Mirza Salaamat Ali Dabeer: उर्दू मर्सिया निगारी का बेमिसाल चिराग़


किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है
रुस्तम का जिगर ज़ेर-ए-कफ़न काँप रहा है

ये अल्फ़ाज़ उस शख़्स के हैं जिसे उर्दू अदब में मर्सिया निगारी का बादशाह कहा जाता है — मिर्ज़ा सलामत अली दबीर। अगर मिर्ज़ा अनीस उर्दू मर्सिए के एक बाज़ू हैं तो मिर्ज़ा दबीर उस फ़न के दूसरा परवाज़ हैं। दोनों ने मिलकर इस नफ़ीस शायरी को उस बुलंदी पर पहुँचाया, जहाँ से न नीचे रास्ता है और न ऊपर कोई मंज़िल।


पैदाइश और बचपन

मिर्ज़ा दबीर का जन्म 29 अगस्त 1803 को दिल्ली की ज़मीन पर हुआ — एक ऐसी सरज़मीन जो उस वक़्त तहज़ीब, इल्म और शायरी का गहवारा थी। बचपन से ही मजलिसों में शरीक होने और मर्सिए पढ़ने का शौक़ उन्हें विरासत में मिला। हुसैनी अज़ादारी का वो माहौल, जिसमें मातम, नौहा और मर्सिया इबादत की सूरत इख़्तियार कर चुके थे, दबीर की रूह में उतर गया।

इल्मी सफ़र और शायरी की बुनियाद

दबीर ने शायरी की तालीम मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ‘ज़मीर’ से हासिल की, जो उस दौर के एक मंजे हुए उस्ताद थे। ख़ुद दबीर भी उस ज़माने के एक मुतअल्लिम और विद्वान इंसान माने जाते थे। तालीम और अदब का जो संगम उनके ज़ेहन में बना, उसने मर्सिए को सिर्फ़ मातमी नहीं बल्कि फ़िक्र और फ़लसफ़े का आईना बना दिया।

लखनऊ की तरफ़ हिजरत

जब दिल्ली का सुकून छिनने लगा, तो दबीर ने लखनऊ का रुख़ किया — वो शहर जो नवाबों, अज़ादारी और उर्दू तहज़ीब की जन्नत माना जाता था। यहीं आकर दबीर को वो मंजर मिला जहाँ उनका फ़न परवान चढ़ा। लखनऊ की महफ़िलों, इमामबाड़ों और मजलिसों ने उनके क़लम को नई जान दी।

मर्सिए का उस्लूब और अदबी कमाल

मिर्ज़ा दबीर ने तक़रीबन 3000 से ज़्यादा मर्सिए तहरीर किए — और ये सिर्फ़ मर्सियों की तादाद है, इसमें सलाम, नौहा, रुबाई और दूसरी शायरी शामिल नहीं। उन्होंने एक ऐसा मर्सिया भी लिखा जिसमें एक भी नुक़्ता (dot) नहीं था। उसका मक़ता था:

"हम ताले-ए-हुमाय मुराद हम-रसां हुआ"
– यानी "हमारी तख़य्युल की परवाज़ भी अब हुमाय (क़िस्मत वाला परिंदा) की तरह हो गई है।"

इस मर्सिए में उन्होंने ‘दबीर’ की जगह ‘अतारिद’ (Mercury) को तख़ल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। ये सिर्फ़ ज़बान का कमाल नहीं था, बल्कि लफ़्ज़ों की फ़लसफ़ी तर्जुमानी थी।

उनका एक दूसरा मशहूर शेर जो हर सलामी की ज़बान पर है:

"हुर फ़िदा प्यासा जो शाह पर हो गया,
ऐ सलामी, क़तरा था समंदर हो गया!"

अनीस और दबीर की अदबी रक़ाबत

उर्दू अदब की तारीख़ में मिर्ज़ा दबीर और मिर्ज़ा अनीस की रक़ाबत सबसे ज़्यादा चर्चित और दिलचस्प रही है। ये मुक़ाबला अदावत नहीं था — यह इल्म, फ़न और फ़साहत का मुक़ाबला था। लोग दो गिरोहों में बँट गए: "अनीसिया" और "दबीरिया"। मगर दिलचस्प बात ये है कि दोनों शायरों ने एक-दूसरे का अदबी ऐतराफ़ किया। जब मिर्ज़ा अनीस का इंतिक़ाल हुआ, तो दबीर ने यह शेर कहा:

"आसमाँ बे-माहे-कामिल, सिदरा बे-रूहुल अमीन,
तूर-ए-सीना बे-कलीमुल्लाह, मिंबर बे-अनीस।"

अहम मर्सिए और शायरी के नमूने

मिर्ज़ा दबीर के चंद मशहूर मर्सियों के अशआर जो आज भी ज़बान-ए-ख़ास-ओ-आम हैं:

  • "किस शेर की आमद है कि रण काँप रहा है"

  • "दस्त-ए-ख़ुदा का क़ुव्वत-ए-बाज़ू हुसैन हैं"

  • "पैदा शुआ-ए-महर की मिक़राज़ जब हुई"

  • "बिल्क़ीस पासबान है ये किसकी जनाब है"

इन मर्सियों में सिर्फ़ हुसैनी जज़्बा नहीं बल्कि क़लमी करामात, ज़बानी कशिश, और इल्मी बुलंदियाँ नज़र आती हैं।

ग़ज़ल से परहेज़ लेकिन ग़ैर-मामूली असर

हालाँकि दबीर का सारा तवज्जो मर्सिए, सलाम और रुबाई की तरफ़ रहा, मगर उन्होंने चंद ग़ज़लें भी कहीं, और उनमें भी उनकी तबअ का असर नुमायाँ हुआ।

किताबें और तहरीकें

मिर्ज़ा दबीर पर कई अहम किताबें लिखी गई हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र यहाँ है:

  1. "मुअज़ना-ए-अनीस-ओ-दबीर" – शिब्ली नोमानी

  2. "अनीस और दबीर" – डॉ. गोपीचंद नारंग

  3. डॉ. सैयद तक़ी आब्दी की किताबें:

    • मज्तहिदे नज़्म मिर्ज़ा दबीर

    • अबवाबुल मसाएब

    • सिल्के सलामे दबीर

    • मुस्नुवाते दबीर

अदबी असर और विरासत

दबीर और अनीस ने मर्सिए को सिर्फ़ एक मातमी फ़न नहीं रहने दिया — बल्कि उसे अदब, इबादत, इल्म और असर की मिसाल बना दिया। इन दोनों के बाद मर्सिया सिर्फ़ एक صنफ़ नहीं, बल्कि एक तहज़ीबी अलामत बन गया।

मर्सिया अब सिर्फ़ शायरी नहीं था, बल्कि:

  • ज़ेहनी कैफियत का बयान

  • रूहानी इश्क़ का इज़हार

  • और समाजी अदबी ज़िम्मेदारी का नाम बन गया

साइबर ट्रिब्यूट और जदीद दौर में दबीर

2014 में "मफ़्स नोहा अकैडमी, मुंबई" ने "अज़ मदीना ता मदीना" नाम से 35 मर्सियों पर मबनी एक वीडियो सीरीज़ पेश की, जिसमें राही रिज़वी ने मिर्ज़ा दबीर के लिखे मर्सिये और सोज़ पढ़े। यह दबीर की शायरी की आज के दौर में भी मक़बूलियत और असरअंदाज़ी का सुबूत है।


मिर्ज़ा दबीर की शायरी ,रुबाई ,मर्सिये 

रुबाई-1 

अदना से जो सर झुकाए आला वो है
जो ख़ल्क़ से बहरा-वर है दरिया वो है

क्या ख़ूब दलील है ये ख़ूबी की 'दबीर'
समझे जो बुरा आप को अच्छा वो है

रुबाई-2


आफ़ाक़ से उस्ताद-ए-यगाना उठा
मज़मूँ के जवाहर का ख़ज़ाना उट्ठा

इंसाफ़ का नौहा है ये बाला-ए-ज़मीं
सरताज-ए-फ़सीहान-ए-ज़माना उठा

रुबाई-3


इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
रिज़वाँ लिए गुल-दस्ता-ए-नूर आते हैं

क्या सहन है गुलशन-ए-अज़ा-ए-शब्बीर
पानी यहाँ ख़िज़्र आ के छिड़क जाते हैं

रुबाई-4

क्या क़ामत-ए-अहमद ने ज़िया पाई है
चेहरे में अजब नूर की ज़ेबाई है

मुसहफ़ पे न क्यूँ फ़ख़्र हो इस सूरत को
क़ुरआन से पहले ये किताब आई है

मर्सिया-1


किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है
रुस्तम का जिगर ज़ेर-ए-कफ़न काँप रहा है

हर क़स्र-ए-सलातीन-ए-ज़मन काँप रहा है
सब एक तरफ़ चर्ख़-ए-कुहन काँप रहा है

शमशीर-बकफ़ देख के हैदर के पिसर को
जिब्रील लरज़ते हैं समेटे हुए पर को

हैबत से हैं न क़िला-ए-अफ़लाक के दरबंद
जल्लाद-ए-फ़लक भी नज़र आता है नज़र-बंद

वा है कमर-ए-चर्ख़ से जौज़ा का कमर-बंद
सय्यारे हैं ग़लताँ सिफ़त-ए-ताइर-ए-पुर-बंद

अंगुश्त-ए-अतारिद से क़लम छूट पड़ा है
ख़ुरशीद के पंजे से इल्म छूट पड़ा है

ख़ुद फ़ितना ओ शर पढ़ रहे हैं फ़ातिहा-ए-ख़ैर
कहते हैं अनल-अब्द लरज़ कर सनम-ए-दैर

जाँ ग़ैर है तन ग़ैर मकीँ ग़ैर मकाँ ग़ैर
ने चर्ख़ का है दूर न सय्यारों की है सैर

सकते में फ़लक ख़ौफ़ से मानिंद-ए-ज़ीं है
जुज़ बख़्त-ए-यज़ीद अब कोई गर्दिश में नहीं है

बे-होश है बिजली पे समंद इन का है होशियार
ख़्वाबीदा हैं सब ताला-ए-अब्बास है बे-दार

पोशीदा है ख़ुरशीद इल्म उन का नुमूदार
बे-नूर है मुँह चाँद का रुख़ उन का ज़िया-बार

सब जुज़ु हैं कल रुतबे में कहलाते हैं अब्बास
कौनैन पियादा हैं सवार आते हैं अब्बास

चमका के मह-ओ-ख़ौर ज़र ओ नुक़रा के असा को
सरकाते हैं पीरे फ़लक-ए-पुश्त-दोता को

अदल आगे बढ़ा हुक्म ये देता है क़ज़ा को
हाँ बांध ले ज़ुल्म-ओ-सितम-ओ-जोर-ओ-जफ़ा को

घर लूट ले बुग़्ज़-ओ-हसद-ओ-किज़्ब-ओ-रिया का
सर काट ले हिर्स-ओ-तमा-ओ-मकर-ओ-दग़ा का

राहत के महलों को बला पूछ रही है
हस्ती के मकानों को फ़ना पूछ रही है

तक़दीर से उम्र अपनी क़ज़ा पूछ रही है
दोनों का पता फ़ौज-ए-जफ़ा पूछ रही है

ग़फ़लत का तो दिल चौंक पड़ा ख़ौफ़ से हिल कर
फ़ितने ने किया ख़ूब गले कुफ्र से मिल कर

अल-नशर का हंगामा है इस वक़्त हश्र में
अल-सूर का आवाज़ा है अब जिन ओ बशर में

अल-जुज़ का है तज़किरा बाहम तन-ओ-सर में
अल-वस्ल का ग़ुल है सक़र ओ अहल-ए-सक़र में

अल-हश्र जो मुर्दे न पुकारें तो ग़ज़ब है
अल-मौत ज़बान-ए-मलक-उल-मौत पे अब है

रूकश है उस इक तन का न बहमन न तमहतीं
सुहराब ओ नरीमान ओ पशुन बे-सर ओ बे-तन

क़ारों की तरह तहत-ए-ज़मीं ग़र्क़ है क़ारन
हर आशिक़-ए-दुनिया को है दुनिया चह-ए-बे-ज़न

सब भूल गए अपना हस्ब और नस्ब आज
आता है जिगर-गोशा-ए-क़िताल-ए-अरब आज

हर ख़ुद निहाँ होता है ख़ुद कासा-ए-सर में
मानिंद-ए-रग-ओ-रेशा ज़र्रा छुपती है बर में

बे-रंग है रंग असलहे का फ़ौज-ए-उम्र में
जौहर है न तैग़ों में न रौगन है सिपर में

रंग उड़ के भरा है जो रुख़-ए-फ़ौज-ए-लईं का
चेहरा नज़र आता है फ़लक का न ज़मीं का

है शोर फ़लक का कि ये ख़ुरशीद-ए-अरब है
इंसाफ़ ये कहता है कि चुप तर्क-ए-अदब है

ख़ुरशीद-ए-फ़लक पर तव-ए-आरिज़ का लक़ब है
ये क़ुदरत-ए-रब क़ुदरत-ए-रब क़ुदरत-ए-रब है

हर एक कब इस के शरफ़-ओ-जाह को समझे
इस बंदे को वो समझे जो अल्लाह को समझे

यूसुफ़ है ये कुनआँ में सुलेमान है सबा में
ईसा है मसीहाई में मूसा है दुआ में

अय्यूब है ये सब्र में यहया है बका में
शपीर है मज़लूमी में हैदर है वग़ा में

क्या ग़म जो न मादर न पिदर रखते हैं आदम
अब्बास सा दुनिया में पिसर रखते हैं आदम

पंजे में यदुल्लाह है बाज़ू में है जाफ़र
ताअत में मुलक ख़ू में हसन ज़ोर में हैदर

इक़बाल में हाशिम तो तवाज़ो में पयंबर
और तंतना-ओ-दबदबा में हमज़ा-ए-सफ़दर

जौहर के दिखाने में ये शमशीर-ए-ख़ुदा है
और सर के कटाने में ये शाह-ए-शोहदा है

बे उन के शर्फ़ कुछ भी ज़माना नहीं रखता
ईमान सिवा उन के ख़ज़ाना नहीं रखता

क़ुरआँ भी कोई और फ़साना नहीं रखता
शपीर बगै़र उन के यगाना नहीं रखता

ये रूह-ए-मुक़द्दस है फ़क़त जलव-गिरी में
ये अक़ल-ए-मुजर्रिद है जमाल-ए-बशरी में


सहरा में गिरा परतव-ए-आरिज़ जो क़ज़ारा
सूरज की किरन ने किया शर्मा के किनारा

यूँ धूप एड़ी आग पे जिस तरह से पारा
मूसा की तरह ग़श हुए सब कैसा नज़ारा

जुज़ मदह न दम रोशनई-ए-तूर ने मारा
शब-ए-ख़ून अजब धूप पे उस नूर ने मारा

क़ुर्बान हवा-ए-इल्म-ए-शाह-ए-अमम के
सब ख़ार हरे हो के बने सर्व-ए-इरम के

हैं राज़ अयाँ ख़ालिक़-ए-ज़ुलफ़ज़्ल-ओ-करम के
जिब्रील ने पर खोले हैं दामन में इल्म के

