साक़िब लखनवी: एक मुकम्मल जीवनी
साक़िब लखनवी, जिनका असली नाम मिर्ज़ा ज़ाक़िर हुसैन क़ज़लबाश था, उर्दू अदब के मक़बूल और मारूफ़ शायरों में शुमार किए जाते हैं। उनकी शायरी इंसानी जज़्बात की गहराइयों और फ़लसफ़ियाना अफ़कार को बयां करती है। लखनवी स्कूल ऑफ़ पोएट्री से वाबस्ता साक़िब की शायरी में लखनऊ की नफ़ासत, तहज़ीब, और अदबी रिवायतों की झलक साफ़ दिखाई देती है।
इब्तिदाई ज़िंदगी
साक़िब का पैदाइशी मक़ाम अकबराबाद (मौजूदा आगरा) था। वह एक फ़ारसी नस्ल से ताल्लुक़ रखने वाले घराने में पैदा हुए। उनके वालिद मिर्ज़ा मुहम्मद हुसैन ब्रिटिश राज में सरकारी मुलाज़िम थे, और उनकी वालिदा एक इल्म-ओ-अदब की माहिर खातून थीं। वालिदा ने ही साक़िब को इब्तिदाई तालीम और अदब का शौक़ दिया।
साक़िब ने बचपन में अरबी, फ़ारसी और उर्दू ज़बानों में महारत हासिल की। आगे की तालीम के लिए उन्हें आगरा भेजा गया, जहाँ उन्होंने सेंट जॉन्स कॉलेज में दाख़िला लिया और अंग्रेज़ी ज़बान पर भी क़ाबू पाया। तालीम मुकम्मल करने के बाद वह अपने वालिद के साथ लखनऊ तशरीफ़ ले आए।
लखनऊ की अदबी और सक़ाफ़ती फ़िज़ा ने उनकी सलाहियतों को निखारने में अहम किरदार अदा किया। उस दौर में लखनऊ उर्दू शायरी का मरकज़ था, जिसने साक़िब की शायरी में नयापन और गहराई पैदा की।
मुश्किलात और जद्दोजहद का दौर
साक़िब लखनवी के वालिद की वफ़ात के बाद उनके घराने को काफ़ी माली परेशानियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने ख़र्च चलाने के लिए मुख़्तलिफ़ पेशों को अपनाया। तिजारत की कोशिश की, मगर उसमें कामयाबी हासिल नहीं हुई।
1908 में, वह कोलकाता चले गए और ईरानी सफ़ारतख़ाने में काउंसलर के ख़ास सेक्रेटरी की हैसियत से काम किया। ये नौकरी उनकी माली मुश्किलात को कम करने का ज़रिया बनी, मगर कोलकाता का माहौल उन्हें पसंद नहीं आया। आख़िरकार, वह लखनऊ लौट आए और मुहम्मद अमीर हसन ख़ान के दरबार से मुनसिलिक हो गए। बाक़ी ज़िंदगी उन्होंने सीतापुर में गुज़ारी, जहाँ उनका इंतिक़ाल हुआ।
साक़िब की शायरी और अदबी ख़िदमात
साक़िब लखनवी की शायरी में लखनवी तहज़ीब और क्लासिकी रंग की अक्सियत नज़र आती है। उनकी ग़ज़लें और अशआर इंसानी जज़्बात, उम्मीद-ओ-निराशा, सब्र, और ख़ुद-आगाही के अलामात हैं। उनके मशहूर अशआर में से एक है:
बड़े शौक़ से सुन रहा था ज़माना,
हम ही सो गए दास्तान कहते कहते।
इस शेर को फ़िल्मों 'मेला' (1948) और 'कोहिनूर' (1960) में शामिल किया गया, जो उनकी जज़्बाती गहराई को उजागर करता है।
उनकी शायरी में बाग़ और चमन का इस्तेमाल ज़िंदगी के नशेब-ओ-फ़राज़ और चैलेंजों को ज़ाहिर करने के लिए किया गया। उनका एक और मशहूर शेर है:
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे,
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे।
