सीमाब अकबराबादी, असली नाम आशिक़ हुसैन सिद्दीक़ी, उर्दू अदब की उन बुलंद हस्तियों में से एक हैं जिनकी शायरी और अदबी ख़िदमात ने उन्हें हमेशा के लिए अमर कर दिया। उनकी ज़िंदगी, शायरी और अदबी मीरास ने न सिर्फ़ उर्दू अदब को निखारा बल्कि आने वाली नस्लों के लिए एक बेहतरीन मिसाल भी पेश की। उनका जन्म 5 जून 1882 को आगरा की तवारीखी सरज़मीन पर हुआ। आगरा, जो अपने अदबी और सांस्कृतिक उसुलों के लिए मशहूर है, ने सीमाब को वो माहौल दिया जिससे उनकी शायरी का निखार हुआ।
ख़ानदानी पस-मंज़र और बचपन
सीमाब का ताल्लुक़ हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ि.) के ख़ानदान से था। उनके बुज़ुर्ग बुख़ारा से हिन्दुस्तान आए और मुग़ल बादशाह जहांगीर के दौर में आगरा को अपना ठिकाना बनाया। उनके वालिद मोहम्मद हुसैन सिद्दीक़ी, खुद भी एक शायर थे। उन्होंने सीमाब की तर्बियत अदबी व तहज़ीबी माहौल में की। इस माहौल ने सीमाब को न सिर्फ़ शायरी बल्कि उर्दू अदब की गहराईयों को समझने का मौका दिया।
अदबी सफर की शुरुआत
सीमाब ने शायरी का आग़ाज़ महज़ 10 साल की उम्र में कर दिया था। 1898 में वो मशहूर शायर नवाब मिर्ज़ा ख़ां दाग़ देहलवी के शागिर्द बन गए। दाग़ की शागिर्दी ने उनके तर्ज़-ए-सुखन को एक नई पहचान दी। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़ल बल्कि नज़्म, रुबाई, सलाम और नोहे जैसे मुख़्तलिफ़ अदबी अस्नाफ़ में भी अपनी क़लम चलाई।
क़स्र-उल-अदब और रिसाले
1923 में सीमाब ने "क़स्र-उल-अदब" नामक इदारा क़ायम किया, जो उर्दू अदब की ख़िदमत में मील का पत्थर साबित हुआ। उन्होंने "पैमाना", "ताज", और "शायर" जैसे मुख़्तलिफ़ रिसालों की शुरुआत की। इन रिसालों ने उर्दू अदब को नई राहें दिखाईं और नयी नस्ल को इस अदब की रिवायतों से जोड़ा। उनका मशहूर रिसाला "शायर", जिसे उनके बेटे ने उनके इंतक़ाल के बाद भी जारी रखा, उर्दू अदब की अहम दौलतों में से एक है।
अदबी शाहकार और शायरी का फ़न
सीमाब की शायरी में इश्क़, दर्द, जज़्बात, और समाजी हक़ीक़तों की झलक मिलती है। उनकी ग़ज़लें उर्दू अदब का अमूल्य ख़ज़ाना हैं। उनके ग़ज़लों को कुंदन लाल सहगल जैसी हस्तियों ने अपनी आवाज़ दी, जिससे उनकी शायरी आम लोगों तक पहुंची। उनके शायरी मजमूआ "नैस्तां", "इल्हाम-ए-मंज़ूम", और "साज़-ओ-आहंग" उर्दू अदब में मील के पत्थर माने जाते हैं।
वही-ए-मंज़ूम: क़ुरआन का शायराना तर्जुमा
सीमाब अकबराबादी की सबसे अहम अदबी खिदमत "वही-ए-मंज़ूम" है। ये क़ुरआन-ए-पाक का उर्दू शायरी में तर्जुमा है, जो अपने आप में एक नायाब कारनामा है। इसे पूरा करने में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के कई साल लगाए। ये तर्जुमा न सिर्फ़ धार्मिक बल्कि अदबी लिहाज़ से भी बेहद अहम है।
ज़ाती ज़िंदगी और अंदाज़-ए-हयात
सीमाब की शख्सियत उनका सबसे बड़ा जादू था। वो हमेशा सफ़ेद पायजामा, क़लीन शेरवानी और तुर्की टोपी पहने नज़र आते थे। उनकी अदबी जिंदगी ने उन्हें कभी आराम से जीने नहीं दिया, लेकिन उन्होंने अपनी खुद्दारी और तहज़ीब को कभी कमजोर नहीं होने दिया।
हिजरत और आखिरी दिन
1948 में सीमाब अदब की तलाश में पाकिस्तान हिजरत कर गए। वो कराची और लाहौर के दरमियान रहे, लेकिन उनकी माली हालत कभी बेहतर नहीं हुई। 1949 में उन्हें फालिज़ का दौरा पड़ा और 31 जनवरी 1951 को उनका इंतक़ाल हो गया।
असर और विरासत
सीमाब अकबराबादी की अदबी विरासत आज भी जिंदा है। उनके शागिर्द और उनके अंदाज़-ए-बयान ने उर्दू शायरी को एक नई दिशा दी। उनका लिखा हुआ "वही-ए-मंज़ूम" और उनकी ग़ज़लें आज भी अदब के चाहने वालों के लिए मशाल-ए-राह हैं।
