उर्दू अदब की तारीख़ में कुछ नाम ऐसे हैं जो सिर्फ़ किताबों के सफ़्हों तक महदूद नहीं रहते, बल्कि क़लम की स्याही से वक़्त के दामन पर नक़्श छोड़ जाते हैं।
डॉ. ख़लील-उर-रहमान आज़मी उन्हीं में से एक थे — एक ऐसी शख़्सियत जिनकी तहरीर, तन्क़ीद, और शायरी ने उर्दू अदब को एक नया तअल्लुक़, एक नई ज़बान और एक बेशुमार लहजा अता किया।
🌿 विलादत और आग़ाज़-ए-हयात
9 अगस्त 1927 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के एक पुरसुकून गांव सीधन सुल्तानपुर में उनकी पैदाइश हुई।
आपके वालिद मोहम्मद शफ़ी एक सादा तबीयत, दीनदार और रूहानी ज़ौक़ रखने वाले इंसान थे। उनके घर का माहौल तालेem, तस्लीम और तसव्वुफ़ की फज़ा में डूबा हुआ था। यही वज्ह थी कि बचपन से ही ख़लील साहब के दिलो-दिमाग़ में इल्म का बीज पड़ चुका था, जो आगे चलकर उर्दू अदब की एक ख़ुशबूदार शाख़ में तब्दील हुआ।
📚 तालीम का सफ़र
अपनी बुनियादी तालीम शिबली नेशनल हाई स्कूल, आज़मगढ़ से मुकम्मल की और 1945 में मैट्रिक का इम्तिहान पास किया।
उर्दू अदब से मोहब्बत उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ले गई, जहां से उन्होंने 1948 में बी.ए. और फिर उर्दू में एम.ए. की डिग्री हासिल की।
अलीगढ़ का अदबी माहौल उनके लिए एक रुहानी पड़ाव साबित हुआ।
वहीं पर उन्होंने बर्तानवी उर्दू-शिनास राल्फ़ रसल को तालीम दी — यह बात अपने आप में उनके इल्मी मक़ाम की तस्दीख़ करती है।
आख़िरकार, 1957 में उन्होंने "उर्दू में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक़" के उनवान से डॉक्टरेट (Ph.D.) हासिल की, जो आज भी अदब की दुनिया में एक तारीखी दस्तावेज़ माना जाता है।
🎓 तदरीसी और अकादमिक खिदमात
1952 में उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू डिपार्टमेंट में लेक्चरर मुकर्रर किया गया।
उनकी तालीमी सलाहियतों और अदबी शऊर के सबब, उन्हें महज़ चार साल बाद 1956 में रीडर बनाया गया।
वे 1978 तक उसी ओहदे पर फाइज़ रहे, लेकिन उनकी तालीमी खिदमात और अदबी ख़िदमतों के एतिराफ़ में उन्हें वफ़ात के बाद प्रोफ़ेसर के रुतबे से नवाज़ा गया।
✍️ शायरी और अदबी तहरीक़ात में किरदार
ख़लील साहब ने अपने तालेमी दौर से ही लिखना शुरू कर दिया था।
बचपन में ही उनकी तहरीरें "पयामी तालीम" जैसे बच्चों के रिसालों में छपने लगी थीं।
वो महज़ शायर नहीं थे, बल्कि एक मुतफ़क्किर, एक तन्क़ीद निगार, और जदीदियत के पुरजोश हिमायती भी थे।
उन्होंने अपनी ज़ात को तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ के उसूलों के लिए वक़्फ़ कर दिया और उर्दू अदब में एक नया नज़रिया, एक नया लहजा, और एक नया जज़्बा पैदा किया।
📖 उनकी चंद अहम किताबें
साल |
किताब का नाम |
क़िस्म |
1953 |
काग़ज़ी पैरहन |
शायरी (ग़ज़लें, नज़्में) |
1956 |
फ़िक्र-ओ-फ़न |
तन्क़ीद |
1965 |
नया अहदनामा |
शायरी का मजमूआ |
1965 |
तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ |
अदबी तहरीक पर किताब |
1966 |
ज़ाविय-ए-निगाह |
तन्क़ीदी मजामीन |
1972 |
उर्दू में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक़ |
डॉक्टरेट थीसिस |
1977 |
मज़ामीन-ए-नौ |
अदबी तन्क़ीद |
1983 |
ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी |
शायरी (वफ़ात के बाद) |
— |
मुक़द्दमा-ए-कलाम-ए-आतिश |
तहरीर |
इसके अलावा उन्होंने "नई नज़्म का सफ़र" नामी मजमूआ भी मुरत्तब किया, जो 1936 से 1972 तक की अहम शायरी का दस्तावेज़ है।
🌹 अलविदा लेकिन नासियॉं में बाक़ी
1 जून 1978 को लीकेमिया जैसी संगीन बीमारी ने इस रोशन ज़हन को हमसे छीन लिया।
लेकिन आज भी जब उर्दू अदब की बात होती है, तो ख़लील-उर-रहमान आज़मी का नाम एहतराम और मोहब्बत से लिया जाता है।
उन्हें मरणोपरांत "ग़ालिब अवॉर्ड" से भी नवाज़ा गया — यह साबित करता है कि उनका तसव्वुर, उनकी तहरीर, और उनकी शायरी वक़्त से आगे चलने वाली आवाज़ थी।
डॉ. ख़लील-उर-रहमान आज़मी की शायरी/ग़ज़लियात और नज़्में
ग़ज़ल -1
कहाँ खो गई रूह की रौशनी
बता मेरी रातों को आवारगी!
