उर्दू अदब में ख़तूत (चिट्ठियों) की अदबी हैसियत: एक गुमशुदा फ़न

मुकद्दिमा

उर्दू अदब का जब ज़िक्र होता है तो हमारे ज़ेहन में फ़ौरन ग़ज़ल, नज़्म, अफ़साना, या उपन्यास का ख्याल आता है।
लेकिन एक फ़न, एक रवायत जो उर्दू अदब की रूहानी तहजीब का बेमिसाल हिस्सा रहा है — वो है 'ख़तूत निगारी', यानी अदबी चिट्ठियाँ लिखने का फन।

आज की दौड़ती-भागती दुनिया में जहां चंद लफ़्ज़ों के टेक्स्ट मैसेज ज़िंदगी की बयानी बन चुके हैं, वहां अदबी खतूत की रवायत एक गुमशुदा धरोहर बनती जा रही है।
इस रवायत ने न सिर्फ अदबी माहौल को संवारा, बल्कि तफ़क्कुर, ज़ौक़, तमीज़-ओ-तहज़ीब, और इंसानी जज़्बात को भी एक बेहद नर्म, दिलनशीं लिबास पहनाया।

आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो मीर, ग़ालिब, सर सैयद, इक़बाल, इस्मत चुगताई, मंटो जैसे अदब के कोहे-गिराँ हमें उनके ख़तूत में और भी नज़दीक से नज़र आते हैं।
ख़त महज़ कुछ अल्फ़ाज़ नहीं थे, वो दिल का निचोड़, फिक्र का आईना, और अदब का ज़िन्दा दस्तावेज़ थे।



उर्दू में ख़तूत की इब्तिदा

उर्दू में ख़तूत की रवायत फ़ारसी अदब से मुन्तक़िल हुई थी।
फ़ारसी में रावी (Correspondence) और इनशा निगारी एक अलग फन की तरह मानी जाती थी।
उर्दू में मीर तकी मीर, सौदा, वली दक्कनी जैसे शायरों के दौर में खत, महज़ इत्तिलाआत का जरिया नहीं था बल्कि अदबी लिहाज़ से भी उन्हें एहमियत दी जाती थी।

मीर के ख़त हों या मीर अनीस के खत, उनमें एक मिठास, एक संजीदगी और अदबी लुत्फ़ की झलक मिलती है।
अभी उर्दू के खतूत मुकम्मल तौर पर एक फन की शक्ल नहीं ले पाए थे, लेकिन बुनियादें रखी जा चुकी थीं।


मिर्ज़ा ग़ालिब के खतूत: नसर का नया आहंग

अगर उर्दू में किसी ने ख़त को बाकायदा अदबी फन की बुलंदियों तक पहुँचाया तो वह थे मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ ग़ालिब
ग़ालिब के खतों ने उर्दू नसर को संजीदगी से बाहर निकालकर एक नई रवानी, एक नई मिठास और लचकदार अंदाज़ दिया।

ग़ालिब ने खत में तकल्लुफ़ (औपचारिकता) को तोड़ा और सीधी, दिल से निकलने वाली बात करने का अंदाज़ अपनाया।
उनके खतों में जदीदियत का रंग, ह्यूमर, ज़िंदगी का फ़लसफा, और अदबी शोखी का हुस्न मिलता है।
उनके एक खत में लिखा है:

"अल्लाह-अल्लाह! ख़त लिखा और जवाब आया। खत का जवाब न हो गया, दुआ का असर हो गया।"

ग़ालिब के खत हमारे सामने उस शायर की शख़्सियत को एक बिल्कुल अलग और इंसानी रंग में पेश करते हैं।
उनकी ज़िंदगी के हिज्र-ओ-विसाल, मुफलिसी, खुद्दारी और फ़लसफाना तजुर्बात खतों में ज़िंदा रहते हैं।