सीमाब अकबराबादी, जिन्होंने उर्दू अदब के आसमान पर अपनी एक अलग पहचान बनाई, उनकी शायरी और अदबी खिदमात हमेशा उर्दू अदब के लिए मुनव्वर रहेंगी। उनकी शख्सियत एक मिसाल है, जो हमें अदब और तहज़ीब की अहमियत समझाती है।
सीमाब अकबराबादी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
आँख से टपका जो आँसू वो सितारा हो गया
मेरा दामन आज दामान-ए-सुरय्या हो गया
उस के जी में क्या ये आई ये उसे क्या हो गया
ख़ुद छुपा आलम से और ख़ुद आलम-आरा हो गया
बंदा-ए-मअ'नी कहाँ सूरत का बंदा हो गया
सोचता हूँ मुझ को क्या होना था मैं क्या हो गया
फिर तसव्वुर ने बढ़ा दी नाला-ए-मौज़ूँ की लय
फिर सवाद-ए-फ़िक्र से इक शेर पैदा हो गया
अब कहाँ मायूसियों में झलकियाँ उम्मीद की
वो भी क्या दिन थे कि तेरा ग़म गवारा हो गया
जान दे दी मैं ने तंग आ कर वुफ़ूर-ए-दर्द से
आज मंशा-ए-जफ़ा-ए-दोस्त पूरा हो गया
बरहमन कहता था बरहम शैख़ बोल उठा अहद
हर्फ़ के इक फेर से दोनों में झगड़ा हो गया
वहदत ओ कसरत के जल्वे ख़िल्क़त-ए-इंसाँ में देख
एक ज़र्रा इस क़दर फैला कि दुनिया हो गया
बरबरियत की जहाँ में गर्म-बाज़ारी हुई
आदमियत की रगों में ख़ून ठंडा हो गया
आशियाँ बनने न पाया था कि बिजली गिर पड़ी
बाग़ अभी बसने न पाया था कि सहरा हो गया
आ गया सैलाब बालीं तक वुफ़ूर-ए-गिर्या से
रहम कर या रब कि पानी सर से ऊँचा हो गया
इत्तिफ़ाक़-ए-वक़्त था अपना फ़रोग़-ए-आशियाँ
जब कोई जुगनू चमक उट्ठा उजाला हो गया
दिल खिंचा जितना क़फ़स में आशियाने की तरफ़
दूर इतना ही क़फ़स से आशियाना हो गया
हम मुसाफ़िर थे हमारा मुस्तक़र कोई न था
रात जब आई जहाँ आई बसेरा हो गया
हो गए रुख़्सत 'रईस' ओ 'आली' ओ 'वासिफ़' 'निसार'
रफ़्ता रफ़्ता आगरा 'सीमाब' सूना हो गया
2-ग़ज़ल
अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला
जब दूर तक न कोई फ़क़ीर-आश्ना मिला
तेरा नियाज़-मंद तिरे दर से जा मिला
मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला
ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-शनास मिला ख़ुद-नुमा मिला
इंसाँ के भेस में मुझे अक्सर ख़ुदा मिला
सरगश्ता-ए-जमाल की हैरानियाँ न पूछ
हर ज़र्रे के हिजाब में इक आइना मिला
पाया तुझे हुदूद-ए-तअय्युन से मावरा
मंज़िल से कुछ निकल के तिरा रास्ता मिला
क्यूँ ये ख़ुदा के ढूँडने वाले हैं ना-मुराद
गुज़रा मैं जब हुदूद-ए-ख़ुदी से ख़ुदा मिला
ये एक ही तो ने'मत-ए-इंसाँ-नवाज़ थी
दिल मुझ को मिल गया तो ख़ुदाई को क्या मिला
या ज़ख़्म-ए-दिल को छील के सीने से फेंक दे
या ए'तिराफ़ कर कि निशान-ए-वफ़ा मिला
'सीमाब' को शगुफ़्ता न देखा तमाम उम्र
कम-बख़्त जब मिला हमें ग़म-आश्ना मिला
3-ग़ज़ल
जो उम्र तेरी तलब में गँवाए जाते हैं
कुछ ऐसे लोग भी दुनिया में पाए जाते हैं
लगाव है मिरी तन्हाइयों से फ़ितरत को
तमाम रात सितारे लगाए जाते हैं
समाई जाती हैं दिल में वो कुफ़्र-बार आँखें
ये बुत-कदे मिरे काबे पे छाए जाते हैं
समझ हक़ीर न इन ज़िंदगी के लम्हों को
अरे इन्हीं से ज़माने बनाए जाते हैं
हैं दिल के दाग़ भी क्या दिल के दाग़ ऐ 'सीमाब'
टपक रहे हैं मगर मुस्कुराए जाते हैं
4-ग़ज़ल
महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं
पहले हम होश को दीवाना बना लेते हैं
रोज़ इक दर्द तमन्ना से नया लेते हैं
हम यूँही ज़िंदगी-ए-इश्क़ बढ़ा लेते हैं
देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा
कभी आती है हवा भी तो छुपा लेते हैं
रंग भरते हैं वफ़ा का जो तसव्वुर में तिरे
