Iftekhar Arif Poet: मॉडर्न उर्दू शायरी में इफ्तिख़ार आरिफ का रुतबा,अवॉर्ड्स और इल्मी इत्तिराफ़

 

इफ़्तिख़ार हुसैन आरिफ, जिन्हें आज दुनिया इफ़्तिख़ार आरिफ के नाम से पुकारती है, सिर्फ़ एक शायर नहीं—बल्कि उर्दू अदब की वह पूरी रिवायत हैं जिसने तज्रूबे, तहज़ीब, तफ़क़्कुर और दर्द को एक नए सलीक़े से बयान किया। 21 मार्च 1944 को लक़नऊ की तहज़ीबी ख़ुशबू में जन्म लेने वाला यह शख़्स उर्दू की उस आला नस्ल का हिस्सा है जिसके लहजे में नफ़ासत, अल्फ़ाज़ में तहदील और तख़य्युल में एक अजीब सी रूहानी चमक मौजूद है।

लक़नऊ यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी, उर्दू और संसकृत की तालिम हासिल करने के बाद, इफ़्तिख़ार आरिफ ने सिर्फ़ अदब नहीं पढ़ा—बल्कि उसे जिया, बरता और अपने फ़न का हिस्सा बनाया। यही वजह है कि उनके अशआर में शास्त्रीय ज़हन और जदीद दर्द दोनों एक साथ चलते दिखाई देते हैं।


हिजरत, फ़न और तजुर्बे का सफ़र

1965 में पाकिस्तान हिजरत सिर्फ़ जगह बदलने का अमल नहीं था—बल्कि यह उनकी ज़िंदगी का वह मोड़ था जिसने उनके फ़न को नई ज़मीन, नया दर्द और नई पहचान दी। कराची में रेडियो पाकिस्तान पर न्यूज़कास्टर की हैसियत से उनकी आवाज़ घर-घर पहुंची। फिर PTV के मारूफ़ प्रोग्राम Kasauti में उबैदुल्लाह बैग के साथ उनकी पैरवी इतनी बुलंद हुई कि इफ़्तिख़ार आरिफ एक "आवाज़" से बढ़कर एक "शख़्सियत" बन गए।

इसके बाद 13 साल तक लंदन में Urdu Markaz की क़ियादत—यह वह दौर है जिसने इफ़्तिख़ार आरिफ को सिर्फ़ पाकिस्तान या हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि आलमी उर्दू नक़्शे पर एक अहम् नमूना बना दिया। उर्दू की तौसी, उसकी तशहीर और उसके नफ़्सानी व तहज़ीबी पहलुओं की नवाई—यह सब उन्होंने बड़े सलीके से अंजाम दिया।


इल्म का सफ़र — तीन ज़बानों का इत्तिहाद और एक शायर की तहज़ीब

लक़नऊ यूनिवर्सिटी में उन्होंने अंग्रेज़ी, उर्दू और संस्कृत जैसे तीन बिल्कुल मुनफ़रिद मगर अहम मज़ामीन पढ़े—
और यही उनका सबसे बड़ा अदबी असलाह साबित हुआ।

● अंग्रेज़ी ने उन्हें दुनिया की मॉडर्न थ्योरीज़ और काव्य-दृष्टि का इल्म दिया।
● संस्कृत ने उन्हें भारतीय फ़िक्र और प्राचीन साहित्य की गहराई से जोड़ा।
● उर्दू ने उन्हें वह ज़बान दी जिसके एक-एक हरफ़ में मोहब्बत, फिक्र और नफ़ासत बहती है।

यह अनोखा अकादमिक मेल उनकी शायरी का बुनियादी तख़्ता बना—जहाँ "तहज़ीब" भी है, "अक़्ल" भी, "रूहानियत" भी और "अल्फ़ाज़ का सलीक़ा" भी।

