सलमा शाहीन: आधुनिक पश्तो साहित्य की मशाल

सालमा शाहीन (जन्म: 16 अप्रैल 1954) एक ऐसी शख्सियत हैं जो पाकिस्तानी अदब और तहज़ीब में अपनी अमिट छाप छोड़ चुकी हैं। वह एक मक़बूल शायरा, अफ़साना निगार, मोहक़्किक़, और पहली पश्तो महिला नाविल निगार के तौर पर जानी जाती हैं। साथ ही, पेशावर यूनिवर्सिटी के पश्तो अकेडमी की पहली महिला निदेशक बनने का सहर भी उन्हीं के सर है। उनकी शख्सियत एक ऐसे चिराग़ की तरह है, जो हर अंधेरे को अपने इल्म और फन से रोशन करती है।


शुरुआती ज़िंदगी

सालमा शाहीन का जन्म 16 अप्रैल 1954 को मरदान, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के बग़दादा क़स्बे में हुआ। उन्होंने अपनी इब्तिदाई तालीम 1971 में सरकारी स्कूल से पूरी की। इसके बाद उन्होंने विमेन यूनिवर्सिटी मरदान (जिसे पहले गवर्नमेंट कॉलेज फ़ॉर विमेन के नाम से जाना जाता था) में दाख़िला लिया। 2002 में उन्होंने अपनी ग्रैजुएशन और पीएचडी की तालीम मुकम्मल की, जिसमें उन्होंने मॉडर्न पश्तो कविता पर तहक़ीक़ी काम किया।

उनकी अदबी दिलचस्पी बचपन से ही काबिले-गौर थी। आठवीं जमात से ही उन्होंने लिखने का आग़ाज़ किया। उनके वालिद ने उनकी अदबी सलाहियतों को भरपूर तरजीह दी और उन्हें पाक़्तो ख़वातीन की आवाज़ बनने का हौसला दिया।

अदबी सफर

सालमा शाहीन ने अपने अदबी सफर का आग़ाज़ उर्दू और पश्तो में शायरी लिखकर किया। वह न सिर्फ शायरी बल्कि तहक़ीक़, नाविल, और अफ़सानों में भी अपनी पहचान बना चुकी हैं। बतौर निदेशक, उन्होंने पश्तो अकेडमी को दोबारा नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया और "हजरा", "म्यूज़िक", "डांस" और "जिरगा" जैसे पश्तून तहज़ीब के पहलुओं पर 120 किताबें सामने लाईं।

उनकी शायरी में तहज़ीब, अदब, और इंसानी जज़्बात का बेमिसाल संगम देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी तहक़ीक़ी किताब "पश्तो तप्पा" और मशहूर अफ़सानों जैसे "कनरी और अग़ज़ी" (पत्थर और कांटे) के ज़रिए तहज़ीब और अदब के नए आयाम पेश किए। उनकी किताब "ज़ा हम हगसे वारा वे" और "नवे सहार" उनके शायरी संग्रह का अहम हिस्सा हैं।

मुख़्तलिफ़ अदबी शाहकार

किताब का नाममुख़्तसर बयान
अबासीन दा तारीख़ पा आइना केदरिया-ए-सिंध की तारीख़ (1980)
रुही संदरीपश्तो लोक गीतों पर तहक़ीक़ (1983)
नवे सहारशायरी संग्रह
कनरी और अग़ज़ीअफ़सानों का संग्रह (2001)
दिल और आंखें चीन मेंसफरनामा

तहक़ीक़ी और समाजी मौज़ूआत

सालमा शाहीन ने पश्तो और उर्दू में 42 से ज़्यादा तहक़ीक़ी मक़ाले और मज़ामीन लिखे। उनके तहक़ीक़ी मौज़ूआत में पश्तून ख़वातीन की ज़िंदगी, पश्तो अदब में औरतों की नुमाइंदगी, और समाजी और सक़ाफ़ती रवायतें शामिल हैं।

तहक़ीक़ी मज़मूनइदारती जर्नलसाल
पश्तून ख़वातीन और पश्तो अदबअदबियत2001
बदलती दुनिया में अदब का किरदारअदबियत2005
पश्तो तप्पा में समाजी नफ़सियातपश्तो1993

