उर्दू अदब में फ़रीहा नक़वी की अहमियत और विरासत

 

तआरुफ़ (परिचय)

उर्दू अदब की दुनिया में जब भी नफ़ासत, गहराई और एहसासात से भरपूर शायरी की बात होती है, तो फ़रीहा नक़वी का नाम शिद्दत से लिया जाता है। उनकी शायरी में मोहब्बत की लताफ़त, दर्द की कसक, समाज की हकीकत और इंसानी जज़्बातों का अनूठा संगम देखने को मिलता है। उनकी तख़लीक़ में एक ऐसा जादू है, जो पढ़ने वालों के दिल की गहराइयों तक उतर जाता है। फ़रीहा नक़वी उर्दू शायरी की वह नूरानी किरन हैं, जिन्होंने अपनी नज़्मों और ग़ज़लों के ज़रिए उर्दू अदब को बुलंदी बख़्शी।


विलादत और इब्तिदाई ज़िंदगी (जन्म और प्रारंभिक जीवन)

फ़रीहा नक़वी का जन्म पाकिस्तान के तारीख़ी और तहज़ीबी तौर पर समृद्ध शहर लाहौर में हुआ। लाहौर को उर्दू अदब का मरकज़ माना जाता है, और शायद इसी माहौल ने फ़रीहा के अंदर शेरो-सुख़न का शौक़ पैदा किया। बचपन से ही किताबों और शायरी की दुनिया में रम जाने वाली फ़रीहा को उर्दू ज़बान से गहरा लगाव था। उनकी इब्तिदाई तालीम लाहौर के एक नामवर मदरसे में हुई, जहाँ उन्होंने अपनी सलाहियतों को और ज़्यादा निखारना शुरू किया।

फ़रीहा ने लाहौर की एक मशहूर यूनिवर्सिटी से उर्दू अदब में तालीम हासिल की और परवाना-ए-सुख़न की सनद पाई। इसी दौरान, उनकी शायरी में निखार आया और उनकी ग़ज़लें और नज़्में मुमताज़ रिसालों में शाया होने लगीं। उनका कलाम पढ़ने वालों के एहसासात को छू जाता था, जिससे वह बहुत जल्द एक उभरती हुई शायरा के तौर पर पहचान बनाने लगीं।

अदबी सफ़र और शुमार अहम तख़लीक़ात (साहित्यिक करियर और प्रमुख रचनाएँ)

फ़रीहा नक़वी ने अपने अदबी सफ़र की इब्तिदा ख़ूबसूरत अंदाज़ में की। उनकी पहली शायरी मजमूआ "ख़्वाब आँखों में आने से पहले" ने अदबी दुनिया में धूम मचा दी। इस मजमूआ की ग़ज़लों और नज़्मों ने ना सिर्फ़ नक़्क़ादों (आलोचकों) से दाद हासिल की, बल्कि अहल-ए-अदब के दिलों में भी अपनी जगह बनाई। उनकी शायरी इश्क़, फ़िराक़, समाजी हक़ीक़तों और औरतों के हुक़ूक़ से मुताल्लिक़ होती है, जिसमें हर शेर और हर मिसरा अपनी अलग पहचान रखता है।

उनकी दीगर मशहूर तख़लीक़ात कुछ इस तरह हैं:

  • "तुम्हारे नाम" – एक ऐसा शायरी मजमूआ, जिसमें मोहब्बत की हक़ीक़तों को बड़ी ख़ूबसूरती से बयान किया गया है।
  • "यादों के दरीचे" – जिसमें माज़ी की यादों को संजोया गया है, और जिसे पढ़कर हर शख़्स अपनी ज़िंदगी के किसी ना किसी पहलू से जुड़ाव महसूस करता है।
  • "एक लफ़्ज़ मोहब्बत का" – जिसमें मोहब्बत के मुख़्तलिफ़ रंगों को बेहद हसीन और दिलकश अंदाज़ में बयान किया गया है।

उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को पाकिस्तान और हिंदुस्तान की बहुत सी मुमताज़ रिसालों में शाया किया गया है। वह अपने पुरअसर ख़यालात और नाज़ुक एहसासात के लिए जानी जाती हैं।

शायरी का अनूठा अंदाज़ (शायरी की विशेषताएँ)

