रईस अमरोहवी, जिनका असली नाम सैयद मोहम्मद मेहदी था, 12 सितंबर 1914 को अमरोहा, भारत में पैदा हुए और 22 सितंबर 1988 को कराची, पाकिस्तान में शहीद हुए। वह एक ऐसी बहुमुखी व्यक्तित्व के मालिक थे जिन्होंने उर्दू शायरी, मनोविज्ञान, पारलौकिक अनुसंधान और दर्शन में महत्वपूर्ण सेवाएँ दीं। रईस अमरोहवी उर्दू साहित्य के आकाश पर एक चमकते सितारे की तरह उभरे, और उनका नाम "क़तआत" लिखने की अनोखी शैली की वजह से हमेशा याद रखा जाएगा।
हिजरत और ज़िंदगी का नया सफर
1947 में पाकिस्तान बनने के बाद रईस अमरोहवी ने अपने परिवार के साथ हिजरत की और कराची में बस गए। यहाँ उन्होंने अपनी अकादमिक और साहित्यिक गतिविधियों को एक नरईस अमरोहवी: साहित्य, दर्शन और मनोविज्ञान का संगमई दिशा दी। रईस अमरोहवी ने उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उर्दू बोलने वाले वर्ग के अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की। उनका मशहूर शेर "उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले" उनकी उर्दू भाषा से अटूट मोहब्बत का एक ज़िंदा मिसाल है।
साहित्यिक सेवाएँ और क़तआत निगारी
रईस अमरोहवी का सबसे अनोखा पहलू उनकी क़तआत निगारी थी। उन्होंने दशकों तक रोज़नामा जंग में क़तआत प्रकाशित किए, जो अपने व्यंग्य और गहराई के कारण जनता में बेहद लोकप्रिय रहे। उनकी शायरी की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह अपनी रचनाओं में गहरे अवलोकन और सामाजिक मुद्दों को बड़ी सादगी और खूबसूरती के साथ पेश करते थे।
दर्शन और पारलौकिक विज्ञान
रईस अमरोहवी सिर्फ़ शायर ही नहीं बल्कि पारलौकिक विज्ञान, मनोविज्ञान, और दर्शन के क्षेत्र में भी अपनी खोज और लेखन के माध्यम से गहरी छाप छोड़ गए। उन्होंने ध्यान, योग, और मनोविज्ञान पर कई किताबें लिखीं, जिन्होंने इन विषयों को समझने और उन पर काम करने के लिए एक रास्ता दिखाया। उनकी कृतियों में "मुराक़बा", "मा बाद अल-नफ़्सियात", और "अजाइब-ए-नफ़्स" शामिल हैं, जो इस क्षेत्र के छात्रों और उत्साही लोगों के लिए एक खजाना हैं।
रईस अकादमी की स्थापना
उन्होंने अपनी ज़िंदगी को साहित्यिक और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए समर्पित कर दिया और "रईस अकादमी" की स्थापना की। यह संस्थान लेखकों को न केवल तकनीकी कौशल सिखाता था बल्कि उनके भावनात्मक और नैतिक मूल्यों को भी प्रोत्साहित करता था।
कृतियों का अवलोकन
रईस अमरोहवी ने अपनी ज़िंदगी में उर्दू साहित्य को समृद्ध करने के लिए कई किताबें लिखीं जिनमें शायरी, दर्शन, मनोविज्ञान, और पारलौकिक विज्ञान शामिल हैं। उनकी प्रसिद्ध किताबों में "मसनवी लाला-ए-सहरा", "पस-ए-गुबार", "क़तआत", और "कुल्लियात" शामिल हैं। उनके साहित्यिक सफर का हर मोड़ ज्ञान और विद्वता के नए दरवाज़े खोलता है।
रईस अमरोहवी की शहादत
22 सितंबर 1988 को रईस अमरोहवी को एक कट्टरपंथी समूह ने उनके धर्म के आधार पर शहीद कर दिया। उनकी शहादत ने उर्दू साहित्य के क्षेत्र में एक अपूरणीय शून्य पैदा कर दिया।
उर्दू भाषा के सिपाही
रईस अमरोहवी की ज़िंदगी उर्दू भाषा की तहरीक और साहित्यिक सेवाओं के लिए समर्पित थी। वह एक ऐसा चमकता सितारा थे जो अपनी रोशनी से हमेशा उर्दू साहित्य के आकाश को आलोकित करते रहेंगे। उनकी शायरी, कृतियाँ, और विचार न केवल उर्दू साहित्य के दायरे को विस्तृत करते हैं बल्कि मानवता और नैतिकता के उच्च सिद्धांतों को भी बढ़ावा देते हैं। रईस अमरोहवी का नाम इतिहास में हमेशा सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।
रईस अमरोहवी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
अब दिल की ये शक्ल हो गई है
जैसे कोई चीज़ खो गई है
पहले भी ख़राब थी ये दुनिया
अब और ख़राब हो गई है
इस बहर में कितनी कश्तियों को
साहिल की हवा डुबो गई है
गुल जिन की हँसी उड़ा चुके थे!