एज़ाज़ और इन्आमात

सालमा शाहीन को उनकी अदबी और समाजी खिदमात के लिए कई एज़ाज़ात से नवाज़ा गया। उन्हें अबासीन आर्ट काउंसिल अवॉर्ड, पाकिस्तान कल्चर एसोसिएशन अवॉर्ड, और पाकिस्तान अकेडमी ऑफ़ लेटर्स से सम्मानित किया गया। 2009 में उन्हें पाकिस्तान सरकार की जानिब से "तमग़ा-ए-इम्तियाज़" से सरफ़राज़ किया गया।

दायरा-ए-तहज़ीब और फिक्रो-फन का असर

सालमा शाहीन का असर न सिर्फ अदब की दुनिया में बल्कि पश्तून समाज की तहज़ीब और रवायतों पर भी गहरा पड़ा है। उन्होंने अपने अफ़सानों और नज़्मों में इंसानी रिश्तों, औरतों के मसाइल और बदलते समाज का जिस शिद्दत से बयान किया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है। उनकी कहानियाँ महज़ तफ़रीह का ज़रिया नहीं, बल्कि सोचने और समाज को बेहतर बनाने का एक पैग़ाम भी हैं।

सलमा शाहीन की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 


1-ग़ज़ल 

उसे भुला न सकी नक़्श इतने गहरे थे

ख़याल-ओ-ख़्वाब पे मेरे हज़ार पहरे थे


वो ख़ुश गुमाँ थे तो जो ख़्वाब थे सुनहरे थे

वो बद-गुमाँ थे अँधेरे थे और गहरे थे


जो आज होती कोई बात बात बन जाती

उसे सुनाने के इम्कान भी सुनहरे थे


समा'अतों ने किया रक़्स मस्त हो हो कर

सदा में उस की हसीं बीन जैसे लहरे थे


हमारे दर्द की ये दास्तान सुनता कौन

यहाँ तो जो भी थे मुंसिफ़ वो सारे बहरे थे


चले गए वो शरर बो के इस क़बीले में

तो क़त्ल होने को 'शाहीन' हम भी ठहरे थे

2-ग़ज़ल 

मसअला हुस्न-ए-तख़य्युल का है न इल्हाम का है

ये फ़साना ज़रा मुश्किल दिल-ए-नाकाम का है


रात-दिन पहरों-पहर उस की अदा के चर्चे

ये तमाशा भी मिरे वास्ते किस काम का है


मुस्कुराने लगे हर सम्त मोहब्बत के चराग़

तेरे चेहरे का तसव्वुर भी बड़े काम का है


सूनी सूनी थीं जो आँखें वो दोबारा हंस दें

नज़र आया है जो मंज़र वो उसी शाम का है


इस त'अल्लुक़ का कोई रंग न ढलने पाया

तज़्किरा शे'रों में अब भी उसी गुलफ़ाम का है


ले उड़ीं ज़र्द हवाएँ मिरे घर से ख़ुशबू

बाम-ओ-दर क्या हैं दरीचा मिरे किस काम का है


फ़स्ल हो जाए तो बढ़ती है ख़ुशी से दूरी

आप का क़ुर्ब ये सच है बड़े आराम का है

3-ग़ज़ल 

हम झुकाते भी कहाँ सर को क़ज़ा से पहले

वक़्त ने दी है सज़ा हम को ख़ता से पहले


अपनी क़िस्मत में कहाँ रक़्स-ए-शरर का मंज़र

शम-ए-जाँ बुझ गई दामन की हवा से पहले


ये अलग बात कि मंज़िल का निशाँ कोई न था

कोहसार और भी थे कोह-ए-निदा से पहले


मुद्दआ' कोई न था तेरे सिवा क्या करते

दिल धड़कता ही रहा हर्फ़-ए-दुआ से पहले


रू-ब-रू उस के रही आइना बन कर शाहीन

देख ले अपनी नज़र जुर्म-ए-जफ़ा से पहले


इस की आँखों में अजब सेहर है 'सलमा-शाहीन'