पर्चम का जहाँ अक्स गिरा साइक़ा चमका
पर्चम कहीं देखा न सुना इस चम-ओ-ख़म का

क़र्ना में न दम है न जलाजुल में सदा में है
बूक़ ओ दहल ओ कोस की भी साँस हुआ है

हर दिल के धड़कने का मगर शोर बपा है
बाजा जो सलामी का उसे कहिए बजा है

सकते में जो आवाज़ है नक़्कारा-ए-वदफ़ की
नौबत है वरूद-ए-ख़ल्फ़-ए-शाह-ए-नजफ़ की

आमद को तो देखा रुख़-ए-पुर-नूर को देखो
वालशमश पढ़ो रौशनी-ए-तूर को देखो

लिए रौशनी-ए-माह को ने हूर को देखो
इस शम्मा-ए-मुराद-ए-मुलक-ओ-हूर को देखो

है कौन तजल्ली रुख़-ए-पुर-नूर की मानिंद
याँ रौशनी-ए-तूर जली तूर के मानिंद

मद्दाह को अब ताज़गी-ए-नज़्म में कद है
या हज़रत-ए-अब्बास-ए-अली वक़्त-ए-मदद है

मौला की मदद से जो सुख़न हो वो सनद है
इस नज़्म का जो हो ना मक़र उस को हसद है

हासिद से सुलह भी नहीं दरकार है मुझ को
सरकार-ए-हुसैनी से सरोकार है मुझ को

गुलज़ार है ये नज़्म ओ बयाँ बेशा नहीं है
बाग़ी को भी गुलगश्त में अंदेशा नहीं है

हर मिस्र-ए-पर-जस्ता है फल तेशा नहीं है
याँ मग़्ज़ सुख़न का है रग-ओ-रेशा नहीं है

सेहत मिरी तशख़ीस से है नज़्म के फ़न की
मानिंद-ए-क़लम हाथ में है नब्ज़ सुख़न की

गर काह मिले फ़ाएदा क्या कोहकनी से
मैं काह को गुल करता हूँ रंगीं-ए-सुख़नी से

ख़ुश-रंग है अलफ़ाज़ अक़ीक़-ए-यमनी से
ये साज़ है सोज़-ए-ग़म-ए-शाह-ए-मदनी से

आहन को करूँ नर्म तो आइना बना लूँ
पत्थर को करूँ गर्म तो मैं इत्र बना लूँ

गो ख़िलअत तहसीं मुझे हासिल है सरापा
पर वस्फ़ सरापा का तो मुश्किल है सरापा

हर अज़्व-ए-तन इक क़ुदरत-ए-कामिल है सरापा
ये रूह है सर-ता-बक़दम दिल है सरापा

क्या मिलता है गर कोई झगड़ता है किसी से
मज़मून भी अपना नहीं लड़ता है किसी से

सूरज को छुपाता है गहन आइना को ज़ंग
दाग़ी है क़मर-ए-सोख़्ता ओ लाला-ए-ख़ुश-रंग

क्या अस्ल दर- ओ लअल की वो पानी है ये संग
देखो गुल ओ ग़ुन्चा वो परेशाँ है ये दिल-ए-तंग

इस चेहरे को दावर ही ने लारेब बनाया
बे-ऐब था ख़ुद नक़्श भी बे-ऐब बनाया

इंसाँ कहे उस चेहरे को कब चश्मा-ए-हैवाँ
ये नूर वो ज़ुल्मत ये नुमूदार वो पिनहाँ

बरसों से है आज़ार-ए-बर्स में मह-ए-ताबाँ
कब से यरक़ाँ महर को है और नहीं दरमाँ

आइना है घर ज़ंग काया रंग नहीं है
इस आइना में रंग है और ज़ंग नहीं है


आइना कहा रुख़ को तो कुछ भी न सुना की
सनअत वो सिकन्दर की ये सनअत है ख़ुदा की

वाँ ख़ाक ने सैक़ल यहाँ क़ुदरत ने जिला की
ताला ने किस आइना को ख़ूबी ये अता की

हर आइने में चहरा-ए-इंसाँ नज़र आया
इस रुख़ में जमाल-ए-शहि-ए-मरदाँ नज़र आया

बे-मिस्ल-ए-हसीं है निगह-ए-अहल-ए-यकीं में
बस एक ये ख़ुर्शीद है अफ़्लाक ओ ज़मीं में

जलवा है अजब अब्रुओं का क़ुरब-ए-जबीं में
दो मछलियाँ हैं चश्मा-ए-ख़ुर्शीद-ए-मुबीं में

मर्दुम को इशारा है ये अबरुओं का जबीं पर
हैं दो मह-ए-नौ जलवा-नुमा चर्ख़-ए-बरीं पर

बीनी के तो मज़मूँ पे ये दावा है यक़ीनी
इस नज़्म के चेहरे की वो हो जाएगा बीनी

मंज़ूर निगह को जो हुई अर्श-ए-नशीनी
की साया-ए-बीनी ने फ़क़त जलवा-ए-गज़ीनी

दरकार इसी बीनी की मोहब्बत का असा है
ये राह तो ईमाँ से भी बारीक सिवा है

बीनी को कहूँ शम्मा तो लौ उस की कहाँ है
पर-नूर भंवोँ पर मुझे शोला का गुमाँ है

दो शोले और इक शम्मा ये हैरत का मकाँ है
हाँ ज़ुल्फ़ों के कूचों से हवा तुंद रवां है

समझो न भवें बस क़ि हवा का जो गुज़र है
ये शम्मा की लौ गाह इधर गाह इधर है

इस दर्जा पसंद इस रुख़-ए-रौशन की चमक है
ख़ुर्शीद से बर्गश्ता हर इक माह-ए-फ़लक है

अबरो का ये ग़ुल काबा-ए-अफ़्लाक तिलक है
महराब दुआ-ए-बशर-ओ-जिन-ओ-मलक है

देखा जो मह-ए-नौ ने इस अबरो के शर्फ़ को
कअबा की तरफ़ पुश्त की रुख़ उस की तरफ़ को

जो मानी-ए-तहक़ीक़ से तावील का है फ़र्क़
पतली से वही कअबा की तमसील का है फ़र्क़

सुरमा से और इस आँख से इक मील का है फ़र्क़
मील एक तरफ़ नूर की तकमील का है फ़र्क़

इस आँख पे उम्मत के ज़रा ख़िशम को देखो
नाविक की सिलाई को और उस चश्म को देखो

गर आँख को नर्गिस कहूँ है ऐन-ए-हिक़ारत
नर्गिस में न पलकें हैं न पुतली न बसारत

चेहरे पे मह-ए-ईद की बेजा है इशारत
वो ईद का मुज़्दा है ये हैदर की बशारत

अबरो की मह-ए-नौ में न जुंबिश है न ज़ौ है
इक शब वो मह-ए-नौ है ये हर शब मह-ए-नौ है

मुँह ग़र्क़-ए-अर्क़ देख के ख़ुरशीद हुआ तर
अबरो से टपकता है निरा तैग़ का जौहर

आँखों का अर्क़ रौगन-ए-बादाम से बेहतर
आरिज़ का पसीना है गुलाब-ए-गुल-ए-अहमर

क़तरा रुख़-ए-पुर-नूर पे ढलते हुए देखो
इत्र-ए-गुल-ए-ख़ुर्शीद निकलते हुए देखो

तस्बीह-ए-कुनाँ मुँह में ज़बान आठ पहर है
गोया दहन-ए-ग़ुन्चा में बरग-ए-गुल-ए-तर है

कब ग़ुन्चा ओ गुलबर्ग में ये नूर मगर है
इस बुर्ज में ख़ुर्शीद के माही का गुज़र है

तारीफ़ में होंटों की जो लब तर हुआ मेरा
दुनिया ही में क़ाबू लब-ए-कौसर हुआ मेरा

ये मुँह जो रदीफ़-ए-लब-ए-ख़ुश-रंग हुआ है
क्या फ़ाक़ीह ग़ुन्चा का यहाँ तंग हुआ है

अब मदह-ए-दहन का मुझे आहंग हुआ है
पर गुंचे का नाम इस के लिए नंग हुआ है

ग़ुन्चा कहा उस मुँह को हज़र अहल-ए-सुख़न से
सूंघे कोई बू आती है गुंचे के दहन से

शीरीं-रक्मों में रक़्म उस लब की जुदा है
इक ने शुक्र और एक ने याक़ूत लिखा है

याक़ूत का लिखना मगर इन सब से बजा है
याक़ूत से बढ़ जो लिखूँ मैं तो मज़ा है

चूसा है ये लब मिसल-ए-रत्ब हक़ के वली ने
याक़ूत का बोसा लिया किस रोज़ अली ने

जान-ए-फ़ुसहा रूह-ए-फ़साहत है तो ये है
हर कलिमा है मौक़े पे बलाग़त है तो ये है

एजाज़-ए-मसीहा की करामत है तो ये है
क़ाएल है नज़ाकत कि नज़ाकत है तो ये है

यूँ होंटों पे तस्वीर-ए-सुख़न वक़्त-ए-बयाँ है
या वक़्त से गोया रग-ए-याक़ूत अयाँ है

अब असल में शीरीं-दहनी की करों तहरीर
तिफ़ली में खुला जबकि यही ग़ुंचा-ए-तक़रीर

पहले ये ख़बर दी कि मैं हूँ फ़िदया-ए-शपीर
इस मुज़दे पे मादर ने उन्हें बख़्श दिया शीर

मुँह हैदर-ए-कर्रार ने मीठा किया उन का
शीरीनी-ए-एजाज़ से मुँह भर दिया उन का

उस लब से दम-ए-ताज़ा हर इक ज़िनदे ने पाया
जैसे शहि-ए-मरदाँ ने नसीरी को जलाया

जान बख़्शि-ए-अम्वात का गोया है ये आया
हम-दम दम-ए-रूह-ए-अक़दस उन का नज़र आया

दम क़ालिब-ए-बे-जाँ में जो दम करते थे ईसा
इन होंटों के एजाज़ का दम भरते थे ईसा

दाँतों की लड़ी से ये लड़ी अक़ल-ए-ख़ुदा-दाद
वो बात ठिकाने की कहूँ अब कि रहे याद

ये गौहर-ए-अब्बास हैं पाक उन की ये बुनियाद
अब्बास-ओ-नजफ़ एक हैं गिनिए अगर एदाद

मादिन के शरफ़ हैं ये जवाहर के शरफ़ हैं
दंदाँ दर-ए-अब्बास हैं तो दर-ए-नजफ़ हैं

अस्ना अशरी अब करें हाथों का नज़ारा
दस उंगलियाँ हैं मिस्ल-ए-इल्म इन में सफ़-ए-आरा

हर पंजे का है पंजितनी को ये इशारा
ऐ मोमिनो अशरा में इल्म रखना हमारा


पहले मिरे आक़ा मिरे सालार को रोना
फिर ज़ेर-ए-इल्म उन के अलमदार को रोना

ता-मू-ए-कमर फ़िक्र का रिश्ता नहीं जाता
फ़िक्र एक तरफ़ वहम भी हाशा नहीं जाता

पर फ़िक्र-ए-रसा का मिरी दावा नहीं जाता
मज़मून ये नाज़ुक है कि बांधा नहीं जाता

अब जे़ब-ए-कमर तेग़-ए-शरर-ए-बार जो की है
अब्बास ने शोला को गिरह बाल से दी है

उश्शाक हूँ अब आलम-ए-बाला की मदद का
दरपेश है मज़मून-ए-अलमदार के क़द का

ये है क़द-ए-बाला पिस्र-ए-शेर-ए-समद का
या साया मुजस्सम हुआ अल्लाहु-अहद का

इस क़द पे दो अबरो की कशिश क्या कोई जाने
खींचे हैं दो मद एक अलिफ़ पर ये ख़ुदा ने

ने चर्ख़ के सौ दौरे न इक रख़्श का कावा
देता है सदा उम्र-ए-रवाँ को ये भुलावा

ये क़िस्म है तरकीब-ए-अनासिर के अलावा
अल्लाह की क़ुदरत है न छल-बल न छलावा

चलता है ग़ज़ब चाल क़दम शल है क़ज़ा का
तौसन न कहो रंग उड़ा है ये हवा का

गर्दिश में हर इक आँख है फ़ानुस-ए-ख़याली
बंदिश में हैं नाल उस के रुबाई-ए-हिलाली

रौशन है कि जौज़ा ने अनाँ दोष पे डाली
भर्ती से है मज़मून रिकाबों का भी ख़ाली

सरअत है अंधेरे और उजाले में ग़ज़ब की
अंधयारी उसे चाँदनी है चौधवीं शब की

गर्दूं हो कभी हम-क़दम उस का ये है दुशवार
वो क़ाफ़िले की गर्द है ये क़ाफ़िला-सालार

वो ज़ोअफ़ है ये ज़ोर वो मजबूर ये मुख़्तार
ये नाम है वो नंग है ये फ़ख़्र है वो आर

इक जस्त में रह जाते हैं यूँ अर्ज़ ओ समा दूर
जिस तरह मुसाफ़िर से दम-ए-सुब्ह सिरा दूर

