कैसर उल जाफ़री: एक अज़ीम शायर की मुकम्मल जीवनी

कैसर उल जाफ़री का जन्म 14 सितंबर 1928 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले की चायल तहसील के गाँव नज़रगंज में हुआ था। उनके पिता का नाम क़ाज़ी सैय्यद सग़ीर अहमद और माता का नाम इशरत बेगम था। उनका परिवार एक पढ़ा-लिखा और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध परिवार था, जो साहित्य और विद्या से गहरा संबंध रखता था।


प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

कैसर साहब के बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया, जिससे उनके जीवन में एक गहरा असर पड़ा। उनके चाचा मौलाना अख़्तर साहब ने उनकी परवरिश की और उन्हें अरबी, फ़ारसी और उर्दू की तालीम दी। इस शिक्षा ने उनके अंदर भाषा और साहित्य के प्रति गहरी रुचि उत्पन्न कर दी।

नज़रगंज के एक तालाब के किनारे बैठकर कैसर साहब ने अपने बचपन के दोस्त आलम इलाहाबादी के साथ पहला शेर कहा। यह उनकी शायरी की शुरुआत थी, लेकिन दुर्भाग्यवश आलम एक हादसे में उसी तालाब में डूब गए। इस घटना ने कैसर साहब के मन में गहरा असर छोड़ा और यह दुख उनकी शायरी में अक्सर झलकता रहा।

इलाहाबाद से मुंबई तक: एक संघर्षपूर्ण सफ़र

अपने पिता के साथ इलाहाबाद आने के बाद कैसर साहब ने अपनी औपचारिक शिक्षा जारी रखी। इलाहाबाद उस दौर में उर्दू अदब और शायरी का एक बड़ा केंद्र था। यहाँ उन्होंने फ़ानी बदायूनी, जोश मलीहाबादी और साहिर लुधियानवी जैसे महान शायरों की रचनाएँ पढ़ीं। इनसे प्रेरित होकर उन्होंने खुद भी शेर कहने शुरू किए।

1948 में बेहतर रोज़गार की तलाश में कैसर साहब मुंबई आ गए। यहाँ उन्होंने वेस्टर्न रेलवे में नौकरी शुरू की, लेकिन उनका असली जुनून शायरी था। मुंबई में उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखकों और शायरों से हुई, जिन्होंने उनके साहित्यिक जीवन को नई दिशा दी। उन्होंने कुछ फ़िल्मी गीत भी लिखे, लेकिन फ़िल्मी दुनिया से उनका मन उचट गया क्योंकि उनकी शायरी का असली मक़सद इंसानियत, इश्क़ और समाज को बयां करना था।

साहित्यिक योगदान और शायरी की विशेषता

कैसर उल जाफ़री की शायरी में मोहब्बत, दर्द, समाज और इंसानियत की गहरी छवि मिलती है। उनकी ग़ज़लों में एक ख़ास तरह की सादगी और मिठास है, जो पाठकों के दिलों को छू जाती है। उनकी कुछ प्रसिद्ध पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

"ज़हन के सारे दरीचों पे जमीं है पतझड़,
इक तेरा नाम महकता है गुलाबों की तरह।"

उनकी शायरी में एक गहरी फ़लसफ़ियाना सोच नज़र आती है, जो उन्हें समकालीन शायरों से अलग करती है। वे साहिर लुधियानवी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से प्रभावित थे, लेकिन उनकी शायरी का अंदाज़-ए-बयाँ बिल्कुल अलग और अनूठा था।

इंसानियत और सादगी का प्रतीक

कैसर साहब न सिर्फ़ एक अज़ीम शायर थे, बल्कि एक बेहद सादा और नफ़ीस इंसान भी थे। उनका जीवन शालीनता और सादगी का बेहतरीन उदाहरण था। वे हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते थे और ज़िंदगी को संजीदगी से जीने में यक़ीन रखते थे। उनके बेटे इरफ़ान जाफ़री बताते हैं कि कैसर साहब को उनके इल्म और उनकी शायरी के लिए जाना जाता है, लेकिन वे अपने साधारण जीवन और प्रेमपूर्ण व्यवहार के लिए भी मशहूर थे।

