मख़मूर सईदी: एक अदबी सफ़रनामा

उर्दू अदब की सरज़मीन पर कई चमकते हुए सितारे हुए, मगर कुछ ऐसे अदीब भी हैं जिनकी शायरी न सिर्फ़ एहसासात की तर्जुमानी करती है, बल्कि उनकी तख़लीक़ात में इश्क़, हुस्न, समाज और फ़िक्र का गहरा अक्स भी नज़र आता है। ऐसे ही एक बड़े शायर, सहाफ़ी और अदीब थे मख़मूर सईदी, जिनकी नज़्में, ग़ज़लें और कताआत आज भी उर्दू अदब में अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए हैं।


इब्तिदाई हयात

मख़मूर सईदी का असली नाम अहमद ख़ान था। वो 31 दिसंबर 1938 को टोंक (राजस्थान, भारत) की सरज़मीन पर पैदा हुए। टोंक एक ऐसा इलाक़ा था जिसे "छोटी पाकिस्तान" भी कहा जाता था, जहाँ उर्दू ज़बान और तहज़ीब अपनी शिखर पर थी। मख़मूर के वालिद अहमद ख़ान नाज़िश ख़ुद एक उम्दा शायर थे, लिहाज़ा शायरी का ज़ौक़ उन्हें विरासत में मिला।

उन्होंने अपनी इब्तिदाई तालीम टोंक में ही हासिल की और फिर आगरा यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद, मख़मूर सईदी दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने सहाफ़त (पत्रकारिता) और अदब (साहित्य) के मैदान में अपना सफ़र शुरू किया।


अदबी सफ़र

मख़मूर सईदी की शायरी का सफ़र 1948 में शुरू हुआ जब वो महज़ 10 साल के थे। उनके एहसासात और तख़लीकी सलाहियत (रचनात्मक प्रतिभा) ने बहुत जल्द उर्दू अदब के बड़े-बड़े नक़्क़ादों (आलोचकों) की तवज्जो (ध्यान) हासिल कर ली।

उनकी शायरी पर अल्लामा इक़बाल, अख़्तर शीरानी और जोश मलीहाबादी का असर नज़र आता है, मगर उन्होंने अपनी एक ख़ास अलहदा पहचान भी बनाई। उनकी नज़्मों में एक नफ़ासत (शालीनता) और उनके अश'आर (शेरों) में एक अलग ही अदा पाई जाती थी।

उन्होंने बशीर बद्र, अली सरदार जाफ़री और कैफ़ी आज़मी के साथ मिलकर मॉडर्न उर्दू शायरी की बुनियाद रखी और इस नए अंदाज़ को मज़ीद मज़बूत किया।


सहाफ़त और अदबी ख़िदमात

मख़मूर सईदी सिर्फ़ एक शायर ही नहीं, बल्कि एक नामवर सहाफ़ी (पत्रकार) भी थे। 1956 से 1979 तक, उन्होंने मशहूर सहाफ़ी और अदीब गोपाल मित्तल की मासिक पत्रिका "तहरीक़" के संयुक्त संपादक के तौर पर काम किया। इसके बाद उन्होंने "निगार", "ऐवान-ए-उर्दू" और "उमंग" जैसी अहम अदबी रिसालों (पत्रिकाओं) की संपादन किया।

उर्दू ज़बान और अदब को फ़रोग़ (प्रसार) देने के लिए, उन्होंने उर्दू अकादमी, दिल्ली के सचिव की हैसियत से भी अपनी ख़िदमात अंजाम दीं। 1998 में, उन्होंने राष्ट्रीय उर्दू भाषा संवर्धन परिषद (NCPUL) में बतौर साहित्यिक सलाहकार भी काम किया और मशहूर रिसाला "फ़िक्र-ओ-तहक़ीक़" के संपादक बने।

इसके अलावा, उन्होंने मासिक पत्रिका "उर्दू दुनिया" का भी संपादन किया, जो उर्दू अदब और सहाफ़त की दुनिया में एक अहम दस्तावेज़ मानी जाती है।