जो बूँद पसीने की है शोख़ी से भरी है
इन क़तरों में परियों से सिवा तेज़ी परी है

गुलशन में सुब्ह बाग़ में ये कुबक-दरी है
फ़ानूस में परवाना है शीशे में परी है

ये है वो हुमा जिस के जिलौ-दार मलक हैं
साये की जगह पर के तले हफ़्त फ़लक हैं

ठहरे तो फ़लक सब को ज़मीं पर नज़र आए
दौड़े तो ज़मीं चर्ख़-ए-बरीं पर नज़र आए

शहबाज़ हवा का न कहीं पर नज़र आए
राकिब ही फ़क़त दामन-ए-ज़ीं पर नज़र आए

इस राकिब ओ मुरक्कब की बराबर जो सना की
ये इल्म ख़ुदा का वो मशीय्यत है ख़ुदा की

शोख़ी में परी हुस्न में है हूर-ए-बहिश्ती
तूफ़ान में राकिब के लिए नूह की कश्ती

कब अबलक़-ए-दौराँ में है ये नेक-ए-सरिश्ती
ये ख़ैर है वो शर है ये ख़ूबी है वो ज़श्ती

सहरा में चमन फ़सल-ए-बहारी है चमन में
रहवार है अस्तबल में तलवार है रन में

इस रख़्श को अब्बास उड़ाते हुए आए
कोस-ए-लिमन-उल-मलक बजाते हुए आए

तकबीर से सोतों को जगाते हुए आए
इक तेग़-ए-निगह सब पे लगाते हुए आए

बे चले के खींचे हुए अबरो की कमाँ को
बे हाथ के ताने हुए पलकों की सनाँ को

लिखा है मुअर्रिख़ ने कि इक गब्र-ए-दिलावर
हफ़तुम से फ़िरोकश था मियान-ए-सफ़-ए-लश्कर

रोईं तन ओ संगीं दिल ओ बद-बातिन ओ बदबर
सर कर के मुहिम नेज़ों पे लाया था कई सर

हमराह शक्की फ़ौज थी डंका था निशाँ था
जागीर के लेने को सू-ए-शाम रवाँ था

तक़दीर जो रन में शब-ए-हफ़तुम उसे लाई
ख़लवत में उसे बात उमर ने ये सुनाई

दरपेश है सादात से हम को भी लड़ाई
वान पंचतनी चंद हैं याँ सारी ख़ुदाई

अकबर का न क़ासिम का न शप्पीर का डर है
दो लाख को अल्लाह की शमशीर का डर है

बोला वो लरज़ कर कि हुआ मुझ को भी विस्वास
शमशीर-ए-ख़ुदा कौन उमर बोला कि अब्बास

उस ने कहा फिर फ़तह की क्यूँ कर है तुझे आस
बोला कि कई रोज़ से इस शेर को है प्यास

हम भी हैं बहादुर नहीं डरते हैं किसी से
पर रूह निकलती है तो अबास-अली से

तशरीफ़ अलमदार-जरी रन में जो लाया
इस गबर को चुपके से उमर ने ये सुनाया

अंदेशा था जिस शेर के आने का वो आया
सर उस ने परे से सो-ए-अब्बास उठाया

देखा तो कहा काँप के ये फ़ौज-ए-वग़ा से
रूबा हो लड़ाते हो मुझे शेर-ए-ख़ुदा से

माना कि ख़ुदा ये नहीं क़ुदरत है ख़ुदा की
मुझ में है निरा ज़ोर ये क़ूत है ख़ुदा की

की ख़ूब ज़ियाफ़त मिरी रहमत है ख़ुदा की
सब ने कहा तुझ पर भी इनायत है ख़ुदा की

जा उज़्र न कर नाम है मर्दों का इसी से
तो दबदबा-ए-ओ-ज़ोर में क्या कम है किसी से

बादल की तरह से वो गरजता हुआ निकला
जल्दी में सुलह जंग के बजता हुआ निकला

हरगाम रह-ए-उम्र को तजता हुआ निकला
और सामने नक़्क़ारा भी बजता हुआ निकला

ग़ालिब तहमतन की तरह अहल-ए-जहाँ पर
धॅंसती थी ज़मीं पाँव वो रखता था जहाँ पर

तैय्यार कमर कस के हुआ जंग पे ख़ूँख़ार
और पैक अजल आया कि है क़ब्र भी तैय्यार

ख़ंजर लिया मुँह देखने को और कभी तलवार
मिसल-ए-वर्म-ए-मर्ग चढ़ा घोड़े पे इक बार

वो रख़्श पे या देव-दनी तख़्त-ए-ज़री पर
ग़ुल रन में उठा कोई चढ़ा कबक-ए-दरी पर

इस हैयत ओ हैबत से वो नख़्वत-ए-सैर आया
आसेब को भी साए से उस के हज़्र आया

मैदान-ए-क़यामत को भी महशर नज़र आया
गर्द अपने लिए नेज़ों पे किश्तों के सर आया

ज़िंदा ही पि-ए-सैर न हर सफ़ से बढ़े थे
सर मर्दों के नेज़ों पे तमाशे को चढ़े थे

सीधा कभी नेज़े को हिलाया कभी आड़ा
पढ़ पढ़ के रज्ज़ बाग़-ए-फ़साहत को उजाड़ा

ज़ालिम ने कई पुश्त के मर्दों को उखाड़ा
बोला मेर हैबत ने जिगर-शेरों का फाड़ा

हम पंचा न रुस्तम है न सोहराब है मेरा
मर्हब बिन-अब्दुलक़मर अलक़ाब है मेरा

फ़ित्राक में सर बांधता हूँ पील-ए-दमाँ का
पंजा मैं सदा फेरता हूँ शेर-ए-ज़ियाँ का

नज़ारा ज़रा कीजिए हर शाख़-ए-सनाँ का
इस नेज़े पे वो सर है फ़ुलाँ-इब्न-ए-फ़ुलाँ का

जो जो थे यलान-ए-कुहन इस दौरा-ए-नौ में
तन उन के तह-ए-ख़ाक हैं सर मेरे जिलौ में

याँ सैफ-ए-ज़बाँ सैफ-ए-इलाही ने इल्म की
फ़रमाया मिरे आगे है तक़रीर सितम की

अब मुँह से कहा कुछ तो ज़बाँ मैं ने क़लम की
कौनैन ने गर्दन मिरे दरवाज़े पे ख़म की


ताक़त है हमारी असदुल्लाह की ताक़त
पंजे में हमारे है यद-अल्लाह की ताक़त

अब्दुलक़मर-ए-नहस का तू दाग़-ए-जिगर है
मैं चाँद अली का हूँ अरे ये भी ख़बर है

ख़ुर्शीद-परस्ती से तिरी क्या मुझे डर है
क़ब्ज़े में तनाब-ए-फ़लक-ओ-शम्श-ओ-क़मर है

मक़दूर रहा शम्स की रजअत का पिदर को
दो टुकड़े चचा ने किया उंगली से क़मर को

ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ में बता नूर है किस का
कलिमा वर्क़-ए-माह पे मस्तूर है किस का

और सूरा-ए-वालशम्स में मज़कूर है किस का
ज़र्रे को करे महर ये मक़दूर है किस का

ये साहिब-ए-मक़दूर नबी और अली हैं
या हम कि ग़ुलाम-ए-ख़ल्फ़-उस-सिदक़ नबी हैं

तौबा तो ख़ुदा जानता है शम्श-ओ-क़मर को
वो शाम को होता है ग़ुरूब और ये सहर को

ईमान समझ महर-ए-शहि-जिन्न-ओ-बशर को
शम्मा-ए-रह-ए-मेराज हैं ये अहल-ए-नज़र को

ख़ुर्शीद-ए-बनी-फ़ातिमा तो शाह-ए-अमम हैं
और माह-ए-बनी-हाश्मी आफ़ाक़ में हम हैं

दो चांद को करती है इक अंगुश्त हमारी
है महर-ए-नुबुव्वत से मिली पुश्त हमारी

है तेग़-ए-ज़फ़र वक़्त-ए-ज़द-ओ-किश्त हमारी
सौ ग़र्ज़-ए-क़ज़ा ज़रबत-ए-यकमुश्त हमारी

क़ुदरत के नीस्तान के हम शेर हैं ज़ालिम
हम शेर हैं और साहिब-ए-शमशीर हैं ज़ालिम

सब को है फ़ना दूर हमेशा है हमार
सर पेश-ए-ख़ुदा रखना ये पेशा है हमारा

हैं शेर-ए-ख़ुदा जिस में वो बेशा है हमारा
आरी है अजल जिस से वो तेशा है हमारा

हम जुज़्व-ए-बदन इस के हैं जो कल का शरफ़ है
रिश्ते में हमारे गुहर-ए-पाक-ए-नजफ़ है

जौशन जो दुआओं में है वो अपनी ज़र्रा है
हर अक़्दे का नाख़ुन मिरे नेज़े की गिरह है

तलवार से पानी जिगर-ए-हर-कि-ओ-मह है
काटा पर-ए-जिब्रील को जिस तेग़ से ये है

सर ख़ुद-ओ-कुल्ला का नहीं मोहताज हमारा
शप्पीर का है नक़श-ए-क़दम ताज हमारा

अहमद है चचा मेरा पिदर हैदर-ए-सफ़दर
वो कल का पयंबर है ये कौनैन का रहबर

और मादर ज़ैनब की है लौंडी मिरी मादर
भाई मिरा इक ऊन दो अब्दुल्लाह ओ जाफ़र

और शपर ओ शप्पीर हैं सरदार हमारे
हम उन के ग़ुलाम और वो मुख़्तार हमारे

क़ासिम का अज़ादार हूँ अकबर का मैं ग़म-ख़्वार
लश्कर का अलमदार हूँ सुरूर का जिलौ-दार

मैं करता हूँ पर्दा तो हिर्म होते हैं उस्वार
था शब को निगह बान ख़य्याम-ए-शह-ए-अबरार

अब ताज़ा ये बख़्शिश है ख़ुदा-ए-अज़ली की
सुक़्क़ा भी बना उस का जो पोती है अली की

हम बांटते हैं रोज़ी-ए-हर-बंदा-ए-ग़फ़्फ़ार
रज़्ज़ाक़ की सरकार के हैं मालिक-ओ-मुख़्तार

पर हक़ की इताअत है जो हर कार में दरकार
ख़ुद वक़्त-ए-सहर रोज़े में खालते हैं तलवार

हैं उक़्दा-कुशा वक़्त-ए-कुशा क़िला-कुशा भी
पर सब्र से बंधवाते हैं रस्सी में गला भी

उस के क़दम पाक का फ़िदया है सर अपना
क़ुर्बान किया जिस पे नबी ने पिसर अपना

नज़र-ए-सर-ए-अकबर है दिल अपना जिगर अपना
बैत-उश-शरफ़-ए-शाह पे सदक़े है घर अपना

मशहूर जो अब्बास ज़माने का शर्फ़ है
शप्पीर की नालैन उठाने का शर्फ़ है

शाहों का चिराग़ आते ही गुल कर दिया हम ने
हर जा अमल-ए-ख़त्म-ए-रसुल कर दिया हम ने

ख़ंदक़ पे दर-ए-क़िला को पुल कर दिया हम ने
इक जुज़ु था कलिमा उसे कुल कर दिया हम ने

धोका का न हो ये सब शर्फ़-ए-शेर-ए-ख़ुदा हैं
फिर वो न जुदा हम से न हम उन से जुदा हैं

नारी को बहिश्ती के रज्ज़ पर हसद आया
यूँ चल के पि-ए-हमला वो मलऊन-ए-बद आया

गोया कि सुक़र से उम्र-ए-अबदूद आया
और लरज़े में मरहब भी मियान-ए-लहद आया

नफ़रीं की ख़ुदा ने उसे तहसीं की उम्र ने
मुजरा किया अब्बास को याँ फ़तह-ओ-ज़फ़र ने

शप्पीर को बढ़ बढ़ के नक़ीबों ने पुकारा
लौ टूटता है दस्त-ए-ज़बरदस्त तुम्हारा

है मरहब-ए-अब्दुलक़मर अब मअर्का-आरा
शप्पीर यकीं जानो कि अब्बास को मारा

ये गर्ग वो यूसुफ़ ये ख़िज़ाँ है वो चमन है
वो चाँद ये अक़रब है वो सूरज ये गहन है

इस शोर ने तड़पा दिया हज़रत के जिगर को
अकबर से कहा जाओ तो अम्मो की ख़बर को

अकबर बढ़े है और मुड़के पुकारे ये पिदर को
घेरा है कई नहस सितारों ने क़मर को

इक फ़ौज नई गर्द-ए-अलमदार है रन में
लौ माह-ए-बनी-हाश्मी आता है गहन में

इक गबर-ए-क़वी आया है खींचे हुए तलवार
कहता है कि इक हमला में है फैसला-ए-कार

सरकुश्तों के नेज़ों पे हैं गर्द इस के नमूदार
याँ दस्त-ए-बह-ए-क़ब्ज़ा मुतबस्सिम हैं अलमदार

अल्लाह करे ख़ैर कि है क़सद-ए-शर उस को
सब कहते हैं मरहब-ए-बिन-अब्दुलक़मर उस को

ग़ुल है कि दिल-आल-ए-अबा तोड़ेगा मरहब
अब बाज़ू-ए-शाह-ए-शोहदा तोड़ेगा मरहब

बंद-ए-कमर-ए-शेर ख़ुदा तोड़ेगा मरहब
गौहर को तह-ए-संग जफ़ा तोड़ेगा मरहब

मरहब का न कुछ उस की तवानाई का डर है
फ़िदवी को चचा-जान की तन्हाई का डर है

शह ने कहा क्या रूह-ए-अली आई न होगी
नाना ने मिरे क्या ये ख़बर पाई न होगी

क्या फ़ातिमा फ़िर्दोस में घबराई न होगी
सर नंगे वो तशरीफ़ यहाँ लाई न होगी

बंदों पे अयाँ ज़ोर-ए-ख़ुदा करते हैं अब्बास
प्यारे मिरे देखो तो कि क्या करते हैं अब्बास