प्रमुख कृतियाँ और प्रकाशित किताबें

  1. रंग-ए-हिना (1964): यह उनकी पहली किताब थी, जिसमें उनकी शुरुआती ग़ज़लें और नज़्में शामिल थीं।
  2. संग-आशना (1977): इस संग्रह में उनकी परिपक्व शायरी मिलती है।
  3. दश्ते-बेतमन्ना (1988): यह उनकी शायरी की गहराई और विविधता को दर्शाती है।
  4. हर्फ़े-तसलीम (1955): इस किताब में उनकी रचनाओं का एक और अलग पहलू देखने को मिलता है।
  5. पत्थर हवा में फेंके (1995): यह उनकी पिछली चार किताबों का निचोड़ है और उनकी शायरी का बेहतरीन संग्रह है।
  6. अगर दरिया मिला होता: यह उनकी अंतिम किताब थी, जिसका मसौदा तैयार था, लेकिन यह प्रकाशित नहीं हो सकी।

अंतिम समय और विरासत

5 अक्टूबर 2005 को कैसर साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी मृत्यु ने उर्दू साहित्य में एक बड़ा शून्य छोड़ दिया। उनकी शायरी आज भी लाखों दिलों में ज़िंदा है और उनके शब्दों में बसी मोहब्बत और इंसानियत आज भी पाठकों को प्रेरित करती है।

उनका एक मशहूर शेर है:

"दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है,
हम जैसे बेचैन को सोना अच्छा लगता है।"

उनकी शायरी और उनकी यादें हमेशा हमारे साथ रहेंगी।

कैसर उल जाफ़री की शायरी,ग़ज़लें,नज़्मे 


1-ग़ज़ल 


सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा

सूरज उफ़ुक़ से झाँक रहा है नज़र उठा


इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी

इस ढेर को समेट नए बाम-ओ-दर उठा


मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे

कश्ती में सौ शिगाफ़ हों लंगर मगर उठा


शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ

अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा


मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना

कितना ग़ुबार था जो सर-ए-रहगुज़र उठा


सहरा में थोड़ी देर ठहरना ग़लत न था

ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा


दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी

दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा


'क़ैसर' मता-ए-दिल का ख़रीदार कौन है

बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा

2-ग़ज़ल 


यूँ बैठ रहीं दिल में शोरीदा तमन्नाएँ

गोया किसी जंगल में पत्तों की उड़ानें थीं


यारब मिरे हाथों में तेशा भी दिया होता

हर मंज़िल-ए-हस्ती में जब इतनी चटानें थीं


वो लम्हा-ए-लर्ज़ां भी देखा है सर-ए-महफ़िल

इक शोले की मुट्ठी में परवानों की जानें थीं


हम मरहला-ए-ग़म में तन्हा थे कहाँ यारो

क़ातिल थे सलीबें थीं तेग़ें थी सिनानें थीं


इक हर्फ़-ए-मोहब्बत यूँ फैला कि गुनह ठहरा

अफ़्साने हमारे थे दुनिया की ज़बानें थीं

3-ग़ज़ल 

तिरी बेवफ़ाई के बाद भी मिरे दिल का प्यार नहीं गया

शब-ए-इंतिज़ार गुज़र गई ग़म-ए-इंतिज़ार नहीं गया


मैं समुंदरों का नसीब था मिरा डूबना भी अजीब था

मिरे दिल ने मुझ से बहुत कहा मैं उतर के पार नहीं गया


तू मिरा शरीक-ए-सफ़र नहीं मिरे दिल से दूर मगर नहीं

तिरी मम्लिकत न रही मगर तिरा इख़्तियार नहीं गया


उसे इतना सोचा है रोज़ ओ शब कि सवाल-ए-दीद रहा न अब

वो गली भी ज़ेर-ए-तवाफ़ है जहाँ एक बार नहीं गया


कभी कोई वादा वफ़ा न कर यूँही रोज़ रोज़ बहाना कर

तू फ़रेब दे के चला गया तिरा ए'तिबार नहीं गया


मुझे उस के ज़र्फ़ की क्या ख़बर कहीं और जा के हँसे अगर

मिरे हाल-ए-दिल पे तो रोए बिन कोई ग़म-गुसार नहीं गया


उसे क्या ख़बर कि शिकस्तगी है जुनूँ की मंज़िल-ए-आगही

जो मता-ए-शीशा-ए-दिल लिए सर-ए-कू-ए-यार नहीं गया


मिरी ज़िंदगी मिरी शाइरी किसी ग़म की देन है 'जाफ़री'

