मुक़द्दमा
मेराज फैज़ाबादी उर्दू शायरी की उस रौशन कड़ी का नाम हैं, जिनकी ग़ज़लों और नज़्मों ने एहसासात और हक़ीक़त का ऐसा संगम पैदा किया जो आज भी लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए हुए है। उनकी शायरी सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का मजमूआ नहीं, बल्कि ज़िंदगी के तल्ख़ तजुर्बात, मोहब्बत की शफ़्फ़ाफ़ी और समाजी नाइंसाफ़ियों का एक दिलनशीं बयान थी।
इब्तिदाई ज़िंदगी
मेराज फैज़ाबादी का असली नाम सय्यद मेराज-उल-हक़ था। वो 2 जनवरी 1941 को कोला शरीफ़, फ़ैज़ाबाद (अयोध्या), ब्रिटिश इंडिया में पैदा हुए। उनका ताल्लुक़ एक दीनी और इल्मी खानदान से था। उनके वालिद सय्यद सिराज-उल-हक़ एक बाज़ौक़ और सादगी पसंद शख़्स थे, जिनकी तरबियत का असर मेराज की शख़्सियत पर ग़ालिब रहा।
बचपन ही से अदब और इल्म से गहरी दिलचस्पी रखने वाले मेराज ने अपनी इब्तिदाई तालीम फ़ैज़ाबाद और कोला शरीफ़ में हासिल की। हिंदुस्तान की तक़सीम के दौरान उनके ख़ानदान को कई मुश्किलात से गुज़रना पड़ा, जिसकी वजह से उनकी तालीम में भी कई मराहिल आए। बावजूद इसके, उन्होंने 1962 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से बी.एस.सी मुकम्मल की।
अदबी सफ़र की इब्तिदा
मेराज फैज़ाबादी ने अपने अदबी सफ़र का आग़ाज़ नौजवानी में ही कर दिया था। उनके अंदर बचपन से ही इज़हार-ए-ख़याल की सलाहियत मौजूद थी। वली अल्लाह दादा जैसे बाअसर लोगों की सोहबत ने उनके अदबी शऊर को और भी निखार दिया।
उनकी शायरी का मिज़ाज एक साथ ग़म, इंक़लाब, मोहब्बत और समाजी हक़ीक़तों का अक्स पेश करता है। उनका लहजा आम फ़हम था, जिससे हर तबक़े का इंसान उनसे ख़ुद को मुतअल्लिक़ महसूस करता था।
असरी अदब में मेराज फैज़ाबादी का मक़ाम
मेराज फैज़ाबादी की शायरी सिर्फ़ मोहब्बत या हुस्न-ओ-इश्क़ तक महदूद नहीं थी, बल्कि उसमें इंसानी जज़्बात, समाजी बेइंसाफ़ियाँ और आम आदमी की मुश्किलात का भी शिद्दत से एहसास मौजूद था। उन्होंने अपनी शायरी में उन तबक़ों की आवाज़ बुलंद की, जो अक्सर अदब में नज़रअंदाज़ कर दिए जाते हैं।
उनके तीन अहम मजमूआ-ए-कलाम ये हैं:
- "नामूस" (2003) – ये उनकी सबसे मक़बूल किताब थी, जिसे उनके क़रीबी दोस्तों की फरमाइश पर शाया किया गया था।
- "थोड़ा सा चंदन" – इसमें उनकी तख़य्युली और जज़्बाती तर्जुमानी का बेहतरीन इज़हार मिलता है।
- "बे-ख़्वाब साअतें" – इस मजमूआ में उन्होंने ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों और इंसानी एहसासात को बयान किया।
उनकी कई ग़ज़लें जगजीत सिंह जैसे बड़े फ़नकारों ने गाईं, जिसकी वजह से उनकी शायरी की पहुँच और भी बढ़ गई।
अंदाज़-ए-बयान
मेराज फैज़ाबादी की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी ये थी कि उन्होंने मुशायरे की चकाचौंध से हटकर, असल एहसास को तर्जीह दी। उनका लहजा नर्म, मगर असरअंदाज़ था। वो न जज़्बात को फिज़ूल तसव्वुर में उलझाते, न ही बेवजह मुश्किल अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल करते। उनकी शायरी हर उस इंसान के लिए थी जो ज़िंदगी की सच्चाइयों से दो-चार हुआ हो।
मुशायरों में मक़बूलियत
मेराज फैज़ाबादी की शख़्सियत हिंदुस्तान और दुनिया भर के अदबी हल्क़ों में इंतिहाई इज़्ज़त और मक़बूलियत रखती थी। उन्होंने ऑल इंडिया और इंटरनेशनल मुशायरों में बराबर शिरकत की और अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी मौजूदगी किसी भी मुशायरे को एक नया रुख़ देने की सलाहियत रखती थी।
आख़िरी दिनों की ज़िंदगी
अपने आख़िरी दिनों में मेराज फैज़ाबादी कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहे थे। इसके बावजूद, उन्होंने अपने फ़िक्र और एहसास को कमज़ोर नहीं होने दिया। वो अपनी शायरी के ज़रिए आख़िरी वक़्त तक लोगों से मुख़ातिब रहे।