सुन कर ये ख़बर बीबियाँ करने लगीं नाला
डेयुढ़ी पे कमर पकड़े गए सय्यद-वाला

चिल्लाए कि फ़िज़्ज़ा अली-असग़र को उठा ला
है वक़्त-ए-दुआ छूटता है गोद का पाला

सैय्यदानियो! सर खोल दो सज्जादा बिछा दो
दुश्मन पे अलमदार हो ग़ालिब ये दुआ दो

खे़मे में क़यामत हुई फ़र्याद-ए-बका से
सहमी हुई कहती थी सकीना ये ख़ुदा से

ग़ारत हुआ इलाही जो लड़े मेरे चचा से
वो जीते फिरें ख़ैर मैं मरजाऊँ बला से

सदक़े करूँ क़ुर्बान करूँ अहल-ए-जफ़ा को
दो लाख ने घेरा है मिरे एक चचा को

है है कहीं इस ज़ुलम-ओ-सितम का है ठिकाना
सुक़्क़े पे सुना है कहीं तलवार उठाना

कोई भी रवा रखता है सय्यद का सताना
जाएज़ है किसी प्यासे से पानी का छुपाना

हफ़तुम से ग़िज़ा खाई है ने पानी पिया है
बे रहमों ने किस दुख में हमें डलदाया है

अच्छी मिरी अम्माँ मरे सुक़्क़े को बुलाओ
कह दो कि सकीना हुई आख़िर इधर आओ

अब पानी नहीं चाहिए ताबूत मंगाओ
कांधे से रखो मुश्क जनाज़े को उठाओ

मिलने मिरी तुर्बत के गले आएंगे अब्बास
ये सुनते ही घबरा के चले आएंगे अब्बास

इस अर्सा में हमले किए मरहब ने वहाँ चार
पर एक भी इस पंचतनी पर ना चला वार

मानिंद-ए-दिल-ओ-चश्म हर इक अज़्व था होशियार
आरी हुई तलवार मुख़ालिफ़ हुआ नाचार

जब तेग़ को झुंजला के रुख़-ए-पाक पे खींचा
तलवार ने उंगली से अलिफ़ ख़ाक पे खींचा

ग़ाज़ी ने कहा बस इसी फ़न पर था तुझे नाज़
सीखा न यदा लिल्लाहियों से ज़रब का अंदाज़

फिर खींची इस अंदाज़ से तेग़-ए-शरर-ए-अंदाज़
जो मियान के भी मुँह से ज़रा निकली न आवाज़

याँ ख़ौफ़ से क़ालिब को किया मियान ने ख़ाली
वाँ क़ालिब-ए-अअदा को क्या जान ने ख़ाली

ये तेग़-सरापा जो बरहना नज़र आई
फिर जामा-ए-तन में न कोई रूह समाई

हस्ती ने कहा तौबा क़ज़ा बोली दहाई
इंसाफ़ पुकारा कि है क़ब्ज़ा में ख़ुदाई

लौ फ़तह-ए-मुजस्सम का वो सर जेब से निकला
नुसरत के फ़लक का मह-ए-नौ ग़ैब से निकला

बिजली गिरी बिजली पे अजल डर के अजल पर
इक ज़लज़ला तारी हुआ गर्दूं के महल पर

सय्यारे हटे कर के नज़र तेग़ के फल पर
ख़ुर्शीद था मर्रीख़ ये मर्रीख़ ज़ुहल पर

ये होल दिया तेग़-ए-दरख़शाँ की चमक ने
जो तारों के दाँतों से ज़मीं पकड़ी फ़लक ने

मरहब से मुख़ातब हुए अब्बास-ए-दिलावर
शमशीर के मानिंद सरापा हूँ मैं जौहर

मुम्किन है कि इक ज़र्ब में दो हो तो सरासर
पर इस में अयाँ होंगे ना जौहर मिरे तुझ पर


ले रोक मिरे वार तिरे पास सिपर है
ज़ख़्मी न करूँगा अभी इज़हार-ए-हुनर है

कांधे से सिपर ले के मुक़ाबल हुआ दुश्मन
बतलाने लगे तेग़ से ये ज़र्ब का हरफ़न

ये सीना ये बाज़ू ये कमर और ये गर्दन
ये ख़ुद ये चार आईना ये ढाल ये जौशन

किस वार को वो रोकता तलवार कहाँ थी
आँखों में तो फुर्ती थी निगाहों से निहाँ थी

मर्हब ने न फिर ढाल न तलवार सँभाली
उस हाथ से सर एक से दस्तार सँभाली

ज़ालिम ने सनाँ ग़ुस्से से इक बार सँभाली
उस शेर ने शमशीर-ए-शरर-ए-हार सँभाली

तानी जो सनाँ उस ने अलमदार के ऊपर
ये नेज़ा उड़ा ले गए तलवार के ऊपर

जो चाल चला वो हुआ गुमराह ओ परेशाँ
फिर ज़ाइचा खींचा जो कमाँ का सर-ए-मैदाँ

तीरों की लड़ाई पे पड़ा करअ-ए-पैकाँ
तीरों को क़लम करने लगी तेग़-ए-दरख़शाँ

जौहर से न तीरों ही के फल दाग़ बदल थे
गर शिस्त के थे साठ तो चिल्ला के चहल थे

उस तेग़ ने सरकश के जो तरकश में किया घर
ग़ुल था कि नीसताँ में गिरी बर्क़ चमक कर

पर तीरों के कट कट के उड़े मिसल-ए-कबूतर
मर्हब हुआ मुज़्तर सिफ़त-ए-ताइर-ए-बे-पर

बढ़ कर कहा ग़ाज़ी ने बता किस की ज़फ़र है
अब मर्ग है और तू है ये तेग़ और ये सर है

नामर्द ने पोशीदा किया रुख़ को सिपर से
और खींच लिया ख़ंजर-ए-हिन्दी को कमर से

ख़ंजर तो इधर से चला और तेग़ उधर से
उस वक़्त हवा चल न सकी बीच में डर से

अल्लाह-रे शमशीर-ए-अलमदार के जौहर
जौहर किए उस ख़ंजर-ए-ख़ूँख़ार के जौहर

ख़ंजर का जो काटा तो वो ठहरी न सिपर पर
ठहरी न सिपर पर तो वो सीधी गई सर पर

सीधी गई सर पर तो वो थी सद्र ओ कमर पर
थी सद्र ओ कमर पर तो वो थी क़ल्ब ओ जिगर पर

थी क़लब ओ जिगर पर तो वो थी दामन-ए-ज़ीं पर
थी दामन-ए-ज़ीं पर तो वो राकिब था ज़मीं पर

ईमाँ ने उछल कर कहा वो कुफ्र को मारा
क़ुदरत ने पुकारा कि ये है ज़ोर हमारा

हैदर से नबी बोले ये है फ़ख़्र तुम्हारा
हैदर ने कहा ये मिरी पुतली का है तारा

परवाना-ए-शम-ए-रुख़-ए-ताबाँ हुईं ज़ोहरा
मोहसिन को लिए गोद में क़ुरबाँ हुईं ज़ोहरा

हंगामा हुआ गर्म ये नारी जो हुआ सर्द
वां फ़ौज ने ली बाग बढ़ा याँ ये जवाँमर्द

टापों की सदा से सर-क़ारों में हुआ दर्द
रंग-ए-रुख़-ए-आदा की तरह उड़ने लगी गर्द

क़ारों का ज़र-ए-गंज-ए-निहानी निकल आया
ये ख़ाक उड़ी रन से कि पानी निकल आया

जो ज़िंदा थे अलअज़मतुल्लाह पुकारे
सर मर्दों के नेज़ों पे जो थे वाह पुकारे

डरकर उम्र-ए-सअद को गुमराह पुकारे
ख़ुश हो के अलमदार सू-ए-शाह पुकारे

याँ तो हुआ या हज़रत-ए-शप्पीर नारा
शप्पीर ने हंस कर किया तकबीर का नारा

पर्दे के क़रीब आ के बहन शह की पुकारी
दुश्मन पर हुई फ़तह मुबारक हो मै वारी

अब कहती हूँ मै देखती थी जंग ये सारी
अब्बास की इक ज़र्ब में ठंडा हुआ नारी

मर्हब को तो ख़ैबर में यदुल्लाह ने मारा
हम नाम को इब्न-ए-असदुल्लाह ने मारा

मैदाँ मे अलमदार के जाने के मै सदक़े
उस फ़ाक़े में तलवार लगाने के मैं सदक़े

बाहम इल्म ओ मुश्क उठाने के मै सदक़े
उस प्यास मे इक बूँद न पाने के मै सदक़े

सुक़्क़ा बना प्यासों का मुरव्वत के तसद्दुक़
बे सर किया शह-ज़ोरों को क़ूत के तसद्दुक़

तुम दोनों का हर वक़्त निगहबान ख़ुदा हो
देखे जो बुरी आँख से ग़ारत हो फ़ना हो

दोनों की बला ले के ये माँ-जाई फ़िदा हो
रो कर कहा हज़रत ने बहन देखिए क्या हो

मुंह चाँद सा मुझ को जो दिखाएँ तो मैं जानूँ
दरिया से सलामत जो फिर आएँ तो मैं जानूँ

ज़ैनब से ब-हसरत ये बयाँ करते थे मौला
नागाह सकीना ने सुना फ़तह का मिज़दाँ

चिल्लाई मैं सदक़े तिरे अच्छी मिरी फ़िज़्ज़ा
जा जल्द बलाएँ तू मेरे अमूद की तू ले आ

देख प्यास का कह कर उन्हें मदहोश न करना
पर याद दिलाना कि फ़रामोश न करना

लेने को बलाएँ गई फ़िज़्ज़ा सू-ए-जंगाह
अब्बास ने आते हुए देखा उसे नागाह

चिल्लाए कि फिर जा मैं हवा आने से आगाह
कह देना सकीना से हमें याद है वल्लाह

दि प्यास से बी-बी का हुआ जाता है पानी
ले कर तिरे बाबा का ग़ुलाम आता है पानी

दरिया को चले अब्र-ए-सिफ़त साथ लिए बर्क़
मर्हब के शरीकों का जुदा करते हुए फ़र्क़

सरदार में और फ़ौज में बाक़ी न रहा फ़र्क़
मर्हब की तरह सब छह हब हब में हुए ग़र्क़

तलवार की इक मौज ने तूफ़ान उठाया
तूफ़ान ने सर पर वो बयान उठाया

पानी हुई हर मौज-ए-ज़र्रह-फ़ौज के तन में
मलबूस में ज़िंदे थे कि मुर्दे थे कफ़न में

खंजर की ज़बानों को क़लम कर के दहन में
इक तेग़ से तलवारों को आरी कया रन में

हैदर का असद क़लज़ुम-ए-लश्कर में दर आया
उमड़े हुए बादल की तरह नहर आया

दरिया के निगहबान बढ़े होने को चौ-रंग
पहने हुए मछली की तरह बर में ज़र्रह तंग

खींचे हुए मौजों की तरह खंजर बे-रंग
सुक़्क़े ने कहा पानी पे जाएज़ है कहाँ जंग

दरिया के निगहबान हो पर ग़फ़लत-ए-दीँ है
मानिंद-ए-हुबाब आँख में बीनाई नहीं है

मज़हब है क्या कि रह-ए-शरा न जानी
मशरब है ये कैसा कि पिलाते नहीं पानी

बे शीर का बचपन अली-अकबर की जवानी
बरबाद किए देती है अब तिशना-दहानी

लब ख़ुश्क हैं बच्चों की ज़बाँ प्यास से शक़ है
दरिया ही से पूछ लो किस प्यासे का हक़ है

पानी मुझे इक मुश्क है उस नहर से दर कार
भर लेने दो मुझ को न करो हुज्जत-ओ-तकरार

चिल्लाए सितम-गर है गुज़र नहर पे दुशवार
ग़ाज़ी ने कहा हाँ पे इरादा है तो होशियार

लौसेल को और बर्क़-ए-शरर-बार को रोको
रहवार कोरोको मिरी तलवार को रोको

ये कह के किया अस्प-ए-सुबुक-ए-ताज़ को महमेज़
बिजली की तरह कूंद के चमका फ़र्स-ए-तेज़

अशरार के सर पर हुआ नअलों से शरर-ए-रेज़
सैलाब-ए-फ़ना था कि वो तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़

झपकी पलक उस रख़्श को जब क़हर में देखा
फिर आँख खुली जब तो रवाँ नहर में देखा

दरिया में हुआ ग़ुल कि वो दर-ए-नजफ़ आया
इलियास ओ ख़िज़्र बोले हमारा शरफ़ आया

अब्बास शहनशाह-ए-नजफ़ का ख़लफ आया
पा-बोस को मोती लिए दस्त-ए-सदफ़ आया

याद आ गई प्यासों की जो हैदर के ख़लफ़ को
दिल ख़ून हुआ देख कर दरिया के ख़लफ़ को

सूखे हुए मुशकीज़ा का फिर खोला दहाना
भरने लगा ख़म हो के वो सर ताज-ए-ज़माना

अअदा ने किया दूर से तीरों का निशाना
और चूम लिया रूह-ए-यदुल्लाह ने शाना

फ़रमाया की क्या क्या मुझे ख़ुश करते हो बेटा
पानी मिरी पोती के लिए भरते हो बेटा

कुछ तिरी कोशिश ओ हिम्मत में नहीं है
पानी मगर उस प्यासी की क़िस्मत में नहीं है

वक़्फ़ा मिरे प्यारे की शहादत में नहीं है
जो ज़ख़्म में लज़्ज़त है वो जराहत में नहीं है

इक ख़ून की नहर आँखों से ज़ोहरा के बही है
रोने को तिरी लाश पे सर खोल रही है

दरिया से जो निकला असदुल्लाह का जानी
था शोर कि वो शेर लिए जाता है पानी

फिर राह में हाएल हुए सब ज़ुल्म के पानी
सुक़्क़ा-ए-सकीना की ये की मर्तबा-दानी

क़ब्रें नबी ओ हैदर ओ ज़ुबेरा की हिला दीं
बरछों की जो नोंकें थीं कलेजे से मिला दीं

वो कौन सा तीर जो दिल पे न लगाया
मुशकीज़े के पानी से सवा खून बहाया

ये नर्ग़ा था जो शमर ने हीले से सुनाया
अब्बास बचो ग़ौल-ए-कमीं-गाह से आया

मुड़ कर जो नज़र की ख़लफ़-ए-शीर-ए-ख़दा ने
शानो को तहे तेग़ किया अहल-ए-जफ़ा ने

लिखा है कि एक नख़्ल-ए-रत्ब था सर-ए-मैदाँ
इब्न-ए-वर्क़ा ज़ैद-ए-लईं इस में था पिनहाँ

पहुंचा जो वहाँ सर्व-ए-रवान-ए-शह-ए-मुर्दां
जो शाना था मुश्क ओ अलम ओ तेग़ के शायाँ

वारिस पे किया ज़ैद ने शमशीर-ए-अजल से
ये फूली-फली शाख़ कटी तेग़ के फल से

मुश्क ओ अलम तेग़ के बाईं पे संभाला
और जल्द चला आशिक़-ए-रू-ए-शह-ए-वाला

पर इब्न-ए-तुफ़ैल आगे बढ़ा तान के भाला
बर्छी की अनी से तो किया दिल तह-ओ-बाला

और तेग़ की ज़ुरबत से जिगर शाह का काटा
वो हाथ भी फ़रजंद-ए-यदुल्लाह का काटा

सुक़्के ने कई बांहों पे मुशकीज़ा को रख कर
मानिंद-ए-ज़बाँ मुंह में लिया तुस्मा सरासर

