उर्दू की शफ़्फ़ाफ़ आबगीना जैसी लफ्ज़ों की रौशन दुनिया में जब भी किसी ऐसे अदीब का ज़िक्र आता है, जिसने अपनी ज़िंदगी की कठिनाइयों को अल्फ़ाज़ का जामा पहनाकर अदब की दुनिया को रौशन किया, तो जनाब डॉ मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी का नाम बड़ी ताज़गी और एहतराम से लिया जाता है। उनकी शायरी, उनके तसव्वुरात और उनके इरफ़ानी जज़्बात एक ऐसी दौलत हैं, जो उर्दू अदब के चाहने वालों के लिए नायाब तोहफ़ा हैं।
मुशक्कतों का सफ़र और उर्दू से मोहब्बत
शहर संभल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, भारत के इस अजीम सपूत ने अपनी ज़िंदगी का सफ़र हैण्डीक्राफ़्ट के कारख़ानों से शुरू किया, जहाँ मेहनत की तपिश में तालीम की शमा जलाना आसान न था। कम तनख्वाह में अहले ख़ाना की ज़रूरतों को पूरा करना और साथ ही अपनी पढ़ाई को जारी रखना, उनकी अज़्मत और बुलंदी का मंजर पेश करता है। लेकिन उनकी मेहनत, सब्र और लगन ने अदब की दुनिया में उन्हें वो मक़ाम अता किया, जो बहुत कम लोगों को नसीब होता है।
एक शायर, एक साहाफ़ी, एक मुसन्निफ़
जनाब डॉ मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी साहब सिर्फ़ एक शायर ही नहीं, बल्कि उर्दू अदब के माहिर सहाफी और मुसन्निफ़ भी थे। उन्होंने फन-ए-उरूज़ में महारत हासिल की और अपनी गहरी फ़िक्री और जहनी सलाहियत से उर्दू अदब को नए आयाम अता किए। उनकी अदबी खिदमात किसी तआरुफ़ की मोहताज नहीं। उनकी शायरी उर्दू के गुलशन में एक नायाब फूल की तरह महकती है।
शायरी के सात नायाब मजमुए
जनाब डॉ मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी ने अपने फ़िक्र और जज़्बे को अल्फ़ाज़ में ढालकर सात शायरी के मजमूए क़लमबंद किए, जिनमें:
- हिलाल-ए-बता
- औराक़-ए-जमाल
- बहरों के चराग़
- रुबाइयात का मजमूआ 'रुतें'
जैसे शानदार मजमूए शामिल हैं, जो आलमी सतह पर क़दर की निगाह से देखे गए और बड़ी कामयाबी हासिल की। उनकी शायरी में ग़ज़ल, रुबाई, नज़्म, और क़ता की रिवायती ख़ूबसूरती मौजूद थी, लेकिन उन्होंने नए दौर की ज़रूरतों के मुताबिक़ उसमें नया अंदाज़ और रंग भी शामिल किया।
मुशायरों और मीडिया में शानदार सफ़र
जनाब डॉ मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी साहब की आवाज़ सिर्फ़ किताबों तक ही महदूद नहीं रही, बल्कि उन्होंने अपने जज़्बात और एहसासात को आल इंडिया मुशायरों, दिल्ली दूरदर्शन, कई रेडियो चैनलों और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शानदार जलसों और मुशायरों में पेश किया। उनके अल्फ़ाज़ में एक ऐसी कशिश थी, जो सुनने वाले को अपने जादू में बाँध लेती थी।
डॉ मो.ताहिर रज़ज़ाक़ि साहब की कुछ रुबाइयात
रक़्स करने लगे हैं सन्नाटे
शाम आयी उदासियाँ लेकर
तोड़ दो ये तिलिस्म तीराह शबी
अभी जाओ तज्जलियाँ लेकर
तस्कीन ए दिलो जाँ हे रुबाई कहना
जज़्बों का चराग़ाँ हे रुबाई कहना
औज़ान न जाने तो हे कहना मुश्किल
वाक़िफ़ हे तो आसान हे रुबाई कहना
में तेरा गुनहगार हूँ मेरे आक़ा
हर रुख से ख़ताकार हूँ मेरे आक़ा
कुछ भी तो नहीं पास असासे बख़्शिश
रेहमत का तलबगार हूँ मेरे आक़ा
हम क़लन्दर मिज़ाज हैं हमसे
जिस क़द्र चाहे तू ख़ुशी लेले
तेरे हिस्से में जितने आंसू हैं
उनके बदले मे तू हंसी लेले
एक रोशन चराग़ का सिलसिला
डॉ मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी ने अपने इल्मी और अदबी ख़ज़ाने से उर्दू अदब की नई नस्ल को बहुत कुछ दिया। उनकी मेहनत और इश्क़-ए-अदब की जो लौ जली थी, वो आने वाली नस्लों को रास्ता दिखाती रहेगी। उनकी शायरी, उनकी तहरीरें और उनकी मेहनतें उर्दू अदब के अस्मान पर सितारों की तरह हमेशा चमकती रहेंगी।
अल्लाह तआला से दुआ है कि उनके दरजात बुलंद करे और उर्दू की ये महक हमेशा दुनिया में बाक़ी रहे। आमीन!