Maulana Jalaluddin Rumi Poet:रूमी की रूहानी दुनिया: जहाँ इश्क़, फ़लसफ़ा और इंसानियत एक हो जाते हैं


मौलाना जलालुद्दीन रूमी — इश्क़, मा’रिफ़त और रूहानियत का अबदी इस्तिआरा

मौलाना जलालुद्दीन मुहम्मद बल्ख़ी रूमी (30 सितम्बर 1207 – 17 दिसम्बर 1273) तसव्वुफ़, फ़लसफ़े, इश्क़-ए-हक़ीकी और इंसानी रूह की गहराइयों के शायर थे। आपका ताल्लुक ख़ुरासान के मशहूर शहर बल्ख़ से था — वही सरज़मीन जहाँ से बे-शुमार अहल-ए-दिल और आरिफ़ान-ए-हक़ ने जन्म लिया।
रूमी का नाम आते ही ज़ेहन में वो सदाएं रक़्स करती रूह उभर आती है जो कहती है 


“बिशनव अज़ ने चून हिकायत मीकुनद,
अज़ जुदाईहा शिकायत मीकुनद…”

यह सिर्फ़ एक शेर नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत की रूहानी पुकार है।


 शुरुआती ज़िंदगी और तालीम

रूमी के वालिद शेख़ बहाउद्दीन वलद अपने ज़माने के जलीलुल-क़दर आलिम, फ़क़ीह और सूफ़ी थे। उनकी इल्मी वजाहत के सबब बड़े-बड़े उलमा और उमरा उनसे फ़तवे लेने और रूहानी रहनुमाई हासिल करने आते थे। सियासी इख़्तिलाफ़ात की वजह से शेख़ बहाउद्दीन ने बल्ख़ छोड़ने का फ़ैसला किया। अपने ख़ानदान और तीन सौ मुरीदों के साथ उन्होंने हिजरत का सफ़र शुरू किया।
इस रूहानी सफ़र के दौरान वो निशापुर पहुंचे, जहाँ उस वक़्त के अज़ीम सूफ़ी ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन अत्तार से मुलाक़ात हुई। उस वक़्त जलालुद्दीन की उम्र सिर्फ़ छह साल थी।
अत्तार ने नन्हे रूमी को देखकर फ़रमाया —

“यह बच्चा एक दिन रूहानियत का आफ़ताब बनेगा।”
उन्होंने अपनी मशहूर तसनीफ़ मसनवी अत्तार भी बतौर तोहफ़ा रूमी को दी, जो बाद में मसनवी-ए-मनवी की बुनियाद बनी।


 हिजरत, निकाह और इल्मी सफ़र

रूमी का ख़ानदान बाद में बग़दाद, मक्का, शाम और मलतिया की सैर करता हुआ रूम (मौजूदा तुर्की) के शहर क़ोन्या पहुँचा, जहाँ सुल्तान अलाउद्दीन कैक़बाद ने उनका बहुत इज़्ज़त से इस्तेक़बाल किया।
18 बरस की उम्र में रूमी का निकाह एक मुअज्ज़ज़ ख़ानदान की ख़ातून से हुआ। यही वो दौर था जब उनके बातिन में इल्म और मा’रिफ़त के चिराग़ जलने शुरू हुए।
अपने वालिद के इंतिक़ाल के बाद उन्होंने अपने मरشد सैयद बरहानुद्दीन मुहक्किक़ तिरमिज़ी से ज़ाहिरी व बातिनी उलूम हासिल किए, और फिर दमिश्क़ और हल्ब में तक़रीबन पंद्रह बरस तक आला तालीम हासिल की।


