पैदाइश: 15 जनवरी 1929, शाहपुर, ख़ुशाब, पंजाब
विसाल: 18 जनवरी 1993, लाहौर, पाकिस्तान
वासिफ अली वासिफ उर्दू अदब और तसव्वुफ़ की दुनिया का वो रोशन सितारा हैं, जिनकी कलम ने न सिर्फ़ अदब के अफ़क़ पर उजाला बिखेरा बल्कि लाखों दिलों में रूहानियत और इंसानियत का चराग़ रौशन किया। एक शायर, मुसन्निफ़, मुअल्लिम और सूफ़ी मुतफ़क्किर के तौर पर उन्होंने ज़िंदगी और फ़िक्र के निहायत गहरे आसार को समझा और उन्हें अपने फ़िक्रो-फ़न के ज़रिए दुनिया के सामने पेश किया। उनकी तहरीरें और तसव्वुर आज भी तालिबाने-हक़ीक़त के लिए हिदायत और इल्हाम का सरचशमा हैं।
इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम
वासिफ अली वासिफ का पैदाइश 15 जनवरी 1929 को पंजाब के ज़िला शाहपुर, ख़ुशाब में हुआ। उनके वालिद मलिक मुहम्मद आरिफ़, अवान क़बीले के नुमाया और मुतबर शख़्सियत थे — एक ऐसा ख़ानदान जो अपने अख़लाक़ी उसूलों और समाजी क़द्रों के लिए जाना जाता था। वासिफ साहब ने अपनी तालीम की इब्तिदा ख़ुशाब में की और 1 जून 1942 को गवर्नमेंट हाई स्कूल से मिडिल का इम्तिहान कामयाबी से पास किया।
उसके बाद वो अपने नाना के पास झंग मुंतक़िल हुए, जहाँ उन्होंने अपनी तालीम का सिलसिला जारी रखा और 1 नवम्बर 1944 को गवर्नमेंट हाई स्कूल, झंग से मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। आगे चलकर उन्होंने झंग के गवर्नमेंट इंटरमीडियट कॉलेज में दाख़िला लिया और 2 जनवरी 1948 को फ़ाज़िल (F.A.) की डिग्री हासिल की। बी.ए. की तकमील उन्होंने 19 दिसम्बर 1949 को गवर्नमेंट कॉलेज, झंग से की।
आला तालीम के लिए वासिफ अली वासिफ ने पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से अंग्रेज़ी अदब में एम.ए. की डिग्री हासिल की। तालीम के दिनों में वो न सिर्फ़ एक शानदार हॉकी खिलाड़ी रहे बल्कि अदब, फ़लसफ़ा और समाजी मसाइल पर उनकी सोच और नज़र भी गहराती चली गई। यही वो दौर था जब उनकी ज़ेहनी परिपक्वता और रूहानी रुझान ने एक नए शायर, मुफक्किर और सूफ़ी की बुनियाद रखी।
पेशावर ज़िंदगी: तालीम और अदब का संगम
वासिफ अली वासिफ ने 3 जून 1954 को सिविल सर्विस का इम्तिहान कामयाबी से पास किया, मगर उन्होंने सरकारी ओहदों की चमक-दमक को तर्क करते हुए तालीम और अदब के ज़रिए समाज में असल तब्दीली लाने का रास्ता इख़्तियार किया। उनका ए’तिक़ाद था कि तालीम सिर्फ़ इल्म का ज़रिया नहीं, बल्कि रूहानी और अख़लाक़ी तरक़्क़ी का सबब भी है।