हो गई हूँ मैं शिफ़ायाब दवा से पहले


4-ग़ज़ल 

अब ख़यालों का जहाँ और न आबाद करें

ख़्वाब जो भूल चुके हैं उन्हें बस याद करें


थपकी दे दे के सुलाने की है 'आदत दिल को

अब किसी और से क्यूँ ख़ुद ही से फ़रियाद करें


कितने मौसम के छलावे से गुज़र कर पहुँची

उस डगर पे कि जहाँ लोग मुझे याद करें


हम भी अब फ़िक्र-ए-जहाँ छोड़ के जी भर हंस लें

वक़्त इतना भी कहाँ है जिसे बर्बाद करें


ज़िंदगी यूँ ही मुनज़्ज़म रहे ऐसा भी नहीं

हम नई तर्ज़ कोई और भी ईजाद करें


देने वाले की मशिय्यत थी जो वहशत दे दी

दिल-ए-वीराँ जो मिला है उसे आबाद करें


दिल के टूटे हुए टुकड़ों को न जोड़ें 'शाहीन'

दिल पे जो गुज़री उसे भूल के मत याद करें

5-ग़ज़ल 


धूप पीछा नहीं छोड़ेगी ये सोचा भी नहीं
हम वहाँ हैं जहाँ दीवार का साया भी नहीं

जाने क्यूँ दिल मिरा बेचैन रहा करता है
मिलना तो दूर रहा उस को तो देखा भी नहीं

आप ने जब से बदल डाला है जीने का चलन
अब मुझे तल्ख़ी-ए-अहबाब का शिकवा भी नहीं

मय-कदा छोड़े हुए मुझ को ज़माना गुज़रा
और साक़ी से मुझे दूर का रिश्ता भी नहीं

दाम में रखता परिंदों की उड़ानें लेकिन
पर कतरने का मगर उस को सलीक़ा भी नहीं

मुस्कुराहट में कोई तंज़ भी हो सकता है
ये मसर्रत की अलम-दार हो ऐसा भी नहीं

लाख यादों की तरफ़ लौट के जाऊँ 'शाहीन'
पर्दा-ए-दिल पर अब उस शख़्स का चेहरा भी नहीं

1-नज़्म 


तमाम उम्र जो अपने लिए न माँग सकी
वो सब दुआएँ तुम्हारे लिए ही माँगी हैं

हर इक दुआ में तुम्हारा ही नाम लब पे रहा
हर एक हर्फ़-ए-मोहब्बत तुम्हारे नाम रहा

गई रुतों के हसीं ख़्वाब साथ साथ चले
डगर डगर पे तुम्हारा ही नाम लिखते चले

जो लौह-ए-सादा पर इक बार तेरा नाम लिखा
ग़ुबार-ए-गर्द-ए-ज़माना उसे मिटा न सका

ये और बात कि अब इज्तिनाब है तुझ से
ये और बात कि दिल एहतिसाब करता है

ये और बात कि हर्फ़-ए-यक़ीन सर्द हुए
ये और बात कि लफ़्ज़ों के फूल ज़र्द हुए

चहार सम्त कोई धुंद फैली जाती है
तलाश माज़ी के उजले ख़याल कैसे करूँ

तुम्हें मनाऊँ तो मेरी अना को चोट लगे
तुम्हें भुलाऊँ तो दिल ही उदास हो जाए

ये सच है सच है गुरेज़ाँ रहे मगर फिर भी
बताओ दिल की तपिश क्या कभी हुई महसूस


खुलासा

सालमा शाहीन का फन और इल्म अदब और तहज़ीब का बेमिसाल संगम है। उन्होंने न सिर्फ़ पश्तो अदब को नई बुलंदियों पर पहुँचाया बल्कि आने वाली नस्लों के लिए भी अदब का एक अमूल्य ख़ज़ाना छोड़ा। उनकी शख्सियत एक ऐसी शमा है, जो अपने इल्म और फन से हर दौर को रौशन करती रहेगी। उनका योगदान आने वाले वक़्त में भी एक मिसाल के तौर पर देखा जाएगा।ये भी पढ़े 

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