हैदर क़ुरैशी: उर्दू अदब का नूर और जदीदियत का अलमबरदार

हैदर क़ुरैशी (حیدر قریشی) उर्दू अदब का एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपने लफ़्ज़ों और तहरीर के ज़रिए इस ज़बान को नई बुलंदियां बख्शीं। उनकी शख़्सियत और तखलीकात ने न सिर्फ़ उर्दू अदब की रवायतों को कायम रखा, बल्कि जदीदियत (आधुनिकता) के दरवाज़े भी खोले। 1 सितंबर 1953 को पाकिस्तान के पंजाब सूबे के रब्वा नामक कस्बे में पैदा हुए हैदर क़ुरैशी, एक अदबी और तहज़ीबी माहौल में पले-बढ़े। उनकी सराइकी विरासत और उर्दू अदब के लिए उनकी मोहब्बत ने उन्हें एक ऐसे अदीब के तौर पर उभारा, जिसकी तहरीरों ने सीमाओं को पार कर आलमी सतह पर शोहरत हासिल की।



शुरुआती ज़िंदगी और तालीम

हैदर क़ुरैशी का ताल्लुक़ एक सराइकी बोलने वाले घराने से था। उनके वालिद, क़ुरैशी ग़ुलाम सरवर, ख़ानपुर (रहीम यार ख़ान) से थे, और उन्होंने अपने बेटे को तालीम और अदब के लिए माहौल मुहैया कराया। बचपन में ही हैदर ने मुश्किल हालात का सामना किया। 18 साल की उम्र में उन्होंने एक शुगर मिल में नौकरी शुरू की। लेकिन, अदब और इल्म की मोहब्बत ने उन्हें तालीम के सिलसिले को जारी रखने पर मजबूर किया।

1968 में उन्होंने मेट्रिक मुकम्मल किया और साथ ही एक इश्क़िया कहानी लिखी। ये कहानी उनकी अदबी ज़िंदगी का पहला क़दम साबित हुई। उन्होंने 1974 में उर्दू अदब में एम.ए. की डिग्री हासिल की। तालीम के इस सफर ने उनकी तहरीरों को और भी गहराई और बुलंदी अता की।


अदबी सफर का आग़ाज़

हैदर क़ुरैशी का अदबी सफर ख़ानपुर की अदबी महफ़िलों से शुरू हुआ। उनकी ग़ज़लें, नज़्में और कहानियां जल्दी ही मक़बूल होने लगीं। उनकी तहरीर में सराइकी तहज़ीब की मिठास और उर्दू अदब की नफ़ासत का बेहतरीन संगम नज़र आता है।

उनकी पहली ग़ज़ल और नज़्मों ने उन्हें एक उभरते हुए अदीब के तौर पर पहचान दिलाई। लेकिन, वो सिर्फ़ ग़ज़ल-गो नहीं थे। उन्होंने माहिया, इनशाइया, तनक़ीद, और सफरनामे जैसी अदबी अस्नाफ़ में भी अपना लोहा मनवाया।

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हैदर क़ुरैशी का अदबी क़ारनामा

शायरी

उनकी ग़ज़लें और नज़्में इंसानी अहसासात और जज़्बात की गहराई में उतरती हैं। उनकी शायरी में ज़िंदगी का दर्द, मोहब्बत की मिठास, और समाजी हक़ीक़तों का एहसास झलकता है।

  • सुलगते ख्वाब (سُلگتے خواب): उनकी शायरी का ये मजमूआ जज़्बात और एहसासात का आइना है।
  • उम्रे गुरेज़ां (عمرِ گریزاں): मोहब्बत और वक़्त की नफ़ासत को बयान करती हुई ग़ज़लें।
  • दुआ-ए-दिल (دعائے دل): एक दिल की गहराइयों से निकलने वाली दुआओं की तर्जुमानी।

गद्य

हैदर क़ुरैशी के गद्य में उनकी तहरीर की रवानी और उनकी सोच की गहराई नज़र आती है।

  • रौशनी की बशारत (روشنی کی بشارت): उर्दू माहिया और कहानियों का शानदार मजमूआ।
  • सुई-ए-हिजाज़ (سوئے حجاز): मक्का और मदीना के सफर का असरदार बयान।

इनशाइया और तनक़ीद

हैदर क़ुरैशी ने उर्दू इनशाइया और तनक़ीद में भी अपनी पहचान बनाई।

  • हमारा अदबी मंज़रनामा (ہمارا ادبی منظرنامہ): उर्दू अदब की ताज़ा रिवायतों और रुजहानों का जायज़ा।
  • उर्दू माहिया की तहकीक व तनक़ीद (اردو ماہیے کی تحقیق و تنقید): उर्दू माहिया के फन और उसके जदीद मिज़ाज पर तहकीक।

जदीद अदब की बुनियाद

1978 में उन्होंने "जदीद अदब" नामक अदबी रिसाला शुरू किया। ये रिसाला सिर्फ़ पाकिस्तान और हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मक़बूल हुआ। उन्होंने जर्मनी से "जदीद अदब" को नई शक्ल दी और उर्दू अदब को आलमी सतह पर पेश किया।

