पहला बाब: विलादत और इब्तिदाई ज़िंदगी
ख़ानदानी पस-ए-मंज़र
मिर्ज़ा ग़ालिब 27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा हुए। उनका ख़ानदान अस्ल में समरक़ंद से था जो बाद में हिंदुस्तान आया। वालिद मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग मुग़लिया फौज में ख़िदमात अंजाम देते थे, लेकिन ग़ालिब के बचपन में ही उनका इंतिक़ाल हो गया। वालिदा इज़्ज़त-उन-निसा बेगम ने उनकी परवरिश की, लेकिन माली मुश्किलात ने उनके बचपन को आसान नहीं रहने दिया।
तालीम व तरबियत
ग़ालिब ने इब्तिदाई तालीम फ़ारसी और अरबी में हासिल की। उनके उस्ताद मौलवी मोहम्मद मुअज़्ज़उद्दीन थे, जिन्होंने उन्हें फ़ारसी अदब से रुशनास कराया। बचपन ही से उनकी ज़ेहनी क़ाबिलियत और हिफ़्ज़ की ग़ैरमामूली सलाहियतों ने सबको हैरान कर दिया।
शादी और घरेलू ज़िंदगी
1810 में, महज़ 13 साल की उम्र में, उनकी शादी नवाब इलाही बख़्श ख़ान की बेटी अमरा बेगम से हो गई। यह शादी ख़ुशगवार साबित न हुई, क्योंकि ग़ालिब की आज़ाद तबीयत और बेगम की रिवायती सोच में हमआहंगी न थी। माली मुश्किलात ने भी उनके घरेलू सुकून को मुतास्सिर किया।
दूसरा बाब: शायरी का सफ़र
फ़ारसी से उर्दू तक
ग़ालिब ने इब्तिदा में फ़ारसी में शायरी की, लेकिन जल्द ही उर्दू उनका महबूब मैदान बन गया। उनके उस्ताद मीर तकी मीर और मीर दर्द के कलाम ने उन पर गहरा असर डाला।
ग़ज़ल की दुनिया में इंक़लाब
ग़ालिब ने ग़ज़ल को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। उनके अशआर में फ़लसफ़ा, इश्क़, ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ और वजूदियत के गहरे सवालात मिलते हैं। चंद नुमायां अशआर:
"होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने?
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।"
"इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के।"
नस्र निगारी
ग़ालिब की नस्र भी उनकी शायरी की तरह मुनफ़रिद थी। उनके ख़ुतूत (ख़ास तौर पर "ग़ालिब के ख़ुतूत") उर्दू अदब का बेशबहा ख़ज़ाना हैं। उन्होंने अपनी तहरीरों में सादगी, तंज़ और गहरे मुशाहिदे को यकजा किया।
तीसरा बाब: शख्सियत और फ़लसफ़ा
ज़िंदगी का अलमिया
ग़ालिब की ज़िंदगी कड़वी सच्चाइयों से भरी थी। माली परेशानी, औलाद का इंतिक़ाल (उनके सात बच्चों में से कोई भी ज़िंदा न रहा), और मुआशरती तन्क़ीद ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया, लेकिन उन्होंने अपने दर्द को शायरी का रूप दिया।
फ़लसफ़ियाना सोच
ग़ालिब के हाँ ज़िंदगी, मौत, ख़ुदा और इंसान की हैसियत पर गहरे सवालात मिलते हैं। वो मज़हबी रवायात पर सवाल उठाते हैं, लेकिन बेदिनी के बजाय एक नई रूहानी तलाश का इज़हार करते हैं।
"ना था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता?"
चौथा बाब: आख़िरी आयाम और विरसा
मुग़लिया दरबार से वाबस्तगी
1850 में, बहादुर शाह ज़फ़र ने ग़ालिब को "नज्म-उद-दौला दबीर-उल-मुल्क" का ख़िताब दिया और उन्हें शाही तारीख़-निगार मुक़र्रर किया। लेकिन 1857 की जंग-ए-आज़ादी के बाद जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया, तो ग़ालिब की आमदनी बंद हो गई।
वफ़ात
15 फ़रवरी 1869 को, ग़ालिब ने दिल्ली में आख़िरी साँस ली। उनकी क़ब्र दिल्ली के निज़ामुद्दीन औलिया के क़रीब है।
अदबी विरसा
ग़ालिब की शायरी आज भी ज़िंदा है। उनके कलाम को दुनिया भर में पढ़ा जाता है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को नई जहतें दीं और नस्र को एक नया उस्लूब बख़्शा।
पाँचवाँ बाब: ग़ालिब की शायरी का जायज़ा
फ़न की ख़ुसूसियात
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लफ़्ज़ों का चुनाव: ग़ालिब के हाँ हर लफ़्ज़ सोच-समझ कर रखा गया होता है।
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तंज़ व मज़ाह: वो अपने दर्द को तंज़ की चादर में लपेट कर पेश करते हैं।
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फ़लसफ़ियाना गहराई: उनके अशआर में ज़िंदगी के बड़े सवाल छुपे होते हैं।
मशहूर ग़ज़लें
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"दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है?"