 शम्स-ए-तबरेज़ी से मुलाक़ात — इश्क़ की आग

रूमी की ज़िंदगी का सबसे इनक़लाबी लम्हा वो था जब उनकी मुलाक़ात शम्सुद्दीन तबरेज़ी से हुई।
यह मुलाक़ात गोया आरिफ़ के दिल में इश्क़-ए-इलाही की बिजली बनकर गिरी।
शम्स ने उनके बातिन के बंद दरवाज़े खोल दिए और रूमी में एक मस्ताना, आशिक़-ए-रब्बानी की रूह जाग उठी।
रूमी ने फ़रमाया था 

“मैं क़बल-अज़-शम्स आलिम था,
शम्स के बाद आशिक़ हो गया।” 

इसी इश्क़ के असर से उनकी शायरी में वो वज्द, वो सोज़, वो रक़्स पैदा हुआ जिसने दुनिया को समा और गिर्दान-ए-दरवेश की रूह से वाक़िफ़ कराया।

उन्होंने शम्स की याद में अपनी मशहूर तसनीफ़ दीवान-ए-शम्स-ए-तबरेज़ी लिखी, जो इश्क़-ए-हक़ीकी की लाजवाब गवाही है।


 तसनीफ़ात और इल्मी ख़िदमात

मौलाना रूमी की तसनीफ़ात न सिर्फ़ फ़ारसी अदब का नायाब ख़ज़ाना हैं बल्कि रूहानी फ़लसफ़े की अबदी बुनियाद भी। उनकी नामवर तसनीफ़ें ये हैं —

  1. मसनवी-ए-मनवी — छह जिल्दों पर मुश्तमिल वो तसनीफ़ जिसे “क़ुरआन-ए-फ़ारसी” कहा जाता है। इसमें तसव्वुफ़, अख़लाक़, इश्क़-ए-हक़ीकी और मा’रिफ़त-ए-इलाही के रुमूज़ बयान हुए हैं।

  2. दीवान-ए-शम्स-ए-तबरेज़ी — रूह की सदा, इश्क़ का इज़्तिराब और विसाल की आरज़ू का कलाम।

  3. फ़ीहि मा फ़ीहि — उनके ख़ुत्बात और रूहानी गुफ़्तगूओं का मजमूआ।

उनकी शायरी में क़ुरआनी हिकमत, फ़लसफ़ियाना गहराई और इश्क़ की लताफ़त एक साथ झलकती है।


 रूमी का फ़लसफ़ा-ए-इश्क़ व वहदत

रूमी के नज़दीक काइनात की असल मोहब्बत है। उनका पैग़ाम था —

“इश्क़, ख़ालिक़ और मख़लूक़ के दरमियान वाहिद पुल है।”
उनके नज़दीक मज़हब, रंग, ज़ुबान या क़ौम की कोई क़ैद नहीं। उनकी तालीमात इंसान को इंसान से जोड़ती हैं और ख़ालिक़ से विसाल का रास्ता दिखाती हैं।


 विसाल-ए-अबदी

1273 ई. में जब आपका वक़्त-ए-रुख़्सत क़रीब आया तो आपने फ़रमाया —

“मेरे मरने के दिन को मेरी शादी का दिन कहो,
कि उस दिन मैं अपने महबूब-ए-हक़ीक़ी से मिलूँगा।”
यही वजह है कि हर साल 17 दिसम्बर को क़ोन्या में “शब-ए-ऊरूस” यानी “शब-ए-विसाल” मनाई जाती है — जहाँ दुनिया भर से आशिक़ान-ए-रूमी जमा होते हैं और समा  महफ़िलें इश्क़ के नूर से जगमगा उठती हैं।


 रूमी का पैग़ाम-ए-अबदी

रूमी की तालीमात आज भी इंसान को ये सिखाती हैं —

“दीन-ए-इश्क़ अज़ हमा दीन्हा जुदा स्त,
आशिक़ान रा मज़हब ओ मिल्लत खुदा स्त।”

उनका पैग़ाम सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि पूरी इंसानियत के लिए है — मोहब्बत, इत्तेहाद, रवादारी और रूहानी बेदारी का पैग़ाम।


