पैदाइश और इब्तिदाई ज़िंदगी
शकील आज़मी की पैदाइश सन 1971 में सूबा-ए-उत्तर प्रदेश के ज़िला आज़मगढ़ में हुई। उर्दू अदब की सरज़मीन से गहरा ताल्लुक रखने वाले शकील बचपन ही से इल्मो-अदब के दीवाने रहे। उनके घर का माहौल अदबी नज़ाकत और फ़िक्र से सरशार था, जिसने उनके दिल में शायरी की लौ रोशन की। इब्तिदाई दिनों में ही उन्होंने उर्दू अदब की गहराइयों में उतरकर तख़्लीक़ और एहसास के नए रंग भरने शुरू कर दिए।
शायरी का सफ़र
शकील आज़मी के अदबी सफ़र का सबसे अहम हिस्सा
ग़ज़ल है। उनकी ग़ज़लें उनकी शख़्सियत, ज़ेहन और फ़िक्र का आइना हैं। उनकी तहरीरों में ज़िंदगी के दर्द, मोहब्बत की नर्मी, जज़्बात की गहराई और इंसानी रिश्तों की हक़ीक़त बड़ी ख़ूबसूरती से झलकती है। शकील की ग़ज़लों का अंदाज़-ए-बयान सादा मगर बेपनाह असरदार है — जो सीधे दिल में उतर जाता है और एहसास की दुनिया में एक लंबी तरंग छोड़ जाता है।
फ़िल्मी सफ़र — शायरी से सिल्वर स्क्रीन तक का सफ़र
शकील आज़मी ने अपनी तख़्लीक़ी शायरी के साथ-साथ बॉलीवुड की दुनिया में भी क़दम रखा और नग़मे लिखने का आग़ाज़ किया। उनकी नज़्मों और गानों ने फ़िल्मी दुनिया को एक नया लहजा और रूह बख़्शी। उनकी लिखी हुई ग़ज़लें और नग़मे साज़ो-संगीत में वो जज़्बाती गहराई भर देते हैं जो दिल को छू जाती है। शकील का फ़िल्मी सफ़र सन 2004 में शुरू हुआ, और उस वक़्त से अब तक वो सैंकड़ों ख़ूबसूरत नग़में लिखकर उर्दू शायरी को सिल्वर स्क्रीन पर अमर कर चुके हैं।
उनके लिखे हुए कुछ मशहूर गानों में "थप्पड़", "आर्टिकल 15", "मुल्क", "वो लम्हे", "1920: ईविल रिटर्न्स", "शादी में ज़रूर आना" जैसे गाने शामिल हैं। उनकी शायरी ने न सिर्फ़ बॉलीवुड के गानों को नया आयाम दिया, बल्कि उनकी पहचान एक अलग मुकाम पर क़ायम की।
अदबी तख़्लीक़ात — शकील आज़मी के मज़मूआ-ए-कलाम
शकील आज़मी ने उर्दू शायरी की दुनिया को कई ख़ूबसूरत मज़मूआत से नवाज़ा है, जिनमें उनकी नज़्में और ग़ज़लें दोनों शुमार हैं। उनकी कुछ अहम् और मक़बूल किताबें ये हैं:
"परों को खोल" (2017)
"पोखर में सिंघाड़े" (2014)
"मिट्टी में आसमान" (2012)
"ख़िज़ां का मौसम रुका हुआ है" (2010)
"रास्ता बुलाता है" (2005)
"ऐश-ट्रे" (2000)
"धूप दरिया" (1996)
इन मज़मूआत में शकील ने मोहब्बत के नर्म एहसासात, ग़म की तल्ख़ हक़ीक़तें, इंसानियत की ख़ूबसूरती और ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ रंगों को बड़े सलीक़े और दिलनवाज़ी से बयान किया है। उनकी तहरीरों में जो गहराई, सादगी और मासूमियत पाई जाती है — वह उर्दू अदब में बहुत कम नज़र आती है।
अंदाज़-ए-बयां और मक़बूलियत
शकील आज़मी का अंदाज़-ए-बयान सादा, मगर बेहद असरअंदाज़ है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तें, मोहब्बत की नर्मी और इंसानी जज़्बात की गहराइयाँ एक अजीब-सी हमआहंगी के साथ झलकती हैं। यही वो ख़ूबी है जो उनकी शायरी को ना सिर्फ़ उर्दू अदब के चाहने वालों के दिलों में मुक़ाम देती है, बल्कि नई नस्ल के लिए भी ज़रिया-ए-इल्हाम और प्रेरणा बनाती है।
फ़िल्मोग्राफ़ी - नग़्मों में ढली तख़्लीक़ की झंकार
