उर्दू शायरी की रौशनी में डूबा एक दार्शनिक फ़नकार:शहजाद अहमद

 शहजाद अहमद

ख़ुलासा

नाम: शहजाद अहमद
पेशा: शायर, मनोवैज्ञानिक, दर्शनशास्त्री
पैदाइश: 16 अप्रैल 1932, अमृतसर (ब्रिटिश भारत)
इंतिक़ाल: 1 अगस्त 2012, लाहौर (पाकिस्तान)
ज़बान: उर्दू
अहद: 1958–2012
मुख्य विधाएँ: ग़ज़ल, नज़्म
पुरस्कार: प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस
उपनाम: शहजाद


जन्म, निस्बत और तालीम

शहजाद अहमद — एक नाम, एक आवाज़, एक फ़िक्र — जिनकी शायरी उर्दू अदब के आकाश पर चाँदनी की तरह चमकी। इनका जन्म 16 अप्रैल 1932 को अमृतसर, ब्रिटिश भारत की ज़मीन पर हुआ, एक ऐसी सरज़मीं जिसने फ़नकारों को जनम दिया, और फ़िक्रों को पनाह दी। हिंदुस्तान के बँटवारे के बाद उनका सफ़र पाकिस्तान की ओर रुख़ करता है, जहाँ उन्होंने न केवल इल्म की ऊँचाइयाँ छुईं बल्कि उर्दू शायरी में भी एक नया आसमां तलाशा।

शहजाद साहब ने मैट्रिकुलेशन की पढ़ाई अमृतसर में पूरी की और बाद-ए-हिजरत उन्होंने लाहौर की मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। वहाँ उन्होंने मनोविज्ञान में एमएससी की और फिर दर्शनशास्त्र में एमए हासिल किया। यही दो इश्क़ – इल्म और इज़हार – ताउम्र उनके हमसफ़र रहे।


तख़लीक़ी सफ़र: शायरी की रूहानी उड़ान

शहजाद अहमद महज़ शायर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे मुतफ़क्किर थे जिन्होंने इश्क़, समाज, और वजूद के सवालों को उर्दू के हसीन लिबास में पेश किया। उनका कलाम महज़ अल्फ़ाज़ का तसव्वुर नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों में उतरती हुई सदा है।

1958 में उनकी पहली शायरी की किताब "सदफ़" के ज़रिये उन्होंने उर्दू अदब में दस्तक दी — एक ऐसी दस्तक जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी मशहूर किताबों में:

  • सितार

  • भुजती आँखें

  • जलती

  • टूटा हुआ पल

  • उतराय मेरी ख़ाक पर

उनकी शायरी में समाजी बेदारियों का इज़हार है, इश्क़ की तड़प है, तन्हाई की सदा है, और रूह की पुकार है। वे उन चंद शायरों में से थे जिन्होंने ग़ज़ल और नज़्म दोनों में अपनी पहचान बनाई। उन्होंने लगभग 90 से अधिक ग़ज़लें, 11 नज़्में, और दर्जनों मुक्त सरगर्मियाँ लिखीं जो आज भी अदबी महफ़िलों की रौनक हैं।


फ़िक्र और फ़लसफ़ा: शायरी से आगे का सफ़र

शहजाद साहब की शख़्सियत का दूसरा पहलू उनका इल्मी व फ़लसफ़ियाना रुझान था। मनोविज्ञान के एक माहिर होने के नाते उन्होंने तीस से ज़्यादा किताबें लिखीं जो इंसानी ज़ेहन, रवैयों और नफ़्सियात को समझने में मदद करती हैं।

इसके अलावा, उन्हें उर्दू के एक बेहतरीन अनुवादक के तौर पर भी याद किया जाता है। उन्होंने कई गैर-उर्दू कविताओं को उर्दू में तब्दील कर उन एहसासात को ज़बान दी, जो शायद अपनी अस्ल ज़बान में सीमित हो गए थे।


