पैदाइश और इब्तेदाई ज़िंदगी
15 नवम्बर 1959 की दीवाली के दिन, उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर लखीमपुर खीरी में एक ऐसी लड़की ने जन्म लिया जो सिर्फ़ एक लड़की नहीं थी — वो एक नज़्म थी, एक ख़्वाब की ताबीर थी। उनके वालिद श्री विष्णु स्वरूप पांडे साहब, उत्तर प्रदेश सरकार की म्युनिसिपल सर्विस में एक इज़्ज़तमंद ओहदे पर फ़ायज़ थे। वो अदब के शौक़ीन, फन के क़द्रदान और ज़ौक़-ए-फ़न के मालिक थे। उनकी वालिदा श्रीमती कांती पांडे, जो शादी के वक़्त सिर्फ़ आठवीं जमात तक तालीमयाफ़्ता थीं, मगर इल्म और तालीम की प्यास ने उन्हें आगे बढ़ाया — उन्होंने बाद में हिन्दी अदब में एम.ए. मुकम्मल किया।
इस अदबी और तालीमी माहौल में वो छोटी सी बच्ची धीरे-धीरे एक ख़्वाब देखने वाली लड़की बनी, फिर एक बेचैन ख़ातून जिसने अपने एहसासात को अशआर में ढालना शुरू किया। वो हर जुमले, हर मिसरे को तराशती रही — ताकि अपनी ज़िन्दगी की धड़कनों को एक लय और म'अनी मिल सके। उनके वालिद की तबादले वाली नौकरी ने उन्हें मुख़्तलिफ़ इलाक़ों और लोगों से रूबरू कराया। यही तजुर्बे उनके तसव्वुरात, ख़्वाबों और ख्वाहिशों को निखारते गए — और यूँ वो ज़िन्दगी की तर्ज़ुमान बन गई, जो हर जज़्बे को शेर में ढाल देती थी।
बचपन और तख़्लीक़ की शुरुआत
अपनी उम्र-ए-नौजवानी में जब एहसासात पहली बार दिल के दरीचों से झाँकने लगे, तो उनका अपने जज़्बात को डायरी के बेशुमार सफ़्हों पर उतारना शुरू किया — वो सफ़्हे जो आज भी दुनिया की निगाहों से महफ़ूज़ हैं। उन पन्नों पर कभी स्कूल के दिन थे, कभी दोस्तों और ख़ानदान के लम्हे, और कभी वो ख़्वाब — जो वो जीना चाहती थी मगर सिर्फ़ लिखकर जी पाती थी।
सादा नस्र से शुरू हुई उनकी तख़्लीक़ की राह, फ़न की ओर मुड़ गई — कभी स्केच पेन से लकीरें खींचती, कभी पेंसिल से ख़्यालों को शकल देती। कुछ तसवीरें बयान करतीं, कुछ रम्ज़ो-इशारे में छिपी रहतीं। उनका ये फ़न-परस्त मिज़ाज उन्हें ए. डी. इंटर कॉलेज, गोरखपुर के नाटकों और अतिरिक्त सरगर्मियों की जान बना गया, जहाँ से उन्होंने अपनी हाई स्कूल की तालीम मुकम्मल की। बाद में क्रॉसथवेट गर्ल्स इंटर कॉलेज, इलाहाबाद से इंटर की डिग्री हासिल की।
हर कमसिन दिल की तरह वो भी जज़्बात के समुंदर में डूबती-उभरती रही — ख़ुशी एक किनारे थी, नाउमीदी दूसरा। इन्हीं लहरों ने उन्हें एहसास दिया कि दर्द और मुस्कुराहट दोनों ही अदब के अफ़साने हैं। जो बातें वो समझती थी मगर जहाँ को समझा नहीं पाती थी, इसी कश्माकाश में उनके अंदर एक शायरा पनप गयी दीप्ती की डायरी के अल्फ़ाज़ अब नज़्मों का रूप लेने लगे। उस वक़्त उन्हें ये एहसास न था कि उनके लिखे लफ़्ज़ों में रूह उतर चुकी है —
मगर वो जानती थी कि हर लफ़्ज़ उनके दिल का आईना है, उनकी अभिव्यक्ति का असल वजूद है।
फ़नकार की तलाश