30 नवंबर 2013 को वो इस दुनिया से रुख़सत हो गए। उन्हें उनके आबाई क़स्बे कोला शरीफ़, फ़ैज़ाबाद में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।
मेराज फैज़ाबादी की विरासत
उनके इंतिक़ाल के बाद भी उनकी शायरी की गूंज कम नहीं हुई। लता मंगेशकर समेत कई अदबी और फ़न्नी हस्तियों ने उनके इंतिक़ाल पर अफ़सोस का इज़हार किया। उनकी ग़ज़लें, नज़्में और अशआर आज भी न सिर्फ़ किताबों में, बल्कि मुशायरों, ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स और अदबी गुफ़्तगू में अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं।
मेराज फ़ैज़ाबादी की शायरी,ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
जिस्म का बोझ उठाए हुए चलते रहिए
धूप में बर्फ़ की मानिंद पिघलते रहिए
ये तबस्सुम तो है चेहरों की सजाट के लिए
वर्ना एहसास वो दोज़ख़ है कि जलते रहिए
अब थकन पाँव की ज़ंजीर बनी जाती है
राह का ख़ौफ़ ये कहता है कि चलते रहिए
ज़िंदगी भीक भी देती है तो क़ीमत ले कर
रोज़ फ़रियाद का अंदाज़ बदलते रहिए
2-ग़ज़ल
ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना
गुफ़्तुगू तू ने सिखाई है कि मैं गूँगा था
अब मैं बोलूँगा तो बातों में असर भी देना
मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना
ज़ुल्म और सब्र का ये खेल मुकम्मल हो जाए
उस को ख़ंजर जो दिया है मुझे सर भी देना
3-ग़ज़ल
एक टूटी हुई ज़ंजीर की फ़रियाद हैं हम
और दुनिया ये समझती है कि आज़ाद हैं हम
क्यूँ हमें लोग समझते हैं यहाँ परदेसी
एक मुद्दत से इसी शहर में आबाद हैं हम
काहे का तर्क-ए-वतन काहे की हिजरत बाबा
इसी धरती की इसी देश की औलाद हैं हम
हम भी त'अमीर-ए-वतन में हैं बराबर के शरीक
दर-ओ-दीवार अगर तुम हो तो बुनियाद हैं हम
हम को इस दौर-ए-तरक़्क़ी ने दिया क्या 'मेराज'
कल भी बर्बाद थे और आज भी बर्बाद हैं हम
4-ग़ज़ल
थकी हुई मामता की क़ीमत लगा रहे हैं
अमीर बेटे दुआ की क़ीमत लगा रहे हैं
मैं जिन को उँगली पकड़ के चलना सिखा चुका हूँ
वो आज मेरे असा की क़ीमत लगा रहे हैं
मिरी ज़रूरत ने फ़न को नीलाम कर दिया है
तो लोग मेरी अना की क़ीमत लगा रहे हैं
मैं आँधियों से मुसालहत कैसे कर सकूँगा
चराग़ मेरे हवा की क़ीमत लगा रहे हैं
यहाँ पे 'मेराज' तेरे लफ़्ज़ों की आबरू क्या
ये लोग बाँग-ए-दरा की क़ीमत लगा रहे हैं
5-ग़ज़ल
गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है
गुफ़्तुगू उस की है लहजे में असर मेरा है
मैं ने खोए हैं यहाँ अपने सुनहरे शब ओ रोज़
दर-ओ-दीवार किसी के हों ये घर मेरा है
मेरा अस्लाफ़ से रिश्ता तो न तोड़ ऐ दुनिया
सब महल तेरे हैं लेकिन ये खंडर मेरा है
आती जाती हुई फ़स्लों का मुहाफ़िज़ हूँ मैं
फल तो सब उस की अमानत हैं शजर मेरा है
मेरे आँगन के मुक़द्दर में अँधेरा ही सही
इक चराग़ अब भी सर-ए-राहगुज़र मेरा है
दूर तक दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन
ऐसे हालात में जीना भी हुनर मेरा है
जब भी तलवार उठाता हूँ कि छेड़ूँ कोई जंग
ऐसा लगता है कि हर शाने पे सर मेरा है
नतीजा
मेराज फैज़ाबादी की शायरी महज़ एक तख़लीक़ी इज़हार नहीं थी, बल्कि वो एक सचाई, एक एहसास और एक फ़िक्र थी, जो हर उस इंसान को छूती है जो अदब से मुहब्बत रखता है। उनकी शख़्सियत उर्दू अदब के उन बुलंद नामों में शुमार होती है, जिनकी रौशनी कभी कम नहीं होगी। उनकी तख़्लीक़ात आने वाली नस्लों के लिए भी हिदायत, हौसला और मोहब्बत का पैग़ाम बनी रहेंगी।ये भी पढ़ें
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