अदबी अदारे और शख़्सियत की बुलंदी

शहजाद अहमद सिर्फ़ एक शायर नहीं थे, वे एक संस्था थे। वे मजलिस-ए-तरक्क़ी-ए-अदब के निदेशक रहे — वो अदारہ जो पाकिस्तान में उर्दू किताबों और क्लासिकी अदब के हिफ़ाज़तगार की हैसियत रखता है।

उनकी अदबी और समाजी ख़िदमात के ऐतिराफ़ में उन्हें पाकिस्तान सरकार की जानिब से "प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस" जैसे आला इज़्ज़त से नवाज़ा गया — एक ऐसा तमग़ा जो हुनरमंदों की पेशानी पर चमकता है।


आख़िरी सफ़ा: एक फ़नकार की ख़ामोश रुख़्सती

1 अगस्त 2012 को लाहौर में यह चमकता हुआ सितारा दुनिया की नज़रों से ओझल हो गया। लंबी बीमारी के बाद जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो उर्दू अदब एक ऐसे साये से महरूम हो गया जो दिलों को छूता था।

लेकिन फ़नकार कभी मरते नहीं — शहजाद अहमद आज भी ज़िंदा हैं अपनी शायरी में, अपनी किताबों में, उन अल्फ़ाज़ में जो आज भी दिलों पर दस्तक देते हैं।


