मीर तकी मीर:उर्दू शायरी के अज़ीम तरीन नुमाइंदे

परिचय: उर्दू शायरी के बेमिसाल उस्ताद

अगर उर्दू शायरी का नाम लिया जाए और मीर तकी मीर का तज़किरा न किया जाए, तो यह उर्दू अदब के साथ नाइंसाफ़ी होगी। मीर तकी मीर को उर्दू शायरी का ‘ख़ुदा-ए-सुख़न’ कहा जाता है। उनकी शायरी इश्क़, दर्द, हसरत, विरह और तनहाई के ख़ालिस जज़्बात से लबरेज़ है। उनकी ग़ज़लों में ग़म की शिद्दत, मोहब्बत की पाकीज़गी और ज़िंदगी के तल्ख़ तजुर्बात की सच्चाई नुमायां होती है।

मीर तकी मीर ने उर्दू ग़ज़ल को एक नई पहचान दी। उनकी शायरी में जो सादगी और गहराई मिलती है, वह किसी और शायर के कलाम में इतनी ख़ूबसूरती से नज़र नहीं आती। उनके कलाम में ग़म का वो एहसास मिलता है, जो सीधे दिल के आर-पार हो जाता है। उनकी शायरी महज़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि इश्क़ और दर्द के दरिया में डूबा हुआ एक हसीन एहसास है।


जन्म और बचपन: तंगदस्ती और मुफ़लिसी का दौर

मीर तकी मीर का असल नाम मीर मुहम्मद तकी था। उनका जन्म फ़रवरी 1723 में आगरा (अकबराबाद) में हुआ। उनके वालिद मीर अली मुहम्मद एक बड़े दीनदार और सूफ़ी तबीयत के इंसान थे। उन्होंने अपने बेटे को मोहब्बत, इंसानियत और तसव्वुफ़ की तालीम दी। मीर का बचपन मुफ़लिसी और तकलीफ़ों से भरा था। जब वे महज़ नौ साल के थे, तभी उनके वालिद का इंतिक़ाल हो गया।

वालिद के गुज़र जाने के बाद उनकी ज़िंदगी मुश्किलात से भर गई। सौतेले भाइयों ने उनकी जायदाद पर कब्ज़ा कर लिया और वे बेघर हो गए। उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाईं, मुफ़लिसी का ज़हर पिया और ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से गुज़रे।

दिल्ली की ओर सफ़र: एक शायर का जन्म

बचपन की इन तकलीफ़ों ने मीर की शायरी में वो दर्द भर दिया, जो उनकी पूरी ज़िंदगी झलकता रहा। मुफ़लिसी के बावजूद उन्होंने तालीम जारी रखी और धीरे-धीरे शायरी की तरफ़ रुझान बढ़ा। कम उम्र में ही उनका कलाम उर्दू के अदबी हलक़ों में मक़बूल होने लगा।

अपनी मुफ़लिसी और दर्द से निजात पाने के लिए मीर ने आगरा छोड़ दिया और दिल्ली का रुख़ किया। यह वही दौर था, जब दिल्ली अदब और शायरी का मरकज़ हुआ करती थी। मीर ने वहाँ के अदबी हलक़ों में शिरकत की और धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई। उनकी शायरी की मासूमियत, दर्द और सादगी ने उन्हें जल्द ही मक़बूल बना दिया।

मीर की शायरी: दर्द का आईना

मीर तकी मीर की शायरी में जो दर्द और गहराई है, वह किसी और शायर के कलाम में इस शिद्दत से नज़र नहीं आती। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में इश्क़ को एक पाकीज़ा अहसास की तरह पेश किया। उनके अशआर सीधे दिल में उतर जाते हैं।

"इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
बोझ उठता नहीं है हौले से"

मीर की ग़ज़लों में इश्क़ की पाकीज़गी, विरह की तड़प और मोहब्बत की गहराई देखने को मिलती है। उन्होंने न सिर्फ़ इश्क़ को बयान किया, बल्कि इंसानी जज़्बातों को भी अपनी शायरी में जगह दी। उनकी शायरी में तसव्वुफ़ (सूफ़ी फ़लसफ़ा) और फलसफ़ा भी झलकता है।

दिल्ली का उजड़ना और मीर का ग़म

जब अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर हमला किया और शहर को तबाह कर दिया, तो मीर के दिल पर गहरा असर पड़ा। वह दिल्ली से बेपनाह मुहब्बत करते थे, लेकिन जब उन्होंने अपनी आँखों के सामने दिल्ली को उजड़ते देखा, तो उनका दिल टूट गया। उन्होंने अपनी इस बर्बादी को शायरी में यूं बयान किया—

"दिल्ली जो इक शहर था आलम में इंतेख़ाब
रहते थे मुन्तख़ब ही जहाँ रोज़गार के
जिस को फ़लक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के"

दिल्ली उजड़ने के बाद मीर के पास रहने को कोई ठिकाना नहीं था। मजबूर होकर उन्होंने लखनऊ की तरफ़ रुख़ किया।

लखनऊ का सफ़र: मोहब्बत और तिरस्कार

लखनऊ में मीर तकी मीर को नवाब आसफ़-उद-दौला के दरबार में जगह मिली, लेकिन वहाँ के बनावटी अदब और शायरी की नई रवायतें उन्हें पसंद नहीं आईं। उन्हें वहाँ तवज्जो तो मिली, लेकिन इज़्ज़त नहीं। लखनऊ की चकाचौंध और बनावटी शायरी ने उन्हें और ज़्यादा ग़मगीन कर दिया।