मौलाना रूमी की शायरी/तख़लीक़ात 


ग़ज़ल 


मैं ने सुना है 'अज़्म-ए-सफ़र कर रहा है तू

'इश्क़-ए-हरीफ़-ओ-यार-ए-दिगर कर रहा है तू


तू अजनबी है दहर में दुश्मन है इक जहान

किस जा का क़स्द ख़स्ता-जिगर कर रहा है तू


तू मुझ से ख़ुद को छीन के बेगानों में न जा

चुपके से सू-ए-ग़ैर नज़र कर रहा है तू


ऐ चाँद चर्ख़ ज़ेर-ओ-ज़बर है तिरे लिए

मुझ को ख़राब-व-ज़ेर-ओ-ज़बर कर रहा है तू


पैमान-ओ-'अह्द मुझ से किए थे वो क्या हुए

क्या 'अह्द थे कि जिन से मफ़र कर रहा है तू


तेरे क़दम वजूद-ओ-'अदम से बुलंद हैं

फिर क्यों वुजूद ही से सफ़र कर रहा है तू


ऐ दोज़ख़-ओ-बहिश्त तिरे अम्र के ग़ुलाम

क्यों ये बहिश्त मुझ पे सक़र कर रहा है तू


है बस-कि आग जाँ मिरी तू फिर भी ख़ुश नहीं

क्यों रुख़ मिरा फ़िराक़ से ज़र कर रहा है तू


ग़म से स्याह चाँद हो गर रुख़ तिरा छुपे

क्यों चाँद के गहन का सफ़र कर रहा है तू


होता हूँ ख़ुश्क-लब मैं तिरी ख़ुश्क-रूई से

अश्कों से आँख क्यों मिरी तर कर रहा है तू

फ़ारसी क़लाम -1


मन अज़ आ'लम तू रा तन्हा गुज़ीनम
रवादारी कि मन ग़मगीं नशीनम
 
सारी दुनिया में से मैंने सिर्फ तुझे ही चुना है।
क्या तुमको यह अच्छा लगेगा कि मैं दुखी बैठा रहूँ ?

दिल-ए-मन चूँ क़लम अंदर कफ़-ए-तूस्त
ज़े-तूस्त अर शादमाँ व गर हज़ीनम

मेरा दिल तुम्हारी हथेली में क़लम की तरह है,
मेरा ख़ुश रहना  या दुखी रहना सब तुम पर ही मुन्हसिर है।

ब-जुज़ आंचे तू ख़्वाही मन चे ख़्वाहम
ब-जुज़ आंचे नुमाई मन चे बीनम

मेरी अपनी कोई चाहत नही , जो तुम्हारी चाहत है वही मेरी चाहत है?
जो  चीज़  तुम मुझे नहीं  दिखाओगे ,भला मैं  उसे  कैसे देख पाऊँगा?

गह अज़ मन ख़ार-रूयानी गहे गुल
गहे गुल बूयम व गह ख़ार चीनम

कभी तुम  मुझसे काँटे उगवाते हो तो कभी फूल,
मैं कभी  फूल सूँघता हूँ तो कभी काँटे चुनता हूँ।

मरा गर तू चुनाँ दारी चुनानम
मरा गर तू चुनीं ख़्वाही चुनीनम

अगर तुम मुझे वैसा  रखोगे  तो मैं वैसा ही रहूँगा,
अगर तुम मुझे ऐसा  रखोगे  तो मैं ऐसा ही रहूँगा।

चू तू पिन्हाँ शवी अज़ अहल-ए-कुफ़्रम
चू तू पैदा शवी अज़ अहल-ए-दीनम

अगर तुम मुझसे छुप  जाते हो तो मैं नास्तिक  हो जाता हूँ,
अगर तुम हाज़िर हो जाते हो  तो मैं धार्मिक हो जाता हूँ।

ब-जुज़ चीज़े कि दादी मन चे दारम
चे मी-जोई ज़े-जेब-ओ-आस्तीनम

तुमने जो कुछ दिया है, उसके अलावा मेरे पास कुछ नहीं है
तुम मेरे जेब और आस्तीन मैं फिर क्या तलाश कर रहे  हो?