साक़िब की शायरी न सिर्फ़ मौजूं दौर के दर्द-ओ-ग़म का अक्स है, बल्कि आने वाली नस्लों के लिए भी एक पैग़ाम है।
मशहूर तख़्लीकात
साक़िब लखनवी की अहम अदबी तख़्लीकात में शामिल हैं:
- इंतेख़ाब-ए-ग़ज़लियात-ए-साक़िब
- क़साएद-ए-साक़िब लखनवी
इन किताबों में उनके जज़्बात, सोच और उर्दू ज़बान की ख़ूबसूरती झलकती है। उनके अशआर आज भी उर्दू अदब में मिसाल के तौर पर पेश किए जाते हैं।
वफ़ात और अदबी विरासत
साक़िब लखनवी का इंतिक़ाल 24 नवंबर 1946 को हुआ। उन्होंने एक ऐसे दौर में शायरी की, जो हिंदुस्तान की सियासी और समाजी तब्दीलियों से भरा हुआ था। उनकी रचनाओं में उस दौर के हालात की झलक मिलती है।
साक़िब लखनवी की शायरी ने उर्दू अदब को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। उनके अशआर आज भी इल्मी दुनिया और अदब के शौक़ीनों के लिए रोशनी का मीनार हैं। साक़िब लखनवी का नाम उर्दू अदब की तारीख़ में हमेशा जिंदा रहेगा।
साकिब लखनवी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1- ग़ज़ल
कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
जवानी जो रहती तो फिर हम न रहते
लहू था तमन्ना का आँसू नहीं थे
बहाए न जाते तो हरगिज़ न बहते
वफ़ा भी न होता तो अच्छा था वादा
घड़ी दो घड़ी तो कभी शाद रहते
हुजूम-ए-तमन्ना से घुटते थे दिल में
जो मैं रोकता भी तो नाले न रहते
मैं जागूँगा कब तक वो सोएँ गे ता-कै
कभी चीख़ उठ्ठूँगा ग़म सहते सहते
बताते हैं आँसू कि अब दिल नहीं है
जो पानी न होता तो दरिया न बहते
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते
कोई नक़्श और कोई दीवार समझा
ज़माना हुआ मुझ को चुप रहते रहते
मिरी नाव इस ग़म के दरिया में 'साक़िब'
किनारे पे आ ही लगी बहते बहते
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2- ग़ज़ल
हटे ये आइना महफ़िल से और तू आए
कोई तो हो जो कभी दिल के रू-ब-रू आए
मिरे लहू से अगर हो के सुर्ख़-रू आए
मलो तो बर्ग-ए-हिना में वफ़ा की बू आए
वो आँसुओं की सफ़ाई से बद-गुमाँ हैं अबस
दिल-ओ-जिगर में रहा क्या है जो लहू आए
शब-ए-विसाल भी ता-सुब्ह मुतमइन न रहा
अभी थी रात कि पैग़ाम-ए-आरज़ू आए
बयान-ए-बर्क़-ए-तजल्ली छुड़ा है अब सर-ए-तूर
अजब नहीं मिरे दिल की भी गुफ़्तुगू आए
विसाल-ओ-हिज्र में छुपता है दिल का हाल कहीं
बुझे तो प्यास सिवा हो जले तो बू आए
जो मय के देने में पीर-ए-मुग़ाँ को था इंकार
दिलों को तोड़ने क्यूँ शीशा-ओ-सुबू आए
अजब है उतरे दम-ए-ज़ब्ह उन की आँख में ख़ून
कटीं कहाँ की रगें और कहाँ लहू आए
किया सवाल तो उस दर से ये सदा आई
उसे जवाब है जो ले के आरज़ू आए
जहान में हैं सुबुक-बार कब शगुफ़्ता-मिज़ाज
चमन के फूल लिए बार-ए-रंग-ओ-बू आए
मिरी ज़बान को काँटा समझता है सय्याद
निकाल ले कि न ये हो न गुफ़्तुगू आए
झटक रही है मिरा ख़ून अपने दामन से
तुम्हारी तेग़ है फिर क्या वफ़ा की बू आए