अदबी और शायरी मजमूआत

मख़मूर सईदी की शायरी सिर्फ़ जज़्बात की तर्जुमानी नहीं करती, बल्कि उनके कलाम में ज़िंदगी की हक़ीक़तें और इंसानी जज़्बात की झलक भी मिलती है। उन्होंने ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, गीत और दोहे जैसे कई अदबी असनाद (शैली) में तख़लीक़ात पेश कीं।

उनकी चंद मशहूर किताबें और शायरी मजमूआत (संग्रह) ये हैं:

  • सबरंग
  • सीह-बार-सफ़ेद
  • आवाज़ के जिस्म
  • वाहिद मुतकल्लिम
  • आते-जाते लम्हों की सदा
  • गुफ़्तानी
  • दीवार-ओ-दर के दरमियान
  • रास्ता और मैं
  • घर कहीं ग़म हो गया
  • परह गिरता हुआ
  • शीराज़ा

उनका मजमूआ "रास्ता और मैं" इतना अहम साबित हुआ कि 2007 में उन्हें "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से नवाज़ा गया।


आख़िरी दिन और विरासत

2 मार्च 2010 को, मख़मूर सईदी ने जयपुर (राजस्थान) में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मगर उनकी तख़लीक़ात (रचनाएँ) और उनके अदबी कारनामे उन्हें हमेशा ज़िंदा रखेंगे।

उनकी शायरी सिर्फ़ हुस्न-ओ-इश्क़ तक महदूद नहीं थी, बल्कि उन्होंने ज़िंदगी के तल्ख़ (कड़वे) तजुर्बात को भी अपने कलाम का हिस्सा बनाया। उनका अदबी सफ़र एक नई सोच और नए एहसासात का आइना था, जो आने वाली नस्लों के लिए एक रहनुमा साबित होगा।

शीन क़ाफ़ निज़ाम ने उनके जीवन और कार्यों पर एक अहम किताब "भीड़ में अकेला" लिखी, जो 2007 में राजस्थान उर्दू अकादमी के ज़ेरे एहतमाम (प्रकाशन) मंज़र-ए-आम पर आई।