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"बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना"
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"इश्क़ से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया"
छटा बाब: ग़ालिब की हवेली
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| Ghalib ki Haveli ki ek Tasveer |
इस इमारत की दीवारों में मुग़ल फ़न-ए-तामीर की झलक और ग़ालिब की रूह की सदा मौजूद है — लाखौरी ईंटें, चूने का गारा, बलुआ पत्थर और लकड़ी के नक़्क़ाशीदार दरवाज़े जैसे वक़्त की तहों से बातें करते हैं। अंदर दाख़िल होते ही एक आदमक़द मुज़स्समा, हुक़्क़ा हाथ में थामे, ग़ालिब की ख़ामोश गुफ़्तगू से मिलने को तैयार मिलता है। उनके क़लाम, दस्तख़त, किताबें और उनके दौर के अहबाब जैसे उस्ताद ज़ौक़, मोमिन और बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीरें इस हवेली को ग़ालिब की ज़िंदगी का आईना बना देती हैं। दीवारों पर लटके उनके शेर जैसे कहते हैं:
"उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब',
हम बयाबान में हैं और घर में बहार आ गई है।"
ग़ालिब की हवेली सिर्फ़ एक इमारत नहीं, बल्के एक तहज़ीबी दस्तावेज़ है जो फ़ारसी-उर्दू अदब के इस बेमिसाल शायर की याद को ज़िंदा रखे हुए है।
मिरज़ा ग़ालिब की शायरी,ग़ज़लें नज़्में
ग़ज़ल-1
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
न शो'ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
ग़ज़ल-2
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे
है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे
दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को
सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे
ग़ज़ल-3
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना
वाए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना
जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना
इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना
ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना
की मिरे क़त्ल के बा'द उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
ग़ज़ल-4
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता'लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक
तब्सरा
मिर्ज़ा ग़ालिब सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक मक़तब-ए-फ़िक्र हैं। उनकी शायरी महज़ अल्फ़ाज़ का मजमूआ नहीं, बल्कि ज़िंदगी की एक तफ़सीर है। वो जिस दौर में पैदा हुए, उस वक़्त हिंदुस्तान सियासी और समाजी इन्तिशार से गुज़र रहा था। लेकिन ग़ालिब ने अपनी शायरी के ज़रिये एक ऐसी दुनिया तख़लीक़ की जो हमेशा ज़िंदा रहेगी।
उनकी शायरी ने ना सिर्फ उर्दू अदब को एक नई दिशा दी, बल्कि ज़िंदगी, मौत, इश्क़, तन्हाई, मज़हब, और वजूद जैसे गहरे मसाइल को उस अंदाज़ में बयां किया जिसे पढ़ने के बाद हर शख्स ख़ुद से सवाल करने पर मजबूर हो जाता है। उन्होंने एहसास को अल्फ़ाज़ की शक्ल दी, और उन अल्फ़ाज़ में वो जादू पैदा किया जो सदी दर सदी लोगों के दिलों पर असर करता रहेगा।
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| Mirza Ghalib Tomb New Delhi |
ग़ालिब की फ़िक्र महज़ किताबों में महदूद नहीं, वो हर उस दिल में ज़िंदा है जो सवाल करता है, जो सोचता है, जो महसूस करता है। उनके अशआर आज भी उतनी ही ताजगी रखते हैं जितनी उस दौर में, जब दिल्ली ग़म और ग़ुबार से घिरी हुई थी। उन्होंने जज़्बात को जिस गहराई और शाइस्तगी से बयान किया, वह आज भी उर्दू शायरी के लिए मयार बना हुआ है।
उनकी तहरीरें सिर्फ इश्क़ और हुस्न की दास्तान नहीं हैं, बल्कि वक़्त, समाज और इंसान के फितरी सवालों की तल्ख़ लेकिन ख़ूबसूरत तशरीह हैं। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को बारीकी से महसूस किया और उसे इस अंदाज़ में लिखा कि उनकी बात Universal बन गई। यही वजह है कि ग़ालिब ना सिर्फ उर्दू के, बल्कि अदब-ए-आलम के सबसे बेमिसाल शायरों में शुमार होते हैं।
आज जब हम ग़ालिब की बात करते हैं, तो हम सिर्फ एक शायर की याद नहीं करते — हम एक सोच, एक रवैया, एक अदबी विरासत की बात करते हैं जो न मिटी है, न मिटेगी। ग़ालिब का फ़िक्र व फ़न हमारे लिए सिर्फ तारीख़ नहीं, बल्कि रहनुमाई है — एक ऐसी रौशनी जो हर दौर की तीरगी को चीरती हुई, सोचने, समझने और महसूस करने का सलीका सिखाती है।ये भी पढ़ें
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