ब्रिज नारायण चकबस्त (19 जनवरी 1882 – 12 फरवरी 1926) उर्दू अदब की उस चमकती हुई हस्ती का नाम है, जिसने शायरी को सिर्फ़ हुस्न-ओ-इश्क़ तक महदूद नहीं रखा बल्कि उसे वतनपरस्ती, समाजी शऊर और इंसानी जज़्बात की तरजुमानी का ज़रिया बनाया। उनकी नज़्मों में जहां ग़ालिब की नफ़ासत, मीर अनीस का दर्द और आतिश की गर्मजोशी नज़र आती है, वहीं उनमें मुल्क-ओ-कौम के लिए बेइंतिहा मोहब्बत और समाजी इस्लाह का जज़्बा भी छलकता है।
ख़ानदान और तालीम की बुनियाद
चकबस्त का पैदाइश 19 जनवरी 1882 को फ़ैज़ाबाद (आज का अयोध्या) में हुआ। उनका ख़ानदान कश्मीरी पंडितों से ताल्लुक रखता था, जो सदीयों पहले उत्तर भारत में आबाद हुआ था। उनके वालिद पंडित उदित नारायण चकबस्त एक पढ़े-लिखे शख़्स, शायर और उस वक़्त के आला ओहदे डिप्टी कलेक्टर पर फ़ाइज़ थे।
लेकिन तक़दीर को कुछ और मंज़ूर था—साल 1887 में वालिद का इंतिक़ाल हो गया और बच्चा चकबस्त महज़ पाँच साल की नाज़ुक उम्र में बाप की छाया से महरूम हो गया। इसके बाद ख़ानदान लखनऊ के मशहूर कश्मीरी मोहल्ला में जा बसा, जहाँ से उनके अदबी और तालीमी सफ़र की इब्तिदा हुई।
तालीमी सफ़र और पेशेवर ज़िंदगी
चकबस्त ने अपनी इब्तिदाई तालीम फ़ैज़ाबाद में पाई और फिर लखनऊ चले आए। 1900 में मैट्रिक, 1902 में एफ.ए., 1905 में बी.ए. और 1907 में एल.एल.बी. (कैनिंग कॉलेज, जो उस वक़्त इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से वाबस्ता था) मुकम्मल किया।
इल्म के साथ साथ उनकी ज़िंदगी में वकालत का पेशा आया और लखनऊ बार में उन्होंने अपनी मज़बूत पकड़ बना ली। वो न सिर्फ़ एक क़ाबिल वकील थे बल्कि समाजी और अदबी हलकों में भी उनकी शख़्सियत बड़ी मक़बूल थी।
चकबस्त ने नौजवानों को एकजुट करने और उनमें तहज़ीबी शऊर जगाने के लिए Kashmiri Young Men’s Association क़ायम की। साथ ही “बहादुर लाइब्रेरी” जैसी इदारे की बुनियाद रखकर इल्म-ओ-अदब को फ़रोग़ दिया।
अदबी सफ़र: शायरी का रंग-ओ-आब
चकबस्त ने अपनी शायरी का आग़ाज़ 1894 में एक नज़्म से किया। उन्हें बुनियादी तौर पर नज़्म निगार माना जाता है, लेकिन उन्होंने मसनवी, ग़ज़ल और ड्रामा तक भी क़लम आज़माई की।
उनका मशहूर शेर आज भी ज़बान-ए-ख़ल्क़ पर है:
ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़हूर-ए-तरतीब,
मौत क्या है इन्हीं अजज़ा का परेशां होना।
यह शेर ज़िंदगी और मौत के फ़लसफ़े को जिस सादगी और हिकमत के साथ बयान करता है, वो उन्हें उर्दू शायरी के बेमिसाल असातिज़ा की कतार में ला खड़ा करता है।
रमायण की पेशकश – उर्दू अदब में एक अनोखा तजुर्बा
चकबस्त का एक बड़ा कारनामा ये भी है कि उन्होंने रमायण जैसे हिंदू मज़हबी और तहज़ीबी दास्तान को उर्दू की नफ़ीस ज़बान में ढाल कर अदब का हिस्सा बना दिया। उनकी तीन नज़्में—
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Ramayan ka ek Scene
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Maa ka Jawaab
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Banwas Hone Par Ayodhya Nagri Ki Haalat
इनमें ममता, क़ुर्बानी और ग़म-ओ-ख़ुशी के वो रंग हैं, जो मीर अनीस के मरसिये की याद दिलाते हैं।
अहम अदबी तसानीफ़
चकबस्त की अहम किताबें और मज़ामीन:
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Subh-e-Watan – जिसमें वतनपरस्ती का जोश, समाजी इस्लाह की पुकार और इंसानी जज़्बात की अक्सबंदी मौजूद है।
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Khak-e-Hind
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Gulzar-e-Naseem (मसनवी)
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Nala-e-Dard और Nala-e-Yaas
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ड्रामा: Kamla
उनकी तमाम तसानीफ़ को बाद में Kulliyat-e-Chakbast और Maqalaat-e-Chakbast की शक्ल में शाया किया गया।
सियासी शऊर और समाजी जद्द-ओ-जहद
चकबस्त सिर्फ़ शायर नहीं थे, वो एक वतनपरस्त और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने होम रूल मूवमेंट (1916–1918) में पुरज़ोर हिस्सा लिया और मुल्क की आज़ादी की जद्द-ओ-जहद को अपनी आवाज़ दी।
साथ ही, उन्होंने कश्मीरी पंडित बिरादरी में इस्लाह की मुहिम चलाई। धरम सभा और बेशेन सभा के झगड़ों को मुतवाज़िन करने की कोशिश की और नौजवानों को इल्म और अदब की तरफ़ मुतवज्जोह किया।
इंतिक़ाल और विरासत
12 फरवरी 1926 को, चकबस्त अचानक राइबरेली रेलवे स्टेशन पर गिर पड़े और कुछ ही घंटों में 44 बरस की उम्र में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए।
उनकी मौत ने उर्दू अदब को गहरी चोट पहुँचाई, लेकिन उनका छोड़ा हुआ अदबी ख़ज़ाना आज भी ज़िंदा है। 2015 की मशहूर फ़िल्म मसान में उनके अशआर का इस्तेमाल इस बात का सबूत है कि उनका असर आज भी नौजवान दिलों तक पहुँचता है।
चकबस्त की शायरी ,ग़ज़लियात,नज़्में
तब्सरा:-
ब्रिज नारायण ‘चकबस्त’ सिर्फ़ एक शायर नहीं थे, बल्कि वह एक ऐसी अदबी आवाज़ थे जिनमें वतन की मोहब्बत, इंसानियत की कसक और लफ़्ज़ों की शफ़्फ़ाफ़ी झलकती थी। उनकी शायरी में दर्द भी है और दवा भी; जज़्बा भी है और रूहानी सुकून भी। उन्होंने उर्दू अदब को न सिर्फ़ ज़ेवर बख़्शा, बल्कि उसे वतनपरस्ती और इंसानी हमदर्दी का आईना बना दिया।