मुमताज़ नसीम: उर्दू अदब की एक बेहतरीन शायरा


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

मुमताज़ नसीम, उर्दू अदब की एक प्रतिष्ठित और मशहूर शख्सियत, का जन्म 17 सितंबर 1982 को उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक नगर अलीगढ़ में हुआ। उनके घर का माहौल अदब, तहज़ीब और इल्म से रौशन था, जिसने उनके बचपन से ही उनके एहसासात और सोच को एक गहरी बुनियाद दी। मुमताज़ नसीम ने तालीम के मैदान में भी उल्लेखनीय कामयाबी हासिल की, जो उनकी शायरी की मज़बूत बुनियाद बनी और उनकी सोच को निखारने में अहम भूमिका अदा की।


शायरी की दुनिया में कदम

मुमताज़ नसीम ने शायरी की दुनिया में अपनी पहचान उस वक्त बनानी शुरू की जब उनकी कलम से ऐसे अशआर निकले, जो दिल को छू जाते थे। उनकी ग़ज़लें और नज़्में इश्क़, दर्द और इंसानी जज़्बात की नुमाइंदगी करती हैं। उनकी शायरी में एक अजीब-सी सादगी और गहराई है, जो सुनने वाले को अपनी गिरफ़्त में ले लेती है।

मंचीय सफर की बुलंदियाँ

मंचीय अदाकारी में मुमताज़ नसीम का जवाब नहीं। उन्होंने एक हज़ार से ज़्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुशायरों में शिरकत की है। उनकी अनोखी आवाज़ और बेहतरीन अंदाज़-ए-बयान ने उन्हें मुशायरों की जान बना दिया है। उनकी गूंज भारत के अलावा अमेरिका, कनाडा, दुबई, और कई अन्य देशों तक पहुंच चुकी है। उनकी मौजूदगी ने उर्दू अदब को वैश्विक मंच पर नई पहचान दी है।

अदबी खूबियाँ और अनूठा अंदाज़

मुमताज़ नसीम की शायरी महज़ अल्फ़ाज़ नहीं हैं, बल्कि यह उनकी सोच और उनकी गहरी महसूसात का आइना है। उनकी ग़ज़लों में एक तरफ़ इश्क़ की रूमानियत है, तो दूसरी तरफ़ ज़िंदगी की हकीक़तों का एहसास। उनके कलाम में ग़ालिब और मीर की गहराई के साथ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसा समाजी शऊर देखने को मिलता है। उनका हर शेर अपने आप में मुकम्मल और असरदार है।

समाजी और साहित्यिक योगदान

मुमताज़ नसीम न केवल एक शायरा हैं, बल्कि समाज की आवाज़ भी हैं। उनकी शायरी मज़लूमों और दबे-कुचलों की आवाज़ बनकर उभरती है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में इंसाफ़, बराबरी और मोहब्बत का पैग़ाम देती हैं। वे समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की प्रेरणा देती हैं और अपनी रचनाओं से इंसानियत के जज़्बे को मज़बूत करती हैं।

व्यक्तिगत जीवन की झलक

मुमताज़ नसीम का व्यक्तिगत जीवन भी उनकी शख्सियत की तरह दिलचस्प और प्रेरणादायक है। उन्होंने धीरज कौशिक से शादी की, जो उनके लिए हमेशा एक मज़बूत सहारा बने। उनका पारिवारिक जीवन सादगी और मोहब्बत का आइना है, जो उनकी शायरी में भी झलकता है।

साहित्यिक उपलब्धियाँ और सराहना

मुमताज़ नसीम को उर्दू अदब में उनकी बेहतरीन सेवाओं के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। उनकी रचनाओं को देश और विदेश के साहित्यिक मंचों पर खूब सराहा गया है। उनके अशआर और नज़्में आज भी अदबी महफ़िलों की शान हैं। उनकी कलम से निकले अल्फ़ाज़ लोगों के दिलों में घर कर जाते हैं।

मुमताज़ नसीम का असर और विरासत

मुमताज़ नसीम का असर सिर्फ अदबी हलकों तक सीमित नहीं है। उनकी शायरी आने वाली नस्लों के लिए एक रौशन मिसाल है। उनके कलाम ने उर्दू अदब को नई बुलंदियों तक पहुंचाया है और उनके प्रशंसक हमेशा उनकी नई रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। उनकी शायरी इंसानियत, मोहब्बत और जज़्बात की एक अमूल्य धरोहर है।

मुमताज़ नसीम का नाम उर्दू अदब की दुनिया में हमेशा चमकता रहेगा, और उनकी शायरी नए दौर के शायरों के लिए एक प्रेरणा बनी रहेगी।