शबनम भी उन्हीं को रो गई है
कल से वो उदास उदास हैं कुछ
शायद कोई बात हो गई है
शादाब है जिस से किश्त-ए-हस्ती
वो बीज भी मौत बो गई है
2-ग़ज़ल
दिल से या गुल्सिताँ से आती है
तेरी ख़ुश्बू कहाँ से आती है
कितनी मग़रूर है नसीम-ए-सहर
शायद उस आस्ताँ से आती है
ख़ुद वही मीर-ए-कारवाँ तो नहीं
बू-ए-ख़ुश कारवाँ से आती है
उन के क़ासिद का मुंतज़िर हूँ मैं
ऐ अजल! तू कहाँ से आती है
शिकवा कैसा कि हर बला ऐ दोस्त!
जानता हूँ जहाँ से आती है
हो चुकीं आज़माइशें इतनी
शर्म अब इम्तिहाँ से आती है
ऐन दीवानगी में याद आया!
अक़्ल इश्क़-ए-बुताँ से आती है
तेरी आवाज़ गाह गाह ऐ दोस्त!
पर्दा-ए-साज़-ए-जाँ से आती है
दिल से मत सरसरी गुज़र कि 'रईस'
ये ज़मीं आसमाँ से आती है
3-ग़ज़ल
'रईस' अश्कों से दामन को भिगो लेते तो अच्छा था
हुज़ूर-ए-दोस्त कुछ गुस्ताख़ हो लेते तो अच्छा था
जुदाई में ये शर्त-ए-ज़ब्त-ए-ग़म तो मार डालेगी
हम उन के सामने कुछ देर रो लेते तो अच्छा था
बहारों से नहीं जिन को तवक़्क़ो लाला-ओ-गुल की
वो अपने वास्ते काँटे ही बो लेते तो अच्छा था
अभी तो निस्फ़ शब है इंतिज़ार-ए-सुब्ह-ए-नौ कैसा
दिल-ए-बेदार हम कुछ देर सो लेते तो अच्छा था
क़लम-रौ दाद-ए-ख़ून-ओ-अश्क लिखने से झिजकता है
क़लम को अश्क-ओ-ख़ूँ ही में डुबो लेते तो अच्छा था
फ़क़त इक गिर्या-ए-शबनम किफ़ायत कर नहीं सकता
चमन वाले कभी जी-भर के रो लेते तो अच्छा था
सुराग़-ए-कारवाँ तक खो गया अब सोचते ये हैं
कि गर्द-ए-कारवाँ के साथ हो लेते तो अच्छा था
4-ग़ज़ल
ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
गहरे समुंदरों में सफ़र कर रहे हैं हम
सदियों तक एहतिमाम-ए-शब-ए-हिज्र में रहे
सदियों से इंतिज़ार-ए-सहर कर रहे हैं हम
ज़र्रे के ज़ख़्म दिल पे तवज्जोह किए बग़ैर
दरमान-ए-दर्द-ए-शम्स-ओ-क़मर कर रहे हैं हम
हर चंद नाज़-ए-हुस्न पे ग़ालिब न आ सके
कुछ और मारके हैं जो सर कर रहे हैं हम
सुब्ह-ए-अज़ल से शाम-ए-अबद तक है एक दिन
ये दिन तड़प तड़प के बसर कर रहे हैं हम
कोई पुकारता है हर इक हादसे के साथ
तख़लीक़-ए-काएनात-ए-दिगर कर रहे हैं हम
ऐ अर्सा-ए-तलब के सुबुक-सैर क़ाफ़िलो
ठहरो कि नज़्म-ए-राह-ए-गुज़र कर रहे हैं हम
लिख लिख के अश्क ओ ख़ूँ से हिकायात-ए-ज़िंदगी
आराइश-ए-किताब-ए-बशर कर रहे हैं हम
तख़मीना-ए-हवादिस-ए-तूफ़ाँ के साथ साथ
बत्न-ए-सदफ में वज़्न-ए-गोहर कर रहे हैं हम
हम अपनी ज़िंदगी तो बसर कर चुके 'रईस'
ये किस की ज़ीस्त है जो बसर कर रहे हैं हम
1-नज़्म
फ़ारसी उर्दू सबक़
आओ बच्चो सबक़ पढ़ाएँ फ़ारसी और उर्दू
गाय को बोलो गाव हमेशा हिरनी को आहू
घास गयाह और आब है पानी और नदी है जू
मुंशी जी ने सबक़ पढ़ाया फ़ारसी और उर्दू
हू हा हू हा हू
हू हू हू हू हू हू
आओ बच्चो सबक़ पढ़ाएँ फ़ारसी और उर्दू