दीप्ती मिश्रा डायरी के सन्नाटे से बाहर निकलने का पहला क़दम सन 1979 में उठा, जब दीप्ती मिश्राऑल इंडिया रेडियो के लिए एक ड्रामा ऑडिशन दिया — और मंज़र-ए-आम पर आ गई। किस्मत ने मुस्कुराकर उनका हाथ थाम लिया — वो मशहूर ड्रामानिगार विनोद रस्तोगी की रहनुमाई में रेडियो नाटक और स्टेज प्ले करने लगी। यही वो पहला लम्हा था जब उनकी रूहानी फ़नकारी ने अपने होने की दस्तक दी।
वाराणसी — जहाँ गंगा की लहरों में सदीयों की तहज़ीब बहती है — वहीं दीप्ती मिश्रा बसेन्टा कॉलेज, राजघाट से अपनी ग्रेजुएशन मुकम्मल की। यहीं से उनकी ज़िन्दगी ने एक नया रुख़ लिया — एक ऐसा सफ़र उनकी न तो कोई पारिवारिक विरासत थी, न कोई रास्ता दिखाने वाला, मगर एक अटूट इरादा ज़रूर था।
इस सफ़र में वो गिरी भी, टूटी भी, रोई भी — मगर हर बार अपने ख़ुद-एहतरामी और ग़ुरूर को थामे, आगे बढ़ती रही। वो सीखती रही, ढूँढती रही, बदलती रही — अपने अंदर की शख़्सियत को बार-बार नया रूप देती रही।
और यूँ ही, हर गिरने के बाद उठते हुए, उन्होंने एहसासात को नया मआनी देना सीखा — उनकी हर नज़्म, हर मिसरा अब सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं रहे, बल्कि उनके तजरबे, उनके अश्क़ और उसकी तख़्लीक़ की गवाही बन गए।
एक नई मंज़िल की तरफ़
बेदारी-ए-ज़ोक-ओ-फन
अब तक दीप्ति अपने लिए, अपने एहसासात के लिए लिख रही थीं, मगर उन्हें अभी तक इस बात का एहसास नहीं था कि उनके अंदर एक शायरा की रूह जाग रही है। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात डॉ. कंवर बेचैन जैसे अदब के गुरुकुल, से हुई। दीप्ति ने अपने लिखे हुए कुछ अशआर उन्हें दिखाए और उनसे अपनी तख़्लीक़ पर राय माँगी। डॉ. कंवर बेचैन ने उनके अंदर अदब का हीरा पहचान लिया — एक ऐसी सलाहियत जो बस सलीक़े की रहनुमाई चाहती थी। उन्होंने दीप्ति को मशवरा दिया कि वो अपनी तख़्लीक़ को ग़ज़ल के रंग में ढालें, ताकि उनके अल्फ़ाज़ को एक सुर और मआनी मिल सके।
मार्च 1986 में उनकी पहली नज़्म “सतीत्व” शाया हुई, जो बाद में उनके मजमूआ-ए-कलाम “है तो है” में शामिल की गई। जब नब्बे का दशक शुरू हुआ, दीप्ति ने बाक़ायदा ग़ज़लें कहना शुरू कर दिया — और बहुत जल्द उन्हें एक नई ताज़गी की हवा समझा जाने लगा।
इसी दौर में उनकी मुलाक़ात मंगल नदीम से हुई — एक नामवर उर्दू अदबी हस्ती, जिन्होंने न सिर्फ़ दीप्ति की तकनीकी सलाहियत को निखारा, बल्कि उनके एहसासात की गहराई को भी समझा। अगस्त 1993 में उनकी पहली ग़ज़ल “नींद को आँखों में आना था कि आँसू आ गए” शाया हुई, जो आगे चलकर उनके मजमूआ “बर्फ़ में पलटी हुई आग” का हिस्सा बनी।
ज़िन्दगी के इम्तेहान और तन्हाई के उस सफ़र को उनकी पहली तस्कीन तब मिली जब 1997 में उनकी पहली किताब “बर्फ़ में पलटी हुई आग” मंजर-ए-आम पर आई। इस किताब की रिहाई मशहूर “कदम्बिनी” रिसाले के एडिटर डॉ. राजेन्द्र अवस्थी के हाथों हुई — और यही ज़िन्दगी का अजब तज़ाद था। वही “कदम्बिनी” जिसने कभी उनकी ग़ज़ल को छापने से इंकार किया था, अब ख़ुद उनसे उनकी ग़ज़ल को अपने रिसाले के लिए माँग रही थी।