शकील आज़मी ने बॉलीवुड की कई फ़िल्मों के लिए ऐसे यादगार नग़मे लिखे हैं, जो आज भी दिलों में गूंजते हैं। उनके फ़िल्मी सफ़र की झलक कुछ यूँ है:
2023: भीड़ (अनुराग सईकिया — एक गाना)
2022: अनेक, कौन प्रवीन तांबे?, अतिथि भूतो भव, मिडल क्लास लव
2021: मेरा फौजी कॉलिंग
2020: अतीत, थप्पड़, हैक्ड
2019: आर्टिकल 15 (चार नग़मे)
2018: मुल्क, 1921, निर्दोष
2017: शादी में ज़रूर आना (पाँच नग़मे)
और इसके अलावा भी दरजनों फ़िल्में हैं जिनमें शकील आज़मी के अल्फ़ाज़ ने साज़ और आवाज़ को वो रूह बख़्शी जो दिलों में बस जाती है।
अदबी योगदान
शकील आज़मी ने अपनी शायरी और गानों के ज़रिए उर्दू अदब को एक नई दिशा दी। उनकी रचनाएँ नई पीढ़ी को न केवल
उर्दू शायरी की अहमियत से वाकिफ़ कराती हैं, बल्कि उनकी सोच और जज़्बातों को भी एक नया आयाम देती हैं।
शकील आज़मी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में,फ़िल्मी गीत
1-ग़ज़ल
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफ़ाज़त कर
सँभल के चल तुझे सारा जहान देखता है
कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
जो इश्क़ करता है कब ख़ानदान देखता है
घटाएँ उठती हैं बरसात होने लगती है
जब आँख भर के फ़लक को किसान देखता है
यही वो शहर जो मेरे लबों से बोलता था
यही वो शहर जो मेरी ज़बान देखता है
मैं जब मकान के बाहर क़दम निकालता हूँ
अजब निगाह से मुझ को मकान देखता है
2-ग़ज़ल
मैं जानता हूँ ख़ुशामद-पसंद कितना है
ये आसमान ज़मीं से बुलंद कितना है
तमाम रस्म उठा ली गई मोहब्बत में
दिलों के बीच मगर क़ैद-ओ-बंद कितना है
जो देखता है वही बोलता है लोगों से
ये आइना भी हक़ीक़त-पसंद कितना है
तमाम रात मिरे साथ जागता है कोई
वो अजनबी है मगर दर्द-मंद कितना है
मैं उस के बारे में अक्सर ये सोचता हूँ 'शकील'
खुला हुआ है वो इतना तो बंद कितना है
3-ग़ज़ल
शाम होने को है घर जाते हैं
अब बुलंदी से उतर जाते हैं
ज़िंदगी सामने मत आया कर
हम तुझे देख के डर जाते हैं
ख़्वाब क्या देखें थके-हारे लोग
ऐसे सोते हैं कि मर जाते हैं
फूल भी रहता नहीं टहनी पर
शाम तक हम भी बिखर जाते हैं
एक दिन लड़ते हुए दुनिया से
लोग दुनिया से गुज़र जाते हैं
अब न वो है न गली है उस की
क्या बताएँ कि किधर जाते हैं
बंद है या खुली है वो खिड़की
अब बिना देखे गुज़र जाते हैं
रात मरहम लिए आती है 'शकील'
और हम ज़ख़्म से भर जाते हैं
4-ग़ज़ल
तुझ को सोचों तो तिरे जिस्म की ख़ुशबू आए
मेरी ग़ज़लों में अलामत की तरह तू आए
मैं तुझे छेड़ के ख़ामोश रहूँ सब बोलें
बातों बातों में कोई ऐसा भी पहलू आए
क़र्ज़ है मुझ पे बहुत रात की तन्हाई का
मेरे कमरे में कोई चाँद न जुगनू आए
लग के सोई है कोई रात मिरे सीने से
सुबह हो जाए कि जज़्बात पे क़ाबू आए
चाहता हूँ कि मिरी प्यास का मातम यूँ हो
फिर न इस दश्त में मुझ सा कोई आहू आए
उस का पैकर कई क़िस्तों में छपे नॉवेल सा
कभी चेहरा कभी आँखें कभी गेसू आए
फिर मुझे वज़्न किया जाए शहादत के लिए
फिर अदालत में कोई ले के तराज़ू आए
अब के मौसम में ये दीवार भी गिर जाए 'शकील'
इस तरह जिस्म की बुनियाद में आँसू आए