एक बार नवाब आसफ़-उद-दौला ने उनसे पूछा कि “मीर साहब, आपको इस मुल्क में कैसा लगा?” मीर ने जवाब दिया—

"किसी के दिल का मुआमला है, न पूछ मुझसे
कि सब्र कर भी लिया तो क्या, वो जो दर्द था, वो कहाँ गया"

मीर को वहाँ वो एहतराम नहीं मिला, जिसके वह हक़दार थे। उनके तंज़िया और तल्ख़ लहजे ने कई लोगों को उनसे दूर कर दिया और वे तन्हा होते चले गए।

मीर और ग़ालिब: दो अज़ीम शायरों की तुलना

अगर उर्दू शायरी के दो सबसे बड़े नामों की बात करें, तो मीर तकी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम ज़रूर लिया जाएगा। ग़ालिब ने ख़ुद मीर की शायरी की ताज़ीम करते हुए कहा था—

"रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था"

ग़ालिब को मीर की शायरी में जो दर्द और सादगी नज़र आई, वह उन्हें बेहद पसंद थी। मीर की शायरी में जो जज़्बात की शिद्दत है, वह उर्दू अदब में एक मिसाल बन चुकी है।

आख़िरी दिन और मौत

मीर तकी मीर की ज़िंदगी का आख़िरी हिस्सा मुफ़लिसी और तन्हाई में गुज़रा। उनकी बीवी और बेटी की मौत ने उन्हें और तोड़ दिया। वे लखनऊ में ग़रीबी और बीमारी से जूझते रहे।

20 सितंबर 1810 को लखनऊ में मीर का इंतिक़ाल हो गया। कहा जाता है कि उनकी क़ब्र पर बाद में रेलवे लाइन बना दी गई और उनका मज़ार मिट गया। लेकिन उनकी शायरी आज भी ज़िंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगी।

मीर तक़ी मेरे की शायरी,ग़ज़लें 


1-ग़ज़ल 


गुल को महबूब हम-क़्यास किया

फ़र्क़ निकला बहुत जो पास किया


दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना

एक आलम का रू-शनास किया


कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन

शौक़ ने हम को बे-हवास किया


इश्क़ में हम हुए न दीवाने

क़ैस की आबरू का पास किया


दौर से चर्ख़ के निकल न सके

ज़ोफ़ ने हम को मूरतास किया


सुब्ह तक शम्अ' सर को धुनती रही

क्या पतिंगे ने इल्तिमास किया


तुझ से क्या क्या तवक्क़ोएँ थीं हमें

सो तिरे ज़ुल्म ने निरास किया


ऐसे वहशी कहाँ हैं ऐ ख़ूबाँ

'मीर' को तुम अबस उदास किया

2-ग़ज़ल 


हस्ती अपनी हबाब की सी है

ये नुमाइश सराब की सी है


नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है


चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर

याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है


बार बार उस के दर पे जाता हूँ

हालत अब इज़्तिराब की सी है


नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू

बैत इक इंतिख़ाब की सी है


मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़

उसी ख़ाना-ख़राब की सी है


आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद

देर से बू कबाब की सी है


देखिए अब्र की तरह अब के

मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है


'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में

सारी मस्ती शराब की सी है

3-ग़ज़ल 


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है


लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक

उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है


आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं

कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है


आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में

जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है


चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं

वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है


क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा

ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है


मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं

और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है


क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना

जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है


रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी

इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है


तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश

दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है

4-ग़ज़ल 


अश्क आँखों में कब नहीं आता

 लहू आता है जब नहीं आता


होश जाता नहीं रहा लेकिन

जब वो आता है तब नहीं आता


सब्र था एक मोनिस-ए-हिज्राँ

सो वो मुद्दत से अब नहीं आता


दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश

गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता


इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना

बात का किस को ढब नहीं आता


जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम

पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता


दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से

इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता

5-ग़ज़ल 


हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए

उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए


जिन की ख़ातिर की उस्तुख़्वाँ-शिकनी

सो हम उन के निशान-ए-तीर हुए


नहीं आते कसो की आँखों में

हो के आशिक़ बहुत हक़ीर हुए


आगे ये बे-अदाइयाँ कब थीं

इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए


अपने रोते ही रोते सहरा के

गोशे गोशे में आब-गीर हुए


ऐसी हस्ती अदम में दाख़िल है

नय जवाँ हम न तिफ़्ल-ए-शीर हुए


एक दम थी नुमूद बूद अपनी

या सफ़ेदी की या अख़ीर हुए


या'नी मानिंद-ए-सुब्ह दुनिया में

हम जो पैदा हुए सौ पीर हुए


मत मिल अहल-ए-दुवल के लड़कों से

'मीर'-जी उन से मिल फ़क़ीर हुए

निष्कर्ष:-

मीर तकी मीर सिर्फ़ एक शायर नहीं, बल्कि उर्दू शायरी के अज़ीम तरीन नुमाइंदे थे। उनकी शायरी में इश्क़ की पाकीज़गी, दर्द की शिद्दत और ज़िंदगी की हकीकतें इस तरह बयान की गई हैं कि उनका हर शेर आज भी लोगों के दिलों पर दस्तक देता है।

अगर उर्दू शायरी को एक जिंदा अहसास माना जाए, तो मीर तकी मीर उसकी धड़कन हैं। उनकी शायरी हमेशा दिलों में बसती रहेगी।ये भी पढ़े 

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