नागाह कई तीर लगे आगे बराबर
इक मुश्क पे इक आँख पे और एक दहन पर

मुश्कीज़ से पानी बहा और ख़ून बहा तन से
अब्बास गिरे घोड़े से और मुश्क दहन से

गिर कर लब-ए-ज़ख़्मी से अलमदार पुकारा
कह दो कोई प्यासों से कि सुक़्क़ा गया मारा

सुन ली ये सदा शाह-ए-शहीदाँ ने क़ज़ारा
ज़ैनब से कहा लो न रहा कोई हमारा

असग़र का गला छिद गया अकबर का जिगर भी
बाज़ू भी मेरे टूट गए और कमर भी

गोया कि उसी वक़्त जले ख़ेमे हमारे
ज़ालिम ने तमांचे भी मिरी बेटी को मारे

रस्सी में मिरे ख़ुर्द-ओ-कलाँ बंध गए सारे
अब्बास के ग़म में हो गए हम गौर-ए-किनारे

अअदा में है ग़ुल मालक-ए-शमशीर को मारा
ये क्यूँ नहीं कहते हैं कि शप्पीर को मारा

ज़ैनब ने कहा सच है तुम्हें मर गए भाई
सब कुंबे को अब्बास फ़ना कर गए भाई

आफ़ाक़ से अब हमज़ा-हैदर गए भाई
हम मजलिस-ए-हाकिम में खुले-सर गए भाई

मैं जान चुकी क़ैद-ए-मुसीबत में पड़ी हूँ
अब घर में नहीं बलवे में सर नंगे खड़ी हूँ

नागाह सदा आई कि ए फ़ातिमा के लाल
जल्द आओ कि लाशा मिरा अब होता है पामाल

ज़ैनब ने कहा ज़िंदा हैं अबास-ए-ख़ुश-इक़बाल
तुम जाओ में याँ बहर-ए-शिफ़ा खोलती हूँ बाल

शहि बोले लब-ए-गोर सकीना का चचा है
इस फ़ौज का मारा हुआ कोई भी बचा है

अकबर के सहारे से चले नहर पे आक़ा
गह होश था गह ग़श कभी सकता कभी नौहा

लिखा है कि टुकड़े हुए यूँ सुक़्क़े की आज़ा
इक हाथ तो मक़्तल में मिला इक लब-ए-दरिया

ज़ोहरा का पिसर रन में जो ज़ेर-ए-शजर आया
इक हाथ तड़पता हुआ शह को नज़र आया

गर करशह-ए-वाला ने ये अकबर से कही बात
ऐ लाल उठा लो मरे बाज़ू का है ये हाथ

ये हाथ रखे सीने पे वो वारिस-ए-सादात
पहुँचा जो सर-ए-लाशा-ए-अबास-ए-ख़ुश-औक़ात

हैहात क़लम तेग़ों से शाने नज़र आए
सर-नंगे यदुल्लाह सिरहाने नज़र आए

बे-साख़्ता माथे पे रखा शाह ने माथा
लब रख के लबों पर कहा वा-ए-हसरत-ओ-दर-वा

ये तीर ये आँख और ये नेज़ा ये कलेजा
वा-ए-क़ुर्रत-ए-ऐना मिरे वा-महजतन कलबा

कुछ मुँह से तो बोलो मिरे ग़म-ख़्वार बिरादर
अबास अबुल-फ़ज़ल अलमदार बिरादर

इस जाँ-शिकनी में जो सुना शेवन-ए-मौला
ताज़ीम की नीयत में कटे शानों को टेका

फिर पाँव समेटे कि न हों पाइंती आक़ा
शह बोले ना तकलीफ़ करो ऐ मेरे शैदा

की अर्ज़ में फैलाए हुए पाँव पड़ा हूँ
हज़रत ने ये फ़रमाया सिरहाने मैं खड़ा हूँ

याँ थी ये क़यामत वहाँ ख़ेमा में ये महशर
दर पर थीं नबी-ज़ादियाँ सब खोले हुए सर

तशवीश थी क्यूँ लाश को ले आए न सुरूर
अबास का फ़र्ज़ंद सरासीमा था बाहर

तन राशे में ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ की तरह था
दिल टुकड़े यतीमों के गरीबाँ की तरह था

ज़िद करता था माँ से मिरे बाबा को बुला दो
मैं नहर पे जाता हूँ मिरा नीमचा लादो

माँ कहती थी बाबा को सकीना के दुआ दो
बाबा भी चचा को कहो बाबा को भुला दो

हैदर से नौवें साल छुड़ाया था क़ज़ा ने
वारी तिरे बाबा को भी पाला था चचा ने

दरिया पे अभी घर गए थे बाप तुम्हारे
प्यारे के चचा जाँ इन्हें लेने को सुधारे

तो रह यहीं ऐ मेरे रंडापे के सहारे
बाबा को चचा जाँ लिए आते हैं प्यारे

था इश्क़ जो अबास से इस नेक-ए-ख़ल्फ़ को
बढ़ बढ़ के नज़र करता था दरिया की तरफ़ को

नागाह फिरा पीटता मुँह को वो परेशाँ
ज़ैनब ने कहा ख़ैर तो है मैं तिरे क़ुरबाँ

चिल्लाया कि ख़ादिम की यतीमी का है सामाँ
भय्या अली-अकबर ने अभी फाड़ा गिरेबाँ

बिन बाप का बचपन में हमें कर गए बाबा
मुर्दे से लिपटते हैं चचा मर गए बाबा

ये ग़ुल था जो मौला लिए मुश्क ओ अलम आले
ख़ेमे में कमर पकड़े इमाम-ए-अमम आए

और गर्द-ए-अलम बाल बिखेरे हरम आए
ज़ैनब से कहा शह ने बहन लुट के हम आए


भाई के यतीमों की परस्तार हो ज़ैनब
तुम मोहतमिम-ए-सोग-ए-अलमदार हो ज़ैनब

हाँ सोग का हैदर के सियह फ़र्श बिछाओ
हैं रख़्त-ए-अज़ा जिस में वो संदूक़ मंगाओ

दो सब को सियह जोड़े अज़ादार बनाओ
शप्पीर की अज़ा का हमें मलबूस पनहाओ

तुम पहनो वो काली-कफ़नी आल-ए-अबा में
जो फ़ातिमा ने पहनी थी नाना की अज़ा में

अब्बास का ये सोग नहीं सोग है मेरा
अब्बास का मातम हो मिरे घर में जो बरपा

नौहे में न अब्बास कहे न कहे सुक़्क़ा
जो बीन करे रो के कहे हाय हसीना

सब लौंडियाँ यूँ रोईं कि आक़ा गया मारा
चिल्लाए सीकना भी कि बाबा गया मारा

ज़ैनब ने कहा हैं मेरी क़िस्मत के यही काम
देने लगी मातम के ये जोड़े वो नाकाम

फ़िज़्ज़ा से कहा सोग का करती हूँ सर-ए-अंजाम
ठंडा हुआ है है इल्म-ए-लश्कर-ए-इस्लाम

ज़ोहरा का लिबास अपने लिए छांट रही हूँ
अब्बास का मलबूस-ए-अज़ा बांट रही हूँ

फिर ज़ेर-ए-इल्म फ़र्श-ए-सय ला के बिछाया
और बेवा-ए-अब्बास को ख़ुद ला के बिठाया

थे जितने सयह-पोश उन्हें रो के सुनाया
क़िस्मत ने जवाँ भाई का भी दाग़ दिखाया

नासूर न किस तरह से हो दिल में जिगर में
मातम है अलमदार का सरदार के घर में

बाक़ी कोई दस्तूर-ए-अज़ा रहने न पाए
अब ख़ेमे में अपने हर इक उस ख़ेमे से जाए

एक एक यहाँ पुर्से को अब्बास के आए
सर नंगे लब-ए-फ़र्श से ज़ैनब उसे लाए

ये जाफ़र ओ हमज़ा का ये हैदर का है मातम
शप्पीर का अक्बर का और असग़र का है मातम

सब ख़ेमों में अपने गईं करती हुई ज़ारी
याँ करने लगी बीन यदुल्लाह की प्यारी

फ़िज़्ज़ा ने कहा ज़ैनब-ए-मुज़्तर से मैं वारी
ऐ बिंत-ए-अली आती है बानो की सवारी

मुँह ज़ेर-ए-इल्म ढाँपे अलमदार की बी-बी
पुर्से के लिए आती है सरदार की बी-बी

बानो ने क़दम पीछे रखा फ़र्श-ए-सियह पर
पहले वहाँ बिठला दिया असग़र को खुले सर

फिर सू-ए-इल्म पीटती दौड़ी वो ये कह कर
क़ुर्बान वफ़ा पर तिरी ऐ बाज़ू-ए-सुरूर

सुनती हूँ तहा-ए-तेग़-ए-सितम हो गए बाज़ू
दरिया पे बहिश्ती के क़लम हो गए बाज़ू

अब्बास को तो मैं न समझती थी बिरादर
मैं उन को पिसर कहती थी और वो मुझे मादर

उस शेर के मर जाने से बे-कस हुए सुरूर
बे-जान हुआ हाफ़िज़-जान-ए-अली-अकबर

सब कहते हैं हज़रत का बिरादर गया मारा
पूछो जो मरे दिल से तो अक्बर गया मारा

इतने में सुनी बाली सकीना की दुहाई
ज़ैनब ने कहा रूह अलमदार की आई

जोड़े हुए हाथों को वो शप्पीर की जाई
कहती थी सज़ा पानी के मंगवाने की पाई

ताज़ीर दो या दुख़्तर-ए-शप्पीर को बख़्शो
किस तरह कहूँ मैं मिरी तक़सीर को बख़्शो

मैं ने तुम्हें बेवा किया रंड-साला पिनहाया
है है मिरी इक प्यास ने सब घर को रुलाया

कौसर पे सुधारा असदुल्लाह का जाया
और कुंबे का इल्ज़ाम मिरे हिस्से में आया

इंसाफ़ करो लोगों ये क्या कर गए अम्मू
में प्यासी की प्यासी रही और मर गए अम्मू

बाद इस के हुआ शोर कि लो आती है बेवा
तशरीफ़ नई बेवा के घर लाती है बेवा

घूँघट को उलटते हुए शरमाती है बेवा
सर गुंधा हुआ सास से खुलवाती है बेवा

ज़ैनब ने कहा बेवा-ए-फ़र्ज़ंद-ए-हसन है
ये क्यूँ नहीं कहते मिरे क़ासिम की दुल्हन है

कुबरा को चची पास जो ज़ैनब ने बिठाया
इस बेवा ने घूँघट रुख़-ए-कुबरा से हटाया

और पूछा कि दूलहा तिरा क्यूँ साथ न आया
अफ़सोस चची ने तुझे मेहमाँ न बुलाया

पुर्से को तो आई ख़लफ़-ए-शेर-ए-ख़ुदा के
पहला तिरा चाला ये हुआ घर में चचा के

नागाह फ़ुग़ाँ ज़ेर-ए-इल्म ये हुई पैदा
सैय्यदानियो दो मादर-ए-अब्बास को पुर्सा

ताज़ीम को सब उठे कि है नाला-ए-ज़ोहरा
ज़ैनब ने कहा अमाँ वतन में है वो दुखिया

आई ये निदा पास हूँ मैं दूर कहाँ हूँ
अब्बास मिरा बेटा मैं अब्बास की माँ हूँ

रंड-साला बहू को मैं पहनाने को हूँ आई
इक हुल-ए-पुर-नूर हूँ फ़िर्दोस से लाई

अब्बास के मातम की तो सफ़ तुम ने बिछाई
सामान सोइम होगा न कुछ ऐ मिरी जाई

तुम रोज़-ए-सोइम हाय रवाँ शाम को होगी
चिहल्लुम को कफ़न लाश-ए-अलमदार को दोगी

लो हैदरियो दावर-ए-मजलिस हुईं ज़ोहरा
दो फ़ातिमा की रूह को अब्बास का पुर्सा

अब तक नहीं कफ़नाये गए हैं शह-ए-वाला
बे-गौर है सरदार ओ अलमदार का लाशा

रोने नहीं देते हैं अदुव्व आल-ए-नबी को
तुम सब के इवज़ रोओ हुसैन-इब्न-ए-अली को

ख़ामोश दबीर अब कि नहीं नज़्म का यारा
मद्दाह का दिल ख़ंजर-ए-ग़म से है दो-पारा

काफ़ी प-ए-बख़्शिश ये वसीला है हमारा
इक हफ़्ते में तसनीफ़ किया मर्सिया सारा

तुझ पर करम-ए-ख़ास है ये हक़ के वली का
ये फ़ैज़ है सब मदह-ए-जिगर बंद-ए-अली का

मर्सिया-2

बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है
मरयम दरूद-ए-ख़्वाँ है ये किस की जनाब है

शान-ए-ख़ुदा अयाँ है ये किस की जनाब है
दहलीज़-ए-आसमाँ है ये किस की जनाब है

कुर्सी ज़मीं से लेती है गोशे पनाह के
बैठा है अर्श साए में इस बारगाह के

हूरान-ए-हिश्त-ए-ख़ुल्द हैं इक एहतिमाम को
दार-उस-सलाम दर पे झुका है सलाम को

सजदा यहीं हलाल है बैत-उल-हराम को
सूरज निसार सुब्ह को है चाँद शाम को

देखा करे खड़े हुए इस आस्ताँ को
याँ बैठने का हुक्म नहीं आसमान को

सहरा-ए-लामकाँ की फ़िज़ा इस से तंग है
जन्नत का नाम उस की बुजु़र्गी का नंग है

फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा के साया का हर जा पे ढंग है
याँ धूप में भी काग़ज़-ए-अबयज़ का रंग है

ज़ाइर को इस हरीम के ऐश-ओ-निशात है
उस का बिछौना रहमत-ए-हक़ की बिसात है

इफ़्फ़त पुकारती है मुक़ाम-ए-हिजाब है
शैऊ, जनाब-ए-फ़ातमा की ये जनाब है

हव्वा ओ आसिया का ये बाहम ख़िताब है
ज़ोहरा के रोब-ओ-दबदबा से ज़ोहरा आब है

जारी है मुँह जारिया-ए-फ़ातिमा हैं हम
मख़दूमा-ए-जहाँ की वो इक ख़ादिमा हैं हम

हर ख़िश्त-ए-रोज़ा दफ़्तर-ए-हिक्मत की फ़र्द है
मादूम याँ ज़माने का हर गर्म-ओ-सर्द है

