नाम: सैयद ग़ुलाम नसीरुद्दीन नसीर गिलानी
पैदाइश: 14 नवम्बर 1949
विसाल: 13 फरवरी 2009
मक़ाम: गोलड़ा शरीफ़, इस्लामाबाद, पाकिस्तान
सिलसिला: क़ादरिया चिश्तिया
वालेद: हज़रत पीर ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
जद्द-ए-अमजद: हज़रत पीर महर अली शाह
रूहानी नस्ल और ख़ानवादा-ए-गोलड़ा
हज़रत नसीरुद्दीन नसीर गिलानी एक ऐसे मुक़द्दस और नूरानी ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे जिसने बर्र-ए-सग़ीर में इश्क-ए-रसूल ﷺ और तसव्वुफ़ की रिवायत को नया रुख़ अता किया। आप हज़रत महर अली शाह के परपोते और हज़रत ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी के फ़रज़ंद थे। महर अली शाह वही अज़ीम शख्सियत हैं जिन्होंने क़ादियानियत के ख़िलाफ़ क़लम और अमल से भरपूर जवाब दिया और इल्मी मुबारज़ा पेश किया।
इल्म और अदब का दरिया
हज़रत नसीर गिलानी साहब सिर्फ़ एक वली-ए-कामिल नहीं, बल्कि एक आलिम, मुफक्किर, मुहक़्क़िक़ और बे-मिसाल शायर भी थे। उन्होंने उर्दू, फ़ारसी, अऱबी और पंजाबी में बेपनाह इल्मी और अदबी खज़ाना तहरीर किया। उनकी तहरीरों में तसव्वुफ़ की लज़्ज़त, इश्क-ए-हक़ीक़ी की मस्ती, और इस्लामी मा'रिफ़त की रोशनी शामिल है।
आपने 36 से ज़्यादा किताबें तहरीर कीं जिनमें क़ुरान-ओ-हदीस, तसव्वुफ़, सैरत, मआशरत और अदब जैसे विषयों पर ना-याब मालूमात मौजूद हैं। आपकी फ़ारसी रुबाइयात ईरान की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ाई जाती हैं, जो आपके इल्मी मक़ाम की बलाग़त को साबित करती हैं।
चुनी हुई तसानीफ़
इन किताबों में उन्होंने ख़ालिस इल्मी अंदाज़ और सूफियाना अन्दाज़ में मुताल्लिक़ मसाइल को हल किया है।
शायरी – एक रूहानी जज़्बा
हज़रत नसीर की शायरी मर्सिया नहीं, बल्कि एक रूह की पुकार है। उनकी शायरी में इश्क-ए-हक़ीक़ी, शौक़-ए-रसूल ﷺ, और वजूद की गहराइयाँ शामिल हैं। उनके कलाम को नुसरत फ़तेह अली ख़ान जैसे अज़ीम फनकारों ने गाया और उसे पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया।
उनका एक मशहूर शेर:
"इक रोज़ तू कहेगा मैंने नसीर देखा
आइना तुझसे कह देगा हाँ मैंने भी उसे देखा"
ये शेर उनके फ़न और रूहानी फ़िक्र की इंतेहा है।
पेशगोई और विसाल
हज़रत नसीर ने अपने विसाल से कुछ रोज़ पहले अपने अज़ीज़ों को इसका इशारा दिया था। 13 फरवरी 2009 को आपने इस फानी दुनिया से पर्दा फरमाया। आपका विसाल 17 सफ़र 1430 हिजरी को हुआ।
अख़लाक़ और शख्सियत
आप शफ़क़त, इनकिसारी और तवाज़ो का मंज़र थे। कभी भी अपने इल्मी, अदबी या रूहानी मक़ाम का गुरूर न किया। हर मिलने वाले से नर्मी, मोहब्बत और ताज़ीम से पेश आते।
पीर नसीरुद्दीन नसीर साहब की शायरी,ग़ज़लें
ग़ज़ल -1
उन के अंदाज़-ए-करम उन पे वो आना दिल का
हाय वो वक़्त वो बातें वो ज़माना दिल का
न सुना उस ने तवज्जोह से फ़साना दिल का
ज़िंदगी गुज़री मगर दर्द न जाना दिल का
कुछ नई बात नहीं हुस्न पे आना दिल का
मश्ग़ला है ये निहायत ही पुराना दिल का
वो मोहब्बत की शुरूआ'त वो बे-थाह ख़ुशी
देख कर उन को वो फूले न समाना दिल का
दिल लगी दिल की लगी बन के मिटा देती है
रोग दुश्मन को भी यारब न लगाना दिल का
एक तो मेरे मुक़द्दर को बिगाड़ा उस ने
और फिर उस पे ग़ज़ब हंस के बनाना दिल का
मेरे पहलू में नहीं आप की मुट्ठी में नहीं
बे-ठिकाने है बहुत दिन से ठिकाना दिल का
वो भी अपने न हुए दिल भी गया हाथों से
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना दिल का
ख़ूब हैं आप बहुत ख़ूब मगर याद रहे
ज़ेब देता नहीं ऐसों को सताना दिल का
बे-झिजक आ के मिलो हंस के मिलाओ आँखें
आओ हम तुम को सिखाते हैं मिलाना दिल का
नक़्श-ए-बर आब नहीं वहम नहीं ख़्वाब नहीं
आप क्यूँ खेल समझते हैं मिटाना दिल का
हसरतें ख़ाक हुईं मिट गए अरमाँ सारे