मैं जब लम्हे लम्हे का रस पी चुका
तो कुछ और जागी मिरी तिश्नगी
अगर घर से निकलें तो फिर तेज़ धूप
मगर घर में डसती हुई तीरगी
ग़मों पर तबस्सुम की डाली नक़ाब
तो होने लगी और बे-पर्दगी
मगर जागना अपनी क़िस्मत में था
बुलाती रही नींद की जल-परी
जो तामीर की कुंज-ए-तन्हाई में
वो दीवार अपने ही सर पर गिरी
न जाने जले कौन सी आग में
है क्यूँ सर पे ये राख बिखरी हुई
हुई बारिश-ए-संग इस शहर में
हमें भी मिला हक़्क़-ए-हम-साएगी
गुज़ारी है कितनों ने इस तरह उम्र
बिल-अक़सात करते रहे ख़ुद-कुशी
हैं कुछ लोग जिन को कोई ग़म नहीं
अजब तुर्फ़ा नेमत है ये बे-हिसी
कोई वक़्त बतला कि तुझ से मलूँ
मिरी दौड़ती भागती ज़िंदगी
जिन्हें साथ चलना हो चलते रहें
घड़ी वक़्त की किस की ख़ातिर रुकी
मैं जीता तो पाई किसी से न दाद
मैं हारा तो घर पर बड़ी भीड़ थी
हुआ हम पे अब उन का साया हराम
थी जिन बादलों से कभी दोस्ती
मुझे ये अँधेरे निगल जाएँगे
कहाँ है तू ऐ मेरे सूरज-मुखी!
निकाले गए इस के मअनी हज़ार
अजब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी
ग़ज़ल -2
मैं कहाँ हूँ कुछ बता दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
फिर सदा अपनी सुना दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
सो गए इक एक कर के ख़ाना-ए-दिल के चराग़
इन चराग़ों को जगा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
वो बिसात-ए-शेर-ओ-नग़्मा रतजगे वो चहचहे
फिर वही महफ़िल सजा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
जिस के हर क़तरे से रग रग में मचलता था लहू
फिर वही इक शय पिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
अब तो याद आता नहीं कैसा था अपना रंग-रूप
फिर मिरी सूरत दिखा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
एक मुद्दत हो गई रूठा हूँ अपने-आप से
फिर मुझे मुझ से मिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
जाने बरगश्ता है क्यूँ मुझ से ज़माने की हवा
अपने दामन की हवा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
रच गया है मेरी नस नस में मिरी रातों का ज़हर
मेरे सूरज को बुला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ग़ज़ल -3
बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा निकला
न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला
हमें तो रास न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला
हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला
हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला निकला
अब अपने-आप को ढूँडें कहाँ कहाँ जा कर
अदम से ता-ब-अदम अपना नक़्श-ए-पा निकला
ग़ज़ल -4
हर ज़र्रा गुल-फ़िशाँ है नज़र चूर चूर है
निकले हैं मय-कदे से तो चेहरे पे नूर है
हाँ तू कहे तो जान की परवा नहीं मुझे
यूँ ज़िंदगी से मुझ को मोहब्बत ज़रूर है
अब ऐ हवा-ए-चर्ख़-ए-कुहन तेरी ख़ैर हो
उठने को इस ज़मीन से शोर-ए-नुशूर है
अपना जो बस चले तो तुझे तुझ से माँग लें
पर क्या करें कि इश्क़ की फ़ितरत ग़यूर है
नाज़ुक था आब-गीना-ए-दिल टूट ही गया
तू अब न हो मलूल तिरा क्या क़ुसूर है
आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्ख़ियाँ
मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का ग़ुरूर है
ग़ज़ल -4
मेरे आँगन को महका दो
फिर जी चाहे मुझ को भुला दो