दिल ओ जाँ का क़र्ज़ चुका दिया मैं गुनाहगार नहीं गया

4-ग़ज़ल 

घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे

लोग दरवाज़ों से निकले कि मुहाजिर ठहरे


दिल के मदफ़न पे नहीं कोई भी रोने वाला

अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे


इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही

कौन जाने कि कोई शर्त-ए-सफ़र फिर ठहरे


पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं

उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफ़िर ठहरे


ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है

क्या पड़ी है जो ये आँधी मिरी ख़ातिर ठहरे


शाख़-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं

वो परिंदे जो अँधेरों के मुसाफ़िर ठहरे


अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे

चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे


तिश्नगी कब के गुनाहों की सज़ा है 'क़ैसर'

वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफ़िर ठहरे

5-ग़ज़ल 

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे


तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे

तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे


जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो

कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे


वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब

ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे


न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में

वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे


तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर

कि तेरे बा'द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे


तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी 'क़ैसर'

कि एक घूँट में मुमकिन है बद-मज़ा न लगे

5-ग़ज़ल 

दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है

हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है


कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो

शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है


आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन

आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है


इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा

जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है


दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है


किस को पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है

शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है

1-नज़्म 


ज़िंदगी तू मुझे किस मोड़ पे ले आई है

ख़्वाब खुलते थे जहाँ बर्फ़ वहाँ छाई है


सौ दरीचे हैं मगर शम्अ किसी पर भी नहीं

चाँद निकले मिरी रातों का मुक़द्दर भी नहीं


क्या करूँ क्या न करूँ हाथ में पत्थर भी नहीं

शीश-महलों को कोई ग़म भी नहीं डर भी नहीं


लोग गूँगे हैं बयाबाँ में अज़ाँ कैसे हो

लोग क़ातिल हैं इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ कैसे हो


लोग पत्थर हैं तो एहसास-ए-ज़ियाँ कैसे हो

किस को फ़ुर्सत है जो पूछे कि मियाँ कैसे हो


रात जब ख़त्म हुई थी तो सहर लगती थी

रौशनी राहगुज़र राहगुज़र लगती थी


ज़िंदगी कूचा-ए-जानाँ का सफ़र लगती थी

अपनी मंज़िल कहीं जन्नत के उधर लगती थी


कुछ भी आँखों में नहीं अश्क-ए-नदामत के सिवा

कुछ भी दामन में नहीं दाग़-ए-मलामत के सिवा


कुछ भी चेहरे पे नहीं गर्द-ए-मसाफ़त के सिवा

अपनी दूकान में सब कुछ है मोहब्बत के सिवा

2-नज़्म 

नीली जिल्द की किताब

मेरे घर में झोंज बनाए गौरय्या का जोड़ा

चोंच में ले कर आए जाए भूसा थोड़ा थोड़ा


भूसे में कुछ तिनके भी हैं कुछ मटियाले पर

नीले पीले उजले मैले भूरे काले पर


बाग़ों बाग़ों हो कर आए अपना घर न भूले

पहले वो रस्सी पर बैठे पल भर झूला झूले


फिर अलमारी में उड़ कर जाए सीधे अपने कोने

ग़ालिब का दीवान चुना है रहने को इन दो ने


नीली नीली जिल्द पे जैसे फूल रखा हो कोई

या काग़ज़ को रात समझ कर चाँद उगा हो कोई


क़िस्मत वाले ठहरे उन के लाल गुलाबी पंजे

उर्दू का इक शायर आया उन के पाँव के नीचे


चाँदी जैसे तख़्त पे सो कर गुज़रीं रातें उन की

'ग़ालिब'-साहिब सुनते होंगे शायद बातें उन की


माज़ी की बुनियाद पे रक्खा है मुस्तक़बिल सब का

आने वाले दौर में लोगो अटका है दिल सब का


गौरय्या के इन ख़्वाबों को कैसे तोड़ा जाए

कोई नुस्ख़ा और मँगा लें इस को छोड़ा जाए

तब्सरा:-

कैसर उल जाफ़री की शायरी सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि अहसासों की गहराइयों का आईना है। उनकी शायरी में इश्क़ की तासीर भी है और समाजी बेदारियों की चिंगारी भी। उनका कलाम हर दौर में मायने रखता रहेगा, क्योंकि उन्होंने हक़ीक़त को अशआर में ढालने की महारत हासिल की थी। आज जब उर्दू अदब को नए मायनों की तलाश है, कैसर साहब की शायरी एक मशाल की तरह रोशनी देती रहेगी। उनका कलाम हमें याद दिलाता है कि अल्फ़ाज़ की ताक़त दिलों को जीत सकती है और ज़माने की रवायतों को बदल सकती है।ये भी पढ़ें 

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