सन 1958 में वासिफ साहब ने लाहौर इंग्लिश कॉलेज की बुनियाद रखी — जो अनारकली, लाहौर में वाक़े था। यहाँ उन्होंने सिर्फ़ अंग्रेज़ी अदब की तालीम नहीं दी बल्कि अपने तालिबे-इल्मों की शख़्सियत साज़ी, अख़लाक़ी नश्वो-नुमा और फ़िक्री परवरिश पर भी ख़ास तवज्जो दी। उनकी निगाह में उस्ताद वो है जो सिर्फ़ दिमाग़ नहीं, बल्कि दिलों को भी रोशन करे — और यही वासिफ अली वासिफ की तालीमी फ़लसफ़े की रूह थी।
अहम तस्नीफ़ात
2. शायरी के मजमूआत
शब चिराग़ (1978) – उर्दू शायरी का ख़ूबसूरत मजमूआ, जहाँ हर शेर दिल की गहराइयों से निकली हुई रौशनी का पैग़ाम देता है।
शब ज़ाद (1994) – वासिफ अली वासिफ की सूफ़ियाना तफ़क्कुर और रूहानी दर्द की झलक पेश करने वाला इल्हामी शेरो-सुख़न का सफ़र।
भरे भड़ोले (1994) – पंजाबी अदब में उनकी फ़नकाराना बुलंदी और ज़बान की मिठास का बेहतरीन नमूना, जो लोक रूह को झुमा देता है।
ज़िक्र-ए-हबीब (2004) – नातिया अशआर का पुरनूर मजमूआ, जहाँ हर लफ़्ज़ इश्क़-ए-रसूल ﷺ की महक से सरशार है।
शख़्सी ज़िंदगी
वासिफ अली वासिफ ने 24 अक्तूबर 1970 को शादी की। अल्लाह ने उन्हें एक बेटा और तीन बेटियों की नेअमत अता की। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में घर और अदब — दोनों के हुक़ूक़ को ख़ूबसूरती से निभाया। एक जानदार शायर और सूफ़ी मुतफ़क्किर होने के बावजूद, वासिफ साहब ने हमेशा अपने ख़ानदान के साथ मोहब्बत, तवाज़ुन और ख़ुलूस का रिश्ता कायम रखा। उनकी ज़िंदगी इस बात की मिसाल है कि रूहानी बुलंदी और घरेलू सुकून — दोनों एक दूसरे के तक़ाज़ों को मुकम्मल कर सकते हैं।
वासिफ अली वासिफ की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
अजब ए'जाज़ है तेरी नज़र का
कि हम भूले हैं रस्ता अपने घर का
सहर आई तो याद आए वो तारे
पता जिन से मिला हम को सहर का
चले हो छोड़ कर पहले क़दम पर
चले थे साथ देने उम्र-भर का
बहारें आ गईं जब आप आए
दुआओं ने भी मुँह देखा असर का
हक़ीक़त क्या फ़रेब-ए-आगही है
नज़र भी एक धोका है नज़र का
अदम से भी परे थी अपनी मंज़िल
सफ़र अंजाम था अपने सफ़र का
मिरी आँखें हुईं नमनाक 'वासिफ़'
ख़याल आया किसी की चश्म-ए-तर का
2-ग़ज़ल
चाँदनी-रात में खिले चेहरे
सुब्ह होते ही छुप गए चेहरे
मैं निगाहों को किस तरह बदलूँ
आप ने तो बदल लिए चेहरे
ग़ौर से देख आबगीनों को
कल कहाँ होंगे आज के चेहरे
खा रहे हैं दरख़्त का साया
टहनियों से लगे हुए चेहरे
उस का चेहरा कब उस का अपना था
जिस के चेहरे पर मर मिटे चेहरे
ज़िंदगी में कभी नहीं मिलते
काग़ज़ों पर सजे हुए चेहरे
आ गए खुल के सामने 'वासिफ़'
आस्तीं में छुपे हुए चेहरे
3-ग़ज़ल
मिला है जो मुक़द्दर में रक़म था
ज़हे क़िस्मत मिरे हिस्से में ग़म था
जबीन-ए-शौक़ ने ये राज़ खोला