फ़ारसी क़लाम -2


मालिक-उल-मुल्क ला शरीक लहू
वहदहू ला-इलाहा इल्ला हु

वह संसार का बादशाह है, उसका कोई साझीदार नहीं है,
वह एकाकी है, कोई उसके समान नहीं है।

आ'शिक़ाँ जान-ओ-दिल निसार कुनंद
बर सर-ए-ला-इलाहा इल्ला हु

’आशिक़ जान और दिल को निसार करते हैं,
ला-इलाहा-इलल्लाह के ऊपर।

मुस्तफ़ा याफ़्त दर शब-ए-मे'राज
ख़िलअ'त-ए-ला-इलाहा इल्ला हु

मुहम्मद  मुस्तफ़ा को मे’राज की रात
ला-इलाहा-इलल्लाह का लिबास मिला

बाग़बानान-ए-क़दीम-ए-लम-यज़ली
सिफ़तश ला-इलाहा इल्ला हु

पुराने अनश्वर  बाग़बानों की ख़ूबियाँ 
ला-इलाहा-इलल्लाह बयान की गई हैं

ख़ुश दरख़़्ते अस्त दरमियान-ए-जिनाँ
मेव:अश ला-इलाहा इल्ला हु

जन्नत में एक नायाब दरख़्त है,
जिसका फल ला-इलाहा-इलल्लाह है।

सूफि़याँ गर बहिश्त मी तलबन्द
ज़िक्र-ए-शाँ ला-इलाहा इल्ला हु

सूफ़ी लोग ईश्वर से स्वर्ग इसलिए  मांगते  हैं
कि वो  ला-इलाहा-इलल्लाह का सुमरन करते  है

मोमिनाँ रा नई'म शुद रोज़े
बरकतश ला-इलाहा इल्ला हु

मोमिनों को एक दिन
ला-इलाहा-इलल्लाह की अनंत बरकत हासिल होगी

'शम्स' तबरेज़ अगर ख़ुदा तलबी
ख़ुश बख़्वाँ ला-इलाहा इल्ला हु

फ़ारसी क़लाम -3


पीर-ए-मन-ओ-मुरीद-ए-मन शम्स-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन
फ़ाश ब-गोयम ईं सुख़न शम्स-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन

मेरे पीर, मेरे मुरीद, मेरे शम्स और मेरे ख़ुदा,
मैं यह बातसाफगोई से कह रहा हूँ, मेरे शम्स और मेरे ख़ुदा।

का'ब:-ए-मन-ओ-कुनिश्त-ए-मन दोज़ख़-ए-मन-ओ-बहिश्त-ए-मन
मुनिस-ए-रोज़गार-ए-मन शम्स-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन

मेरे का’बा मेरे अग्नि गृह, मेरी नर्क और मेरी जन्नत
मेरे दोस्त, मेरे शम्स और मेरे ख़ुदा

महव शुदम ब-पेश-ए-तू ता कै असर न-मांदम
शर्त-ए-अदब चुनीं बुवद शम्स-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन

मैं तुझ में इस कदर शामिल हो गया हूँ कि मेरा कुछ भी बाक़ी नहीं रहा,
यही भक्ति का भाव है, मेरे शम्स और मेरे ख़ुदा।

हूर-ओ-क़ुसूर रा ब-गो रुख़त बेरूँ कश अज़ बहिश्त
तख़्त बनेह कि मी-रसद शम्स-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन

हूरों से कहो कि अपने चेहरे जन्नत से बाहर निकालें
और तख़्त को हाज़िर करें, क्योंकि मेरा शम्स और मेरा ख़ुदा आ रहा है।