फ़रीहा नक़वी की शायरी में हमें उर्दू की क्लासिकी रवायतों और जदीदियत का बेहतरीन संगम देखने को मिलता है। उनकी शायरी में एहसास की गहराई, लफ़्ज़ों का हुस्न और इज़हार की पुरकशिश अदा मौजूद है। उनके अशआर सीधे दिल पर दस्तक देते हैं। उनके कुछ मक़बूल अशआर पेश-ए-ख़िदमत हैं:

"हमसे कहो कि दर्द की हद क्या होती है,
हर शाम गुज़री है, तेरी यादों के साए में।"

"इश्क़ में हर शख़्स तनहा ही रह जाता है,
महफ़िलें सजती हैं मगर दिल वीरान ही रहता है।"

उनकी नज़्मों में औरत के जज़्बात, समाजी ज़ंजीरें, मोहब्बत की पाकीज़गी और इंसानी दिल की गहराइयाँ बहुत ख़ूबसूरती से पेश की गई हैं।

एहतराम और इनामात (सम्मान और पुरस्कार)

फ़रीहा नक़वी को उनकी अदबी खिदमात के लिए कई मुमताज़ इनामात से नवाज़ा गया है। इनमें बुल्ले शाह अवॉर्ड, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ लिटरेरी अवॉर्ड, और अलामा इक़बाल सम्मान क़ाबिले-ज़िक्र हैं। उनकी शायरी सिर्फ़ पाकिस्तान में ही नहीं, बल्कि आलमी सतह पर भी पसंद की जाती है। उन्होंने कई आलमी मुशायरों में शिरकत की और अपनी ग़ज़लों व नज़्मों से शायरी के दीवानों को मोहित कर दिया।

सामाजी बेदारी और सरगर्मियाँ (सामाजिक जागरूकता और सक्रियता)

फ़रीहा नक़वी सिर्फ़ एक शायरा ही नहीं, बल्कि एक समाजी रहनुमा भी हैं। उन्होंने अपनी तख़लीक़ के ज़रिए औरतों के हुक़ूक़, समाजी नाइंसाफ़ी और इंसानी हक़ूक़ की हिमायत में आवाज़ उठाई है। उनकी शायरी में नारीवाद और समाजी तब्दीलियों की झलक देखी जा सकती है। वह एक ऐसी हस्ती हैं, जिन्होंने अपने अल्फ़ाज़ की कशिश से दुनिया में तब्दीलियाँ लाने की कोशिश की है।

ग़ज़ल-1

तुम्हें पाने की हैसिय्यत नहीं है

मगर खोने की भी हिम्मत नहीं है


बहुत सोचा बहुत सोचा है मैं ने

जुदाई के सिवा सूरत नहीं है


तुम्हें रोका तो जा सकता है लेकिन

मिरे आसाब में क़ुव्वत नहीं है


मिरे अश्को मिरे बे-कार अश्को!!

तुम्हारी अब उसे हाजत नहीं है


अभी तुम घर से बाहर मत निकलना

तुम्हारी होश की हालत नहीं है


दुआ क्या दूँ भला जाते हुए मैं

तुम्हें तकने से ही फ़ुर्सत नहीं है


मोहब्बत कम न होगी याद रखना!!

ये बढ़ती है, कि ये दौलत नहीं है


ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल

कोई कमज़ोर सी औरत नहीं है

ग़ज़ल-2 

हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं

इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं


आँखें ब्लैक-एण्ड-वाइट हैं तो फिर इन में क्यूँ

रंग-बिरंगे ख़्वाब कहाँ से आते हैं


ख़्वाबों की मिट्टी से बने दो कूज़ों में

दो दरिया हैं और इकट्ठे बहते हैं


छोड़ो जाओ कौन कहाँ की शहज़ादी

शहज़ादी के हाथ में छाले होते हैं


दर्द को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

हम बे-कार हुरूफ़ उलटते रहते हैं

ग़ज़ल-3


क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे

मैं उदासी के मलबे तले दफ़्न थी, क्यूँ निकाला मुझे


ऐसी नाज़ुक थी घर के परिंदों से भी ख़ौफ़ खाती थी मैं

ये कहाँ, किन दरिंदों के जंगल में फेंका है तन्हा मुझे


ख़्वाब टूटे थे और किर्चियाँ अब भी आँखों में पैवस्त हैं

अब ये किस मुँह से फिर ख़्वाब की अंजुमन ने पुकारा मुझे


आठ तक तो ये गिनती भी आसान थी तू ने पढ़ ली, सो अब...