शहजाद की शायरी

ग़ज़ल-1

वो मिरे पास है क्या पास बुलाऊँ उस को
दिल में रहता है कहाँ ढूँडने जाऊँ उस को

आज फिर पहली मुलाक़ात से आग़ाज़ करूँ
आज फिर दूर से ही देख के आऊँ उस को

क़ैद कर लूँ उसे आँखों के निहाँ-ख़ाने में
चाहता हूँ कि किसी से न मिलाऊँ उस को

उसे दुनिया की निगाहों से करूँ मैं महफ़ूज़
वो वहाँ हो कि जहाँ देख न पाऊँ उस को

चलना चाहे तो रखे पाँव मिरे सीने पर
बैठना चाहे तो आँखों पे बिठाऊँ उस को

वो मुझे इतना सुबुक इतना सुबुक लगता है
कभी गिर जाए तो पलकों से उठाऊँ उस को

मुझे मालूम है आख़िर को जुदा होना है
लेकिन इक बार तो सीने से लगाऊँ उस को

याद से उस की नहीं ख़ाली कोई भी लम्हा
फिर भी डरता हूँ कहीं भूल न जाऊँ उस को

मुझ पे ये राज़ इसी एक हवाले से खुला
बात उस की है मगर कैसे बताऊँ उस को

ये मिरा दिल मिरा दुश्मन मिरा दीवाना दिल
चाहता है कि सभी ज़ख़्म दिखाऊँ उस को

आज तो धूप में तेज़ी ही बहुत है वर्ना
अपने साए से भी 'शहज़ाद' बचाऊँ उस को


ग़ज़ल-2

रुख़्सत हुआ तो आँख मिला कर नहीं गया
वो क्यूँ गया है ये भी बता कर नहीं गया

वो यूँ गया कि बाद-ए-सबा याद आ गई
एहसास तक भी हम को दिला कर नहीं गया

यूँ लग रहा है जैसे अभी लौट आएगा
जाते हुए चराग़ बुझा कर नहीं गया

बस इक लकीर खींच गया दरमियान में
दीवार रास्ते में बना कर नहीं गया

शायद वो मिल ही जाए मगर जुस्तुजू है शर्त
वो अपने नक़्श-ए-पा तो मिटा कर नहीं गया

घर में है आज तक वही ख़ुश्बू बसी हुई
लगता है यूँ कि जैसे वो आ कर नहीं गया

तब तक तो फूल जैसी ही ताज़ा थी उस की याद
जब तक वो पत्तियों को जुदा कर नहीं गया

रहने दिया न उस ने किसी काम का मुझे
और ख़ाक में भी मुझ को मिला कर नहीं गया

वैसी ही बे-तलब है अभी मेरी ज़िंदगी
वो ख़ार-ओ-ख़स में आग लगा कर नहीं गया

'शहज़ाद' ये गिला ही रहा उस की ज़ात से
जाते हुए वो कोई गिला कर नहीं गया


ग़ज़ल-3

सूरज की किरन देख के बेज़ार हुए हो
शायद कि अभी ख़्वाब से बेदार हुए हो

मंज़िल है कहाँ तुम को दिखाई नहीं देगी
तुम अपने लिए आप ही दीवार हुए हो

एहसास की दौलत जो मिलेगी तो कहाँ से
कुछ भी न रहा पास तो होशियार हुए हो

सोचो तो है मौजूद न सोचो तो नहीं है
जिस दाम में तुम लोग गिरफ़्तार हुए हो

अपने से तग़ाफ़ुल है कि बे-राह-रवी है
क्या सोच के दुनिया के तलबगार हुए हो

ये रिश्ता-ए-दिल तोड़ के क्या तुम को मिला है
टूटे हुए पत्ते की तरह ख़्वार हुए हो

पहले भी कभी नूर का एहसास हुआ था
या आज ही इस ग़म से ख़बर-दार हुए हो

मजनूँ हो तो है ख़ाक उड़ाने से तुम्हें काम
यूसुफ़ हो तो रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुए हो

कल तक तो इन आँखों में मुरव्वत की झलक थी
फ़ित्ना हो तो फिर आज ही बेदार हुए हो

कोई उफ़ुक़-ए-दिल पे नुमूदार तो हो ले
तुम किस के क़दम लेने को तय्यार हुए हो

ये छब ये झमक आँख से देखी नहीं जाती
तुम उड़ते हुए वक़्त की रफ़्तार हुए हो

'शहज़ाद' तअस्सुफ़ न करो बे-असरी पर
तुम दस्त-ए-रसा कब थे कि बेकार हुए हो


ग़ज़ल-4

इस भरे शहर में आराम मैं कैसे पाऊँ
जागते चीख़ते रंगों को कहाँ ले जाऊँ

पैरहन चुस्त हवा सुस्त खड़ी दीवारें
उसे चाहूँ उसे रोकूँ कि जुदा हो जाऊँ

हुस्न बाज़ार की ज़ीनत है मगर है तो सही
घर से निकला हूँ तो उस चौक से भी हो आऊँ

लड़कियाँ कौन से गोशे में ज़ियादा होंगी
न करूँ बात मगर पेड़ तो गिनता जाऊँ

कर रहा हूँ जिसे बदनाम गली-कूचों में
आँख भी उस से मिलाते हुए मैं घबराऊँ

वो मुझे प्यार से देखे भी तो फिर क्या होगा
मुझ में इतनी भी सकत कब है कि धोका खाऊँ

हुस्न ख़ुद एक भिकारी है मुझे क्या देगा
किस तवक़्क़ो पे मैं दामान-ए-नज़र फैलाऊँ

वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
क्यूँ न ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ