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फ़ारसी क़लाम -4


मुकर्रर कर्दन मुरीदाँ कि ख़ल्वत रा ब-शिकन

मुरीदों का मुकर्रर ’अर्ज़ करना कि ख़ल्वत को छोड़िए


जुम्ल: गुफ़्तंद ऐ हकीम-ए-रख़्नः जू
ईं फ़रेब-ओ-ईं जफ़ा बा-मा म-गो

सबने कहा, ऐ हकीम, ग़लत हिसाबी 
ये फ़रेब और ये ज़ुल्म, हमें न सुना

चार पा रा क़द्र ताक़त बार नेह
बर ज़'ईफ़ाँ क़द्र-ए-क़ुव्वत कार नेह

चौपाए पर, ताक़त के मुताबिक़ बोझ लाद
कमज़ोरों पर उनकी ताकत से काम डाल

दानः-ए-हर-मुर्ग़ अंदाज़ः वेस्त
सिलसिलः-ए-हर-मुर्ग़ अंजीरे केस्त

हर परिंदा का दाना उसके अंदाज़े के हिसाबसे  है
हर परिंदा की ख़ुराक अंजीर कब है

तिफ़्ल रा गर नाँ देही बर जा-ए-शीर
तिफ़्ल-ए-मिस्कीं रा अज़ आँ नाँ मुर्दः गीर

तू अगर बच्चे को दूध के बजाय रोटी दे
मिस्कीन बच्चा को उस रोटी से  मुर्दा समझ

चूँकि दंदानिहा बर आरद बा'द अज़ आँ
हम ब-ख़ुद तालिब शवद आँ तिफ़्ल-ए-नाँ

जब वो दाँत निकाल लेगा
तो उसका दिल ख़ुद ब-ख़ुद रोटी तलाश कर लेगा

मुर्ग़ पर ना-रुस्तः चुँ पर्रां शवद
लुक़्मः-ए-हर-गुर्बः-ए-दर्राँ शवद

जिस परिंदे के पर ना निकले हों जब वो उड़ेगा
हर दरिन्दा बिल्ली का लुक़मा बन जाएगा

चूँ बर आरद पर ब-पर्रद ऊ ब-ख़ुद
बे-तकल्लुफ़ बे-सफ़ीर-ए-नेक-ओ-बद

जब पर निकाल लेगा वो ख़ुद-ब-ख़ुद उड़ेगा
अच्छी, बुरी, सीटी के ब-ग़ैर, बिला-तकल्लुफ़

देव रा नुत्क़-ए-तू ख़ामुश मी कुनद
गोश मा रा गुफ़्त-ए-तू हुश मी कुनद

तेरी गुफ़्तुगू, शैतान को चुप कर देती है
तेरी गुफ़्तुगू हमारे कान को होश-मंद कर देती है

गोश मा होश अस्त चूँ गोया तुई
ख़ुश्क मा बहरस्त चूँ दरिया तुई

जब तू गोया होता है हमारे कान (हमा-तन)होश होते हैं
चूँकि तू दरिया है, हमारा ख़ुश्क भी समुंद्र है

बा-तु मा रा ख़ाक बेहतर अज़ फ़लक
ऐ समक अज़ तू मुनव्वर ता समक

तेरे साथ, हमारे लिए ज़मीन आसमान से बेहतर है
ऐ वो ज़ात कि तुझ जैसे सिमाक से समक तक रौशन है

बे-तु मा रा बर फ़लक तारीकियस्त
बा-तु ऐ माह ईं फ़लक तारीकियस्त

तेरे ब-ग़ैर हमारे लिए आसमान पर अँधेरा है
ऐ चाँद तेरे होते हुए ये ज़मीन कब अँधेरी है