शायरी — रूह, ज़हन और तहज़ीब की मिली-जुली आहट

इफ़्तिख़ार आरिफ की शायरी वह परछाई है जिसमें इंसानी तज़ुर्बे, कौमी हस्सासियत, तारीख़ की गर्द, और रूह की तन्हाई—all blend with a spiritual longing.
उनके यहाँ ग़म, हिज्र, वतन, तजुर्बा, और इंसान की आध्यात्मिक तड़प—एक ही कैनवास पर चलती हैं।

उनकी तीन बड़ी किताबें:
Mehr-e-Doneem,
Harf-e-Baryab,
Jahan-e-Maloom,
और बाद में Kitab-e-Dil-o-Dunya—उर्दू शायरी का वह खज़ाना है जिसे पढ़कर एहसास होता है कि जज़्बात जब अदबी शऊर के साथ मिलते हैं, तो अशआर महज़ शेर नहीं रहते—इत्तिफ़ाक़, इबादत और इन्क़िलाब बन जाते हैं।

उनका मशहूर मिज़ाज—
दर्द की तह तक उतरना, और वहाँ से उम्मीद के एक छोटे से चराग़ को उठा लाना।

यही वजह है कि उनके अशआर में रूहानियत भी है, तारीख़ भी, और एक ज़मीर की पुकार भी—

"कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ गया है ये ज़माना
मैं तो खुद वक्त के दरियाओं में बहता हुआ आया"


फ़िक्री गहराई और अदबी बादशाहत

इफ़्तिख़ार आरिफ सिर्फ़ शायर नहीं—बल्कि उर्दू के सबसे बड़े मुहाफ़िज़ों में से एक हैं।
Pakistan Academy of Letters की सदारत हो, National Language Authority हो या उर्दू के आलमी मंच—हर जगह उन्होंने उर्दू की ताजपोशी की, उसकी जड़ों को मज़बूती दी और आने वाली नस्लों को यह एहसास कराया कि उर्दू सिर्फ़ भाषा नहीं—एक तहज़ीबी अमानत है।

उनकी शायरी पर अंग्रेज़ी, फ़ारसी और कई ज़बानों में तरजुमे हुए—
Written in the Season of Fear उनका आलमी तआऱुफ़ बन गया।


अवॉर्ड्स — एक अदबी ज़िंदगी की तस्दीक़

इफ़्तिख़ार आरिफ उन चंद अदबी शख़्सियतों में शामिल हैं जिन्हें पाकिस्तान की हुकूमत ने एक नहीं, बल्कि चार बड़े असरदार अलक़ाब से नवाज़ा—

  • Nishan-e-Imtiaz (2023)

  • Hilal-e-Imtiaz (2005)

  • Sitara-e-Imtiaz (1999)

  • Pride of Performance (1990)

साथ ही—Faiz International Award, Baba-e-Urdu Award, Waseeqa-e-Itraaf और Naqoosh Award—ये सब उनकी अदबी बादशाहत के मुहर की तरह हैं।


फ़न की ख़ासियत — क्यों इफ़्तिख़ार आरिफ ‘आख़िरी बड़े उर्दू शायर’ कहे जाते हैं

● उनके यहाँ पुरानी उर्दू का लहजा भी है,
● नई नस्ल का दर्द भी,
● और इंसानी तजुर्बे का गहन रूहानी एहसास भी।

वह सिर्फ़ “शेर” नहीं कहते—
बल्कि “हाल-ए-इंसान” बयान करते हैं।

उनका अंदाज़—
ना फ़ैज़ जैसा इन्क़िलाबी,
ना मीरा जी जैसा तख़य्युली,
ना अहमद फ़राज़ जैसा रुमानी—
बल्कि एक अनोखा, मुरब्बी, मूसिर और दिल के अंदर तक उतर जाने वाला अंदाज़।

उनकी एक ख़ास बात यह है कि—

वह हर लफ़्ज़ को एक अमानत की तरह बरतते हैं।

उनकी नज़्में इल्म, तफ़क्कुर और तजुर्बे का वह मुकम्मल इज़हार हैं जो आज की उर्दू में कम ही देखने को मिलता है।