याँ ग़म का है गुबार न कुलफ़त की गर्द है
पर साहिब-ए-रवाक़ के पहलू में दर्द है

हम तुम ये जानते थे कि सोती हैं फ़ातिमा
इस की ख़बर नहीं है कि रोती हैं फ़ातिमा

शान-ए-ख़ुदा है सल्ल-ए-अली शान-ए-फ़ातिमा
हैदर की जा-नमाज़ है दामान-ए-फ़ातिमा

रोज़ा हर एक रोज़ है मेहमान-ए-फ़ातिमा
कहती है ईद-ए-फ़ित्र में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा

बहर-ए-नमाज़ क़ुव्वत की तक़लील करती हैं
तस्बीह हक़ में आप को तहलील करती हैं

मदहोश हैं फ़ज़ाइल-ए-ज़ोहरा में चशम-ओ-गोश
ख़ुद बे-लिबास और ख़लायक़ की पर्दा-पोश

उस्रत से बे-हवास मगर याद-ए-हक़ का होश
फ़ाक़ा से चेहरा ख़ुश्क पे दरिया-दिली का जोश

मुस्तग़नी-उल-मिज़ाज हैं आलम-ए-नवाज़ हैं
ज़ेवर से मिसल-ए-ज़ात-ए-ख़ुदा बे-नियाज़ हैं

बाग़-ए-फ़दक जो ग़सब सितम गार ने किया
तप को मुती-ए-फ़ातिमा ग़फ़्फ़ार ने किया

हाकिम हर एक दर्द का मुख़तार ने किया
ज़ोहरा ने जो कहा वो हर आज़ार ने किया

सादिक़ से इस बयान की सेहत-ए-हुसूल है
रौशन दुआ-ए-नूर से शान-ए-बतूल है

रुख़ जलवा-गाह-क़ुदरत-ए-परवरदिगार है
दिल राज़दार-ए-ख़लवत-ए-परवरदिगार है

सर जाँ-निसार-ए-रहमत-ए-परवरदिगार है
तन ख़ाकसार-ए-ताअत-ए-परवरदिगार है

तस्बीह से अयाँ शरफ़-ए-फ़ातिमा हुआ
ज़िक्र-ए-ख़ुदा का फ़ातिमा पर ख़ातिमा हुआ

बाग़ों में ख़ुल्द नहरों में कौसर है इंतिख़ाब
क़िब्लों में काअबा मसहफ़ों में आख़िरी किताब

तारों में आफ़ताब-ए-मुबीं फूलों में गुलाब
सब औरतों में फ़ातिमा मर्दों में बूतिराब

शाह-ए-ज़नान-ए-वक़्त मसीहा की माँ हुईं
ज़ोहरा हर एक अस्र में शाह-ए-ज़नाँ हुईं

उलफ़त ख़ुदा के बाद हबीब-ए-ख़ुदा की है
मंसब के आगे ये भी दिला किबरिया की है

पर्वा न फ़ाक़ा की न शिकायत जफ़ा की है
ईज़ा फ़क़त जुदाई-ए-ख़ैर-उल-वरा की है

आब-ओ-ग़िज़ा की फ़िक्र न सोने का ध्यान है
आँखों में शक्ल बाप की रोने का ध्यान है

कुछ नोश कर लिया जो किसी ने खिला दिया
लेकिन अज़ा में कुछ ना ग़िज़ा ने मज़ा दिया


ग़श में किसी ने आ के जो पानी पिला दिया
क़तरा पिया और आँखों से दरिया बहा दिया

निसबत है किस से फ़ातिमा के शोर-ओ-शैन को
ज़ोहरा के बाद रोई हैं ज़ैनब हुसैन को

सुन कम क़ल्क़ ज़्यादा क़लक़ से फ़ुग़ाँ सिवा
सीने से दिल तो दिल से जिगर नातवाँ सिवा

रोने से चशम-ए-पाक हुई ख़ूँफ़िशाँ सिवा
तप वो कि नब्ज़ों से तपिश-ए-इस्तिख़्वाँ सिवा

जब फ़ातिमा ने हा-ए-पिदर कह के आह की
हिलने लगी ज़रीह रिसालत-ए-पनाह की

फ़िज़्ज़ा कनीज़-ए-फ़ातिमा करती है ये बयाँ
घर से हुआ जनाज़ा पयंबर का जब रवाँ

बैठी की बैठी रह गई मख़दूमा-ए-जहाँ
इक हफ़्ता रात दिन रहें हुजरे में नीम-जाँ

देखा जो मैं ने झांक के तो आँख बंद है
आवाज़ आह आह की दिल से बुलंद है

बेटे पुकारते हैं ये लिल्लाह बाहर आओ
अम्माँ न इतना रोओ गुलामों पे रहम खाओ

नाना कहाँ गए हैं बुला लाएँ हम बताओ
हम कुरते फाड़ते हैं नहीं तो गले लगाओ

नाना के बाद हाय ये बे-क़दर हम हुए
सब की तरफ़ हुज़ूर के भी प्यार कम हुए

हम-साइयाँ ये कहती थीं ऐ आशिक़-ए-पिदर
दीदार-ए-मुस्तफ़ा तो है मौक़ूफ़ हश्र पर

उन के इवज़ तो अपनी ज़ियारत से शाद कर
हुजरे में पीटती है ये कह कर वो नौहा-गर

अब मैं हूँ और हर एक हिक़ारत है साहिबो
मुझ बे-पिद्र की ख़ाक-ए-ज़ियारत है साहिबो

अल-क़िस्सा बाद-ए-हफ़्ते के दिन आठवाँ हुआ
और नील पोश ज़ुल्मत-ए-शब से जहाँ हुआ

याँ महर-ए-बुर्ज हुजरा-ए-मातम अयाँ हुआ
पर इस तरह कि मुर्दा का सब को गुमाँ हुआ

ये शक्ल हो गई थी अज़ा में रसूल की
पहचानी बेटियों ने न सूरत बतूल की

वो वक़्त शाम और अंधेरा इधर उधर
शिशदर हर एक रह गया मुँह देख देख कर

ज़ैनब ने जा के हुजरे में ढ़ूंडा बचश्म-ए-तर
चिल्लाईं वो कि हाय निकल जाऊँ मैं किधर

माँ मेरी क्या हुईं मैं क़ल्क़ से मलूल हूँ
मुड़ कर पुकारें आप मैं ही तो बतूल हूँ

फ़िज़्ज़ा बयान करती है उस वक़्त का ये हाल
तन ज़ार हो के बन गया था सूरत-ए-हिलाल

मातम के नील सीने पे रोने से आँखें लाल
मुँह ज़र्द होंट ख़ुश्क परेशान सर के बाल

रोती चलें मज़ार-ए-रसूल-ए-अनाम को
जिस तरह शम्म-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ हो शाम को

अंधेर फ़ातिमा के निकलने से हो गया
तूफ़ान-ए-नूह अश्कों के ढलने से हो गया

बरहम ज़माना हाथों के मलने से हो गया
आजिज़ फ़लक भी राह के चलने से हो गया

हवा कफ़न से क़ब्र में मुँह ढांपने लगी
आदम लहद में तड़पे ज़मीं काँपने लगी

जुज़ अश्क दोनों आँखों में हर शैय थी ख़ार ख़ार
गिर कर रिदा उलझती थी क़दमों से बार बार

था मातमी क़बा का गिरेबान तार तार
दिल था नहीफ़-ओ-ज़ार पे रोती थी ज़ार ज़ार

जब आह की तो चार तरफ़ बिजलियाँ गिरीं
थर्रा के याँ गिरीं कभी ग़श खा के वाँ गिरीं

क़ुदसी खड़े थे अर्श-ए-मुअल्ला के आस-पास
तस्बीह की ख़बर थी न तजलील के हवास

दोज़ख़ जुदा ख़ुरोश में मालिक जुदा उदास
ग़िलमान ओ हूर ओ जिन ओ परी पर हुजूम-ए-यास

ग़ुल था कि सब के दिल को हिलाती हैं फ़ातिमह
क़ब्र-ए-रसूल-ए-पाक पर आती हैं फ़ातिमा

रस्ते से लोग फ़िज़्ज़ा ने बढ़ कर हटा दिए
हमसाइयों ने गिरफों के पर्दे गिरा दिए

मर्दों के मुँह पे दौड़ के दामाँ उड़ा दिए
सब ने चिराग़ अपने घरों के बुझा दिए


कहती थीं फ़ातिमा के पिदर का ये शहर है
नामहरमों ने बी-बी को देखा तो क़हर है

यसरिब में वक़्त-ए-शाम ये ज़ोहरा का था अदब
दिन को फिराया बलवी में ज़ैनब को है ग़ज़ब

अल-क़िस्सा आई क़ब्र पे वो कुश्ता-ए-ताब
पर किस घड़ी कि हिलती थी क़ब्र-ए-रसूल-ए-रब

तुर्बत के गर्द फिरने से ताक़त जो घट गई
लेकर बलाएँ क़ब्र से ज़ोहरा लिपट गई

चलाई आह ओ इबिता ओ मुहमदा
नूर अल्लाह वा इबिता वा मोहम्मदा

शाहों के शाह ओ इबिता ओ मोहम्मदा
वा सैयदाह वा इबिता वा मोहम्मदा

बाबा बतूल आई है तस्लीम के लिए
उठिए यतीम बेटी की ताज़ीम के लिए

गुज़रे हैं आठ दिन की ज़ियारत नहीं हुई
इस बे-नसीब से कोई ख़िदमत नहीं हुई

मिंबर है सोना वाज़-ओ-नसीहत नहीं हुई
मस्जिद में भी नमाज़-ए-जमात नहीं हुई

हज़रत के मुँह से वहीइ-ए-ख़ुदा भी नहीं सुनी
जिबरील के परों की सदा भी नहीं सुनी

हुजरा वही है घर है वही एक तुम नहीं
तारे वही क़मर है वही एक तुम नहीं

शब है वही सहर है वही एक तुम नहीं
है है ये बे है पिदर है वही एक तुम नहीं

देते हैं सब दुआ कि शिफ़ा पाए फ़ातिमा
और फ़ातिमा ये कहती है मर जाए फ़ातिमा

तस्लीम मेरी ऐ पिदर है नामदार लो
तुर्बत पे अपनी तुम मुझे सदक़े उतार लो

क़ुर्बान तुम पे हूँ ख़बर है दिल है फ़िगार लो
मुश्ताक़ हूँ कि फ़ातिमा कह कर पुकार लो

पूछो ये तुम मिज़ाज तुम्हारा बख़ैर है
लौंडी कहे कि हाल जुदाई से ग़ैर है

दिल किस का ग़म में आप के नौहा-कुनाँ नहीं
वो कौन घर है जिस में कि आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं

आँसू वो कौन है जो मुसलसल रवाँ नहीं
उम्मत पे आप सा तो कोई मेहरबाँ नहीं

ख़ालिक़ के बाद बंदों के जो कुछ थे आप थे
बेओं के पर्दा-दार यतीमों के बाप थे

ख़्वाहाँ हर एक दम रहे उम्मत के चैन के
की महर तुम ने क़त्ल पे मेरे हसीन के

एहसाँ हैं शीयों पर नबी-ए-मशरिक़ैन के
नारे बुलंद करते हैं सब शोर-ओ-शेन के

बे-हश्र के तुम्हारी ज़यारत न होए-गी
हो-गी वो कौन आँख जो तुम पर न रोए-गी

आसाँ पिसर का दाग़ है मुश्किल पिदर का दाग़
वो कुछ दिनों का दाग़ है ये उम्र भर दाग़

ये तन-बदन का दाग़ है वो इक जिगर का दाग़
पैदा हुआ पिसर तो मिटा इस पिसर का दाग़

औलाद का बदल है पिदर का बदल नहीं
ये दर्द है कि जिस की दवा जुज़ अजल नहीं

और बाप भी वो बाप कि सर-ताज-ए-अंबिया
नूर-ए-ख़ुदा जलाल-ए-ख़ुदा रहमत-ए-ख़ुदा

रोज़-ए-अज़ल से ता-ब-अबद कल का पेशवा
बेटी पे सदक़े बेटी के बच्चों पे भी फ़िदा

क्यूँ-कर न अपनी मौत तुझे अब क़ुबूल हो
दुनिया में ऐसा बाप न हो और बतूल हो

क्या सो रहे हो क़ब्र में तन्हा जवाब दो
चिल्ला रही है आप की ज़ोहरा जवाब दो

मौला जवाब दो मरे आक़ा जवाब दो
दिल मानता नहीं मैं करूँ क्या जवाब दो

बोलो मैं सदक़े जाऊँ बहुत दिल-मलूल हूँ
बाबा बतूल हूँ मैं तुम्हारी बतूल हूँ

फिरते थे जब सफ़र से मिरे पास आते थे
लौंडी से बे-मिले कभी बाहर न जाते थे

फ़ाक़ा मिरा जो सुनते थे खाना न खाते थे
जो जो मैं नाज़ करती थी हज़रत उठाते थे

कैसी हक़ीर बाद-ए-रसूल-ए-करीम हूँ
दुर्र-ए-यतीम आगे थी अब तो यतीम हूँ

बाबा अज़ाँ बिलाल के मुँह की मुझे सुनाओ
बाबा नमाज़ी आए हैं मस्जिद में तुम भी जाओ

बाबा वसी को अपने बुला कर गले लगाओ
बाबा नवासे ढूंढते फिरते हैं मुँह दिखाओ

इक इक घड़ी पहाड़ है मुझ दिल-ए-मलूल को
बाबा कहो बुलाओ-गे किस दिन बतूल को

फिर्ती है याँ सकीना की इज़्ज़त निगाह में
ज़ोहरा नबी की क़ब्र पे थी अशक-ओ-आह में

आए जो ऊँट बेओं के मक़्तल की राह में
बे-साख़ता सकीना गिरी क़तल-गाह में

बेदाद अहल-ए-ज़ुलम ने की शोर-ओ-शेन पर
रोने दिया न बेटी को लाश-ए-हुसैन पर

अल-क़िस्सा फ़ातिमा हुई बे-होश क़ब्र पर
ज़ैनब के पास दौड़ी गई फ़िज़्ज़ा नंगे-सर

ज़ैनब ने पूछा ख़ैर तो है बोली पीट कर
जामा नबी का दो तो सिन्घाओं में नौहा-गर

हमसाईयाँ हैं गर्द हरासाँ खड़ी हुईं
बी-बी की अम्मां-जान हैं ग़श में पड़ी हुईं

नाना का ख़ास जामा नवासी ने ला दिया
फ़िज़्ज़ा ने जा के बीबी को ग़श में सुंघा दिया

ख़ुशबू ने उस की रूह को ऐसा मज़ा दिया
जामे पे बोसा फ़ातिमा ने जा-ब-जा दिया

पढ़ कर दरूद बात सुनाई वो यास की
तो बीबियाँ तड़पने लगीं आस-पास की

दिल का सुख़न है आह पुकारी वो बे-पिदर
याक़ूब ने जो सूँघा था पैराहन-ए-पिसर

यूसुफ़ के देखने की तवक़्क़ो थी किस क़दर
मेरी उम्मीद क़ता है बाबा से उम्र भर

पूछूँ कहाँ तलाश करूँ किस दैर में
यूसुफ़ तो मेरा सोता है लोगो मज़ार में

रोने लगीं ये कह के वो ख़ातून-ए-नेक-ज़ात
घर में ज़नान-ए-हाशमिया लाएँ हाथों-हाथ

काफ़िर भी रहम खाए जो देखे ये वारिदात
उम्मत का अब सुलूक सुनो फ़ातिमा के साथ

नज़रों से नूर-ए-चश्म-ए-नबी को गिरा दिया
दरवाज़ा-ए-अली-ए-दिली को गिरा दिया

आगे ना सुन सकेंगे ग़ुलामान-ए-फ़ातिमा
दर के तले बुलंद है अफ़्ग़ान-ए-फ़ातिमा

क्या वक़्त-ए-बे-कसी है में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा
रुकती है सांस होंटों पे है जान-ए-फ़ातिमा