लुट गया कूचा-ए-जानां में ख़ज़ाना दिल का
ले चला है मिरे पहलू से ब-सद शौक़ कोई
अब तो मुम्किन नहीं लौट के आना दिल का
उन की महफ़िल में 'नसीर' उन के तबस्सुम की क़सम
देखते रह गए हम हाथ से जाना दिल का
ग़ज़ल -2
तुझ सा न था कोई न कोई है हसीं कहीं
तू बे-मिसाल है तिरा सानी नहीं कहीं
अपना जुनूँ में मद्द-ए-मुक़ाबिल नहीं कहीं
दामन कहीं जेब कहीं आस्तीं कहीं
ज़ाहिद के सामने जो हो वो नाज़नीं कहीं
दिल हो कहीं हुज़ूर का दुनिया-ओ-दीं कहीं
इक तेरे आस्ताँ पे झुकी है हज़ार बार
वर्ना कहाँ झुकी है हमारी जबीं कहीं
दिल का लगाव दिल की लगी दिल लगी नहीं
ऐसा न हो कि दिल ही लुटा दें हमीं कहीं
क्या कहिए किस तरफ़ गए जल्वे बिखेर के
वो सामने तो थे अभी मेरे यहीं कहीं
गुज़रेगी अब तो कूचा-ए-जानां में ज़िंदगी
रहना पड़ेगा अब हमें जा कर वहीं कहीं
दिल से तो हैं क़रीब जो आँखों से दूर हैं
मौजूद आस पास हैं वो बिल-यक़ीं कहीं
नज़रों की और बात है दिल की है और बात
बातें जो मेरे दिल में हैं अब तक नहीं कहीं
ऐ ताज़ा वारिदान-ए-चमन होशियार बाश
बिजली चमक रही है चमन के क़रीं कहीं
मेरा ज़मीर अपनी जगह पर है मुतमइन
अपना समझ के उन से जो बातें कहीं कहीं
दिल ने बहुत कहा कि तुम्हें मेहरबाँ कहूँ
इस डर से चुप रहा कि न कह दो नहीं कहीं
आते ही हम तो कूचा-ए-जानां में लुट गए
दिल खो गया 'नसीर' हमारा यहीं कहीं
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ग़ज़ल -3
बे-रुख़ी उन की हर अदा में है
दिल ख़ुदा जाने किस हवा में है
इक झलक उस की इब्तिदा में है
आज़माइश जो इंतिहा में है
ज़ोह्द में है न इत्तिक़ा में है
ज़िंदगी मो'तबर वफ़ा में है
क़िस्से औरों के सुन रहा है कोई
दास्ताँ मेरी इल्तवा में है
ख़ैर या रब मिरे नशेमन की
बर्क़-ए-बेताब फिर घटा में है
ज़ुल्फ़ की चीरा-दसतिया तो
आदमी पंजा-ए-बला में है
जिस तरफ़ चाहे उस का रुख़ फेरे
नाव अब दस्त-ए-नाख़ुदा में है
वो ग़ुरूर-ए-जमाल में गुम हैं
मुद्दई' अ'र्ज़-ए-मुद्दआ में है
रास आया न जामा-ए-हस्ती
आदमी तंग-सी क़बा में है
और कुछ हो 'नसीर' में कि न हो
सैर-चश्मी तिरे गदा में है
ग़ज़ल -3
उन से हर वक़्त मिरी आँख लड़ी रहती है
क्या लड़ाका है कि लड़ने पे अड़ी रहती है
देख कर वक़्त के मक़्तल में मिरी शान-ए-वरूद
डर में क़ातिल ही नहीं मौत खड़ी रहती है
तेरी तस्वीर मिरे दिल में नगीने की तरह
जगमगाती है चमकती है जुड़ी रहती है
लोग सच कहते हैं पामाल-ए-मोहब्बत मुझ को
मेरी चाहत तिरे क़दमों में पड़ी रहती है
आफ़तें लाख हों देखा न कभी चेहरा-ए-यास
मुझ को अल्लाह से उम्मीद बड़ी रहती है
जो कभी ख़ून-ए-शहीदाँ से हिना-बंद रहे
अब इन्हीं फूल से हाथों में छड़ी रहती है
यूँ न इतरा कि जवानी भी है आनी जानी
चाँदनी चाँद की दो चार घड़ी रहती है
गिर्या-ए-चश्म का उल्फ़त में ये 'आलम है 'नसीर'
कोई मौसम भी हो सावन की झड़ी रहती है
निष्कर्ष:-
हज़रत सैयद ग़ुलाम नसीरुद्दीन नसीर गिलानी रहमतुल्लाह अलैहि अपने वक़्त के ऐसे चश्मा-ए-रहमत थे जिनसे इल्म, अदब, तसव्वुफ़ और इश्क-ए-रसूल ﷺ का पानी लगातार बहता रहा। उन्होंने न सिर्फ़ अपने ख़ानदानी रूहानी विरसे को नया रौशन किया, बल्कि अपने इल्मी और अदबी कारनामों से पूरी दुनिया में अपने नूर का उजाला फैलाया।
उनकी शायरी इश्क़ की सरगोशी है, उनकी किताबें हिदायत की मीनारें हैं, और उनकी शख्सियत आज भी तलबगारे-हक़ के लिए रहनुमा है। हज़रत नसीर का विसाल एक जिस्मानी जुदाई था, मगर उनकी तहरीरें, शायरी और रूहानी असर आज भी दिलों को सुकून और रौशनी बख़्शते हैं।
हज़रत नसीरुद्दीन नसीर रहमतुल्लाह अलैहि की यादें और तालीमात हमेशा एक महकते हुए चमन की तरह ज़िंदा रहेंगी, जो हर दौर के इंसानों को इश्क़, इल्म और इंसानियत का सबक देती रहेंगी।ये भी पढ़े
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