तुझ से अच्छी तिरी तस्वीर बना लेते हैं
दे ही देते हैं किसी तरह तसल्ली 'सीमाब'
ख़ुश रहें वो जो मिरे दिल की दुआ लेते हैं
1-नज़्म
श्री कृष्ण
हुआ तुलूअ' सितारों की दिलकशी ले कर
सुरूर आँख में नज़रों में ज़िंदगी ले कर
ख़ुदी के होश उड़ाने ब-सद नियाज़ आया
नए पियालों में सहबा-ए-बे-खु़दी ले कर
फ़ज़ा-ए-दहर में गाता फिरा वो प्रीत के गीत
नशात-ख़ेज़-ओ-सुकूँ-रेज़ बाँसुरी ले कर
जहान-ए-क़ल्ब सरापा-गुदाज़ बन ही गया
हर एक ज़र्रा मोहब्बत का साज़ बन ही गया
जमाल-ओ-हुस्न के काफ़िर निखार से खेला
रियाज़-ए-इश्क़ की रंगीं बहार से खेला
पयम्बरों की कभी रस्म की अदा उस ने
ग्वाला बन के कभी सब्ज़ा-ज़ार से खेला
बहा दिए कभी ठोकर से प्रेम के चश्मे
कभी जमन कभी गंगा की धार से खेला
हँसी हँसी में वो दुख-दर्द झेलता ही रहा
करिश्मा-बाज़ ज़माने से खेलता ही रहा
किया ज़माने को मा'मूर अपने नग़्मों से
सिखाए इश्क़ के दस्तूर अपने नग़्मों से
सदाक़त और मोहब्बत की उस ने दी ता'लीम
अंधेरियों में भरा नूर अपने नग़्मों से
लताफ़तों से किया अर्ज़-ए-हिन्द को लबरेज़
कसाफ़तों को किया दूर अपने नग़्मों से
फ़लक को याद हैं उस अहद-ए-पाक की बातें
वो बाँसुरी वो मोहब्बत की साँवली रातें
दिलों में रंग-ए-मोहब्बत को उस्तुवार किया
सवाद-ए-हिन्द को गीता से नग़्मा-बार किया
जो राज़ कोशिश-ए-नुत्क़-ओ-ज़बाँ से खुल न सका
वो राज़ अपनी निगाहों से आश्कार किया
उदासियों को नई ज़िंदगी अता कर दी
हर एक ज़र्रे को दिल दे के बे-क़रार किया
जो मशरब उस का न इस तरह आम हो जाता
जहाँ से महव मोहब्बत का नाम हो जाता
तब्सरा :-
सीमाब अकबराबादी उर्दू साहित्य के वह रौशन सितारे हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शायरी, रचनाओं और अदबी ख़िदमात से उर्दू अदब को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। उनके अशआर में इश्क़ की नफासत, जज़्बात की गहराई, और इंसानी एहसास की सच्चाई देखने को मिलती है। उनके कलाम ने न केवल उनके समकालीन शायरों और अदबी दुनिया को प्रभावित किया, बल्कि आने वाली नस्लों के लिए भी एक बेहतरीन मिसाल पेश की।
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि "वही-ए-मंज़ूम" मानी जाती है, जो कुरआन-ए-पाक का नज़्म में किया गया अनुवाद है। यह न केवल उनकी साहित्यिक गहराई को दर्शाता है, बल्कि उनकी धार्मिक निष्ठा और भाषाई कौशल का भी प्रमाण है। सीमाब ने अपने जीवनकाल में उर्दू साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर काम किया, चाहे वह ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई हो या फिर नोहा और सलाम। उनकी कलम ने हर विषय को एक नये अंदाज़ में पेश किया।
सीमाब अकबराबादी की ग़ज़लें, खासतौर पर वे जिन्हें के.एल. सहगल ने गाया, आज भी उर्दू शायरी के प्रेमियों के दिलों पर राज करती हैं। उनकी शायरी में जो लय और दर्द है, वह पाठकों और श्रोताओं को एक अलग ही एहसास में ले जाती है। उनकी अदबी यात्रा, आगरा से शुरू होकर कराची में खत्म हुई, लेकिन उनकी रचनाएँ सीमाओं से परे हैं।
आज सीमाब अकबराबादी की अदबी विरासत को जानना और समझना न केवल उर्दू अदब के इतिहास को जानने के लिए आवश्यक है, बल्कि साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणादायक भी है। उनका जीवन, उनकी सोच, और उनका लिखा हुआ साहित्य यह सिखाता है कि अदब सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि समाज का आईना और इंसानी जज़्बात का बेहतरीन इज़हार भी है। सीमाब अकबराबादी का नाम उर्दू साहित्य में हमेशा जिंदा रहेगा।ये भी पढ़ें