मख़मूर सईदी साहब की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 


1-ग़ज़ल 


लबों पे है जो तबस्सुम तो आँख पुर-नम है
शुऊर-ए-ग़म का ये आलम अजीब आलम है

गुज़र न जादा-ए-इमकाँ से बे-ख़याली में
यहीं कहीं तिरी जन्नत यहीं जहन्नम है

भटक रहा है दिल इमरोज़ के अंधेरों में
निशान-ए-मंज़िल-ए-फ़र्दा बहुत ही मुबहम है

बढ़ा दिया है असीरों की ख़स्ता-हाली ने
क़फ़स से ता-ब-चमन वर्ना फ़ासला कम है

अभी नहीं किसी आलम में दिल ठहरने का
अभी नज़र में तिरी अंजुमन का आलम है

कहाँ ये ज़िंदगी-ए-हर्ज़ा-गर्द ले आई
न रहगुज़ार-ए-तरब है न जादा-ए-ग़म है

कुछ ऐसे हम ने तिरे ग़म की परवरिश की है
कि जैसे मक़्सद-ए-हस्ती फ़क़त तिरा ग़म है

2-ग़ज़ल 


कसक पुराने ज़माने की साथ लाया है
तिरा ख़याल कि बरसों के बाद आया है

किसी ने क्यूँ मिरे क़दमों तले बिछाया है
वो रास्ता कि कहीं धूप है न साया है

डगर डगर वही गलियाँ चली हैं साथ मिरे
क़दम क़दम पे तिरा शहर याद आया है

बता रही है ये शिद्दत उजाड़ मौसम की
शगुफ़्त-ए-गुल का ज़माना क़रीब आया है

हवा-ए-शब से कहो आए फिर बुझाने को
चराग़ हम ने सर-ए-शाम फिर जलाया है

कहो ये डूबते तारों से दो घड़ी रुक जाएँ
निशान-ए-गुम-शुदगाँ मुद्दतों में पाया है

बस अब ये प्यास का सहरा उबूर कर जाओ
नदी ने फिर तुम्हें अपनी तरफ़ बुलाया है

फ़ुसून-ए-ख़्वाब-ए-तमाशा कि टूटता जाए
मैं सो रहा था ये किस ने मुझे जगाया है

सुलग उठे हैं शरारे बदन में क्यूँ 'मख़मूर'
ख़ुनुक हवा ने जो बढ़ कर गले लगाया है

3-ग़ज़ल 


मुद्दतों बाद हम किसी से मिले
यूँ लगा जैसे ज़िंदगी से मिले

इस तरह कोई क्यूँ किसी से मिले
अजनबी जैसे अजनबी से मिले

साथ रहना मगर जुदा रहना
ये सबक़ हम को आप ही से मिले

ज़िक्र काँटों की दुश्मनी का नहीं
ज़ख़्म फूलों की दोस्ती से मिले

उन का मिलना भी था न मिलना सा
वो मिले भी तो बे-रुख़ी से मिले

दिल ने मजबूर कर दिया होगा
जिस से मिलना न था उसी से मिले

उन अँधेरों का क्या गिला 'मख़मूर'
वो अँधेरे जो रौशनी से मिले

4-ग़ज़ल 


लिख कर वरक़-ए-दिल से मिटाने नहीं होते
कुछ लफ़्ज़ हैं ऐसे जो पुराने नहीं होते

जब चाहे कोई फूँक दे ख़्वाबों के नशेमन
आँखों के उजड़ने के ज़माने नहीं होते

जो ज़ख़्म अज़ीज़ों ने मोहब्बत से दिए हों
वो ज़ख़्म ज़माने को दिखाने नहीं होते

हो जाए जहाँ शाम वहीं उन का बसेरा
आवारा परिंदों के ठिकाने नहीं होते

बे-वजह तअल्लुक़ कोई बे-नाम रिफ़ाक़त
जीने के लिए कम ये बहाने नहीं होते

कहने को तो इस शहर में कुछ भी नहीं बदला
मौसम मगर अब उतने सुहाने नहीं होते

सीने में कसक बन के बसे रहते हैं बरसों
लम्हे जो पलट कर कभी आने नहीं होते

आशुफ़्ता-सरी में हुनर-ए-हर्फ़-ओ-नवा क्या
लफ़्ज़ों में बयाँ ग़म के फ़साने नहीं होते

'मख़मूर' ये अब क्या है कि बार-ए-ग़म-ए-दिल से
बोझल मिरे एहसास के शाने नहीं होते

5-ग़ज़ल 


याद फिर भूली हुई एक कहानी आई
दिल हुआ ख़ून तबीअत में रवानी आई

सुब्ह-ए-नौ नग़्मा-ब-लब है मगर ऐ डूबती रात
मेरे हिस्से में तिरी मर्सिया-ख़्वानी आई

ज़र्द-रू था किसी सदमे से उभरता सूरज
ये ख़बर डूबते तारों की ज़बानी आई

हर नई रुत में हम अफ़्सुर्दा ओ दिल-गीर रहे
या तो गुज़रे हुए मौसम की जवानी आई

पा गए ज़िंदगी-ए-नौ कई मिटते हुए रंग
ज़ेहन में जब कोई तस्वीर पुरानी आई

ख़ुश्क पत्तों को चमन से ये समझ कर चुन लो
हाथ शादाबी-ए-रफ़्ता की निशानी आई

याद का चाँद जो उभरा तो ये आँखें हुईं नम
ग़म की ठहरी हुई नद्दी में रवानी आई

दिल ब-ज़ाहिर है सुबुक-दोश-ए-तमन्ना 'मख़मूर'
फिर तबीअत में कहाँ की ये गिरानी आई

1-नज़्म 


ज़मीं का ये टुकड़ा

मिरे बढ़ते क़दमों को चारों दिशाओं से अपनी तरफ़ खींचता है

गले से लगा कर मुझे भींचता है
कि बारह बरस से यहाँ दफ़्न हूँ में

ज़मीं का ये टुकड़ा
मिरे दीदा-ओ-दिल की मंज़िल मिरी ज़िंदगी है

कि ज़र्रों में इस के अजब दिलकशी है
मगर मैं तो इस से गुरेज़ाँ रहा हूँ गुरेज़ाँ हूँ अब भी