एक मुद्दत से कई साए मिरी ताक में हैं
कब तलक रात की दीवार से सर टकराऊँ

आदमियत है कि है गुम्बद-ए-बे-दर कोई
ढूँडने निकलूँ तो अपना भी न रस्ता पाऊँ

लिए फिरता हूँ ख़यालों का दहकता दोज़ख़
सर से ये बोझ उतारूँ तो ख़ुदा हो जाऊँ

नज़्म -1

में और तू 

मैं वो झूटा हूँ
कि अपनी शाएरी में आँसुओं का ज़िक्र करता हूँ

मगर रोता नहीं
आसमाँ टूटे

ज़मीं काँपे
ख़ुदाई मर मिटे

मुझ को दुख होता है
मैं वो पत्थर हूँ कि जिस में कोई चिंगारी नहीं

वो पयम्बर हूँ कि जिस के दिल में बेदारी नहीं
तुम मुझे इतनी हक़ारत से न देखो

ऐन-मुमकिन है कि तुम मेरा हयूला देख कर
ग़ौर से पहचान कर

अपनी आँखें फोड़ लो
और मैं ख़ाली निगाहों से तुम्हें तकता रहूँ

आगही मुझ को पियारी थी
मगर इस का मआल

ज़िंदगी भर का वबाल
अब लिए फिरता हूँ अपने ज़ेहन में सदियों का बोझ

कुछ इज़ाफ़ा इस में तुम कर दो
कि शायद कोई तल्ख़ी ऐसी बाक़ी रह गई हो

जिस को मैं ने आज तक चक्खा नहीं

नज़्म -2

आँख मिचोली 

वो इक नन्ही सी लड़की
बर्फ़ के गाले से नाज़ुक-तर

हवा में झूलती शाख़ों की ख़ुशबू
उस का लहजा था

चमकते पानियों जैसी सुबुक-रौ
उस की बातें थीं

वो उड़ती तितलियों के रंग पहने
जब मुझे तकती

तो आँखें मीच लेती
मगर अब वो नहीं है

बर्फ़ के गाले भी ग़ाएब हैं
हवा में झूलती शाख़ों में

लहजा है न ख़ुशबू है
चमकते पानियों पर तैरते हैं

खड़खड़ाते ज़र्द-रू पत्ते
वो उड़ती तितलियाँ जिन के परों पर

उस की रंगत थी
ख़ुदा जाने कहाँ किस हाल में हैं

मैं हर उजड़े हुए मौसम में
उस को याद करता हूँ

तो आँखें मीच लेता हूँ

तब्सरा:-

उनकी शायरी पढ़ते वक़्त, ऐसा लगता है जैसे कोई दरवाज़ा खुला हो — बाहर की तरफ़ नहीं, अंदर की तरफ़। वहाँ जहाँ हमारी हसरतें बिना आवाज़ के रहती हैं, जहाँ मोहब्बत अपने सबसे सच्चे रंग में बैठी होती है — और जहाँ सवाल जवाबों से ज़्यादा खूबसूरत होते हैं।

शहजाद की ग़ज़लें ज़िंदगी के लिए आइना नहीं थीं — वो खुद ज़िंदगी थीं, एक बेहतर शक्ल में, एक बेहतर सलीके से। उन्होंने हमें बताया कि शायरी महज़ तख़य्युल का खेल नहीं — ये अपने वजूद को समझने की एक ख़ामोश जद्दोजहद है।

वो अल्फ़ाज़ के शहर के वास्तुकार थे। उन्होंने एहसास को इमारत की शक्ल दी, और दर्द को सजावट की तरह रखा। उनकी नज़्में किसी दीवार पर टंगी याद की तरह नहीं, बल्कि दिल की किसी धड़कन में गूँजते हुए जुमले की तरह थीं — जो कभी पूरी तरह सुनाई नहीं देती, लेकिन हमेशा महसूस होती है।

अब जब वक़्त का परदा गिर चुका है और शहजाद इस दुनिया से रुख़्सत ले चुके हैं, तो भी उनकी मौजूदगी खत्म नहीं हुई — बस अब वो किताबों में नहीं, उन लोगों के लहजे में ज़िंदा हैं जो उनसे कभी मिले भी नहीं।

शहजाद अहमद एक नाम नहीं, एक तर्ज़-ए-अहसास हैं। और तर्ज़-ए-अहसास कभी मरते नहीं — वो हमारी सोच के आसमान में किसी तारे की तरह चमकते रहते हैं। चुपचाप। मगर मुकम्मल।ये भी पढ़ें 

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