सूरत-ए-रिफ़'अत बुवद अफ़्लाक रा
मा'नी-ए-रिफ़'अत रवान-ए-पाक रा

आसमानों को ज़ाहिरी बुलंदी हासिल है
पाक, रूह को मा’नवी बुलंदी हासिल है

सूरत-ए-रिफ़'अत बरा-ए-जिस्म-हास्त
जिस्म-हा दर पेश-ए-मा'नी इस्म-हास्त

जिस्मों को, ज़ाहिरी बुलंदी है
जिस्म, मा’नी के सामने (महज़) नाम हैं

तब्सरा:-

रूमी की शायरी 

रूह की रौशनी और इश्क़ का इंक़लाब

मौलाना जलालुद्दीन रूमी की शायरी को पढ़ना दरअसल इश्क़ की तह में उतरने जैसा है — वो इश्क़ जो सिर्फ़ इंसान और इंसान के दरमियान नहीं, बल्कि इंसान और उसके ख़ालिक़ के दरमियान पुल का काम करता है। उनकी शायरी में अल्फ़ाज़, मआनी के परदे नहीं हैं, बल्कि रूह की सच्चाई का आइना हैं। रूमी के अशआर में जो सोज़, जो वज्द, जो नूर है, वह किसी बाहरी इल्हाम का नहीं बल्कि उनके बातिन की गहराइयों में उठने वाली रूहानी लहरों का नतीजा है।

रूमी की शायरी का सबसे बड़ा कमाल उसका रूहानी इख़्तलात है — जहाँ तसव्वुफ़, फ़लसफ़ा और इश्क़ एक ही सिलसिले में बहते दिखाई देते हैं। उन्होंने “मसनवी-ए-मनवी” में जिस अंदाज़ से हक़ और इंसान के रिश्ते को बयान किया है, वो महज़ क़िस्सागोई नहीं, बल्कि फ़लसफ़ाना तजस्सुस की सबसे बुलंद सूरत है। हर कहानी में इश्क़ की एक नयी ताबीर है, हर ताबीर में एक नया क़ुरआनी तअम्मुल।

रूमी के यहाँ इश्क़ सिर्फ़ जज़्बा नहीं, बल्कि इल्म-ए-वजूद की बुनियाद है। वो इश्क़ को “क़ुदरत का हरकत-अफ़रोज़ अस्रार” कहते हैं — यानी वही ताक़त जो ज़र्रे-ज़र्रे को जिन्दा रखती है। उनकी नज़रों में इश्क़ “सफ़र” भी है और “मनज़िल” भी। यही वजह है कि उनकी शायरी में हिज्र का दर्द, विसाल की आरज़ू, और वजूद की तलाश — तीनों एक साथ साँस लेते हैं।

रूमी के अल्फ़ाज़ महज़ तसव्वुफ़ी इस्तिलाहात नहीं, बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू से वाबस्ता हैं। उनके यहाँ “रक़्स” सिर्फ़ जिस्म का नहीं, बल्कि रूह का इज़हार है। “समा” एक रस्म नहीं, बल्कि वह हाल है जिसमें इंसान अपने अहं से आज़ाद होकर हक़ में फ़ना हो जाता है। यही उनकी शायरी की वहदत-ए-वजूद की ख़ूबी है — जहाँ ख़ालिक़ और मख़लूक़ का फ़र्क़ मिट जाता है।

रूमी का लहजा न फ़क़त फ़ारसी अदब की शान है, बल्कि इंसानियत का तर्जुमान भी। उन्होंने इश्क़ को मज़हब की हदों से ऊपर उठाकर एक कॉस्मिक हक़ीक़त बना दिया। उनकी शायरी आज भी इस बात की गवाही देती है कि इंसान अगर अपने अंदर झाँके, तो ख़ुदा तक का रास्ता पा सकता है।

उनके कलाम की यह अबदी ख़ूबसूरती ही है कि सदियाँ बीत गईं, मगर रूमी आज भी ज़िंदा हैं — हर उस दिल में जो इश्क़, रूह और इंसानियत की तलाश में है।ये भी पढ़ें 

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