मुमताज़ नसीम की शायरी,ग़ज़लें 


1 - ग़ज़ल 

मिरी ज़िंदगी की किताब का है वरक़ वरक़ यूँ सजा हुआ

सर-ए-इब्तिदा सर-ए-इंतिहा तिरा नाम दिल पे लिखा हुआ


ये चमक-दमक तो फ़रेब है मुझे देख गहरी निगाह से

है लिबास मेरा सजा हुआ मिरा दिल मगर है बुझा हुआ


मिरी आँख तेरी तलाश में यूँ भटकती रहती है रात-दिन

जैसे जंगलों में हिरन कोई हो शिकारियों में घिरा हुआ


तिरी दूरियाँ तिरी क़ुर्बतें तिरा लम्स तेरी रिफाक़तें

मुझे अब भी वज्ह-ए-सुकूँ तो है तू है दूर मुझ से तो क्या हुआ


ये गिले की बात तो है मगर मुझे उस से कोई गिला नहीं

जो उजड़ गया मिरा घर तो क्या है तुम्हारा घर तो बचा हवा


तिरे आँसुओं से लिखा हुआ मिरे आँसुओं से मिटा हुआ

मैं 'नसीम' ख़त को पढ़ूँ भी क्या कि हिसार-ए-आब ही आब है


तिरे आँसुओं से लिखा हुआ मिरे आँसुओं से मिटा हुआ

2 - ग़ज़ल 

तुझे कैसे इल्म न हो सका बड़ी दूर तक ये ख़बर गई

तिरे शहर ही की ये शाएरा तिरे इंतिज़ार में मर गई


कोई बातें थीं कोई था सबब जो मैं वा'दा कर के मुकर गई

तिरे प्यार पर तो यक़ीन था मैं ख़ुद अपने आप से डर गई


वो तिरे मिज़ाज की बात थी ये मिरे मिज़ाज की बात है

तू मिरी नज़र से न गिर सका मैं तिरी नज़र से उतर गई


है ख़ुदा गवाह तिरे बिना मिरी ज़िंदगी तो न कट सकी

मुझे ये बता कि मिरे बिना तिरी उम्र कैसे गुज़र गई


वो सफ़र को अपने तमाम कर, गई रात आएँगे लौट कर

ये 'नसीम' मैं ने सुनी ख़बर तो मैं शाम ही से सँवर गई

3 - ग़ज़ल 

जिसे मैं ने सुब्ह समझ लिया कहीं ये भी शाम-ए-अलम न हो

मिरे सर की आप ने खाई जो कहीं ये भी झूटी क़सम न हो


वो जो मुस्कुराए हैं बे-सबब ये करम भी उन का सितम न हो

मैं ने प्यार जिस को समझ लिया कहीं ये भी मेरा भरम न हो


तू जो हस्ब-ए-वादा न आ सका तो बहाना ऐसा नया बना

कि तिरा वक़ार भी कम न हो मिरा ए'तिबार भी कम न हो


जिसे देख कर मैं ठिठक गई उसे और ग़ौर से देख लूँ

ये चमक रहा है जो आइना कहीं तेरा नक़्श-ए-क़दम न हो


मिरे मुँह से निकला ये बरमला तुझे शाद कामराँ रखे ख़ुदा

तू पयाम लाया है यार का तिरी उम्र ख़िज़्र से कम न हो

4 - ग़ज़ल 

चलते चलते ये हालत हुई राह में बिन पिए मय-कशी का मज़ा आ गया

पास कोई नहीं था मगर यूँ लगा कोई दिल से मिरे आ के टकरा गया


आज पहले-पहल तजरबा ये हुआ ईद होती है ऐसी ख़बर ही न थी

चाँद को देखने घर से जब मैं चली दूसरा चाँद मेरे क़रीब आ गया


ऐ हवा-ए-चमन मुझ पे एहसाँ न कर निकहत-ए-गुल की मुझ को ज़रूरत नहीं

इश्क़ की राह में प्यार के इत्र से मेरे सारे बदन को वो महका गया


हिज्र का मेरे दिल में अंधेरा किए वो जो परदेस में था बसेरा किए

जिस के आने का कोई गुमाँ भी न था दफ़अ'तन मुझ को आ के वो चौंका गया


रंग 'मुमताज़' चेहरे का ऐसा खिला ज़िंदगी में नया हादिसा हो गया

आइना और मैं दोनों हैरान थे मैं भी शर्मा गई वो भी शर्मा गया

तब्सरा 

मुमताज़ नसीम उर्दू अदब की वो शख्सियत हैं जिनकी शायरी सिर्फ लफ़्ज़ों का खेल नहीं, बल्कि एहसास की एक गहरी दुनिया है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों ने न सिर्फ अदबी दुनिया को सजाया, बल्कि हर दिल में मोहब्बत, इंसाफ़ और इंसानियत के दीये जलाए। उनकी शायरी में वो जादू है जो सुनने वाले को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और हर एक शेर के साथ दिल को गहराई तक छू जाता है। मुमताज़ नसीम का नाम उन अदब-परस्तों की फ़ेहरिस्त में आता है जिन्होंने अपने फन से उर्दू की रिवायतों को ज़िंदा रखा और नई नस्लों को प्रेरित किया। उनकी शायरी आने वाले वक्त के लिए न केवल एक यादगार धरोहर है, बल्कि उर्दू अदब के आसमान पर एक हमेशा चमकता सितारा भी।

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