आँख को दीदा कान को गोश और आँख की भौं अबरू
ख़ाल है तिल और गाल है आरिज़ चोटी है गेसू
मुंशी जी ने सबक़ पढ़ाया फ़ारसी और उर्दू
हू हा हू हा हू
हू हू हू हू हू
आओ बच्चो सबक़ पढ़ाएँ फ़ारसी और उर्दू
बच्चो पीर के मा'नी बूढ़ा बाला बच्चा तिफ़्ल
रंग है रूप और डील है क़ामत शाना है बाज़ू
मुंशी जी ने सबक़ पढ़ाया फ़ारसी और उर्दू
हू हा हू हा हू
हू हू हू हू हू
आओ बच्चो सबक़ पढ़ाएँ फ़ारसी और उर्दू
शब की उर्दू रात है बच्चो दिन की फ़ारसी रोज़
राह है रस्ता जंगल सहरा सम्त के मा'नी सू
मुंशी जी ने सबक़ पढ़ाया फ़ारसी और उर्दू
हू हा हू हा हू
हू हू हू हू हू
आओ बच्चो सबक़ पढ़ाएँ फ़ारसी और उर्दू
तू तू मैं मैं छोड़ के बच्चो याद करो ये लफ़्ज़
मन के मा'नी मैं होते हैं तू के मा'नी तू
मुंशी जी ने सबक़ पढ़ाया फ़ारसी और उर्दू
हू हा हू हा हू
हू हू हू हू हू
2-नज़्म
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
जगमग जगमग जगमग तारे
बाजी दुनियाएँ हैं सारे
हर तारे की एक फ़ज़ा है
इन में पानी और हवा है
इन में ख़ुश्की और ज़मीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
बाजी इन तारों के अंदर
रेत चटानें और समुंदर
कैसे कैसे रूप हैं इन के
इन के दिन हैं सौ सौ दिन के
रौशन हर तारे की जबीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
चाँद कि सूरज मामूँ नाने
तारे अपने दोस्त पुराने
हर तारे का रंग नया है
नीला कोई कोई हरा है
रंग हसीं है ढंग हसीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
रॉकेट क्या क्या झूम रहे हैं
और ख़ला में घूम रहे हैं
क्या है गर रस्ते हैं मुश्किल
चाँद सितारे अपनी मंज़िल
अपनी मंज़िल दूर नहीं है
बाजी ये कुछ झूट नहीं है
तब्सरा
रईस अमरोहवी की ज़िंदगी और खुदादाद सलाहियतों का ये तफ़्सीली तज़्किरा उन्हें उनकी इंसानी ख़िदमात और फ़ुनून में उनके लाज़वाल कारनामों के लिए मौज़ूँ है। वो अमरोहा के एक नाबिग़ा फ़र्ज़ंद थे जिनके फ़ुनून ने उर्दू शायरी में एक नई रूह फूँक दी। वो न सिर्फ़ शायर थे बल्कि एक मुफक्किर, मनोझुआन और मुनफ़रिद तज्ज़ियात के हामिल इंसान थे। उनका अदबी विरसा आज भी उमूमी और ख़ुसूसी हल्क़ों में बाअज़ान है।
रईस अमरोहवी ने नस्र, शेर, मनोतोहीद और मआरिफ़त के इलाक़ों में अपने फ़न का लोहा मनवाया। उनकी किताबें और तहक़ीक़ी तस्नीफ़ात उर्दू अदब के लिए एक क़ीमती मालियक़ियत हैं। उनका फ़लसफ़ा और उनकी शाइरी नस्हीयतें नौजवान नस्ल के लिए एक नक्श-ए-राह हैं।
उनकी ज़िंदगी में तहक़ीक़, ख़ुदावंदी मआरिफ़त और इंसानी विसालत का एक मुनफ़रिद मिज़ाज रहा। वो मालूमाती मक़ालात, शाइराना तस्नीफ़ात और मआरिफ़ती तहक़ीक़ के ज़रिए से इंसानियत को नवाज़ते रहे।ये भी पढ़ें
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