कहाँ सामना कर सकूँगा मैं इस का कि उस तोदा-ए-ख़ाक के रू-ब-रू में
पशेमाँ था कल भी पशेमाँ हूँ अब भी

पशेमानियाँ मेरे शाम-ओ-सहर का मुक़द्दर
पशेमानियों से मिरे रोज़-ओ-शब की फ़ज़ाएँ मुकद्दर

ज़मीं का ये टुकड़ा
दिखाता है मुझ को मिरी बेबसी का वो आईना जिस में

अभी तक वो इक साअ'त-ए-मुन्फ़इल मुनअ'किस है
कि जब वो मुझे या उसे क़त्ल करने को ले जा रहे थे

वो ही जो यहाँ ख़ाक की चादर ओढ़े हुए चुप पड़ा है
जो मेरा ही इक पैकर-ए-ख़ूँ-शुदा है

तो जब वो उसे या मुझे क़त्ल करने को ले जा रहे थे
तो बे-दस्त-ओ-पा इक तमाशाई की तरह मैं उन का मुँह तक रहा था

समझ में न आए अगर अब मैं सोचूँ मुझे क्या हुआ था
मिरी बेबसी थी किसी लम्हा-ए-बे-बसीरत की साज़िश

कि उस में कोई मस्लहत उस की थी दीद-ओ-दानिश में क़द जिस का सब से बड़ा है
जो हर अहद-ए-आइन्दा-ओ-रफ़्ता के इल्म-ओ-इल्लत की हद है

अज़ल से अबद है
ज़मीं का ये टुकड़ा

जहाँ आ के मैं ख़ुद को बूढ़ा सा महसूस करने लगा हूँ
ख़ुद अंदर ही अंदर बिखरने लगा हूँ

मिरी हर तग-ओ-दौ का हासिल है हद है
अज़ल है अबद है

ज़मीं का ये टुकड़ा

तब्सरा:-

मख़मूर सईदी की शायरी सिर्फ़ हर्फ़ों का तसन्नुफ़ (शैली) नहीं, बल्कि एहसासात की तर्जुमानी थी। उन्होंने अपने कलाम में ज़िंदगी के तल्ख़ हक़ीक़ात, मोहब्बत की नज़ाकत और समाज की कश्मकश को इस अंदाज़ में पिरोया कि हर शेर अपनी जगह मुकम्मल अफ़साना मालूम होता है। उनकी ग़ज़लों में महज़ इश्क़ की रंगीनी ही नहीं, बल्कि हालात का ग़म, बग़ावत की लौ और इंसानी जज़्बात की गहराई भी नज़र आती है।

सहाफ़त से लेकर शायरी तक, उन्होंने उर्दू ज़बान की ख़िदमत जिस जज़्बे से की, वो आज भी उर्दू अदब की तहज़ीबी रवायत का हिस्सा है। उनकी नज़्में एक तरफ़ वज्दानी कशिश रखती हैं, तो दूसरी तरफ़ अदबी तज़रुबात की बुलंदियों को छूती हैं। मख़मूर सईदी का लहजा सादा, मगर असरदार था—जो दिलों में सीधे उतर जाता था।

उनकी ज़िंदगी और शायरी इस बात की मिसाल है कि एक सच्चा शायर वही होता है जो सिर्फ़ ख़्वाबों की तामीर में नहीं, बल्कि हक़ीक़त के ख़ुरदुरे रास्तों पर भी अपने अल्फ़ाज़ की रोशनी बिखेर सके। उनकी ग़ज़लें आज भी अदबी महफ़िलों की ज़ीनत हैं और उनकी किताबें उर्दू के तलबगारों के लिए राहनुमा की हैसियत रखती हैं।

"तू जो नज़रों से छुपा भी तो अयाँ है फिर भी,

ज़ख़्म भरते नहीं, ये कैसी दवा है फिर भी!"

मख़मूर सईदी चले गए, मगर उनके अश'आर की महक़ आज भी हवाओं में बाक़ी है!ये भी पढ़ें 

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