अब्बास ताबिश की शायरी: इश्क़, दर्द और फ़िक्र की आवाज़

जन्म और इब्तेदायी ज़िंदगी अब्बास ताबिश, जो उर्दू शायरी की दुनिया में एक चमकता सितारा हैं, का जन्म 15 जून 1961 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के ज़िला वहारी में हुआ। उनका असली नाम अब्बास बट है। बचपन से ही वो उर्दू ज़बान और अदब की ओर झुकाव रखते थे। उनके लफ़्ज़ों में बचपन से ही एक ऐसी मिठास और गहराई थी, जो आगे चलकर उनकी शायरी की पहचान बनी। उनका शौक़ सिर्फ़ किताबों तक महदूद नहीं था, बल्कि वो माहौल और जज़्बात को महसूस करने का हुनर भी रखते थे। यही वजह थी कि उनकी शायरी आम ज़िंदगी से जुड़ी हुई, मगर फ़िक्र और एहसास की ऊँचाइयों को छूने वाली साबित हुई।


इल्म और पेशेवर ज़िंदगी 

अब्बास ताबिश ने अपनी तालीम मुकम्मल करने के बाद उस्तादी के पेशे को अपनाया। उन्होंने लाहौर के मारूफ़ गवर्नमेंट कॉलेज गुलबर्ग में बतौर उर्दू के प्रोफेसर अपनी ख़िदमत अंजाम दी। तालीम की दुनिया में उनका किरदार सिर्फ़ एक उस्ताद का नहीं था, बल्कि एक रूहानी रहनुमा का भी था, जो अपने तलबा के दिलों में अदब की मुहब्बत जगाने की सलाहियत रखते थे। इसके अलावा, उन्होंने पाकिस्तान की नामवर अदबी मैगज़ीन ‘रावी’ के एडिटर की हैसियत से भी ख़िदमत अंजाम दी। इस मैगज़ीन के ज़रिए उन्होंने नए लिखने वालों की हौसला-अफ़ज़ाई की और उर्दू अदब की नई लहर को संवारने में अहम किरदार अदा किया।

अदबी सफ़र और शायरी का अंदाज़ 

अब्बास ताबिश की शायरी में मुहब्बत की शिद्दत, जुदाई का दर्द, रुहानीत की चमक और इंसानी एहसासात की नज़ाकत देखने को मिलती है। उनकी ग़ज़लों में अल्फ़ाज़ का चुनाव इस तरह किया गया है कि वो एक आम इंसान के दिल की धड़कनों से मेल खाते हैं। उनका कलाम सिर्फ़ हुस्न और इश्क़ तक महदूद नहीं, बल्कि ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों को भी अपने लफ़्ज़ों में ढालने का हुनर रखता है। उनकी शायरी में शायराना हुस्न और फ़िक्र का ऐसा संगम नज़र आता है, जो उर्दू अदब में बहुत कम देखने को मिलता है।

शायरी की किताबें और अदबी ख़ज़ाना

अब्बास ताबिश ने कई किताबें लिखी हैं, जो उर्दू शायरी के ख़ज़ाने में बेशकीमती इज़ाफ़ा हैं। उनकी मारूफ़ किताबों में शामिल हैं:

  • इश्क़ाबाद (इश्क़ और ज़िंदगी की पेचीदगियों को बयान करने वाला बेहतरीन मजमूआ)

  • तहमीद (ग़ज़लों और नज़्मों का दिलकश मजमूआ)

  • आसमान (जहाँ इश्क़, जज़्बात और शायराना हुस्न अपनी बुलंदी पर नज़र आता है)

इन किताबों में उनका कलाम गहरे एहसासात और मासूम ख़यालात की शक्ल में उभरता है। उनके अशआर में ऐसा दर्द और मिठास है जो पढ़ने वाले को एक नई दुनिया में ले जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय शोहरत और अदबी ऐज़ाज़ 

अब्बास ताबिश की शायरी सिर्फ़ पाकिस्तान तक महदूद नहीं रही, बल्कि उन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई है। वो नॉर्वे, दुबई, ऑस्ट्रेलिया, शारजाह, मस्कट, भारत, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे मुल्कों में होने वाले अज़ीम शायराना जलसों में शिरकत कर चुके हैं। उनकी आवाज़, उनका लहजा और उनके लफ़्ज़, महफ़िलों में एक रूहानी कैफ़ियत तारी कर देते हैं। उन्हें उनके अदबी ख़िदमात पर कई आला सतह के इनामात से नवाज़ा गया है।

माँ पर शायरी: एक अलहदा अंदाज़ 

अब्बास ताबिश की सबसे मक़बूल शायरी में से एक उनकी माँ पर लिखी गई शायरी है। उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से माँ की ममता, उसकी रातों की नींद, उसकी मुहब्बत और उसकी कुर्बानियों को इस ख़ूबसूरती से पिरोया कि पढ़ने वाला बेइख़्तियार अश्कबार हो जाता है:

"एक मुद्दत से मेरी माँ नहीं सोई ताबिश 

मैंने एक बार कहा था मुझे डर लगता है"

इस शेर में माँ की मोहब्बत, उसकी फ़िक्र और उसकी बेज़ुबान कुर्बानियों का अक्स नज़र आता है।