अब दीप्ति का नाम अदबी दुनिया में रौशन हो चुका था — और पीछे मुड़कर देखने का कोई सवाल न रहा।
जैसे-जैसे उनके कलाम को पहचान मिलती गई, उन्हें कवि सम्मेलनों में बुलावा आने लगा। मगर बहुत जल्द उन्होंने महसूस किया कि ये मंच अक्सर गुटबाज़ी और सिफ़ारिशों के साए में पलते हैं, जहाँ शायर की क़ीमत उसके हुनर से ज़्यादा उसके तअल्लुक़ात से आँकी जाती है।
दीप्ति ने उस भीड़ का हिस्सा बनने से इंकार किया। उन्होंने अपनी इज़्ज़त-ए-नफ़्स और अदबी शऊर को सलामत रखते हुए, उस दौड़-ए-बे-मंज़िल से किनारा किया — और अपनी पूरी तवज्जोह ख़ालिस तख़्लीक़ और अदबी रिसालों में इज़्हार पर मर्कूज़ कर दी।
और यूँ, दीप्ति ने अपने लिए वो रास्ता चुना जहाँ नाम से नहीं, फ़न से पहचान बनती है — और जहाँ हर शेर एक दास्तान बन जाता है।
अदाकारा का उरूज
लिखने के अलावा दीप्ति में अदाकारी का हुनर भी कम न था। वो आकाशवाणी और दूरदर्शन की ग्रेडेड आर्टिस्ट थीं — और यही सिलसिला उन्हें दिल्ली दूरदर्शन के कई धारावाहिकों तक ले गया। कैमरे के सामने उनकी फनकारी की चमक ऐसी थी कि उन्होंने अपने दिल के एक और पहलू को पहचान लिया — और फिर उन्होंने फ़ैसला किया कि अब मुंबई का रुख़ किया जाए, ताकि अदब की दुनिया से आगे, वो फ़न की तसवीर को नज़र की ज़बान में ढाल सकें।
शायरा अब अदाकारा बन चुकी थीं। टीवी सीरियल्स में काम करते हुए, उन्होंने अपने अंदर के रंग-ब-रंग हुनर को खुलकर जीया — वो जो बरसों से उनके अंदर करवटें ले रहा था।
इस दौरान जब वो कवि सम्मेलनों में फिर से बुलाए जाने लगीं, तब तक उनका नाम अदबी दुनिया में एक मुकम्मल पहचान हासिल कर चुका था। मुंबई में एक अदबी महफ़िल के दौरान उनकी मुलाक़ात राजश्री प्रोडक्शन के राजकुमार बड़जात्या से हुई। उन्होंने दीप्ति से अपने प्रोजेक्ट्स के लिए लिखने की दरख़्वास्त की, मगर दीप्ति के लिए ख़लूस और आज़ादी सबसे बड़ी शर्त थी — इसलिए उन्होंने बांधे हुए अल्फ़ाज़ों में लिखने से इंकार कर दिया।
लेकिन तक़दीर ने उन्हें वहीं से एक और राह दी — बाद में उन्होंने राजश्री प्रोडक्शन के मशहूर टीवी सीरियल “वो रहने वाली महलों की” के तमाम गीत लिखे, जो बहुत मक़बूल हुए।
एक तरफ़ शायरा दीप्ति अपनी नज़्मों, ग़ज़लों और अशआर से दिलों को छू रही थीं, तो दूसरी तरफ़ अदाकारा दीप्ति छोटे परदे पर अपनी मौजूदगी से नज़रें बाँध रही थीं। उन्होंने कई चर्चित धारावाहिकों में काम किया — “जयम पर बसेरा हो”, “कुंती”, “उर्मिला”, “क़दम”, “हक़ीक़त”, “कुमकुम”, “घर एक मंदिर” और “शगुन” — और इनमें से कई के थीम सॉन्ग्स भी ख़ुद लिखे।
उनकी ज़िन्दगी का हर मुकाम अगले मुक़ाम की बुनियाद बनता गया। और फिर दीप्ति ने सबको हैरान कर दिया जब उन्होंने फ़िल्म “तनु वेड्स मनु” में अभिनय किया — जहाँ उनके किरदार ने सबका दिल जीत लिया। इसके बाद उन्होंने उसी जोश और शिद्दत से “तनु वेड्स मनु रिटर्न्स” में अपना किरदार दोहराया — जो बॉक्स ऑफ़िस पर ज़बरदस्त कामयाब रही।