मदद दे इतनी तड़पने में इंक़िलाब-ए-जहाँ
जो मेरे दिल में निहाँ है वो रू-ब-रू आए
बढ़ा बढ़ा के मिरा दिल लगाइए तलवार
जगह जफ़ा की सिवा हो अगर नुमू आए
3- ग़ज़ल
जवाब ले के फिरी शुक्र नज़'अ की हिचकी
वो अब पुकारते हैं हम जिन्हें पुकार आए
सुलझ सकीं न मिरी मुश्किलें मगर देखा
उलझ गए थे जो गेसू उन्हें सँवार आए
फ़लक को देख के हँसते ये गुल तो अच्छा था
जो अब्र आए वो गुलशन पे अश्क-बार आए
बहुत से याद हैं महफ़िल में बैठने वाले
कभी तो भूल के कोई सर-ए-मज़ार आए
अभी है ग़ुंचा-ए-दिल की शगुफ़्तगी मुमकिन
हज़ार बार अगर मौसम-ए-बहार आए
ये बे-मुरवव्तियाँ देखिए कि लब न हिले
जो पास थे हम उन्हें दूर तक पुकार आए
जवाब मिल तो गया गो वो दिल-शिकन ही सही
यही सदा मिरे मालिक फिर एक बार आए
अँधेरी रात थी अच्छा किया जो ऐ 'साक़िब'
चराग़ ले के सू-ए-ज़ुल्मत-ए-मज़ार आए
4- ग़ज़ल
न आसमान है साकित न दिल ठहरता है
ज़माना नाम गुज़रने का है गुज़रता है
वो मेरी जान का दुश्मन सही मगर सय्याद
मिरी कही हुई बातों पे कान धरता है
हमीं हैं वो जो उमीद-ए-फ़ना पे जीते हैं
ज़माना ज़िंदगी-ए-बे-बक़ा पे मरता है
अभी अभी दर-ए-ज़िंदाँ पे कौन कहता था
उधर से हट के चलो कोई नाले करता है
वही सुकूत से इक उम्र काटने वाला
जो सुनने वाला हो कोई तो कह गुज़रता है
हरीफ़ बज़्म में छेड़ा करें मगर 'साक़िब'
वो दिल जो बैठ गया हो कहीं उभरता है
5- ग़ज़ल
दूर है मुल्क-ए-'अदम और तुझ में दम बाक़ी नहीं
हो सके तो बस यूँही करवट बदल कर राह चल
तालिब-ए-मंज़िल है फिर उज़्लत-नशीनी किस लिए
रह-रवों को देख ले घर से निकल कर राह चल
कू-ए-जानाँ में ज़माना हो गया रोते हुए
ता-कुजा दिल का तअस्सुफ़ हाथ मल कर राह चल
यूँ रसाई ता-सहर मुमकिन नहीं ऐ दिल मगर
शम' की सूरत शब-ए-ग़म में पिघल कर राह चल
कुछ मशहूर शेर
तब्सरा
साक़िब लखनवी की ज़िंदगी और शायरी उर्दू अदब का एक ऐसा नूरानी हिस्सा है, जो हर दौर में अपनी चमक बिखेरता रहेगा। उनकी शायरी में इंसानी जज़्बात, तहज़ीब और गहराई का ऐसा संगम मिलता है, जो दिल को छू लेता है। उनकी ग़ज़लें न सिर्फ़ मोहब्बत, ग़म और उम्मीदों का बयान करती हैं, बल्कि ज़िंदगी के हर मोड़ पर इंसान को राह दिखाती हैं।
उनके अशआरों में फ़लसफ़ियाना गहराई और क्लासिकी ख़ूबसूरती दोनों का मेल है। लखनवी तहज़ीब का असर उनकी रचनाओं में हर जगह नज़र आता है, जो उनके माहौल और परवरिश का बेहतरीन अक्स पेश करता है। उनकी शायरी, ख़ास तौर पर ग़ज़लें, आज भी मुशायरों और अदबी महफ़िलों की रूह मानी जाती हैं।
साक़िब का पैग़ाम सिर्फ़ मोहब्बत और इंसानियत तक ही महदूद नहीं था, बल्कि उनकी रचनाओं में उस दौर की सियासी और समाजी तब्दीलियों की गूंज भी सुनाई देती है। उनके अशआर आने वाली नस्लों को न सिर्फ़ अदब की अहमियत बताएंगे, बल्कि उन्हें ज़िंदगी की मुश्किल राहों पर भी हौसला देंगे।