बचपन ही से मेरे घर की फ़िज़ाओं में उर्दू तहज़ीब, इल्म और अदब की नर्म-ओ-नाज़ुक ख़ुशबू रची-बसी थी। जैसे हर दीवार से शेर टपकते हों, और हर कोने में ग़ज़ल की सदा गूंजती हो। सुब्ह-ओ-शाम हमारे दर-ओ-दीवार किसी न किसी अदीब या शायर की मौजूदगी से रौशन रहते। चाय की प्यालियाँ, अदबी गुफ़्तगू और फ़िकरों की मिठास से वो महफ़िलें गुलज़ार होतीं — और मेरे वालिद-ए-मोहतरम, जनाब डॉ. मोहम्मद ताहिर रज़्ज़ाक़ी साहब, अपने मशहूर लाल क़लम से ग़ज़ल, नात, क़ता और मर्सिये की इस्लाह फरमाया करते।
मगर अफ़सोस, जब उन्होंने इस दुनिया ए फ़ानी से रुख़्सत लिया, तो जैसे महफ़िलों की रूह ही उड़ गई। वो चौखट जो कभी अदीबों का मरकज़ हुआ करती थी, वीरान हो गई। जिन शागिर्दों की आहटें घंटों हमारे घर में गूंजा करती थीं, वो साए बनकर ग़ायब हो गए। न कोई नाम लेता है, न कोई नशिस्त होती है, न कोई मुशायरा, और न ही बरसी पर कोई ख़िराज-ए-अक़ीदत। हर शख़्स इस वहम में मुब्तला है कि अब वही ताहिर रज़्ज़ाक़ी ‘है’ — और बाक़ी सब बस यादों के पुराने पन्ने हैं।
मैंने B.A. English Literature में किया है, जिसमें उर्दू और समाजशास्त्र भी मज़ामीन रहे — और फाइनल में डबल इंग्लिश से इम्तिहान दिया। ये तज़किरा सिर्फ़ डिग्री दिखाने को नहीं, बल्कि ये बताने को है कि मैंने अदब को सिर्फ़ पढ़ा नहीं — जिया है, महसूस किया है, ओढ़ा है। मैंने वो रिवायतें देखी हैं जहाँ उस्ताद और शागिर्द का रिश्ता महज़ इल्म का नहीं, बल्कि अदब, वफ़ा और फ़रमाबरदारी का पैकर हुआ करता था।
वालिद साहब अक्सर फ़रमाते थे कि उनके पहले उस्ताद जनाब वासिक़ साहब थे, फिर जनाब मोजिज संभली साहब और फिर डॉ. ओम प्रकाश अग्गरवाल ‘ज़ार अललामी’ — जिनसे उन्होंने फ़न-ए-उरूज़ सीखा, और उन्हीं की निगरानी में अपना Ph.D. मुकम्मल किया।
19 अप्रैल 2025 की रात मैंने जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब का एक इंटरव्यू देखा, जिसे आलोक श्रीवास्तव साहब ने लिया था। इंटरव्यू तो अच्छा था, मगर एक बात दिल में चुभ गई — उन्होंने एक बार भी अपने किसी उस्ताद का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा। ये ख़लिश दिल में रह गई।
मुद्दा यही है। आज जब मैं सोशल मीडिया, मुशायरों और ऑनलाइन अदबी प्लेटफ़ॉर्म्स पर नई नस्ल के शायरों को सुनता हूँ — जो कि मेरे ब्लॉग के सिलसिले में ज़रूरी भी है — तो एक गहरी, बहुत गहरी कमी महसूस होती है। ऐसा लगता है कि अब शोरा को खुद को "बड़ा" दिखाने की ऐसी जल्दी है, कि वो उन हाथों को भी भूल चुके हैं जिन्होंने उन्हें कलम पकड़ना सिखाया।
उर्दू अदब की एक पुरानी, मगर बेहद पाकीज़ा रवायत थी — उस्ताद का ज़िक्र करना, उन्हें दुआओं में याद रखना, और उनकी महफ़िलों को सजाना। अफ़सोस, अब वो रवायत दम तोड़ रही है। और ये सिर्फ़ रवायत का नहीं, तहज़ीब का, अदब का, और उस नाज़ुक सिलसिले का ख़ात्मा है जो पीढ़ियों को आपस में जोड़ता रहा है।
क्या हम ये भूल गए हैं कि उस्ताद का नाम न लेना, दरअसल उनकी मेहनत, उनकी रहनुमाई, और उस दुआ की नफ़ी करना है — जिसने हमें इस मक़ाम तक पहुँचाया?
मैं आज भी कुछ बुज़ुर्ग शोरा की "सामान-ए-हयात" पर काम कर रहा हूँ — उनमें ऐसे भी हैं जो अपने दादा-उस्तादों तक का ज़िक्र फ़ख्र से करते हैं। मगर अब कई ऐसे शायर नज़र आते हैं जो इस तरह पेश आते हैं जैसे उर्दू शायरी उन्होंने ईजाद की हो — और इस ज़बान ने उनके साथ ही जन्म लिया हो!
उर्दू अदब की ये निकम्मी औलादें असल में उसकी तहज़ीब और तम्मदुन को चोट पहुँचा रही हैं। ये वो लोग हैं जो न सिर्फ़ अपने अतीत से कटे हुए हैं, बल्कि आने वाली नस्ल को भी एक जड़ से महरूम विरासत सौंप रहे हैं।
मेरे शहर में आज भी मुशायरे होते हैं, मगर एक भी ऐसा नाम नहीं सुनाई देता जो अपने उस्ताद के नाम पर महफ़िल मंसूब कर दे, या उनकी याद में चंद अशआर पढ़ दे।
दोस्तों, जो शोरा अपने मजमुए, दीवान, या किताबें पीछे छोड़ गए — उनका नाम तो किसी न किसी पन्ने पर ज़िंदा रहेगा। मगर जिन शायरों ने सिर्फ़ उस्तादी-शागिर्दी की रवायत को अपना फ़ख्र समझा, मगर कुछ छपवा नहीं सके अगर उन्हें भी भुला दिया गया, तो हमारी ये नई नस्ल किसको देख कर रास्ता चुनेगी?
क्या यही है हमारा अदब का सफ़र...?
अदब सिखाता है:
"बड़ों को एहतराम, बराबर वालों को अदब और छोटों को मोहब्बत।"
उस्ताद का नाम लेना हमारी अदबी और इंसानी पहचान का हिस्सा है। आइए, इस सिलसिले को फिर से जोड़ें, महफ़िलों को फिर से रौशन करें, और उन नामों को याद करें — जिनकी उँगलियों ने हमारी कलम को राह दी।
अल्लाह हाफिज़
आपका अपना
हक़ीर ज़र्रा,
ज़िआउस सहर रज़्ज़ाक़ी
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