मोहसिन जुदा तड़पता है पहलू में दिल जुदा
माँ मुज़्महिल जुदा है पिसर मुज़्महिल जुदा

सहमे हुए हसैन ओ हसन पास आते हैं
दरवाज़ा नन्हे हाथों से मिल कर उठाते हैं

घबराइयो न वालिदा ये कहते जाते हैं
उठता नहीं जो दर तो अली को बुलाते हैं

ज़ोहरा पुकारती थी वसी-ए-रसूल को
ऐ इबन-ए-अम कहाँ हो बचाओ बतूल को

सुन कर ये इस्तगासा-ए-ख़ातून-ए-दोसरा
यूँ दौड़े मुर्तज़ा कि गिरी दोष से अबा

दरवाज़े को उठाया तो ऐ वा-मुसीबता
पहलू शिकस्ता लाशा-ए-मोहसिन जुदा मिला

दरिया लहू के दीदा-ए-हक़-ए-बीं से बह गए
अल्लाह-रे सब्र शुक्र-ए-ख़ुदा कर के रह गए

इस पर भी ज़ालिमों ने न ख़ौफ़-ए-ख़ुदा किया
सामान-ए-क़त्ल-ए-नायब-ए-ख़ैर-उल-वरा किया

अंबोह गर्द-ए-हज़रत-ए-मुश्किल-कुशा किया
अच्छा इलाज पहलू-ए-ख़ैर-उन-निसा किया

घर से कनुंदा-ए-दर-ए-ख़ैबर को ले चले
चादर गले में बांध के हैदर को ले चले

बोला फ़लक में बंदा-ए-एहसाँ हूँ या-अली
क़ुदरत पुकारी ताबे-ए-फ़रमाँ हूँ या-अली

की अर्ज़ मौत ने मैं निगहबाँ हूँ या-अली
दिल ने कहा मैं सब्र का ख़्वाहाँ हूँ या-अली


बे-जा नहीं गले में गिरह रेसमाँ की है
होशियार या-अली है घड़ी इम्तिहाँ की है

क्या क्या गला रसन में घुटा दम ख़फ़ा हुआ
पर शुक्र-ए-हक़ में बंद न मुश्किल-कुशा हुआ

ग़ुल था ख़ुदा का शेर असीर-ए-जफ़ा हुआ
ख़ैर-उल-अमम के मरते ही है है ये क्या हुआ

रस्सी गले में है सितम-ताज़ा देखना
ईमान की किताब का शीराज़ा देखना

पहुँचा जो बज़म-ए-कुफ्र में वो दें का किबरिया
देखा नबी की क़ब्र को और आया ये पढ़ा

मूसा के आगे वरद जो हारून ने किया
निकला लरज़ के पंजा-ए-ख़ुरशीद बरमला

एजाज़ से रसूल के रौशन जहाँ हुआ
यानी लहद से दस्त-ए-मुबारक अयाँ हुआ

आई निदा अरे ये हमारा वज़ीर है
हैदर नहीं असीर पयंबर असीर है

तुम सब ग़ुलाम हो ये तुम्हारा अमीर है
क्या क़हर है कि दस्त-ए-ख़ुदा दस्तगीर है

शर करते हो बिरादर-ए-ख़ैरु-उल-वरा से तुम
क्यूँ बुत-परस्तो फिर गए आख़िर ख़ुदा से तुम

हम ने ग़दीर-ए-ख़म में किया था वसी किसे
कहती है ख़ल्क़ साहिब-ए-नाद-ए-अली किसे

मुश्किल के वक़्त ढूंडते थे सब नबी किसे
क़ुदरत है ये सिवा-ए-अली-वली किसे

अव्वल मदद से ख़ुश दिल-ए-आदम को कर दिया
फिर ग़म से तुम को तुम से जुदा ग़म को कर दिया

कअबा में पहले किस ने अज़ाँ दी है बरमहल
सोया है कौन फ़र्श पे मेरे मिरे बदल

किस बंदा का ख़ुदा के लिए है हर इक अमल
किस की अता का अक़दा हुआ हिल्ल-ए-अति से हल

तौरेत में ख़ुदा ने इनोशंतिया कहा
इंजील में जो नाम लिया ईलिया कहा

तशरीह क़ुल्ल-ए-कफ़ा की है क्या मुर्तज़ा-अली
तसरीह अनमा की है क्या मुर्तज़ा-अली

तफ़सीर ला-फ़िता की है क्या मुर्तज़ा-अली
तासीर हर दुआ की है क्या मुर्तज़ा-अली

गंजीना-ए-उलूम-ए-ख़ुदा-दाद कौन है
जिब्रील से फ़रिश्ते का उस्ताद कौन है

सब सुन रहे थे ये कि हुआ हश्र जा-ब-जा
देखा ज़नान-ए-हाशमिया हैं बरहना-पा

और उम्म-ए-सलमा ज़ौजा-ए-पैग़ंबर-ए-ख़ुदा
पहलू सँभाले फ़ातिमा का वा-मुसीबता

ज़ोहरा ख़मूश आँखों में आँसू भरे हुए
जामा रसूल-ए-पाक का मुँह पर धरे हुए

पहुंचीं क़रीब-ए-हाकिम-ए-ज़ालिम जो वो जनाब
लहजे में मुस्तफा के किया उस से ये ख़िताब

आ होश में कि साबिरों को अब नहीं है ताब
हाँ बाल खोलती हूँ उलटती हूँ मैं नक़ाब

दुनिया तबाह होगी मिरा घर तो लुट गया
बस बस बहुत गला मिरे वाली का घुट गया

काँपी ये सुन के मस्जिद-ए-पैग़ंबर-ए-ख़ुदा
दीवारें सब ज़मीं से यकायक हुईं जुदा

ताज़ीम-ए-आह-ए-फ़ातिमा उठ उठ के की अदा
खोला मुख़ालिफ़ों ने गुलू-ए-शह-हुदा

घर को रवाना सैदा-ए-फ़ाक़ा-कश हुईं
आते ही गिर पड़ीं सफ़-ए-मातम पे ग़श हुईं

क़ुरआन ले के बेटियाँ दौड़ीं बरहना-सर
मुँह पर वर्क़ वर्क़ की हुआ दी बचश्म-ए-तर

तब चश्म-ए-नीम-वा से ये बोली वो बे-पिदर
ऐ बेटियो न उंस करो मुझ से इस क़दर

रविय्यत थी जिस पिदर से वो सर पर रहा नहीं
देखो मैं घर में रहने भी पाती हूँ या नहीं

क्या क्या कहूँ मैं दुख़तर-ए-ख़ैर-उल-अमम का दर्द
पहलू का दर्द हाथ का दर्द और शिकम का दर्द

बच्चों की बे-कसी का अली के अलम का दर्द
हर इक ग़ज़ब का हादिसा हर इक सितम का दर्द

दो मातम और आह वो ग़ुर्बत बतूल की
मोहसिन का चिहल्लुम और सह-माही रसूल की

मुँह से पिदर का नाम लिया और रो दिया
क़ुरआन पढ़ के हदिया किया और रो दिया

फ़र्श-ए-नबी की देखी ज़िया और रो दिया
तकियों को सूँघा बोसा दिया और रो दिया

सर्फ़ा न आह में न बका में न बीन में
बे-ग़श हुए इफ़ाक़ा न था शोर-ओ-शेन में

आख़िर वफ़ूर-गिरिया से आजिज़ हुए अरब
हैदर के पास रोने की फ़रियाद लाए सब

की अर्ज़ फ़ातिमा से कहो ऐ वीली-ए-रब
या-सय्यदी तुम्हारी रियाया है जाँ-लब

खाने का कोई वक़्त न सोने का वक़्त है
जो वक़्त है वो आप के रोने का वक़्त है

माँ बाप ने हमारी भी दुनिया से की क़ज़ा
हम तो न ऐसा रोय न पीटे न की अज़ा

फ़रमाया मुर्तज़ा ने कि बतलाओ तो भला
तुम में से किस का बाप हुआ है रसूल सा

इल्ज़ाम कोई दे नहीं सकता बतूल को
समझाता हूँ मैं ख़ैर यतीम-ए-रसूल को

बाहर से मुर्तज़ा गए घर में झुकाए सर
मुँह ढाँपे रो रही थी अकेली वो ख़ुश-सैर

देने लगे पयाम-ए-अरब शाह-ए-बहर-ओ-बर
घबरा के बोली हाय करूँ क्या मैं नौहा-गर

क़ाबू में मौत होवे तो मरजाऊँ या-अली
बाबा का सोग ले के किधर जाऊँ या-अली

मेरी तरफ़ से अहल-ए-मदीना को दो पयाम
लोगो ख़फ़ा न हो मिरी रुख़स्त है सुब्ह-ओ-शाम

दो चार दिन तुम्हारे मोहल्ले में है क़याम
रोने की धूम हो चुकी अब काम है तमाम

दिल जिस का मुर्दा हो उसे जीने से काम क्या
बाबा सुधारे मुझ को मदीना से काम क्या

रोने में इख़्तियार नहीं बे-पिदर हूँ मैं
दिल को मिरे न तोड़ो कि ख़सता-जिगर हूँ मैं

उम्मीदवार मौत की आठों पहर हूँ मैं
गर शाम को बची तो चिराग़-ए-सहर हूँ मैं

मातम है ग़ैर का कि तुम्हारे रसूल का
पर तुम को ना-गवार है रोना बतूल का

सब के नबी का सोग है कुल के नबी का ग़म
ये भी नसीब अपना कि इल्ज़ाम पाएँ हम


ये क्या समझ के मुँह से निकाला कि रोओ कम
बे-रौनक़ी रसूल के मातम की है सितम

बे-जा तुम्हारी ये ख़फ़गी है मैं रोऊँगी
कुछ हो मिरी तो जी को लगी है मैं रोऊँगी

हैदर का इस बयान से टुकड़े हुआ जिगर
बैत-उल-हज़न बनाया बकीआ में जल्द तर

लिखा है हाथ थाम के बेटों का हर सहर
वाँ जा के रोया करती थी दिन भर वो बे-पिदर

हंगाम-ए-शाम हैदर-ए-कर्रार जाते थे
रूह-ए-नबी की दे के क़सम उन को लाते थे

इक दिन निगाह करते हैं क्या शाह-ए-ला-फ़ुता
मतबख़ है गर्म आरिद-ए-जौ है गुंधा हुआ

नहला रही हैं बच्चों को मल मल के दस्त ओ पा
फैला दिए हैं गिरते भी धो कर जुदा जुदा

पूछा कि इतने कामों का जो शुग़्ल आज है
इस वक़्त कुछ बहाल तुम्हारा मिज़ाज है

बोलीं कि आज रात को हो जाऊंगी बहाल
कल मेरे कारोबार में ख़ुद होगे तुम निढाल

ख़िदमत का मेरे बच्चों की होगा किसे ख़याल
नहला-धुला दिया कि परेशाँ थे सर के बाल

कुरते भी धोए क़ुव्वत भी कल तक का दे चली
सेहरा न देखा एक ये अरमान ले चली

पूछा अली ने तुम को ये क्यूँ कर हुआ यकीं
सिद्दीक़ा ने कहा शुदनी है ये शक नहीं

पिछले को रोते रोते जो सोई में दिल-ए-हज़ीं
देखा कि एक बाग़ में हैं शाह-ए-मुरसलीं

मोहसिन को मेरे अपने गले से लगाते हैं
बहलाते थे ना रो तिरी माँ को बुलाते हैं

मुजरे को मैं झुकी तो कहा हो के बे-क़रार
ज़ोहरा कहाँ थी तू तिरा बाबा तिरे निसार

आ जल्द ढूंढता है ये मासूम बार बार
याँ पर रहेगी चैन से मेरा है इख़्तियार

याँ ग़ासिब-ए-फ़दक न कभी आने पाएगा
याँ ताज़ियाना तुझ को न कोई लगाएगा

ये सुन के नंगे पाँव में इस बाग़ से फ्री
बस देखना था आप का दीदार आख़िरी

सहवन अगर हुई हो कुछ आज़ुर्दा-ख़ातिरी
बख़्शो मुझे कि मौत है नज़दीक अब मिरी

रो कर कहा अली ने कि हम उज़्र-ए-ख़्वाह हैं
वल्लाह बे-क़सूर हो तुम सब गवाह हैं

मासूमा से भी होती है बीबी ख़ता कभी
उस्रत का तुम ज़बाँ पे ना लाएँ गिला कभी

अच्छा लिबास मांगा ना अच्छी ग़िज़ा कभी
बीमार जब पड़ीं न तलब की दवा कभी

क्या ख़ूब तुम ने मुझ से निबाही है फ़ातिमा
क्यूँ कर न हो कि नूर-ए-इलाही है फ़ातिमा