अब्बास ताबिश के मारूफ़ अशआर अब्बास ताबिश के कुछ ऐसे शेर हैं जो उर्दू अदब की जान बन चुके हैं:

"मैं अपने बाद बहुत याद आया करता हूँ 

तुम अपने पास न रखना कोई निशानी मेरी"

"हम दोनों अपने-अपने ग़हरों में मुकीम हैं 

पड़ता नहीं दरख़्त का साया दरख़्त पर"

"कहानियों में तो ये काम अजदहे का था 

मेरी जब आँख खुली, मेरे चार सू तुम थे"

उनकी मक़बूल नज़्में और ग़ज़लें

पागल
अधूरी नज़्म
उसे मैंने नहीं देखा
मुझे रास्ता नहीं मिलता
परों में शाम ढलती है
अंदेशा-ए-विसाल की एक नज़्म
अभी उसकी ज़रूरत थी

अब्बास ताबिश की शायरी/तख़लीक़ात (रचनाएँ )

ग़ज़ल -1

इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं
शहर-ए-तोहमत तिरी गलियों में फिराया गया मैं

मेरे होने से यहाँ आई है पानी की बहार
शाख़-ए-गिर्या था सर-ए-दश्त लगाया गया मैं

ये तो अब इश्क़ में जी लगने लगा है कुछ कुछ
इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया मैं

ख़ूब इतना था कि दीवार पकड़ कर निकला
उस से मिलने के लिए सूरत-ए-साया गया मैं

तुझ से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं थी वर्ना
एक मुद्दत तिरी दहलीज़ तक आया गया मैं

ख़ल्वत-ए-ख़ास में बुलवाने से पहले 'ताबिश'
आम लोगों में बहुत देर बिठाया गया मैं

ग़ज़ल -2

खा के सूखी रोटियाँ पानी के साथ
जी रहा था कितनी आसानी के साथ

यूँ भी मंज़र को नया करता हूँ मैं
देखता हूँ उस को हैरानी के साथ

घर में इक तस्वीर जंगल की भी है
राब्ता रहता है वीरानी के साथ

आँख की तह में कोई सहरा न हो
आ रही है रेत भी पानी के साथ

ज़िंदगी का मसअला कुछ और है
शे'र कह लेता हूँ आसानी के साथ

ग़ज़ल -3


मैं अपने इश्क़ को ख़ुश-एहतिमाम करता हुआ
मक़ाम-ए-शुक्र पे पहुँचा कलाम करता हुआ

ये गर्द-बाद सलामत गुज़रना चाहता है
मिरे चराग़ पे वहशत तमाम करता हुआ

गुज़र रहा हूँ किसी क़रिया-ए-मलामत से
क़दीम सिलसिला-दारी को आम करता हुआ

तो फिर ये कौन है निस्फ़ुन्नहार के हंगाम
क़याम ओ रक़्स की हालत में शाम करता हुआ

कभी तो खुल के बता ऐ मिरी रियाज़त-ए-मर्ग
मैं कैसा लगता हूँ फ़िक्र-ए-दवाम करता हुआ

ज़मानों बा'द भी दश्त-ए-बला में मेरा 'हुसैन'
दिखाई देता है हुज्जत तमाम करता हुआ

ग़ज़ल -4


दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस
जो तअ'ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं

किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप
हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं

उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है
जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं

हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले 'ताबिश'
जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं

नज़्म-1

अँदेशा-ए-विसाल की एक नज़्म

शफ़क़ के फूल थाली में सजाए साँवली आई
चराग़ों से लवें खिचीं दरीचों में नमी आई

में समझा उस से मिलने की घड़ी आई
हवा जारूब-कश थी आसमाँ-आसार तिनकों की

जिसे अपनी सुहुलत के लिए दुनिया... ये तन-आसान दुनिया... इक मुरव्वत में
हुजूम-ए-ख़ल्क़ कहती है

मिरी आँखें तही गुल-दान की सूरत मुंडेरों पर
गली से उठने वाली गर्द को तितली बताती हैं

ये मंज़र मुंजमिद हो कर सफ़र आग़ाज़ करता है
लहू की बर्क़-रफ़्तारी तनाबें खेंच लेती है

ये कैसी शाम-ए-शहज़ादी
शफ़क़ के फूल थाली में सजाए ज़ीना-ए-शब से उतर आई

में समझा उस से मिलने की घड़ी आई
सलाख़ों से लहू फूटा लहू में रौशनी आई

 

तब्सरा:-

 एहसास का शायर अब्बास ताबिश सिर्फ़ एक शायर नहीं, बल्कि एहसासात को लफ़्ज़ों में ढालने वाले एक ऐसे हुस्नपरस्त हैं, जिनकी शायरी इश्क़ की नरमी और ज़िंदगी की सख़्ती दोनों को बख़ूबी बयान करती है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में इस बात का सुबूत हैं कि वो न सिर्फ़ मोहब्बत के शायर हैं, बल्कि इंसान के हर जज़्बे, हर दर्द और हर ख़ुशी को अपने कलाम में शामिल करने की सलाहियत रखते हैं। उनकी शायरी आने वाली नस्लों के लिए एक बेहतरीन विरासत साबित होगी, जो उर्दू अदब में हमेशा एक चमकता हुआ नूर बनी रहेगी।ये भी पढ़ें 

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