केलकुलेटर पकड़ और सुना! अपना नौ का पहाड़ा मुझे


यार था तू कभी, तेरी नज़्में हमेशा सलामत रहें

दाग़ देने को फिर ये रिदा चाहिए तो बताना मुझे


बस यूँही दर्द का अब्र शे'रों की बारिश में ढलता गया

वारिसान-ए-सुख़न! कोई तमग़ा नहीं है कमाना मुझे


कोई ऐसा तरीक़ा बता तेरी आवाज़ को चूम लूँ

उफ़ ये तेरा ''फ़रीहा! मिरी जान'' कह कर बुलाना मुझे

ग़ज़ल-4

रौंद पाए न दलाएल मेरे

मेरे दुश्मन भी थे क़ाएल मेरे


साफ़ दिखती थी जलन आँखों में

फिर भी होंटों पे फ़ज़ाएल मेरे


ये तही फ़िक्र कुएँ के मेंडक

ये न समझेंगे मसाइल मेरे


छाँव देते थे मगर राह नहीं

पेड़ थे रस्ते में हाएल मेरे


आँख अब ख़्वाब नहीं दे सकती

रौशनी माँग ले साइल मेरे


जब तलक हाथ तिरे हाथ में है

हौसले होंगे न ज़ाइल मेरे


उस ने पास आ के 'फ़रीहे' बोला

गिर गई हाथ से फ़ाइल मेरे

ग़ज़ल-5

ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा

थम न जाए कहीं जुनूँ आ जा


रात से एक सोच में गुम हूँ

किस बहाने तुझे कहूँ आ जा


हाथ जिस मोड़ पर छुड़ाया था

मैं वहीं पर हूँ सर निगूँ आ जा


याद है सुर्ख़ फूल का तोहफ़ा?

हो चला वो भी नील-गूँ आ जा


चाँद तारों से कब तलक आख़िर

तेरी बातें किया करूँ आ जा


अपनी वहशत से ख़ौफ़ आता है

कब से वीराँ है अंदरूँ आ जा


इस से पहले कि मैं अज़िय्यत में

अपनी आँखों को नोच लूँ आ जा


देख! मैं याद कर रही हूँ तुझे

फिर मैं ये भी न कर सकूँ आ जा

नज़्म-1

एक पुराना ख़्वाब

बहुत क़दीम सा वो घर,

बहुत बहुत क़दीम सा....!


वो पत्थरों का घर कोई,

उसी के एक तंग से किवाड़ में खड़ी हुई,


वो कौन थी?

वो कौन थी जो ख़्वाब में अलील थी???


वो जिस के ज़र्द जिस्म का तुम्हें बहुत ख़याल था!

रक़ीब थी मिरी?


मगर भली भली लगी मुझे....!!

थी उस के ज़र्द रंग पर घनी उदासियों की रुत,


पिघल पिघल के गिर रहा था उस की आस्तीं पे दुख....

मिरी तो रूह ख़ौफ़ से लरज़ गई,


निगाह चीख़ने लगी,

कौन है, ये कौन है?


उसी घड़ी,

तुम्हारी इक निगाह ने झुके झुके ये कह दिया,


ये अलील है कि

उसे मिरा ज़रा सा ध्यान चाहिए,


ये जब भी तंदुरुस्त हो गई मैं लौट आऊँगा

ऐ ज़र्द-रू,


मैं जानती नहीं तुझे

तू कौन थी, नहीं पता


मगर तिरी हयात की दुआ मिरी हयात है!!

तू तंदुरुस्त हो के कब दिखाएगी

इख़्तिताम (निष्कर्ष)

फ़रीहा नक़वी उर्दू अदब का वो चमकता हुआ सितारा हैं, जिन्होंने अपनी शायरी के ज़रिए लाखों दिलों को जीता है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में मोहब्बत, दर्द, हक़ीक़त और एहसास का जो संगम देखने को मिलता है, वह उर्दू अदब की तारीख़ में हमेशा महफूज़ रहेगा। उनकी तख़लीक़ की शिद्दत, उनके अशआर की मासूमियत और उनकी आवाज़ की ख़ूबसूरती आने वाली नस्लों के लिए एक मिसाल बनी रहेगी।

उनकी शायरी का सफ़र अभी जारी है, और उनके कलम से निकलने वाले हर लफ़्ज़ में एक नई दुनिया बसती है। उनका योगदान उर्दू अदब को और मालामाल करेगा और उनकी ग़ज़लों की मिठास उर्दू शायरी के चाहने वालों के दिलों में हमेशा बनी रहेगी।ये भी पढ़ें 

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