इफ़्तेख़ार आरिफ़ की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 


ग़ज़ल -1 


हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं


मुबादा मुंदमिल ज़ख़्मों की सूरत भूल ही जाएँ

अभी कुछ दिन ये घर बरबाद रखना चाहते हैं


बहुत रौनक़ थी उन के दम क़दम से शहर-ए-जाँ में

वही रौनक़ हम उन के बा'द रखना चाहते हैं


बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत

वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं


सरों में एक ही सौदा कि लौ देने लगे ख़ाक

उमीदें हस्ब-ए-इस्तेदाद रखना चाहते हैं


कहीं ऐसा न हो हर्फ़-ए-दुआ मफ़्हूम खो दे

दुआ को सूरत-ए-फ़रियाद रखना चाहते हैं


क़लम आलूदा-ए-नान-ओ-नमक रहता है फिर भी

जहाँ तक हो सके आज़ाद रखना चाहते हैं

ग़ज़ल -2

कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में

अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में


ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया

ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में


न जाने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कौन से अज़ाब में है

हवाएँ चीख़ पड़ीं इल्तिजा के लहजे में


खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है

अजब कमाल है उस बेवफ़ा के लहजे में


यही है मस्लहत-ए-जब्र-ए-एहतियात तो फिर

हम अपना हाल कहेंगे छुपा के लहजे में

ग़ज़ल -3

ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में

फिर उस के बा'द मुसलसल अज़ाब आँखों में


वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद

खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में


जिन्हें मता-ए-दिल-ओ-जाँ समझ रहे थे हम

वो आइने भी हुए बे-हिजाब आँखों में


अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है

वो दिन भी थे कि खिले थे गुलाब आँखों में


मिरे ग़ज़ाल तिरी वहशतों की ख़ैर कि है

बहुत दिनों से बहुत इज़्तिराब आँखों में


न जाने कैसी क़यामत का पेश-ख़ेमा है

ये उलझनें तिरी बे-इंतिसाब आँखों में


जवाज़ क्या है मिरे कम-सुख़न बता तो सही

ब-नाम-ए-ख़ुश-निगही हर जवाब आँखों में

ग़ज़ल -4

ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था

मैं जिस में रह रहा था वही घर मिरा न था


मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया

मिट्टी बता रही है वो पैकर मिरा न था


मौज-ए-हवा-ए-शहर-ए-मुक़द्दर जवाब दे

दरिया मिरे न थे कि समुंदर मिरा न था


फिर भी तो संगसार किया जा रहा हूँ मैं

कहते हैं नाम तक सर-ए-महज़र मिरा न था


सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे

इक मैं ही था कि कोई भी लश्कर मिरा न था

ग़ज़ल -5

ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है

यहाँ वा'दों की अर्ज़ानी बहुत है


शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं

मगर लहजों में वीरानी बहुत है


सुबुक-ज़र्फ़ों के क़ाबू में नहीं लफ़्ज़

मगर शौक़-ए-गुल-अफ़्शानी बहुत है


है बाज़ारों में पानी सर से ऊँचा

मिरे घर में भी तुग़्यानी बहुत है


न जाने कब मिरे सहरा में आए

वो इक दरिया कि तूफ़ानी बहुत है


न जाने कब मिरे आँगन में बरसे

वो इक बादल कि नुक़सानी बहुत है


तब्सरा:-

इफ़्तिख़ार आरिफ की ज़िन्दगी का सफ़र पढ़कर एहसास होता है कि यह शख़्स उर्दू अदब की महज़ एक “किताब” नहीं—बल्कि एक पूरी “तहज़ीबी तारीख़” है, जो वक़्त की गर्द और इन्सानी तजुर्बे की आग से गुज़र कर एक नई चमक के साथ सामने आती है।
उनकी जीवनी से जो तस्वीर उभरती है, वह किसी पुराने उस्ताद की याद नहीं दिलाती—बल्कि एक जदीद फ़िक्र वाले रौशन दिमाग़ की है जिसने उर्दू को सिर्फ़ मिसरा नहीं दिया, एक मायने दिया, एक ताजपोषी दी।