5-ग़ज़ल
कहीं मंदिरों में दिया नहीं कहीं मस्जिदों में दु'आ नहीं
मिरे शहर में हैं ख़ुदा बहुत मगर आदमी का पता नहीं
यहाँ घाव है यहाँ वार है ये सियासतों का दयार है
यहाँ कोई तेरा जना नहीं यहाँ कोई मेरा सगा नहीं
ये जो दिल में दर्द का राग है ये दबी हुई कोई आग है
मैं वो ज़ख़्म हूँ जो भरा नहीं मैं वो दाग़ हूँ जो मिटा नहीं
कहीं यूँ न हो तिरे हाथ में मैं हवा से मिल के भड़क उठूँ
अभी खेल मत मिरी राख से मैं सुलग रहा हूँ बुझा नहीं
मिरी ताज़गी से डरे हुए हैं कई पुराने गुलाब भी
मिरे हक़ में लोगो दु'आ करो अभी ठीक से मैं खिला नहीं
न मैं भीड़ हूँ न मैं शोर हूँ मैं इसी लिए कोई और हूँ
कई रंग आए गए मगर कोई रंग मुझ पे चढ़ा नहीं
वो जो हाल चढ़ के उतर गया जो ख़याल थम के गुज़र गया
कभी तू ने मुझ से सुना नहीं कभी मैं ने तुझ से कहा नहीं
न तो मेरा कोई रक़ीब था न तो मेरा कोई हबीब था
तुझे खोना मेरा नसीब था मुझे तुझ से कोई गिला नहीं
मुझे शे'र कहना था कह दिया मुझे शे'र पढ़ना था पढ़ दिया
मुझे तालियों की हवस नहीं मुझे शोहरतों का नशा नहीं
ये जो बोतलों में शराब है ये ख़राब थी ये ख़राब है
इसे छोड़ दे इसे तोड़ दे ये किसी मरज़ की दवा नहीं
1-नज़्म
माँ के इन्तेक़ाल पर
अल्लाह-जी
हम सो नहीं पाते
अम्मी को कब भेजोगे
नानी कहती हैं
तुम हम से रूठे हो
लेकिन अब हम
रोज़ाना मकतब जाएँगे
तुम को तख़्ती पर लिक्खेंगे
असलम मिस्टर गंदे हैं
उन के साथ नहीं खेलेंगे
अल्लाह-जी
अब मान भी जाओ
चाहो तो
अम्मी के बदले
हम से सारी चीज़ें ले लो
गेंद भी ले लो
और गोली भी
लट्टू और ग़ुलैल भी ले लो
लेकिन हम को अम्मी दे दो
हम को हमारी अम्मी दे दो
तब्सरा :-
शकील आज़मी की शायरी उर्दू अदब की एक रोशन मिसाल है, जो न सिर्फ तखलीक़ी सलीके की गवाह है बल्कि जज़्बात और एहसासात का आईना भी। उनके अशआर में जो ख़ामोशी और गहराई है, वो एक ऐसा समंदर है जिसमें डूबकर हर एक शख़्स अपने दर्द, अपने ख्वाब, और अपनी मोहब्बत को तलाश सकता है।
उनकी ग़ज़लें महज़ अल्फ़ाज़ का जुड़ाव नहीं, बल्कि वो दिल की धड़कनों को सुकून देती तस्लीम हैं। उनका हर शेर जैसे एक नया जहान खोलता है, जहां मोहब्बत, विरह, इंसानी रिश्तों की पेचीदगियां और ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयां बहुत नफ़ासत से पेश की जाती हैं।
शकील आज़मी की तख्लीक़ात में वो ख़ास बात है जो मुनफ़रिद और आम शायरों के बीच की दीवार को गिरा देती है। उनकी शायरी सिर्फ सुनने वाले को नहीं, बल्कि पढ़ने वाले को भी सोचने पर मजबूर करती है। जैसे:
"हर ज़ख़्म मेरा फ़साना है,
हर आँसू कोई अफ़साना है।"
ये अशआर उनकी उस गहरी समझ का सबूत हैं जो ज़िंदगी के हर रंग को न सिर्फ देखती है बल्कि महसूस भी करती है।
शकील आज़मी की ख़ूबी यह है कि वो पुराने उर्दू अदब की रवायतों को निभाते हुए भी उसे नए दौर की आवाज़ बनाते हैं। उनकी ग़ज़लें, नज़्में और नग़मे इस बात के गवाह हैं कि एक शायर कैसे अपने फ़न से तख्लीक़ के सबसे ऊंचे मक़ाम तक पहुंच सकता है। उनका फ़न उर्दू शायरी का हमेशा चमकता हुआ सितारा रहेगा।
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