ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने: मुजफ्फर रज़्मी

मुजफ्फर रज़्मी का नाम उर्दू अदब के उन बुलंद शायरों में शामिल है, जिनकी शायरी ने समाज, सियासत और इंसानी जज्बातों को न सिर्फ बेमिसाल अंदाज में पेश किया, बल्कि आने वाली नस्लों को भी सोचने का एक नया नजरिया दिया। उनका मशहूर शेर "ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई" आज भी संसद के गलियारों से लेकर साहित्यिक मंचों और आम ज़िंदगी में बड़े अदब और मोहब्बत के साथ दोहराया जाता है।


परिचय

मुजफ्फर रज़्मी न सिर्फ उर्दू शायरी के एक बेहतरीन सिपाही थे, बल्कि उनके शेरों में इंसानियत, इंसाफ, और सियासत के हर पहलू को बखूबी पिरोया गया था। उनकी शायरी उनके जमाने की हकीकत का आईना है और आने वाले वक्त के लिए एक अनमोल धरोहर।



जन्म और बचपन

मुजफ्फर रज़्मी का जन्म 5 जून 1935 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के कैराना कस्बे में हुआ। उनका परिवार बेहद सादगी पसंद था, और यह सादगी उनके पूरे जीवन में झलकती रही। बचपन से ही उन्हें उर्दू अदब और शायरी में गहरी दिलचस्पी थी। कैराना के माहौल और वहां की तहजीब ने उनके सोचने और महसूस करने के नजरिए को एक अलग दिशा दी। उनकी जिंदगी के शुरुआती सालों में ही शायरी की जड़ें उनके दिल और दिमाग में गहरी हो गई थीं।



साहित्यिक सफर की शुरुआत

मुजफ्फर रज़्मी ने अपने अदबी सफर की शुरुआत स्थानीय तरही मुशायरों से की। उनकी शुरुआती शायरी में ही उनकी फिक्र और सोच का गहराई से एहसास होने लगा था। उन्होंने 1992 में एक तरही मुशायरे में वह गजल कही, जिसका हिस्सा "ये जब्र भी देखा है..." वाला शेर था। यह शेर उनकी पहचान बन गया और उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर ले गया।

उनकी शायरी समाज की तकलीफों, इंसानी जज्बातों और वक्त की तल्ख हकीकतों को बयान करने का बेहतरीन जरिया थी। उनके शेर सीधे दिल पर असर करते थे और सुनने वाले के दिल में अपनी गहरी छाप छोड़ते थे।

उनके यह मशहूर शेर:
"जब भी ऐ दोस्त तेरी सम्त बढ़ाता हूं कदम,
फासले भी मेरे हमराह चले आते हैं"

और

"मांगने वाला तो गूंगा था मगर,
देने वाले तू भी बहरा हो गया"

उनके अंदर की गहराई, सादगी और तजुर्बे का नायाब नमूना हैं।



सियासत और शायरी का रिश्ता

मुजफ्फर रज़्मी की शायरी ने सियासत पर भी गहरा असर डाला। उनका शेर "ये जब्र भी देखा है..." पहली बार ऑल इंडिया रेडियो पर 1974 में प्रसारित हुआ था। इसके बाद यह शेर पूरे हिंदुस्तान में गूंज उठा। यह शेर सिर्फ एक गजल का हिस्सा नहीं, बल्कि समाज और सियासत की सच्चाई का एक बेबाक बयान था।

शेर की मकबूलियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने अपने एक भाषण में पढ़ा। बाद में दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और इंद्र कुमार गुजराल ने भी अपनी तकरीरों में इस शेर का इस्तेमाल किया। यह शेर न सिर्फ अदब की दुनिया में, बल्कि सियासत के गलियारों में भी अमर हो गया।



अदबी धरोहर

मुजफ्फर रज़्मी की शायरी में सादगी, गहराई और हकीकत का बेहतरीन मेल देखने को मिलता है। उनकी रचनाएं आज भी अदब की दुनिया में एक अनमोल धरोहर के रूप में जानी जाती हैं। उनकी किताबें 'लम्हों की खता' और 'सदियों की सजा' उनके शेरों और गजलों का संग्रह हैं, जिनमें इंसानी जज्बात और समाज की तल्ख सच्चाइयां बयान की गई हैं।