इफ़्तिख़ार आरिफ का सफ़र लक़नऊ के तहज़ीबी लतीफ़ लहज़े से शुरू होकर कराची की तारीखी गर्मजोशी और फिर लंदन के आलमी अदबी वातावरण तक पहुँचता है। यह हिजरतें दरअसल उनकी शायरी का असल मजमून बनती हैं—जहाँ दर्द तजरुबे में बदलता है और तजुर्बा कलाम की शक्ल अख़्तियार कर लेता है।

उनकी शायरी की ख़ूबसूरती यह है कि वह न उस्तादाना दावत देती है, न सियासी जलूस बनकर चलती है; वह इंसान की रूह को उसकी अपनी तन्हाइयों, अपने सवालों और अपने अज़ाबों से रू-ब-रू करवाती है।
उनके मिसरों में तख़य्युल नहीं—तहदीद है।
जज़्बात नहीं—ज़मीर की दस्तक है।
और सबसे बढ़कर, उनके यहाँ “दर्द” रोया नहीं जाता—“बरता” जाता है।

इफ़्तिख़ार आरिफ को पढ़ते हुए महसूस होता है कि जैसे वह एक पुरानी तहज़ीब को उठाकर नए ज़माने की आँखों में रख देते हों—ताकि हर क़ारी देख सके कि लफ़्ज़ की ताक़त सिर्फ़ बयान में नहीं, बल्कि उसकी ख़ामोशी में भी मौजूद होती है।

उनकी ज़िन्दगी में अवार्ड्स, ओहदे और शोहरतें एक तआरुफ़ का हिस्सा ज़रूर हैं, लेकिन यह शख़्स इन चीज़ों से बड़ा नज़र आता है। वह उन चुनिंदा अदबी लोगों में से हैं जिन्होंने अपनी ज़बान को सिर्फ़ लिखा नहीं—उसकी हिफ़ाज़त भी की, उसकी शिनाख़्त भी बनाई और उसकी तहज़ीब को एक नई उम्र भी दी।

इफ़्तिख़ार आरिफ की शायरी का एक अनोखा पहलू यह है कि उसमें कोई अज़गर-ख़याल नज़र नहीं आता—बल्कि वह नर्म, रुहानी और बेहद इंसानी लहज़े में अपना दुख, अपना इल्म और अपने तजुर्बे हमारे हवाले कर देते हैं। उनकी किताबें पढ़कर महसूस होता है कि उर्दू अभी ज़िंदा है—और सिर्फ़ ज़िंदा नहीं, बल्कि उस रूहानी बरकत के साथ ज़िंदा है जिसे हर दौर में कोई एक शायर मिल ही जाता है।

आज के जदीद दौर में जब ज़बानें बाज़ारी और अशआर सतही हो गए हैं—इफ़्तिख़ार आरिफ एक ऐसे नक़्श की तरह हैं जो साबित करता है कि गिर्द-ओ-पेश चाहे कितनी भी धूल उड़े, मगर असल फ़न अपनी रोशनाई खुद पैदा कर लेता है।

उन्हें पढ़ना उर्दू की तारीख़ को एक नई आँख से पढ़ने जैसा है।
उन्हें सुनना—ख़ामोशी के पीछे छुपी सदियों की रूहानी सरगोशियों को सुनने जैसा।
और उन्हें समझना—अपने अंदर की उस तह तक पहुँच जाना है जहाँ अल्फ़ाज़ सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं रहते—इक़रार बन जाते हैं, ऐतराफ़ बन जाते हैं, इबादत बन जाते हैं।ये भी पढ़े 

इफ़्तिख़ार आरिफ सिर्फ़ एक शायर नहीं—
वह उर्दू की जदीद रूह के आख़िरी बड़े मुहाफ़िज़ हैं।

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