यूँ दीप्ति मिश्रा ने एक बार फिर साबित किया — कि जब फ़न दिल से निकले, तो हर ज़मीन उसकी ज़ुबान बन जाती है।
उर्दू अदब की दुनिया में पहचान
दीप्ति मिश्रा का अदबी सफ़र उस वक़्त अपनी असल बुलंदी पर पहुँचा, जब उन्होंने रायपुर के एक मुशायरे में पहली बार अपने कलाम से महफ़िल को रोशन किया। उस मुशायरे में क़ैसरुल जाफ़री, निदा फ़ाज़ली, हसन कमाल, और अब्दुल अहद साज़ जैसे उर्दू अदब के अज़ीम नाम मौजूद थे। दीप्ति ने जब अपनी ग़ज़लें पढ़ीं, तो पूरी महफ़िल ख़ामोश होकर सुनती रही — और फिर तारीफ़ों की गूंज में डूब गई। उर्दू अदब के इन दिग्गजों ने उनके कलाम को तह-ए-दिल से सराहा।
ये पल सिर्फ़ एक कामयाबी नहीं था, बल्कि उस मर्द-ग़ालिब मुशायरे की दुनिया में दीप्ति का अस्तित्व दर्ज हो गया, जहाँ शायराएँ अक्सर महज़ “महमान” समझी जाती थीं। लेकिन दीप्ति ने वहाँ अपने फ़न से अपनी जगह बनाई — बराबरी की, इज़्ज़त की और क़द्र की।
साल 2005 में उनकी दूसरी किताब “है तो है” शाया हुई, जिसकी इज्रा (Inauguration) पंडित जसराज जी जैसे संगीत के महा-गुरु के हाथों हुई। उसी मौक़े पर उन्होंने पहली बार दीप्ति की मशहूर ग़ज़ल “है तो है” को अपने तरन्नुम में पेश किया — और वो ग़ज़ल उनके नाम की पहचान बन गई। इस किताब ने दीप्ति मिश्रा को अदबी दुनिया की चमकता हुआ सितारा बना दिया।
फिर आया साल 2008 — जो दीप्ति के लिए बेहद ख़ास साल साबित हुआ। उसी साल उनका उर्दू ग़ज़लों और नज़्मों का मजमूआ “बात दिल की कह तो दे” शाया हुआ, जिसे उर्दू अदब के हल्क़ों में गर्मजोशी से क़ुबूल किया गया। इसी साल उनका एल्बम “हसरतें” भी जारी हुआ — जिसमें ग़ज़ल-नवाज़ ग़ुलाम अली और कविता कृष्णमूर्ति ने उनकी लिखी ग़ज़लें गाईं। हाल ही में हरीहरन ने भी उनके कलाम को अपनी आवाज़ में सजाया — अपने एल्बम “हाज़िर 2” के लिए।
उनका नाम अब मुशायरों की सरज़मीन से लेकर सुरों की महफ़िलों तक गूंजने लगा। भारतीय दूतावासों द्वारा आयोजित दुबई, जेद्दाह, रियाद और बहरीन के मुशायरों में उन्हें दावत-ए-ख़ास दी गई — जहाँ उन्होंने अपने कलाम से उर्दू अदब का परचम बुलंद किया।अब कोई शक नहीं रहा
दीप्ति मिश्रा पहुँच चुकी थीं उस मंज़िल पर, जहाँ महफिलें ख़ुद उनके नाम से रौशन होती है।
दीप्ती मिश्रा की शायरी, ग़ज़लें नज़्मे
ग़ज़ल -1
मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया
बस इतनी सी बात हुई थी साथ हमारा छूट गया
वो मेरा है आख़िर इक दिन मुझ को मिल ही जाएगा
मेरे मन का एक भरम था कब तक रहता टूट गया
दुनिया भर की शान-ओ-शौकत ज्यूँ की त्यूँ ही धरी रही
मेरे बै-रागी मन में जब सच आया तो झूट गया
क्या जाने ये आँख खुली या फिर से कोई भरम हुआ
अब के ऐसे उचटा दिल कुछ छोड़ा और कुछ छूट गया
लड़ते लड़ते आख़िर इक दिन पंछी की ही जीत हुई
प्राण पखेरू ने तन छोड़ा ख़ाली पिंजरा छूट गया
ग़ज़ल -2
ग़ज़ल -3
ग़ज़ल -4
नज़्म -1
तब्सरा:-
दीप्ति मिश्रा — एहसासात की शायरा, ज़िन्दगी की तर्जुमान