उनकी शायरी ने न केवल आम इंसान के दिल को छुआ, बल्कि समाज को जागरूक करने का काम भी किया। उनके शेरों में एक ऐसी ताकत थी, जो सुनने वाले को सोचने पर मजबूर कर देती थी।



व्यक्तित्व की सादगी

मुजफ्फर रज़्मी अपनी जिंदगी में बेहद सादगी पसंद इंसान थे। वह बड़े से बड़े मंच पर भी बड़ी सादगी के साथ पेश आते थे। उनके करीबी बताते हैं कि उनकी शायरी में उनकी शख्सियत की सादगी और उनकी सोच की गहराई का पूरा अक्स दिखता है।

वह मानते थे कि शायरी का असली मकसद समाज को बेहतर बनाना है। उनका कहना था कि अगर शायरी सिर्फ मनोरंजन का जरिया बनकर रह जाए, तो यह अपनी असली मकसद से भटक जाएगी।



आखिरी दिन और परिवार की स्थिति

19 सितंबर 2012 को मुजफ्फर रज़्मी इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनके इंतकाल के बाद उनका परिवार आर्थिक तंगी का शिकार हो गया। उनके बेटे नवेद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखकर मदद की गुहार लगाई। उन्होंने अपने वालिद की किताबें भी प्रधानमंत्री को भेजीं, लेकिन अब तक उनके परिवार को कोई खास मदद नहीं मिल पाई।



यादें और खिराज-ए-अकीदत

मुजफ्फर रज़्मी की 9वीं बरसी पर उनके बेटों ने कुरान ख्वानी कराई और उनकी मगफिरत के लिए दुआएं मांगी। उनके शेर आज भी लोगों की जबान पर हैं। उनका यह मशहूर शेर:
"मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी,
अगली नस्लों को दुआ देकर चला जाऊंगा।"

यह उनकी सोच और उनकी शख्सियत को बयां करता है। वह सिर्फ एक शायर नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे, जिनकी सोच हमेशा इंसानियत और इंसाफ के लिए समर्पित रही।



मुज़फ्फर रज़्मी की शायरी,ग़ज़लें

1-ग़ज़ल 

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई
हम डूब के समझे हैं दरिया तिरी गहराई

जाग ऐ मिरे हम-साया ख़्वाबों के तसलसुल से
दीवार से आँगन में अब धूप उतर आई

चलते हुए बादल के साए के तआक़ुब में
ये तिश्ना-लबी मुझ को सहराओं में ले आई

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई

क्या सानेहा याद आया 'रज़्मी' की तबाही का
क्यूँ आप की नाज़ुक सी आँखों में नमी आई



2-ग़ज़ल 

मसअले भी मिरे हमराह चले आते हैं
हौसले भी मिरे हमराह चले आते हैं

कुछ न कुछ बात मिरे अज़्म-ए-सफ़र में है ज़रूर
क़ाफ़िले भी मिरे हमराह चले आते हैं

जब भी ऐ दोस्त तिरी सम्त बढ़ाता हूँ क़दम
फ़ासले भी मिरे हमराह चले आते हैं

ग़म मिरे साथ निकलते हैं सवेरे घर से
दिन ढले भी मिरे हमराह चले आते हैं

पा-बरहना जो गुज़रता हूँ तिरे कूचे से
आबले भी मिरे हमराह चले आते हैं

मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
कुछ भले भी मिरे हमराह चले आते हैं

जब भी करता है क़बीला मिरा हिजरत 'रज़्मी'
ज़लज़ले भी मिरे हमराह चले आते हैं




3-ग़ज़ल 

हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
मुसलसल खेलता हूँ ज़िंदगी से

