने आईं
भैंसों ने अपनी शक्लें दिखाईं
रुक गया इस दम बहता दरिया
दूर तलक शफ़्फ़ाफ़ है सहरा
उट्ठो उट्ठो अहमद उट्ठो
मुँह को धो कर कपड़े पहन लो
सैर करो मैदाँ की निकल कर
फूल को देखो बाग़ में चल कर
वक़्त को खोना ज़ुल्म है प्यारे
सुन ये नसीहत दोस्त हमारे
तब्सरा
शाद अज़ीमाबादी का नाम उर्दू अदब में हमेशा एक रौशन सितारे की तरह याद किया जाएगा। उनकी शायरी ने उर्दू ग़ज़ल को नई राहें दीं और मर्सिया को नफ़ासत और गहराई के नए रंगों से नवाज़ा। एक ऐसे शायर जिन्होंने न सिर्फ़ लफ़्ज़ों को जिंदगी दी, बल्कि उनमें एक ऐसा एहसास भरा जो सुनने वालों के दिलों को गहराई से छूता है। उनकी शख्सियत में न सिर्फ़ अदबी बल्कि मुआशरती ज़िम्मेदारी भी शामिल थी, जिसके चलते उन्होंने पटना में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और म्यूनिसिपल कमिश्नर जैसे अहम ओहदे संभाले। इस भूमिका में भी उन्होंने समाज की खिदमत करते हुए अपनी शख्सियत का एक अलग मुक़ाम बनाया।ये भी पढ़ें
शाद का उर्दू से बेपनाह लगाव और उसे एक आला तबके की मीरास समझने का रवैया बेशक उनके इश्क़ का इज़हार करता है, मगर उनके इस ख़यालात ने उन्हें आम लोगों से क़रीब रहने से कुछ हद तक दूर भी रखा। बावजूद इसके, उनकी शायरी और उनके शागिर्दों के जरिए उनका असर हमेशा बाक़ी रहेगा। उनके शागिर्द बिस्मिल अज़ीमाबादी और पोती शाहनाज़ फ़ातमी जैसे लोग उनकी अदबी विरासत को नई पीढ़ियों तक पहुँचाते रहेंगे। यकीनन, शाद अज़ीमाबादी का नाम उर्दू अदब की दुनिया में हमेशा मक़बूल रहेगा, और उनकी शायरी का असर दिलों में हमेशा के लिए महकता रहेगा।
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