दीप्ति मिश्रा की ज़िन्दगी किसी आम औरत की कहानी नहीं, बल्कि एक रूह की सफ़रनामा है — जो एहसास से शुरू होकर फ़न की बुलंदियों तक जाती है। उनका बचपन, तालीमी माहौल, और अदब से रूहानी लगाव — इन सब ने मिलकर एक ऐसी शख़्सियत गढ़ी जो लफ़्ज़ों में ज़िन्दगी की धड़कन महसूस कर सकती थी।
उनके वालिद का अदबी ज़ौक़ और वालिदा की तालीमी लगन, दरअसल दीप्ति के फ़न की दो मजबूत बुनियादें साबित हुईं। इन्हीं नींवों पर उन्होंने अपनी तख़्लीक़ का महल बनाया — जिसमें हकीकत और ख़्वाब, दोनों की रोशनी झलकती है।
दीप्ति के शुरुआती तख़्लीक़ी दौर में जो मासूमियत और तड़प है, वो बाद की ग़ज़लों में तज़िया और तफ़क्कुर में ढल जाती है। उनकी डायरी के ख़ामोश सफ़्हे बाद में बोलती हुई नज़्में बने — और यही वो पल था जब एक लड़की “दीप्ति” से “शायरा दीप्ति मिश्रा” बन गई।
उनकी ज़िन्दगी का हर मोड़ — इल्म से अदब तक, अदाकारी से ग़ज़लगोई तक — दरअसल एक तलाश का सिलसिला है। एक ऐसी तलाश जो अपने होने की तसदीक़ चाहती थी, मगर किसी की मोहताज़ नहीं थी। यही वजह है कि उन्होंने हर दायरे को तोड़कर अपने फ़न के लिए नई ज़मीन तलाश की।
डॉ. कंवर बेचैन और मंगल नदीम जैसे उस्तादों की रहनुमाई में, उनके अल्फ़ाज़ों ने तकनीकी पुख़्तगी और एहसास की गहराई दोनों हासिल कीं। और जब “नींद को आँखों में आना था कि आँसू आ गए” जैसी ग़ज़लें शाया हुईं, तो उर्दू अदब को एक नई आवाज़ मिली — एक ऐसी आवाज़ जिसमें नरमी भी थी और नुमायंदगी भी।
उनका फ़न सिर्फ़ अशआर में नहीं, अदाकारी में भी चमकता है। उन्होंने दिखाया कि अदब और अदाकारी दो अलग रास्ते नहीं, बल्कि एक ही मंज़िल की दो सूरतें हैं। दीप्ति की हर पेशकश — चाहे वो रेडियो ड्रामा हो, टीवी सीरियल हो या ग़ज़ल — उसमें रूह की सच्चाई और अंदाज़ की शाइस्तगी दोनों मिलती हैं।
उर्दू अदब के मैदान में उनकी मौजूदगी, ख़ास तौर पर रायपुर के मुशायरे में, एक नई तहरीक़ की शुरुआत थी। जहाँ औरत को सिर्फ़ सुनने तक सीमित किया जाता था, वहाँ दीप्ति ने अपनी आवाज़ से सुनने वालों को ख़ामोश कर दिया। यही वो मुकाम था जहाँ उन्होंने साबित किया कि उर्दू अदब का आसमान अब सिर्फ़ मर्दों का नहीं रहा — वहाँ अब एक “दीप्ति” भी है, जो अपने फ़न से सूरज की तरह चमकती है।
उनका सफ़र “बर्फ़ में पलटी हुई आग” से लेकर “है तो है” और “बात दिल की कह तो दे” तक, इंसान के अंदर के तज़ादात की कहानी है — प्यार और दर्द, ख़्वाब और हक़ीक़त, रुकावट और रवानी।
और यही दीप्ति मिश्रा का फ़न है — ज़िन्दगी के अजब तज़ाद को ख़ूबसूरती में बदल देना।
दीप्ति आज भी अपने लफ़्ज़ों से साबित करती हैं कि शायरी सिर्फ़ बयान नहीं, बयान से आगे की दुनिया है — जहाँ लफ़्ज़ रूह बन जाते हैं और रूहें असर। ये भी पढ़ें
और यही दीप्ति मिश्रा का फ़न है — ज़िन्दगी के अजब तज़ाद को ख़ूबसूरती में बदल देना।
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