ओ रस्ते के चलते राही
मैं भी चलूँगा मुझ को दु'आ दो
ओ जी को ले जाने वालो
फिर मुझ को जीने की सज़ा दो
मेरी धरती बहुत है प्यासी
बादल बन कर रस बरसा दो
सोया सोया सा लगता है
मुझ को छेड़ो मुझ को जगा दो
मुझ को नींद नहीं आती है
अपनी चादर मुझे उढ़ा दो
छोटी सोहबतें लम्बी शामें
आओ इन का फ़र्क़ मिटा दो
मेरे संगी मेरे साथी
दूर पड़े हैं उन से मिला दो
नज़्म - 1
नया अहद नामा
बरसों से ये बाम-ओ-दर कि जिन पर
महकी हुई सुब्ह के हैं बोसे
यादों के यही नगर कि जिन पर
सजते हैं ये शाम के धुँदलके
ये मोड़ ये रहगुज़र कि जिन पर
लगते हैं उदासियों के मेले
हैं मेरे अज़ीज़ मेरे साथी
कब से मिरा आसरा रहे हैं
सुनते हैं ये मेरे दिल की धड़कन
जैसे ये मुझे सिखा रहे हैं
हँस-बोल के उम्र काट देना
मेरे यही दस्त-ओ-पा रहे हैं
बरसों से ये मेरी ज़िंदगी हैं
बरसों से मैं इन को जानता हूँ
हैं मेरी वफ़ा पे ये भी नाज़ाँ
हर बात मैं इन की मानता हूँ
लेकिन मिरे दिल को क्या हुआ है
मैं आज कुछ और ढानता हूँ
लगता है ये शहर-ए-दिल-बराँ भी
है पाँव की मेरे कोई ज़ंजीर
बस एक ही रात एक दिन है
हर रोज़ वही पुरानी तस्वीर
हर सुब्ह वही पुराने चेहरे
हो जाते हैं शाम को जो दिल-गीर
अब और कहीं से चल के देखें
किस तरह सहर की नर्म कलियाँ
किरनों का सलाम ले रही हैं
जाग उठती हैं किस तरह से गलियाँ
सब काम पे ऐसे जा रहे हैं
जैसे कि मनाएँ रंग-रलियाँ
देखें कहीं शाम को निकल कर
ढलते हुए अजनबी से साए
यूँ हाथ में हाथ ले रहे हों
जैसे कहीं घास सरसराए
इस तरह से पाँव चल रहे हों
जैसे कई पी के लड़खड़ाए
आने ही को हों मिलन की घड़ियाँ
सूरज कहीं ग़म का डूबता हो
महकी हो कहीं पे शब की दुल्हन
कचनार कहीं पे खिल रहा हो
हर गाम पे इक नया हो आलम
हर मोड़ पे इक नया ख़ुदा हो
✨ तब्सरा
ख़लील-उर-रहमान आज़मी का नाम उर्दू अदब की शहनाइयों में उस शख़्सियत के तौर पर लिया जाता है जिसने न केवल शायरी में नयापन और ताजगी का सहर किया, बल्कि तनक़ीद को भी दिल-ओ -दिमाग़ की गहराईयों से सराबोर किया।
वह सिर्फ़ किताबों के पन्नों पर क़लम चलाने वाले फनकार नहीं थे, बल्कि उन्होंने ज़िंदगी की हक़ीक़तों को अपनी तहरीर का हिस्सा बनाया। उनकी सोच की साफ़गोई और अंदाज़ की सादगी हर मिसरे में बयां होती है। चाहे उन्होंने नज़्म के सुकून में या तनक़ीद की नजीब मिसालों में लिखना चुना हो, हर ज़ुबां पर तहज़ीब, फहम और इमानदारी की खुशबू साफ़ महसूस की जाती है।
उनका कलाम कभी शोर-शराबे का मोहताज़ नहीं रहा, मगर उनकी तहरीर दिलों को छूने वाली एक नर्मी और गहराई लिए रहती है। उनकी शायरी में न किसी सस्ते शोहरत की तलब है, न दिखावे का कोई तलब , बस सच्चे जज़्बात और तहमुल से भरपूर गहरी सोच है। तनक़ीद में भी उन्होंने अंधाधुंध नफ़रत या तारीफ़ से परहेज़ किया और बस वो पेश किया जो सच था, बख़ूबी और शाइस्तगी से।
आज के दौर में जहाँ अदब के बाजार में नक़ल और तहक़ीक़ का मिलाजुला बाज़ार सजता है, वहाँ ख़लील साहब की तहरीरें जैसे रूह के किसी मेहरबान साए की तरह दिल को सुकून और राहत का पैग़ाम देती हैं। — जैसे किसी बुज़ुर्ग दरख़्त की छाँव तले बैठकर सोचने का सुकून।
वो आज हमारे बीच नहीं, मगर उनके अल्फ़ाज़ और अदब का तर्ज़ आज भी ज़िंदा है। जो दिल से पढ़ते और लिखते हैं, उनके लिए ख़लील-उर-रहमान आज़मी हमेशा एक रहनुमा और मिसाल बने रहेंगे।- ज़िआउस सहर रज़ज़ाक़ि