मिरा काबा तिरा नक़्श-ए-क़दम था
मिरी कोतह-निगाही थी वगर्ना
सितम उन का तो इक हुस्न-ए-करम था
जिसे तू राएगाँ समझा था 'वासिफ़'
वो आँसू इफ़्तिख़ार-ए-जाम-ए-जम था
4-ग़ज़ल
5-ग़ज़ल
तब्सरा
वासिफ अली वासिफ — रूहानी तफ़क्कुर और अदबी नूर का मुसव्विर
वासिफ अली वासिफ का नाम उर्दू अदब और तसव्वुफ़ की दुनिया में उस नूरानी शख़्सियत के तौर पर लिया जाता है, जिसने कलम को सिर्फ़ इज़हार का ज़रिया नहीं, बल्कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी और इंसानियत की हिदायत का पैग़ाम बनाया। उनकी ज़िंदगी एक ऐसे सूफ़ी मुतफ़क्किर की ज़िंदगी थी, जिसने किताब को इबादत और तहरीर को ज़िक्र का दर्जा दिया।
शाहपुर, ख़ुशाब की सादा सरज़मीन से निकलकर लाहौर की फ़िक्री फज़ाओं तक पहुँचने वाला यह शख़्स, अपने हर लफ़्ज़ में तसव्वुफ़ की ख़ुशबू और इल्म की गहराई समेटे हुए था। वासिफ साहब ने तालीम, तफ़क्कुर और तसव्वुफ़ — तीनों को एक लड़ी में पिरोकर यह साबित किया कि इल्म जब तक दिल की गहराई से न निकले, वो सिर्फ़ मालूमात रह जाता है, मगर जब वो रूह से जुड़ जाए, तो हिकमत बन जाता है।
उनकी तस्नीफ़ात — “क़तरा क़तरा क़ुल्ज़ुम,” “हर्फ़ हर्फ़ हक़ीक़त,” “दिल दरिया समुंदर” — सिर्फ़ किताबें नहीं, बल्कि एक दरवेश के तजुर्बात और इश्क़ के दरस हैं। उनकी “गुफ़्तगू” की सिलसिला वार किताबें आज भी उस तलाश-ए-हक़ के मुसाफ़िरों के लिए नूर का सरचशमा हैं, जो ज़िंदगी के गहरे सवालों का जवाब दिल से चाहते हैं।
वासिफ साहब का फ़लसफ़ा सादा मगर गहराई से भरा हुआ है — “तालीम इंसान को ज़हनी नहीं, रूहानी तौर पर भी तरक़्क़ी देना चाहिए।” उन्होंने यह साबित किया कि उस्ताद सिर्फ़ वो नहीं जो दिमाग़ रोशन करे, बल्कि वो है जो दिलों में यक़ीन और तस्कीन की लौ जलाए।
उनकी रूहानी हिकमत का असर आज भी महसूस किया जा सकता है। उनके अल्फ़ाज़ वक्त की हदों को पार करके आज के इंसान के दिल में वही असर पैदा करते हैं जो बरसों पहले उनके ज़माने में करते थे। वासिफ अली वासिफ का फ़िक्र हमें यह सिखाता है कि ज़िंदगी का अस्ल मक़सद बाहरी कामयाबी नहीं, बल्कि अंदरूनी सुकून और इंसानियत की तकमील है।
लाहौर की मियानी साहिब की ख़ाक में दफ़्न यह सूफ़ी शायर, अपने पीछे ऐसी रौशनी छोड़ गया जो बुझने वाली नहीं। उसकी हर तहरीर, हर मुक़ालमा, और हर नसीहत आज भी ज़ेहन के अंधेरों में उजाला करती है।
वासिफ अली वासिफ — एक ऐसा नाम जो लफ़्ज़ों में नहीं, दिलों में बसता है; और जिसकी विरासत काग़ज़ पर नहीं, इंसान की रूह में दर्ज है।ये भी पढ़ें
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