दुनिया के माल-ओ-जाह पे तुम ने नज़र न की
फ़रमाइश एक शय की भी मुझ से मगर न की

यूँ सब्र से जहाँ में किसी ने बसर न की
फ़ाक़े किए और अपने पिदर को ख़बर न की

पहलू पे दर गिरा में हिमायत न कर सका
शर्मिंदा हूँ कि हक़-ए-रियायत न कर सका

वो बोली ये कनीज़ नवाज़ी है सर-बसर
फ़रमाइए वसीयत-ए-अव्वल पे अब नज़र

हर बे-पिदर के बाद-ए-नबी आप हैं पिदर
सबतैन तो हुज़ूर के हैं पारा-ए-जिगर

गर चाहते हो क़ब्र में ज़ोहरा के चैन को
देना न रंज मेरे हसन और हुसैन को

मग़रिब तलक बस और है माँ उन की सर पे अब
कल सुब्ह ये घिरैंगे यतीमी में है ग़ज़ब

परवाना रहियो मेरे चराग़ों पे रोज़ ओ शब
बिन माँ का जान गर कोई घड़के न बे-सबब

ये दोनों हैं सपुर्द जनाब-ए-अमीर के
जौशन हैं आप मेरे सग़ीर ओ कबीर के

वाली यतीम बच्चों का होता है दिल हुबाब
चिल्ला के उन की बात का देना न तुम जवाब

बहनों की उन की उन से सिवा होगा इज़्तिराब
दिल-जूई उन की कीजियो बे-हद-ओ-बे-हिसाब

ज़ैनब से होशियार कि नाज़ों की पाली है
और दूसरे हुसैन की ये रोने वाली है

अर्ज़-ए-दोम ये है मुझे शब को उठाइयो
और क़ब्र का निशान कई जा बनाइयो

तुर्बत में ख़ुद उतारियो और ख़ुद लटाइयो
फिर काँप कर कहा कि इलाही बचाइयो


आँखों के आगे क़ब्र की तन्हाई फिर गई
मोती की इक लड़ी थी कि आँखों से गिर गई

बोली कि या अली ये क़यामत का वक़्त है
मरने से सख़्त क़ब्र की वहशत का वक़्त है

मय्यत पे बाद-ए-दफ़न ये आफ़त का वक़्त है
इस वक़्त वारिसों की मोहब्बत का वक़्त है

हमदम नहीं रफ़ीक़ नहीं मेहरबाँ नहीं
ये वो जगह है कोई किसी का जहाँ नहीं

वो अजनबी मकाँ वो अंधेरा इधर उधर
पहले-पहल वो बस्ती से वीराने का सफ़र

ने शम्मा रौशनी के लिए ने शिगाफ़-दर
हमसाया वो कि दूसरे से एक बेख़बर

किस को कोई पुकारे कहाँ जाए क्या करे
आसान सब पे क़ब्र की मुश्किल ख़ुदा करे

अक्सर तुम्हारी शान में फ़रमाते थे पिदर
तुर्बत में अपने शीओं की लेते हैं ये ख़बर

उम्मीदवार मैं भी हूँ या शाह-बहर-ओ-बर
क़ुरआन पढ़ियो क़ब्र के पहलू में बैठ कर

मुर्दे लहद में बे-कस-ओ-बे-यार होते हैं
ज़िन्दों से उंस के ये तलब-गार होते हैं

आई निदा रसूल की बेटी में आऊँगा
होते ही दफ़न तुझ को गले से लगाऊँगा

आग़ोश में लिए हुए जन्नत मैं जाऊँगा
फ़ाक़ा के बदले मेवा-ए-तूबा ख़िलाऊँगा

महबूबा-ए-ख़ुदा-ओ-नबी तेरा नाम है
मदफ़न तिरे मुहिब्बों का दार-उस-सलाम है

नागाह महर ने किया दुनिया से इंतिक़ाल
मस्जिद में मुर्तज़ा गए महज़ूँ-ओ-ख़स्ता-हाल

हुजरे में बाप के गई ख़ातून-ए-ख़ुश-ख़िसाल
इस्मा से बोली मज़हर-ए-इसमा-ए-ज़ूलजलाल

काफ़ूर-ए-ख़ुल्द फ़ातिमा-ज़ोहरा के पास ला
पानी हमारे ग़ुसल को ला और लिबास ला

हुजरे में ग़ुसल कर के पढ़ी आख़िरी नमाज़
सजदे में सर झुका के कहे अपने दिल के राज़

आवाज़-ए-अरजई से किया हक़ ने सरफ़राज़
ज़ोहरा ने अपने पाँव किए क़िबला को दराज़

हूरों ने फिर बहिश्त में बरपा ये ग़ुल किया
पेटू क़ज़ा ने शम्मा-ए-पयंबर को ग़ुल किया

याँ सब खड़े थे हुजरे के नज़दीक बे-क़रार
कलिमा के बाद जब न सदा आई ज़ीनहार

हुजरे में पीटते हुए दौड़े सब एक बार
चिल्लाई उम्म-ए-सलमा लुटी मैं जिगर-ए-फ़िगार

अपना भी सोगवार रंडापे में कर गईं
जीती रही मैं आप जहाँ से गुज़र गईं

फिर तो हर एक कूचे में महशर बपा हुआ
अपने पराए दौड़े कि है है ये क्या हुआ

फ़िज़्ज़ा पुकारी सय्यदा का वाक़िआ हुआ
हुजरा बतूल-ए-पाक का मातम-सरा हुआ

सीने में दम क़लक़ से रुका साँस उलट गई
मुँह रखे मुँह पे मुर्दे के ज़ैनब लिपट गई

लेकर बलाएँ कहती थी बेटी निसार हो
अम्माँ मैं होल खाती हूँ तुम होशियार हो

भय्या ज़मीं पे लौटते हैं हम-कनार हो
तुम आँख खोल दो तो सभों को क़रार हो

है है ये चुपके रहने की क्या बात हो गई
नाना का फ़ातिहा न दिया रात हो गई

उठीए चिराग़-ए-क़हर नबी पर जलाइए
सूनी पड़ी है नाना की सफ़ जल्द जाइए

पहलू का दर्द कैसा है ये तो बताइए
देखूँ मैं नब्ज़ हाथ तो अपना बढ़ाइए

क्यूँ आप खोलती नहीं चशम-ए-पुर-आब को
क्या ग़श में देखती हैं रसालत-ए-मआब को

हमसाइआं हैं आप की बालीं पे बे-क़रार
और पायँती ज़नान-ए-क़ुरैशी की है क़तार

है पहलूओं में आप का कुम्बा सब अशकबार
सब पूछते हैं आप को ज़ैनब से बार बार

बी-बी कहो कहाँ का पता दूँ किधर गईं
ये तो नहीं ज़बाँ से निकलता कि मर गईं

मैं दूध बख्शवा भी न पाई कि चल बसीं
शर्बत बना के लाने न पाई कि चल बसीं

सज्जादे से उठाने न पाई कि चल बसीं
मैं बे-नसीब आने न पाई कि चल बसीं

क्या जानती थी वक़्त ये है इंतिक़ाल का
बाइस सिवा है ये मिरे रंज-ओ-मलाल का

ऐ मेरी फ़ाक़ा कश मिरी नादार वालिदा
ऐ मेरी बे-दवा मिरी बीमार वालिदा

कुंबा की आबरू मिरी सरदार वालिदा
ऐ मेरी साबिरा मिरी नाचार वालिदा

नाना की सोगवार को ताज़ा ख़िताब दो
अम्माँ जवाब दो मिरी अम्माँ जवाब दो

हमसा-ए-उज़्र के लिए डेयुढ़ी पे हैं बहम
कहते हैं आप रोईं मज़ाहम न होंगे हम

ख़ातिर हो उन की जमा निदामत हो उन की कम
मुँह ढाँप कर जो बीन करें आप एक दम

इतना तो उन से कहिए कि एहसान कीजियो
ज़ैनब जो मुझ को रोए उसे रोने दीजियो

नागाह आए रोते हुए शाह-औसिया
ग़ुसल ओ हुनूत फ़ातिमा ख़ुद हुजरे में किया

इस्तबरक़-ए-बहिश्त-ए-बरीं का कफ़न दिया
मय्यत के नूर से हुआ ताबूत पुर-ज़िया

बू-ए-कफ़न में खोल के रुख़सार-ए-फ़ातिमा
मुश्ताक़ो आओ देख लो दीदार-ए-फ़ातिमा

फिरने लगीं कनीज़ें जनाज़े के आस-पास
झुक कर बलाएँ बेटियों ने लीं ब-हाल-ए-यास

अब क्या कहूँ कि शिद्दत-ए-ग़म से है दिल उदास
नज़दीक है वो वक़्त कि सब हुईं बेहवास

घर में अली लहद में नबी थरथराते हैं
बिन-माँ के बेटे माँ के जनाज़े पर आते हैं

नन्हे से कुर्तों के हैं गिरेबान चाक चाक
गेसू खुले हैं डाले हुए हैं सरों पे ख़ाक

नज़दीक है कि वालिदा के ग़म में हूँ हलाक
जारी ज़बान पर यही नौहा है दर्द-नाक

जाती हो तुम नबी की ज़ियारत के वास्ते
अम्माँ ग़ुलाम आए हैं रुख़स्त के वास्ते

नाना जो पूछें खादिमों की ख़ैर-ओ-आफ़ियत
कहना ज़माना ख़ून का प्यासा है बे-जहत

बाबा के क़त्ल की है नुमामों में मश्वरत
नाना हमारे दिल को हो अब किस की तक़वियत

शफ़क़त का हाथ आप ने सर से उठा लिया
एक वालिदा थीं पास उन्हें भी बुला लिया

होने लगे विदा ये कह कर वो नेक-नाम
नन्हे से सर झुका के किया आख़िरी सलाम

फिर तो वो मय्यत-ए-जिगर-ए-सय्यद-उल-अनाम
थर्राई यूँ कि बंद-ए-कफ़न खुल गए तमाम

आशिक़ को बे-मिले हुए किस तरह कुल पड़े
ज़ोहरा के दोनों हाथ कफ़न से निकल पड़े

बाहें गले में प्यार से बेटों के डाल दें
और सीने से लिपट गए झुक कर वो नाज़नीं

हातिफ़ ने दी अली को निदा ऐ अमीर-ए-दीं
रोते हैं हर फ़लक पे मुलक हिलती है ज़मीं

तसकीन-ए-अर्श-ए-आज़म-ए-रब-ए-हुदा करो
बेटों को माँ की लाश से जुदा करो

मुँह चूम कर यतीमों का बोले ये मुर्तज़ा
प्यारो फ़रिश्ते रोते हैं अब माँ से हो जुदा

फ़िज़्ज़ा पुकारी बी-बी के एजाज़ पर फ़िदा
बस आशिक़-ए-हुसैन-ओ-हसन प्यार हो चुका

बाहें निकालो दफ़न में अब देर होती है
आइंदा कि रूह नहीं सैर होती है

अब नज़र दे ये मर्सिया और अर्ज़ कर दबीर
या सय्यदा तुम्हें क़सम-ए-ख़ालिक़-ए-क़दीर

बहर-ए-रसूल-ए-पाक ओ प-ए-हज़रत-ए-अमीर
तुम पर फ़िदा थी वालिदा-ए-ज़ाकिर-ए-हक़ीर

फ़रमाइए ये लुत्फ़ कि वो रुस्तगार हो
हुल्ला-ए-कफ़न हो रोज़ा-ए-रिज़वाँ मज़ार हो

Conclusion:- ( نَتیجَہءِ کلام )

मिर्ज़ा दबीर की फ़नकारी पर एक अदबी सलाम

जब कोई तख़य्युल शायरी से आगे बढ़कर ताज़ियत की तर्जुमानी करने लगे, जब लफ़्ज़ों से सिर्फ़ बयान नहीं बल्कि मातम बरसने लगे, तो समझिए आप मिर्ज़ा सलामत अली दबीर के आलमी अहद में दाख़िल हो चुके हैं।

दबीर वो शायर नहीं थे जो महज़ रदीफ़-क़ाफ़िया को साध लेते, वो वो फ़नकार थे जिन्होंने लफ़्ज़ों को लहू में धोकर, क़लम को अज़ा की तहरीर बना दिया। उनके मर्सिये कोरे बयान नहीं, बल्के रूहानी हिकायतें हैं — जहाँ कर्बला सिर्फ़ एक वाक़िया नहीं, जज़्बे की इन्तिहा, हुस्न-ए-अदब की इन्तेहा, और हक़ की सदा बन जाता है।

उनका हर मिसरा एक आह की तर्ज़, हर बंद एक सोज़ की लय, और हर सलाम एक इबादत की सदा मालूम होती है। उन्होंने मर्सिया को अदब की तंग गलियों से निकाल कर फ़लसफ़े, तसव्वुफ़ और तहज़ीब की शाहरा पर ला खड़ा किया।

दबीर की शायरी में वो नफ़ासत है जो ग़ालिब के फ़िक़्र में, वो सोज़ है जो रूमी की बातों में, और वो हुस्न है जो कर्बोबला के मंज़रों में मिलती है। उनके अल्फ़ाज़ सिर्फ़ पढ़े नहीं जाते — वो सीने में उतरते हैं, रूह को भिगोते हैं, और अश्कों को बेआवाज़ गवाही बना देते हैं।

हर चश्म से चश्मे की रवानी हो जाए

फिर ताज़ा मिरी मर्सिया ख़्वानी हो जाए

फ़ज़्ल-ए-बारी से हों ये आँसू जारी

सावन की घटा शर्म से पानी हो जाए

वो मर्सिया निगार नहीं — सिपहसालार-ए-अदब थे,
वो शायर नहीं — नक़्क़ाश-ए-अज़ा थे,
वो मुसद्दस नहीं कहते थे — शहादत का नक्श खींचते थे।

आज अगर मर्सिया हमारी तहज़ीब की पहचान है, तो उसकी पेशानी पर अनीस का शफ़्फ़ाक़ और दबीर का नूर बराबर चमकता है। दोनों की शायरी ने ना सिर्फ़ अदब को सजाया, बल्कि हमारी अज़ादारी की रूह को फ़साना बना दियाये भी पढ़ें 

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