सर सय्यद और आला हज़रत के खतूत: इस्लाह और तालीम का सफर

सर सय्यद अहमद ख़ाँ ने भी खतूत के ज़रिए इल्म-ओ-तालीम की एक तहज़ीबी तहरीक चलाई।
उनके खतों में नसीहत, अक़्लमंदी और इस्लाह का बेशुमार मवाद मिलता है।
उन्होंने अपने दोस्तों, इल्मियों और मुफक्किरों को जो खत लिखे, वे न सिर्फ तालीम का पैग़ाम हैं, बल्कि एक ज़िम्मेदार तहज़ीब का भी आईना हैं।

आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ाँ के खत भी इल्मी और दीनदाराना अदब का बेहतरीन नमूना हैं।
उनके खतों में इल्म, तक़वा, और अदब की वो खुशबू है जो आज भी दिल को महका देती है।


इस्मत चुगताई और मंटो के खत: बग़ावत और जज़्बात का आइना

इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो जैसे अफ़सानानिगारों के खत एक अलग मिज़ाज रखते हैं।
इस्मत के खतों में तल्ख़ी और तंज़ की मिलावट है, मगर साथ ही इंसानी जज़्बात की पाकीज़गी भी दिखाई देती है।
मंटो के खतों में खुद्दारी, तंज़-ओ-मज़ाह और सियासी बेकसी का अक्स मिलता है।

मंटो के खत उनके अफसानों जितने ही तल्ख़ और बरहना हैं — जैसे वो बेझिजक अपने दौर की बुराइयों को खतों में नंगा कर देते हों।


खतूत की अदबी खूबियां

  • ज़िंदगी का आइना: खत महज़ इत्तिला नहीं, बल्कि वक्त की सांस लेते दस्तावेज़ होते हैं।

  • तहज़ीब का हुस्न: खतों में लफ्ज़ों का चयन, इज़हार का अंदाज़, अदबी तहज़ीब की नर्म रौशनी बिखेरता था।

  • शख़्सियत की झलक: एक शायर या अदीब के खत, उसकी फिक्र, उसका मिज़ाज और उसकी रूहानी हालत के आईना होते हैं।

  • नसर का नया अंदाज़: खतों ने उर्दू नसर को ताजगी, सादगी और फिक्र की गहराई दी।


खतूत की मौत और अदब का नुकसान

टेक्नोलॉजी ने फासले मिटाए मगर अहसास भी हल्के कर दिए।
आज WhatsApp, Email, Instagram DMs के दौर में न तो वो सब्र है, न वो अंदाज़, न वो मिज़ाज।
आज के दौर में ख़त जैसा लुत्फ़ न इत्तिला में है, न अहसास में।

नयी नस्ल के लिए खत लिखना महज़ एक अजूबा बन चुका है — और साथ ही उनके ज़रिए उर्दू अदब का एक ज़िंदा हिस्सा भी गुम होता जा रहा है।
जब खतों से अदब उठ गया तो जिंदगी से भी एक नर्मी, एक तहज़ीब उठ गई।


खतों से आज क्या सीखा जा सकता है?

  • सब्र और तफ़क्कुर: खत लिखने और पढ़ने में जो वक़्त लगता था, वो सब्र आज के दौर में लापता है।

  • अहतराम और मोहब्बत का अंदाज़: खत में मुख़ातिब के लिए अदब और मोहब्बत का लहजा बसा होता था।

  • अदबी लहजे की आबरू: खतों के ज़रिए इंसान अपना बयान मुनासिब और अदबी बनाना सीखता था।


इख़्तिताम:-

उर्दू अदब की इस गुमशुदा रवायत — खतूत निगारी — को आज ज़रूरत है फिर से ज़िंदा करने की।
अगर हम चाहते हैं कि उर्दू अदब में फिर से वो तहज़ीब, वो संजीदगी, वो दिलनशीं रवानी लौटे, तो हमें खत लिखने और पढ़ने की आदत को फिर से ज़िंदा करना होगा।

क्योंकि खत महज़ काग़ज़ पर लिखे अल्फ़ाज़ नहीं होते —
खत तो दिल से निकली दुआएं होती हैं, जो बरसों बाद भी महकती रहती हैं।

Read More Articles :-

1-Domaining Hindi-English

2-News Hindi


और नया पुराने