"जदीद अदब" ने नई नस्ल के अदीबों को मंच दिया और अदब के जदीद रुजहानात को बढ़ावा दिया।


जर्मनी में ज़िंदगी और आलमी मक़बूलियत

1994 में हैदर क़ुरैशी जर्मनी मुंतक़िल हुए। वहाँ उन्होंने उर्दू अदब को नई बुलंदियों पर पहुँचाया। जर्मनी में उनकी तहरीरों ने न सिर्फ़ उर्दू बोलने वाले लोगों को मुतास्सिर किया, बल्कि दूसरी ज़बानों के लोगों को भी उर्दू अदब से वाकिफ़ कराया।


तहरीर की ख़ुसूसियात

हैदर क़ुरैशी की तहरीरों की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी सादगी और गहराई है। उनकी ग़ज़लों में मोहब्बत, दर्द, और समाजी नाइंसाफियों का बयान होता है। उनकी कहानियाँ इंसानी जज़्बात का ऐसा आईना पेश करती हैं, जिसमें हर पढ़ने वाला अपना अक्स देख सकता है।


एज़ाज़ात और शिनाख़्त

हैदर क़ुरैशी के अदबी योगदान को कई इदारों ने सराहा है। उनकी तहरीरों पर कई यूनिवर्सिटीज़ में तहकीक हुई है। उनकी किताबों का तर्जुमा कई ज़बानों में हुआ, जिसने उन्हें आलमी मक़बूलियत दिलाई।


हैदर कुरैशी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 

1-ग़ज़ल 


अब के उस ने कमाल कर डाला

इक ख़ुशी से निढाल कर डाला


चाँद बन कर चमकने वाले ने

मुझ को सूरज-मिसाल कर डाला


पहले ग़म से निहाल करता था

अब ख़ुशी से निहाल कर डाला


इक हक़ीक़त के रूप में आ कर

मुझ को ख़्वाब-ओ-ख़याल कर डाला


दुख-भरे दिल से दुख ही छीन लिए

और जीना वबाल कर डाला


एक ख़ुश-ख़त से शख़्स ने 'हैदर'

हम को भी ख़ुश-ख़याल कर डाला


2-ग़ज़ल 


ख़मोश आँखों से करता रहा सवाल मुझे
वो आ के कह न सका अपने दिल का हाल मुझे

कभी तो ख़ुद को भी पहचानने की कोशिश कर
हिसार-ए-ज़ात से आ कर कभी निकाल मुझे

ये बे-यक़ीनी का गहरा सुकूत तो टूटे
फ़रेब दे कोई ख़ुश-फ़हमियों में डाल मुझे

वो नाम लिक्खूँ तो लफ़्ज़ों से ख़ुशबूएँ उट्ठें
वो दे गया जो महकते हुए ख़याल मुझे

गए ज़माने लिए फिर वो आ गया 'हैदर'
बिखर न जाऊँ कहीं फिर ज़रा सँभाल मुझे


3-ग़ज़ल 


जो बस में है वो कर जाना ज़रूरी हो गया है
तिरी चाहत में मर जाना ज़रूरी हो गया है

हमें तो अब किसी अगली मोहब्बत के सफ़र पर
नहीं जाना था पर जाना ज़रूरी हो गया है

सितारा जब मिरा गर्दिश से बाहर आ रहा है
तो फिर दिल का ठहर जाना ज़रूरी हो गया है

दरख़्तों पर परिंदे लौट आना चाहते हैं
ख़िज़ाँ-रुत का गुज़र जाना ज़रूरी हो गया है

अंधेरा इस क़दर गहरा गया है दिल के अंदर
कोई सूरज उभर जाना ज़रूरी हो गया है

बहुत मुश्किल हुआ अंदर के रेज़ों को छुपाना
सो अब अपना बिखर जाना ज़रूरी हो गया है

तुझे मैं अपने हर दुख से बचाना चाहता हूँ
तिरे दिल से उतर जाना ज़रूरी हो गया है

नए ज़ख़्मों का हक़ बनता है अब इस दिल पे 'हैदर'
पुराने ज़ख़्म भर जाना ज़रूरी हो गया है


4-ग़ज़ल 


आप लोगों के कहे पर ही उखड़ जाते हैं
लोग तो झूट भी सौ तरह के घड़ जाते हैं

आँख किस तरह खुले मेरी कि मैं जानता हूँ
आँख खुलते ही सभी ख़्वाब उजड़ जाते हैं

ग़म तुम्हारा नहीं जानाँ हमें दुख अपना है
तुम बिछड़ते हो तो हम ख़ुद से बिछड़ जाते हैं

लोग कहते हैं कि तक़दीर अटल होती है
हम ने देखा है मुक़द्दर भी बिगड़ जाते हैं

वो जो 'हैदर' मिरे मुंकिर थे मिरे ज़िक्र पे अब
चौंक उठते हैं किसी सोच में पड़ जाते हैं

नतीजा

हैदर क़ुरैशी उर्दू अदब का एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपनी तहरीरों से न सिर्फ़ अदब को नई राहें दीं, बल्कि उसे आलमी सतह पर मक़बूल भी बनाया। उनकी शायरी, गद्य, और इनशाइया हर दौर में अदब की रौशनी को कायम रखेंगे।

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