क़रीब आते हैं लेकिन बे-रुख़ी से
पुराने दोस्त भी हैं अजनबी से

फ़रिश्ते दम-ब-ख़ुद इबलीस हैराँ
तवक़्क़ो' ये कहाँ थी आदमी से

निज़ाम-ए-अस्र-ए-नौ ये कह रहा है
अँधेरे फैलते हैं रौशनी से

चले आए हरम से मय-कदे में
परेशाँ हो गए जब ज़िंदगी से

लगी है आग जब से गुलसिताँ में
बहुत डरने लगा हूँ रौशनी से

न हो जो तरजुमान-ए-वक़्त 'रज़्मी'
भला क्या फ़ाएदा उस शा'इरी से




4-ग़ज़ल 

शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है
मैं ने दानिस्ता चराग़ों को बुझा रक्खा है

और क्या दूँ मैं गुलिस्ताँ से मोहब्बत का सुबूत
मैं ने काँटों को भी पलकों पे सजा रक्खा है

जाने क्यूँ बर्क़ को इस सम्त तवज्जोह ही नहीं
मैं ने हर तरह नशेमन को सजा रक्खा है

ज़िंदगी साँसों का तपता हुआ सहरा ही सही
मैं ने इस रेत पे इक क़स्र बना रक्खा है

वो मिरे सामने दुल्हन की तरह बैठे हैं
ख़्वाब अच्छा है मगर ख़्वाब में क्या रक्खा है

ख़ुद सुनाता है उन्हें मेरी मोहब्बत के ख़ुतूत
फिर भी क़ासिद ने मिरा नाम छुपा रक्खा है

कुछ न कुछ तल्ख़ी-ए-हालात है शामिल 'रज़्मी'
तुम ने फूलों से भी दामन जो बचा रक्खा है



5-ग़ज़ल 

ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा

आँधियों का मुझे क्या ख़ौफ़ मैं पत्थर ठहरा
रेत का ढेर नहीं हूँ जो बिखर जाऊँगा

ज़िंदगी अपनी किताबों में छुपा ले वर्ना
तेरे औराक़ के मानिंद बिखर जाऊँगा

मैं हूँ अब तेरे ख़यालात का इक अक्स-ए-जमील
आईना-ख़ाने से निकला तो किधर जाऊँगा

मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा

तेज़-रफ़्तार सही लाख मिरा अज़्म-ए-सफ़र
वक़्त आवाज़ जो देगा तो ठहर जाऊँगा

दम न लेने की क़सम खाई है मैं ने 'रज़्मी'
मुझ को मंज़िल भी पुकारे तो गुज़र जाऊँगा


निष्कर्ष

मुज़फ़्फ़र रज़्मी की शायरी एक ऐसी क़दीमी रोशनी है जो इंसानी जज्बात और समाजी हक़ीक़तों को नए रंग और मायने देती है। उनके अशआर में वो गहराई और असर है जो वक़्त की दीवारों को पार करते हुए आज भी दिलों पर दस्तक देते हैं। उनका हर शेर जैसे दिल के किसी कोने में छुपे दर्द या ख्वाब की तर्जुमानी करता है।

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई"—यह शेर न सिर्फ़ उनकी फिक्र और एहसास का सबूत है, बल्कि यह भी साबित करता है कि उनका कलाम हर दौर में मौजू है। उनकी शायरी महज़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि इंसानियत की फ़िक्र और सियासत की सच्चाई का आईना है। उनके कलाम की गूंज संसद के गलियारों से लेकर गली-कूचों में महसूस होती है।

उनकी सादगी, फ़िक्र, और ज़िंदगी की तजुर्बात से लबरेज़ शायरी ने न सिर्फ अदब की दुनिया को मालामाल किया, बल्कि सियासी तहरीकात और समाजी बुनियादों को भी मजबूती दी। उनके शेर महज़ पढ़ने या सुनने के लिए नहीं, बल्कि सोचने और महसूस करने के लिए हैं।

मुज़फ़्फ़र रज़्मी का हर लफ़्ज़ एक ऐसी निशानी है, जो आने वाली नस्लों को यह सबक देती है कि शायरी महज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि इंसाफ़, इंसानियत और बदलाव का पैग़ाम भी हो सकती है। उनकी तखलीक़ात आज भी हमारी तहजीब और तर्जुमानी का हिस्सा हैं, और हमेशा रहेंगी। "फासले भी मिरे हमराह चले आते हैं", यह शेर उनकी जिंदगी की हकीकत और शायरी की कामयाबी को बखूबी बयां करता है।ये भी पढ़ें 

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